आदर्शवाद का अर्थ, परिभाषा, सिद्धांत/ आदर्शवाद क्या है

आदर्शवाद पाश्चात्य दर्शन की प्राचीन विचारधारा है। ज्ञान की किरण भारत के बाद यदि कहीं पहले प्रस्फुटित हुई तो वह यूनान (ग्रीस) देश में। यूनान पाश्चात्य दर्शन की गुरुस्थली है। ईसा की कई शताब्दी पूर्व वहाँ तत्व ज्ञान का विकास होने लगा था। पश्चिमी जगत में यूनानी दार्शनिक थेल्स 640-550 ई. पू. सबसे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस ब्रह्मांड की रचना के विषय में अपने तर्क प्रस्तुत किए। उनके बाद इटली के नोट दार्शनिक शैनोपेफनीज 570-480 ई. पू. ने अद्वैतवादी विचार प्रस्तुत किए। ये पश्चिमी जगत के सर्वप्रथम अद्वैतवादी एवं सर्वेश्वरवादी दार्शनिक थे। 

शैनोपेफनीज के बाद पश्चिमी दर्शन के क्षेत्र में यूनान के सुकरात 469-309 ई. पू. का नाम आता है। सुकरात भी आध्यात्मिक विचारधारा के व्यक्ति थे परंतु वे अपने इन विचारों को पुटकर रूप में यत्र-तत्र प्रकट करने तक सीमित रहे। उनके बाद पश्चिमी दर्शन के जगत में उनके ही शिष्य प्लेटो 427-347 ई. पू. का प्रादुर्भाव हुआ। वे यूनान के पहले दार्शनिक हैं जिन्होंने अपने दार्शनिक चिंतन को बड़े व्यवस्थित और तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

प्लेटो आत्मा-परमात्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते थे और यह मानते थे कि परमात्मा इस सृष्टि का नियामक कारण अर्थात् कर्ता है और विचार इसके उपादान कारण अर्थात् आधार हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि यह भौतिक जगत विचारों के जगत का प्रकटीकरण मात्रा है। उनका तर्क है कि भौतिक जगत परिणामशील है इसलिए यह नित्य नहीं हो सकता, सत्य नहीं हो सकता और विचारों का जगत परिणामशील नहीं है इसलिए वह नित्य है, सत्य है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि इन विचारों में एक दैवीय और नैतिक व्यवस्था होती है। विचारों की दैवीय एवं नैतिक व्यवस्था को स्वीकार करने और उन्हें शाश्वत मानने के कारण पश्चिमी जगत में उनकी इस विचारधारा को विचारवाद की संज्ञा दी गई। 

प्लेटो के बाद उनके शिष्य अरस्तु 384-321 ई. पू. ने उनकी इस विचारधारा को कुछ अपने ढंग से प्रस्तुत किया। उन्होंने विचारों के जगत के साथ-साथ वस्तुजगत के अस्तित्व को भी स्वीकार किया। 

अरस्तु को छोड़कर अन्य सभी के विचारों में दो मूलभूत तथ्य समान हैं। पहला यह कि ये सब ईश्वर को अंतिम सत्य मानते हैं और उसे ही इस सृष्टि का कर्ता मानते हैं। दूसरा यह कि ये सभी मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को पहचानना मानते हैं और यह मानते हैं कि यह तभी संभव है जब मनुष्य शाश्वत मूल्यों और नैतिक नियमों का पालन करें। शाश्वत मूल्यों और नैतिक नियमों में विश्वास करने के कारण अब इस विचारधारा को आदर्शवाद कहा जाता है। 

आदर्शवाद की तत्व मीमांसा

प्लेटो ने इस ब्रह्मांड को दो भागों में विभाजित किया है -विचार जगत और वस्तु जगत। विचारों को वे अनादि, अनंत और अपरिवर्तनशील मानते थे। उनकी दृष्टि से इन विचारों में एक दैवीय और नैतिक व्यवस्था होती है जिसकी सहायता से ईश्वर जगत का निर्माण करता है। विचारों को नैतिक व्यवस्था में विश्वास करने के कारण उनकी विचारधारा को नैतिक आदर्शवाद कहा जाता है। आत्मा को प्लेटो ईश्वर का नोट अंश मानते थे। इनके अनुसार आत्मा इस संसार में आने से पहले विचारों के जगत में रहती है इसलिए यहाँ आने के बाद यह विचारों के जगत में ही जाने की इच्छुक रहती है।

लाइबेनीज इस जगत के प्रत्येक पदार्थ में एक स्वतंत्र आध्यात्मिक तत्व-चिद्बिंदुओं की सत्ता स्वीकार करते थे। उनकी दृष्टि में यह वस्तु जगत अनेक चिद्¯बदुओं का योग है। अनेक चिद्¯बदुओं की सत्ता स्वीकार करने के कारण उनकी विचारधारा को बहुतत्ववादी आदर्शवाद कहा जाता है। बर्कले का मत है कि कोई भी वस्तु गुणों का समूह मात्रा होती है और गुणों की प्रतीति हमें आत्मा (मन,) के कारण होती है, वस्तु का अपने में कोई अस्तित्व नहीं होता। उनकी इस विचारधारा को आत्मनिष्ठ आदर्शवाद कहा जाता है।

कांट ने आत्मा (मन) के स्थान पर तर्कनाबुद्धि को वस्तु के ज्ञान का आधार माना है। उनके अनुसार ज्ञान पदार्थ से मन की ओर प्रकाशित नहीं होता, अपितु मन से पदार्थ की ओर प्रकाशित होता है। जब तक मन पदार्थ की ओर नहीं जाता, उस पदार्थ के प्रति ज्ञानेन्द्रियाँ क्रियाशील नहीं होतीं। ज्ञान प्राप्ति के संबंध में उन्होंने दूसरा तथ्य यह स्पष्ट किया कि इंद्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान वि शृंखलित होता है, उसे समन्वित करने का कार्य तर्कनाबुद्धि करती है, आत्मा नहीं। कांट की यह विचारधारा बुद्धिवाद  के नाम से विख्यात है।

इन सबके विपरीत हीगल द्वैतवादी हैं उन्होंने आत्मा (मन) और वस्तु ;पुद्गल, दोनों की स्वतंत्र सत्ता स्वीकार की है। हीगल के अनुसार आत्मा का चरम रूप परमात्मा है और वही वस्तु जगत का निर्माण करने वाला है। इसलिए उनकी विचारधारा को निरपेक्ष आदर्शवाद की संज्ञा दी जाती है।

आदर्शवाद की ज्ञान एवं तर्क मीमांसा

प्लेटो के अनुसार विचारों की दैवीय व्यवस्था और आत्मा-परमात्मा के स्वरूप को जानना ही सच्चा ज्ञान है। ज्ञान को उन्होंने तीन रूपों में बाँटा है इंद्रियजन्य, सम्मतिजन्य और ¯चतनजन्य। इंद्रियजन्य ज्ञान को वे असत्य मानते थे क्योंकि इंद्रियों द्वारा हम जिन वस्तुओं एवं क्रियाओं का ज्ञान प्राप्त करते हैं वे सब परिवर्तनशील और एतदर्श असत्य हैं। सम्मतिजन्य ज्ञान को वे आंशिक रूप में सत्य मानते थे क्योंकि वह भी अनुमानजन्य होता है और अनुमान सत्य भी हो सकता है, असत्य भी। उनके अनुसार चिंतनजन्य ज्ञान ही सत्य होता है क्योंकि वह हमें विचारों के रूप में प्राप्त होता है और विचार अपने में अपरिवर्तनशील और एतदर्श सत्य होते हैं। इस सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्लेटो ने नैतिक जीवन पर बल दिया है और नैतिक जीवन की प्राप्ति के लिए विवेक पर बल दिया है। इस प्रकार उनकी दृष्टि से ज्ञान का आधार विवेक होता है। 

बर्कले सत्य ज्ञान की प्राप्ति का आधार आत्मा (मन) को मानते थे। कांट ने आत्मा के स्थान पर तर्कनाबुद्धि को ज्ञान का आधार माना है। उनका तर्क है कि प्रत्यक्ष ज्ञान अव्यवस्थित होता है, तर्कनाबुद्धि से ही वह व्यवस्थित होता है।

आदर्शवाद की मूल्य एवं आचार मीमांसा

प्लेटो के अनुसार मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मानुभूति है। आत्मानुभूति के लिए वे तीन सनातन मूल्यों-सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् की प्राप्ति आवश्यक समझते थे और इन मूल्यों की प्राप्ति के लिए नैतिक जीवन जीने पर बल देते थे। नैतिक जीवन के लिए उन्होंने मनुष्य में चार सद्गुणों-संयम, धैर्य, ज्ञान और न्याय का होना आवश्यक माना है। उनका विश्वास है कि सद्गुण आत्मा के गुण हैं और जो मनुष्य इन्हें जितना अधिक प्राप्त कर लेता है वह उतना ही अधिक सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् की ओर बढ़ जाता है और अंत में आत्मानुभूति करने में सपफल होता है। बर्कले, कान्ट और हीगल आदि आदर्शवादियों ने भी नैतिक नियमों के पालन पर बल दिया है। उनके ये नैतिक नियम प्राकृतिक अथवा सामाजिक नियमों से उफपर आध्यात्मिक नियम हैं।

आदर्शवाद का अर्थ

आदर्शवाद अंग्रेजी के आइडियलिज्म का शाब्दिक अर्थ है। यह दर्शन की एक शाखा के लिये प्रयुक्त होता है। इस दर्शन में उच्च आदर्शों की बात की जाती है। इस दर्शन से सम्बंधित दार्शनिक विचार की चिरन्तन सत्ता में विश्वास करते हैं, अत: मूलत: यह दर्शन ‘‘विचारवादी दर्शन अथवा आइडियालिज्म’’ है। हिन्दी में उसका शब्दत: अनुवाद उभर आया। यद्यपि ‘‘विचारवाद’’ शब्द का प्रयोग करना उपयुक्त होता परन्तु शब्द की रूढ़ प्रकृति को ध्यान में रखकर यहां आदर्शवाद शब्द का प्रयोग किया जा रहा है।

आदर्शवाद के अनुसार सिर्फ विचार ही सत्य है इसके सिवा सत्य का अर्थ और रूप नहीं। हमारा हर व्यवहार मस्तिष्क से ही नियंत्रित होता है, इसलिये मस्तिष्क ही वास्तविक सत्य है भौतिक शरीर तो इसकी छाया मात्र है। मनुष्य वास्तव में आत्मा ही है। शरीर तो केवल इसका कवच मात्र ही है, जो नष्ट हो जायेगा यानि मनुष्य असल में आत्म रूपी सत्य है। 

पश्चात दर्शन में ये मनस के रूप में देखा गया। इसी को बुद्धि भी कहा गया विचार ही प्रमुख तत्व है। विचार मस्तिष्क देता है अत: इस प्रकार की विचारधारा विचारवादी या प्रत्ययवादी भी कहलायी और विश्वास करने वाले आध्यातमवादी कहलाये।

आदर्शवाद की परिभाषा 

आदर्शवाद को विद्वानों ने भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया है। यहाँ उन सब परिभाषाओं को प्रस्तुत करना
संभव नहीं। 

पाश्चात्य विद्वान हडेरसन द्वारा नोट दी गई परिभाषा से अधिकतर विद्वान सहमत हैं। उनके शब्दों में-  आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है, क्योंकि आदर्शवादियों के अनुसार आध्यात्मिक मूल्य मनुष्य और जीवन के सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। एक तत्वज्ञानी आदर्शवादी यह विश्वास करता है कि मनुष्य का सीमित मन उस असीमित मन से निकलता है, व्यक्ति और यह संसार दोनों बुद्धि (विचार) की अभिव्यक्ति हैं और भौतिक संसार की व्याख्या मानसिक संसार के आधार पर की जा सकती है।

गुड महोदय के अनुसार- ‘‘आदर्शवाद वह विचारधारा है, जिसमें यह माना जाता है, कि पारलौकिक सार्वभौमिक तत्वों, आकारों या विचारेां में वास्विकता निहित है और ये ही सत्य ज्ञान की वस्तुएं है जबकि ब्रह्म रूप मानव के विचारों तथा इन्द्रिय अनुभवों में निहित होते हैं, जो विचारों की प्रतिच्छाया के अनुरूप के समान होते हैं।’’

रोजन- ‘‘आदर्शवादियों का विश्वास है कि ब्रह्माण्ड की अपनी बुद्धि एवं इच्छा और सब भौतिक वस्तुओं को उनके पीछे विद्यमान मन द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है।’’

हार्न के अनुसार- ‘‘आदर्शवादियों का सार है ब्रह्माण्ड, बुद्धि एवं इच्छा की अभिव्यक्ति है, विश्व के स्थायी तत्व की प्रक§ति -मानसिक है और भौतिकता की बुद्धि द्वारा व्याख्या की जाती है।’’

हैण्डरसन- ‘‘आदर्शवाद मनुष्य के आध्यात्मिक पक्ष पर बल देता है। इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक मूल्य मनुष्य और जीवन में सबके महत्वपूर्ण पहलु है।’’ आदर्शवादी यह मानते हैं कि व्यक्ति और संसार- दोनो बुद्धि की अभिव्यक्तियां है। वे कहते हैं कि भौतिक संसार की व्याख्या मन से ही की जा सकती है।

आदर्शवाद के मूल सिद्धांत

आदर्शवाद की तत्व मीमांसा, ज्ञान एवं तर्वफ मीमांसा और मूल्य एवं आचार मीमांसा को यदि हम सिद्धांतों के रूप में क्रमबद्ध करना चाहें तो निम्नलिखित रूप में कर सकते हैं- 

1. यह ब्रह्मांड ईश्वर द्वारा निर्मित है-आदर्शवादियों का विश्वास है कि इस ब्रह्मांड की कोई नियामक सत्ता अवश्य है और यह सत्ता अनादि तथा अनंत है और इसका स्वरूप आध्यात्मिक है। प्लेटो की दृष्टि से यह सत्ता ईश्वर है जो विचारों की सहायता से सृष्टि की रचना करता है। हीगल के अनुसार ब्रह्मांड के मूल में दो तत्व हैं-एक आत्मा (मनस्) और दूसरा प्रकृति (पुद्गल)। उनके अनुसार परमात्मा (परम मन) पदार्थ  से इस ब्रह्मांड की रचना करता है। 

2. भौतिक जगत की अपेक्षा आध्यात्मिक जगत श्रेष्ठ है-प्लेटो ने इस ब्रह्मांड को दो जगतों में बाँटा है-विचार जगत और वस्तु जगत। उनका स्पष्टीकरण है कि विचार नित्य और अपरिवर्तनशील हैं इसलिए वे सत्य हैं और उनसे बना विचारों का जगत भी सत्य है। इसके विपरीत पदार्थ अनित्य और परिवर्तनशील नोट हैं इसलिए असत्य है और उनसे बना जगत भी असत्य है। उनके अनुसार यह भौतिक संसार विचारजन्य संसार की अभिव्यक्ति मात्रा है। 

हीगल भी दो जगत मानते थे-आत्मिक जगत और पदार्थ जगत। अंतर इतना है कि वे आत्मा के साथ-साथ पदार्थ की सत्ता भी स्वीकार करते थे। उनकी दृष्टि से दोनों जगत ही सत्य हैं। परंतु इतना वे भी मानते थे कि आत्मिक जगत इस पदार्थ के जगत से श्रेष्ठतर है। 

3. आत्मा एक आध्यात्मिक तत्व है और परमात्मा सर्वश्रेष्ठ आत्मा है-यद्यपि आत्मा के संबंध में सभी आदर्शवादी एक मत नहीं हैं, कुछ उसे परमात्मा का अंश मानते हैं और कुछ उसकी स्वतंत्र सत्ता स्वीकार करते हैं, परंतु यह सभी मानते हैं कि आत्मा अनादि और अनंत है। उनका कहना है कि आत्मा को इंद्रियों द्वारा नहीं जाना जा सकता, इसे बुधि  द्वारा समझा जा सकता है। परमात्मा के विषय में भी आदर्शवादी एकमत नहीं हैं, परंतु अधिकतर आदर्शवादी उसे सर्वश्रेष्ठ आत्मा के रूप में देखते हैं। 

4. मनुष्य संसार की सवश्रेष्ठ रचना है-आदर्शवादी मनुष्य को सृष्टि की सर्वोत्कृष्ट रचना मानते हैं। उनका कहना है कि मनुष्य के पास अन्य प्राणियों की भाँति भौतिक शक्तियाँ तो होती ही हैं, उनके साथ-साथ उसमें आध्यात्मिक शक्तियाँ और होती हैं। ये आध्यात्मिक शक्तियां ही उसे सभ्यता, संस्कृति, कला, नीति और धर्म को जन्म देने और उनका विकास करने में सहायक होती हैं जिनसे उसका भौतिक जीवन सुखमय होता है और आध्यात्मिक अनुभूति के लिए आध्यात्मिक पर्यावरण तैयार होता है। 

5. मनुष्य का विकास उसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों पर निर्भर करता है- आदर्शवादियों के अनुसार ज्ञान का स्वरूप भौतिक एवं आध्यात्मिक दो प्रकार का होता है। उनका स्पष्टीकरण है कि भौतिक ज्ञान की प्राप्ति भौतिक शक्ति (इंद्रियों) द्वारा होती है और आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति आध्यात्मिक श्ािक्त )आत्मा) द्वारा होती है और इस प्रकार मनुष्य का भौतिक विकास उसकी भौतिक शक्तियों के आधार पर होता है और आध्यात्मिक विकास आध्यात्मिक शक्तियों के द्वारा होता है। उनका स्पष्टीकरण है कि आध्यात्मिक शक्तियों के द्वारा वह सभ्यता, संस्कृति, कला, नीति और धर्म का निर्माण करता है और उनकी सहायता से अपने भौतिक पर्यावरण पर नियंत्रण करने और आत्मानुभूति करने में सफल होता है। 

6. मनुष्य जीवन का अंतिम उद्देश्य आत्मानुभूति अथवा ईश्वर प्राप्ति है-आदर्शवादी मनुष्य जीवन को महत्त्वपूर्ण और सप्रयोजन मानते हैं। उनका विश्वास है कि मनुष्य के अंदर आत्मा का निवास है। यह आत्मा सूक्ष्म, अनादि और अनंत है। प्रत्येक प्राणी इस दृष्टि से पूर्ण है। परंतु अज्ञानता के कारण वह इस पूर्णता को समझ नहीं पाता और इसलिए ज्ञान और शक्ति का अनंत भंडार होते हुए भी वह अपने को ज्ञानहीन और शक्तिहीन समझता है। मानव शरीर द्वारा पूर्णता की अनुभूति होती है। अतः मनुष्य योनि पाकर हमें उसकी अनुभूति करनी चाहिए, तब हम संसार के कष्टों से बच जाएँगे और हमें परमानंद की अनुभूति होगी।

कुछ आदर्शवादी इसी को आदर्श व्यक्तित्व की प्राप्ति कहते हैं। इस प्रकार आदर्शवादियों के अनुसार मनुष्य के जीवन का चरम उद्देश्य आत्मानुभूति, ईश्वर प्राप्ति, परम सत्य अथवा परम आनंद की प्राप्ति है। 

7. आत्मानुभूति अथवा ईश्वर प्राप्ति के लिए आध्यात्मिक मूल्य, सत्यम्, शिवम् और सुदंरम् की प्राप्ति आवश्यक होती है-प्लेटो तीन सनातन मूल्यों में विश्वास करते थे। ये मूल्य हैं-सत्यम्, शिवम् और सुंदरम्। हम जानते हैं कि कुछ आदर्शवादी प्रत्यय पर अधिक बल देते हैं और कुछ आत्मन् पर और इन दोनों का परम रूप परमात्मा है। सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् आत्मा तथा परमात्मा रूपी रवे की तीन सतह हैं जिन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। जो सत्य है वही शिव है और जो शिव है वही सुंदर है। इसी प्रकार जो सुंदर है वह शिव है और जो शिव है वही सत्य है। यदि हम विचार कर देखें तो इन तीनों आध्यात्मिक मूल्यों-सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् का आधार मानव मस्तिष्क और उसकी प्रकृति ही है। 

मनोविज्ञान की दृष्टि से मानव मस्तिष्क की तीन प्रक्रियाएँ हैं-जानना, संवेग अथवा अनुभूति और वांछा अर्थात् कुछ करने की इच्छा। मनुष्य किसी वस्तु अथवा क्रिया के विषय में जानकर सत्य-असत्य में भेद करता है और सत्य को अपनाता और असत्य को त्यागता चलता है। ज्ञान के आधार पर ही वह सुंदर और असुंदर में भेद करता है, सुंदरता की अनुभूति से आनंद लाभ करता है और असुंदर एवं कुरूप वस्तुओं तथा क्रियाओं को त्याग देता है। 

इस प्रकार मानव मस्तिष्क की प्रवृत्ति सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् नोट की प्राप्ति की ओर होती है। 

8. आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति के लिए नैतिक आचरण आवश्यक है-सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् आध्यात्मिक मूल्य हैं। इनको इस शरीर से ही प्राप्त किया जाता है, इसलिए इस शरीर को उसके योग्य बनाना आवश्यक है। ज्ञान के अभाव में मनुष्य संसार के अन्य प्राणियों की भाँति ही लड़ते-झगड़ते रहते हैं और पशुओं की भाँति जीवन व्यतीत करते हैं। सामाजिक भावना उन्हें एक-दूसरे के निकट लाती है और वे एक-दूसरे के सुख की बात सोचने लगते हैं। आदर्शवादियों ने हमें बताया कि हम सब आत्माधारी हैं इसलिए समान हैं, और इसलिए एक प्राणी के दूसरे प्राणी के प्रति कुछ कर्तव्य हैं। कर्तव्यों को सामाजिक मूल्य, धर्म, नीति और आदर्श, अनेक रूपों में संगठित किया गया है। 

आदर्शवादियों का कहना है कि मनुष्य, मनुष्य के प्रति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में ही सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् के दर्शन कर सकता है। इस प्रकार आदर्शवाद मनुष्य के इहलोक और परलोक दोनों को सुखमय बनाने के लिए आधार प्रस्तुत करता है। 

9. राज्य एक सर्वोच्च सत्ता है-प्रायः सभी आदर्शवादी राज्य को व्यक्ति से उच्च स्थान देते हैं। यूनानी दार्शनिक प्लेटो जब सत्य एवं पूर्ण विचार करने वाले व्यक्तियों की कल्पना नहीं कर सके तो उन्होंने सत्य विचार (नियम) को ही राज्य स्वीकार किया। हीगल और पिफश्टे ने भी राज्य को आदर्श और सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकार किया है।

थामस और लैंग ने आदर्शवाद के सिद्धांत बताये हैं-
  1. वास्तविक जगत मानसिक एवं आध्यात्मिक है। 
  2. सच्ची वास्तविकता आध्यात्मिकता है। 
  3. आदर्शवाद का मनुष्य में विश्वास है क्योंकि वह चिन्तन तर्क एवं बुद्धि के विशेष गुणों से परिपूर्ण है। 
  4. जो कुछ मन संसार को देता है, केवल वही वास्तविकता है।
  5. ज्ञान का सर्वोच्च रूप अन्तद§ष्टि है एवं आत्मा का ज्ञान सर्वोच्च है। 
  6. सत्यं शिवं सुन्दरं के तीनों शाश्वत मूल्य हैं और जीवन में इनकी प्राप्ति करना अत्यान्तावश्यक है। 
  7. इन्द्रियों की सच्ची वास्तविकता को नहीं जाना जा सकता है। 
  8. प्रक§ति की दिखायी देने वाली आत्म निर्भरता भ्रमपूर्ण है। 
  9. ईश्वर मन से सम्बंध रखता है।
  10. भौतिक और प्राकृतिक संसार- जिसे विज्ञान जानता है, वास्तविकता की अपूर्ण अभिव्यक्ति है। 
  11. परम मन में जो कुछ विद्यमान है वही सत्य है और आध्यात्मिक तत्व है। 
  12. विचार, ज्ञान, कला, नैतिकता और धर्म जीवन के महत्वपूर्ण पहलू है। 
  13. हमारा विवेक और मानसिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि ही सत्य ज्ञान प्राप्त करने का सच्चा साधन है। 
  14. मनुष्य का विकास उसकी भौतिक एवं आध्यात्मिक शक्तियों पर निर्भर करता है।

आदर्शवाद की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सृष्टि में दूसरे जीवधारियों से हमें पृथक किया हमारे मस्तिष्क ने, हमारे विचार-विमर्श, सोचने-समझने, सूझ-बूझ की शक्ति ने किया। इसी मस्तिष्क के कारण हममें भाषा विचार या तर्क करने की ताकत आयी, और विचारकों के जिस वर्ग ने मस्तिष्क को महत्व देते हुये विचार करने की प्रक्रिया में अपना ज्यादा विश्वास दिखाया वह विचारवादी कहलाये और इस विचारधारा को आदर्शवाद कहा गया। आदर्शवादी जीवन की एक बहुत पुरानी विचारधारा कही जाती है, जब से मनुष्य ने विचार एवं चिन्तन शुरू किया तब से वह दर्शन है।

इसके ऐतिहासिक विकास पाश्चात्य देशों में सुकरात और प्लेटो से मानते है। हमारे देश में भी उपनिषद् काल से ब्रह्म-चिन्तन पर विचार मिलते हैं, जहां आत्मा, जीव ब्राह्माण्ड पर विचार-विमर्श हुए और हम पश्चिमी देशों से पीछे नहीं रहे। अंग्रेजी के शब्द ‘‘आइडियलिस्म’’ आदर्शवाद का यथार्थ द्योतक है, परन्तु विषय-वस्तु के हिसाब से ‘‘आइडियलिस्म’’ के स्थान पर आइडिस्म अधिक समीप एवं अर्थपूर्ण जान पड़ता है।

पाश्चात्य जगत में ऐतिहासिक क्रम में प्लेटो से आदर्शवाद का आरम्भ माना जाता है। प्लेटो के अनुसार- ‘‘संसार भौतिकता में नहीं है बल्कि उसकी वास्तविकता प्रत्ययों एवं विचारों से है।’’ मनुष्य का मन प्रत्ययों का निर्माण करता है। तर्क के आधार पर प्लेटो ने तीन शाश्वत विचार माने है। ये तीन विचार हैं- सत्यं, शिवम्, सुन्दरं। इन तीनों विचारों के द्वारा ही इन्द्रियगम्य वस्तुओं का निर्माण होता है। शिवं का विचार ही श्रेष्ठ माना गया है। इसका कारण यह है कि प्लेटो ने व्यैक्तिक मन और साथ-साथ समाजिक मन की परिकल्पना की है और यह भी माना कि वैयक्तिक मन सामाजिक मन से अलग नहीं रह सकता प्लेटो के विचारों का प्रभाव उसके द्वारा प्रभावित धर्म पर दिखायी दिया। हिब्रू परम्परा में ईश्वर को तर्कपूर्ण माना गया है। मानव तथा अन्य चेतन प्राणियों में क्या सम्बंध है इस पर हमारे हिन्दू धर्म एवं अन्य सभी धर्मों में काफी विवेचना हुयी है तथा विचार-विमर्श हुये है। 

धर्मों के अनुसार सभी प्राणी ईश्वर के अंश कहे गये यह आदर्शवादी दृष्टि कोण है, जिसके अनुसार सभी जीवित प्राणियों में चिद् होता है। आगे चलकर रेने डेकार्टे का द्वितत्ववाद प्रसिद्ध हुआ। डेकार्टे का कहना है कि श्वर ने मन तथा पदार्थ देानों की रचना की है। इन्द्रियज्ञान को डेकार्टे ने भ्रामक कहा है।

डेकार्टे के बाद स्पिनोजा ने आदर्शवाद को आगे बढ़ाया। स्पिनोजा ने अपना तत्व सिद्धान्त रखा है। स्पिनोजा के तत्व शाश्वत है वह पदार्थ नहीं है यह एक तत्व है, जिसे श्वर करहे हैं। स्पिनोजा के बाद लाइबनीज का चिद्विन्ुदवाद दर्शन प्रसिद्ध हुआ। लाइबनीज के अनुसार चिद्बिन्दुओ से संसार निर्मित है यह चिद्विन्दु साधारण, अविभाज्य इका है। जटिल रूप में यह आत्मा कहलाती है। श्वर भी एक उच्च आत्मा वर्ग का चिद्विन्दु है। 

भारतीय दर्शन में भी लाइबनीज के समाज विचार है। तत्व मीमांसा के अनुसार ठीक लाइबनीज की तरह यह विचार है कि पदार्थ चिद् है तथा सभी वस्तुएं आध्यात्मिक परमाणुओं से एक-दूसरे के अनुकुल बनी हु है। बर्कले ने भी संसार की सत्ता को लाइबनीज की तरह माना है लेकिन दूसरे ढंग से। 

बकेले ने पदार्थ के अस्तित्व को आध्यात्मिक आधार पर ही माना है, इसीलिये उसने श्वर को ही वास्तविक माना है।

अत: मन के द्वारा प्रत्यक्ष बना लेने पर ही पदार्थ का अस्तित्व हो जो विभिन्न संवेदनाआ, विचारों तथा इन्द्रियानुभवों के सहारे सिद्ध होता है। हमारे सामने जो सृष्टि है उसके पीछे आत्मा होती है। यह आत्मा श्वर है। श्वर ही एक तत्व है जो सभी मानसिक एवं भौतिक संसार के पीछे रहता है। बर्कले का दर्शन आत्मगत आदर्शवाद कहा जाता है। मैंनुअल कांट एक दूसरे प्रमुख आदर्शवादी माने गये। 

कांट मानते हैं कि प्रतीति वाले अनुभवगम्य जगत के पीछे स्थगित वस्तु है। आत्मा की अमरता तथा स्वतंत्रता एवं नैतिक प्रधानता ने भारतीयों का विश्वास पहले से ही है। 

गीता दर्शन में कहा है- ‘‘नैन छिन्दति शास्त्राणि नैनं दहति पावक:, नैनं क्लेदयन्ति आपो नैनं शोशयते मारूत:’’। अर्थात् पाप, पुण्य, अच्छा-बुरा आदि नैतिक नियमों की प्रध् ाानता है और इन सबसे उपर श्वर का होना भारतीयों का प्राचीन विश्वास है। कान्ट के प्रभाव से जर्मनी में फिश्टे व हेगले का अविर्भाव हुआ जिन्होनें आदर्शवाद के विकास में अपने योगदान दिये।

फिश्टे ने जीवन के भौतिक पक्ष पर बहुत बल दिया। इसने वास्तविकता को नैतिकता से पूर्ण इच्छाशक्ति माना तथा इस प्रतीत्यात्मक जगत को मनुष्य की इच्छा शक्ति को विकसित करने हेतु बताया, जिससे उसके चरित्र का निर्माण होता है। समीम एवं असीम आत्मा की भावना भारतीय दर्शन में भी पायी जाती है तथा जड़ प्रकृति की ओर फिश्टे का अनात्मक जगत संकेत करता है।

फिश्टे के बाद हेगेल ने आदर्शवादी दर्शन के क्षेत्र में प्रभाव डाला इनके दर्शन को विश्व चैतन्यवाद कहा है, इन्होनें समस्त विश्व की सम्पूर्ण के रूप में देखा और अनुभव के प्रत्येक प्रकरण की सम्पूर्णता से जुड़ा हुआ बताया। हेंगेल के अनुसार इस प्रकार अनन्त आत्मा अथा श्वर का ब्रह्म रूप संसार है और संसार को समझना ईश्वर का रूप समझने के लिये आवश्यक भी है क्येांकि ज्ञान के ब्रह्म एंव आंतरिक दो रूप है। भारतीय विचारधारा भी ईश्वर को सर्वभूतेशु एवं सर्वभूत हित: कहा है।

हेगले के प्रभाव शेलिंग तथा शापेनहावर पर पड़ा। शेलिंग ने चरम को आत्म एवं अनात्म, ज्ञेय एवं अज्ञेय से अलग एक सत्ता मानी है। एक प्रकार से भारतीय द्वैता द्वैत की भावना इसमें पायी जाती है। शापेनहावर ने अपने चरम को परम इच्छा में बदल दिया और कहा जगत मेरा विचार हैं इस प्रकार इच्छा को परम श्रेष्ठ बताया। शापेनहावर ने जड़ प्रकृति पर दृष्टि जमा और उसे अचेतन कहा। जड़ प्रकृति को चरम नहीं कहा जा सकता है। इन सब दार्शनिकों का प्रभाव फ्रांस, इटली, रुस, इंग्लैण्ड तथा अमेरिका के दार्शनिकों पर काफी पड़ा है। फ्रांस में बर्गसन क्रोस तथा जेन्टाइल जैसे आदर्शवादी हुये। रुस में माक्र्स एवं एंजेल हुये और इंग्लैण्ड में कालेरिज ग्रीन, स्अग्ंिल, केयर्ड, बोसैंके और ब्रेडले जैसे आदर्शवादी बढ़ें।

भारत में वैदिक काल में बहुतत्तवादी आदर्शवादी थे। इस्लामी दर्शन के साथ अद्वैतवाद, द्वैताद्वतवाद, विशिष्ट द्वैतवाद आदि रुप मिलते है। 

आज भी इनके पोषक दयानन्द, विवेकानन्द, अरविन्द, टैगोर, गांधी, रामकृष्ण, राधाकृष्ण तथा कुछ मुस्लिम विचारक जैसे अबुल कलाम आजाद, जाकिर हुसैन, सेयदेन जैसे शिक्षाविद् गिने जाते है।

आदर्शवाद का आधार

1. आदर्शवाद का आधार विचार

आदर्शवाद का शुद्ध नाम विचारवाद होना चाहिये क्योंकि इसका मुख्य आधार विचार है। जगत की वास्तविकता विचारों पर आश्रित है। प्रक§ति एवं भौतिक पदार्थ की सत्ता विचारों का कारण है। आदर्शवाद का आधार भौतिक जगत न होकर मानसिक या आध्यात्मिक जगत है। विचार अन्तिम एवं सार्वभौमिक महत्व वाले होते हैं। वे सार अथवा भौतिक प्रतिरूप है जो जगत को आकार देते हैं, ये मानदण्ड है जिनसे इन्द्रिय अनुभव योग्य वस्तुओं की जॉच होती है।

2. आदर्शवाद का आधार आत्मा

एक दूसरा आधार आन्तरिक जगत है जिसे आत्मा या मन कहते हैं। इसी के कारण विचार प्राप्त होते और उन विचारों को वास्तविकता मिलती है जगत का आधार मनस है। यह यांत्रिक नहीं है, जीवन हम जटिल भौतिक रासायनिक शक्तियों में ही नहीं घटा सकते।

आदर्शवाद का आधार तर्क व बुद्धि - आदर्शवाद का तृतीय आधार तर्क एवं बुद्धि कहा जा सकता है।

इस सम्बंध में प्लेटो और सुकरात के विचार एक प्रकार से मिलते है कि मनुष्य में ही तर्क की शक्ति है और तर्क द्वारा ही विचार प्राप्त होते हैं।

3. आदर्शवाद का आधार मानव 

आदर्शवाद का चौथा आधार मानव माना जा सकता है। आत्मा उच्चाशय एवं विचार, तर्क और बुद्धि से युक्ति हेाती है। मानव वह प्राणधारी है जिसमें अनुभव करने उनहें धारण करने और उन्हें उपयोग में लाने की विलक्षण शक्ति होती है। मानव सभी प्राणियों व पणुओं में सर्वश्रेण्ठ इसी कारण गिना जाता है क्योंकि महान अनुभव कर्ता है और उसे गौरव एवं आधार दिया जाता है, और श्वर के अन्य सभी कार्यों पर उसका आधिपत्य होता है। 

मनुष्य में जो आत्मा होती है वास्तव में विभिन्न उच्च शक्तियों उसमें निहित होती है, उसी में तर्क, बुद्धि, मूलय नैतिक धार्मिक और आध्यात्मिक सत्तायें होती है।

4. आदर्शवाद का आधार राज्य 

आदर्शवाद का पॉचवा आधार हगेले ने राज्य को माना है। इस सम्बंध में कर्निघम का विचार है कि हेगेल के लिये राज्य महान आत्मा का संसार में सर्वोच्च प्रकाशन है जिसका समय के द्वारा विकास सबसे बड़ा आदर्श है। राज्य दैवी विचार है इस प§थ्वी पर जिसका अस्तित्व है। इससे यह ज्ञात होता है कि राज्य की संकल्पना आदर्शवादी आधार के कारण ही है।

आदर्शवादी दर्शन के प्रमुख तत्व

1. तत्व मीमांसा

सभी आदर्शवाददियों की मान्यता है कि यह जगत भौतिक नहीं अपितु मानसिक या आध्यात्मिक है। जगत विचारों की एक व्यवस्था, तर्कना का अग्रभाग है। प्रकृति मन की क्रिया या प्रतीति है। भौतिक सृष्टि का आधार मानसिक जगत है, जो उसे समझता है तथा मूल्य प्रदान करता है। 

मानसिक जगत के अभाव में भौतिक जगत अर्थहीन हो जायेगा। आदर्शवाद के अनुसार यह जगत सोद्देश्य है।

2. स्व अथवा आत्मा

आदर्शवादी स्व की प्रकृति आध्यातिमक मानता है तथा तत्व मीमांसा में ‘‘स्व’’ को सर्वोपरि रखता है। यदि अनुभव का जगत ब्रह्म सृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है, तो अनुभवकर्ता मनुष्य तो और भी अधिक महत्वपूर्ण होना चाहिये। 

आदर्शवाद के अनुसार ‘‘स्व’’ की प्रकृति स्वतंत्र है उनमें संकल्प शक्ति है, अत: वह भौतिक स§ष्टि में परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है। क्रम विकास की प्रक्रिया में मनुष्य सर्वश्रेण्ठ इका है।

3. ज्ञान मीमांसा में आदर्शवाद

आदर्शवादी ज्ञान एव सत्य की विवचे ना विवेकपूर्ण विधि से करते हैं। वे ब्रह्माण्ड में उन सामान्य सिद्धान्तों की खोज करने का प्रयास करते है, जिनको सार्वभौमिक सत्य का रूप प्रदान किया जा सके। इस दृष्टि कोण से उनकी धारणा है कि सत्य का अस्तित्व है, परन्तु इसलिये नहीं है कि वह व्यक्ति या समाज द्वारा निर्मित किया गया है। सत्य को खोजा जा सकता है। जब उसकी खोज कर ली जायेगी तब वह निरपेक्ष सत्य होगा आदर्शवादियों की मान्यता है कि ईश्वर या निरपेक्ष मन या आत्मा सत्य है।

4. मूल्य आदर्शवाद

शिव क्या है? इसके विषय में आदर्शवाददियों का कहना है कि सद्जीवन को ब्रह्माण्ड से सामंजस्य स्थापित करके ही व्यतीत किया जा सकता है। निरपेक्ष सत्ता का अनुकरण करके ही शिव या अच्छा की प्राप्ति की जा सकती है। आदर्शवादियों का मत है कि जब मनुष्य का आचरण, सावैभौमिक नैतिक नियम के अनुसार होता है तो वह स्वीकार्य होता है सुन्दर क्या है? आदर्शवादियों के अनुसार यह निरपेक्ष सत्ता सुन्दरम है। 

इस जगत में जो कुछ भी सुन्दर है, यह केवल उसका अंशमात्र है, अर्थात् उसकी प्रतिछाया है। जब हम कला के किसी कार्य को सौन्दर्यनुभूति करते हैं, तब हम ऐसा इसलिये करते हैं, क्येांकि वह निरपेक्ष सत्ता का सच्चा प्रतिनिधि है। 

आदर्शवादी संगीत को सर्वोत्तम प्रकार की सौन्दर्यात्मक रचना मानते हैं।

आदर्शवाद की प्रशाखायें

आदर्शवादी दर्शन की अनेक शाखाये-प्रशाखायें है, परन्तु उनमें प्रमुख पॉच है-

1. प्लेटा का वस्तुनिष्ठ आदर्शवाद

इस शाखा को यथाथर्वादी आदर्शवाद भी कहा जाता है। प्लेटो के अनुसार विचार सनातन, सर्वव्यापी तथा सार्वकालिक होते है। उनका अस्तित्व अपने आप में होता है। वे न तो ईश्वर, न जगत पर आश्रित रहते हैं। इसका पूर्व भी अस्तित्व था, तथा हमारे अन्त के पण्चात् भी वे रहेंगे। विचार इस जगत की वस्तुओं का सार है। इन सनातन विचारेां की अपूर्ण प्रतिक§ति हम अनुभव द्वारा मालूम करते है। 

प्लेटो के अनुसार इन पूर्ण विचारेां की प्रतीति ऐन्द्रिक ज्ञान की अपेक्षा विवेक ज्ञान से होती है। इन्द्रियों द्वारा प्राप्त ज्ञान अपूर्ण तथा असंगत होता है, जबकि विवेक ज्ञान से सिद्धान्तों की पकड़ आती है, जो हमेशा सत्य हेाते हैं।

2. बर्कले का व्यक्तिवादी आदर्शवाद

जॉन लॉक ने न्यूटन के सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जगत का आधार पुदगल है, जिसमें संवेदनीय लम्बा, चौड़ा, मोटा, रंग ध्वनि, दूरी,दबाव आदि संवेदन अन्तनिर्हित है। बर्कले ने पुदग्ल की सत्ता को अस्वीकार किया तथा गुणों के द्वैत को भी। उसके अनुसार हम केवल गुणों को देखते हैं, गुणी जैसी किसी चीज को नहीं देखते। वस्तु गुणों का वह समूह मात्र है, और गुण मनोगत (आत्मगत) है, अत: केवल मनस् या आत्मा का अस्तित्व है, वस्तु का नहीं। 

इसी आधार पर उसने यह निष्कर्ष निकाला कि न केवल गौण गुण अपितु प्रधान गुण भी मानसिक है, न कि भौतिक। बर्कले के अनुसार स्व का सम्बंध हमारा ज्ञान परोक्ष तथा अनुमानित ज्ञान है, जिनका इन्द्रियों से अनुभव किया जा सके।

3. कान्ट का प्रपचांत्मक आदर्शवाद 

प्लेटो तथा बकर्ले की भाित काटं भी पदार्थ को सत्य नहीं मानता। वह तर्कनाबुद्धि को हमारे सभी अनुभवों का समन्वयकारी केन्द्र मानता है। उसके अनुसार जागतिक पदार्थ का ज्ञान प्रत्यक्ष रूप से न होकर परोक्ष रूप से होता है। प्रत्यक्ष ज्ञान के लिये कांट दिक और काल देा तत्वों को प्रमुख मानता है। इन्ही दो गुणों के फलस्वरूप हम बाह्य जगत का ज्ञान प्राप्त करते हैं। प्रत्यक्ष ज्ञान भी विश्रश्खलित होता है, उसे समन्वित रूप में ग्रहण करने के लिये कांट तर्कना को आवण्यक मानता है। आत्मीकरण की इस प्रक्रिया को कांट की अवधारणा नाम से जाना जाता है, ज्ञेय प्रत्ययों को कांट ने 12 भागों में विभक्त किया है। 

कांट ने मानव आत्मा अथवा ‘‘स्व’’ को सर्वोपरि माना। सभी आदर्शवादियों के समान वह भी स्व को मनस युक्त मानता है भौतिक नहीं। कांट के अनुसार मनस दिक् और काल का सर्जक है, तथा आवधारणा से उपर्युक्त वर्गीकरण का धारक है मनुष्यात्मा सर्वोपरि है।

4. हगेल का द्वन्द्वावाद

हगेल के अनुसार सत्ता तथा उससे सम्बधं का हमारा ज्ञान समरूप है एवं हमारा ज्ञान तर्क बुद्धि परक होता है और स्वयं सत्ता कि इस तर्कबुद्धि परक व्यवस्था के कारण मनुष्य का ज्ञान सत्ता को उसी सीमा तक ग्रहण कर पाता है, जिस सीमा तक हमारे ज्ञान तथा सत्ता के बीच समरूपता हो। हेगल की मान्यता है कि विश्व निर्बाध गति से सक्रिय विकास की ओर बढ़ रहा है इस क्रम विकास की प्रक्रिया द्वारा विश्व अपने आप में अन्तर्निहित उद्देश्य की ओर बढ़ रहा है। इस क्रम विकास का प्रयोजन अपने आप में निहित लक्ष्य तथा नियति के बारे में सचेत होना है। 

हेगल इसी क्रम विकास के विचार को आगे बढ़ाते हुये कहता है कि ‘‘सत्ता’’ परम-तत्व के मन में विचार का विकास है। ब्रह्माण्ड चेतना (परमेण्वर) सत्ता के रूप में तीन स्थितियों में विकसित होती है यथा, स्थापना, प्रतिस्थापना तथा संस्थापना। 

हेगल इसे अधिकाधिक पूर्णता की ओर बढ़ने की प्रक्रिया मानता है।

5. नैतिकता का सिद्धान्त 

इस द्वन्द्वात्मक चिन्तन शैली को हगेल नैतिकता के क्षेत्र में भी प्रयुक्त करता है। समूह की नैतिकता जो कि सामाजिक संस्थाओं में परिलक्षित होती है, वैयक्तिक नैतिकता का सही मार्ग दर्शन कर सकती है।

6. आधुनिक आदर्शवाद 

यूरोप में आदर्शवाद का जो आरम्भ जमर्नी में हुआ था, वह हेगल के साथ समाप्त हुआ। माक्र्स ने हेगल के द्वन्द्वावद को अपनाया परन्तु तत्व मीमांसा में भौतिकवाद को ग्रहण किया। इंग्लैण्ड, स्काटलैण्ड, इटली तथा संयुक्त राज्य अमेरिका में आदर्शवादी विचारधारा ने नया रूप ग्रहण किया। 

ब्रिटेन में सेम्युअल,, कालरिज, जेम्स, हचिसन, स्टलिंगि, जान केअर्ड, बर्नाड, बोसाके बे्रडले नन आदि का नाम लिया जाता है।

संदर्भ -
  1. शिक्षा के दार्शनिक और सामाजिक आधार, माथुर, एस.एस., विनोद पुस्तक मंदिर।
  2. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, योगेंद्र कुमार।
  3. शिक्षा के दार्शनिक आधार, शर्मा, ओ.पी.।
  4. शिक्षा और मनोविज्ञान: मापन और मूल्यांकन, शशि प्रभा।
  5. शिक्षा के दार्शनिक आधार, पांडेय, रामशकल।

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