व्यापार चक्र का अर्थ, परिभाषा, अवस्थाएं, सिद्धांत

व्यापार चक्र का अर्थ

किसी अर्थव्यवस्था में एक निश्चित समय के बाद आर्थिक क्रियाओं में होने वाले बदलाव को व्यापार चक्र कहते है। किसी देश के आर्थिक विकास के लिए आर्थिक क्रियाओं में होने वाले उतार चढ़ाव को सामान्यत: व्यापार चक्र कहते है। व्यापारिक-चक्र के चढ़ाव के दौरान ऊँची राष्ट्रीय आय, अधिक उत्पादन, अधिक रोज़गार तथा ऊँची कीमतें पाई जाती हैं। इसको समृद्धि काल भी कहा जाता है। इसके विपरीत व्यापारिक चक्र के उतार के दौरान कम राष्ट्रीय आय, कम उत्पादन, कम रोजगार तथा नीचा कीमत स्तर पाया जाता है। इसको मन्दी काल भी कहा जाता है। 

सरल शब्दों में, किसी अर्थव्यवस्था में एक निश्चित समय के बाद मन्दी और तेज़ी के रुप में होने वाले परिवर्तन को व्यापार चक्र कहते है।

व्यापार चक्र का अर्थ व परिभाषा

व्यापार चक्र से अभिप्राय उन परिवर्तनों से हैं जिसके कारण एक अर्थव्यवस्था में आर्थिक क्रियाओं का विस्तार, सुस्ती, मन्दी और पुनरुत्थान की अवस्था आती है।

1. एनातोल मुराद के अनुसार, ‘‘तेजी और मन्दी के बार-बार उत्पन्न होने की अवस्था व्यापार चक्र की सबसे सरल परिभाशा है।’’

केन्ज के अनुसार, ‘‘व्यापार चक्र अच्छी व्यापार अवधि जिसमें कीमतों में वृद्धि तथा बेरोजगारी में प्रतिशत गिरावट होती है और खराब व्यापार अवधि जिसमें कीमतों में गिरावट तथा बेरोजगारी के प्रतिशत में वृद्धि होती है, का योग होता है।’’

व्यापार चक्र की अवस्थाएं

तेजी और मन्दी का चक्र बराबर चलता ही रहता है—मूल्य चढ़ते रहते हैं या गिरते रहते हैं, इसी प्रकार रोजगार बढ़ता रहता है या घटता रहता है। अत: कोई बिन्दु ऐसा निश्चित नहीं किया जा सकता जहाँ से व्यापार चक्र आरम्भ होता है। किन्तु अध्ययन की सुविधा के लिये व्यापार चक्र के विभिन्न अवस्थाओं का प्रारंभिक बिन्दु निश्चित करना आवश्यक है। सबसे अच्छा बिन्दु वह माना गया है जहाँ के मूल्यों का उतार अधिकतम होता है। 

जब मूल्य निम्नतम बिन्दु तक पहुँच जाते हैं और बेरोजगारी उच्चतम बिन्दु तक पहुँच जाती है, तो इसे मन्दी (Depression) की अवस्था कहते हैं। तत्पश्चात व्यापार चक्र की चार अवस्थायें और पायी जाती हैं। ये अवस्थायें हैं— 
  1. पुनरुद्वार (Recovery), 
  2. पूर्ण रोजगार (Full Employment), 
  3. तेजी (Boom) और 
  4. अवरोध (Recession) 
व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं का संक्षिप्त वर्णन निम्नवत् है।

1. मन्दी की अवस्था - यह व्यापार चक्र की पहली अवस्था है। इसमें देश की व्यवसायिक क्रियाओं का स्तर सामान्य से नीचे गिर जाता है। इस अवस्था में अर्थव्यवस्था में उत्पादन एवं रोजगार स्तर में भारी गिरावट होती है। विनियोजन में कमी के कारण उत्पादक गतिविधियों पर विपरीत प्रभाव पड़ने से श्रमिक तथा अन्य साधन बेकार हो जाते हैं तथा मजदूरी की दरों में अत्यधिक कमी हो जाती है। तेजी के समय की तुलना में कीमतों का स्तर बहुत गिर जाता है। किन्तु इससे भी दुर्भाग्यपूर्ण विशेषता यह है कि वस्तुओं की संरचना बड़ी अस्त व्यस्त हो जाती है। तैयार माल की कीमतें श्रम के पुरस्कारों से कम होती है। 

अत: रोजगार में लगे हुये व्यक्तियों की वास्तविक आय बहुत अक्तिाक रहती है यद्यपि उनकी मौद्रिक आय कुछ घट भी जाती है। राष्ट्रीय लाभांश के वितरण में विषमता पैदा हो जाती है। साहसियों को उत्पादन कार्य जारी रखने की प्रेरणा देने वाला लाभा बहुत कम हो जाता है। 

राष्ट्रीय लाभांश में ब्याज का अनुपात बढ़ जाता है। बढ़ती हुई बेरोजगारी के बावजूद श्रमिकों को मजदूरी के रूप में राष्ट्रीय लाभांश का अधिक भाग मिलने लगता है।

कच्चेमाल एवं कृषि उपजों की कीमतें तो तैयार माल की कीमतों से भी अधिक गिर जाती है। इस प्रकार किसानों और कच्चे माल के उत्पादकों को अत्यधिक हानि उठानी पड़ती है। निर्माताओं एवं किसानों के मध्य व्यापार शर्तें निर्माताओं के लिये अधिक अनुकूल पड़ती है, यद्यपि वे कम उत्पादन और कम रोजगार की स्थिति के कारण इस अनुकूलता का अधिक लाभ नहीं उठा पाते। इस प्रकार मौद्रिक आय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों में सामान्यत: कम होती है। हाँ, विभिन्न क्षेत्रों में मौद्रिक आयों के कम रहने के कारण अलग-अलग होते हैं।

मन्दी के काल में जिन औद्योगिक क्षेत्रों को सबसे अधिक हानि उठानी पड़ती है, वे हैंकृभवन निर्माण, विद्युत उपकरण एवं मशीन निर्माण आदि। जिन उद्योगों पर मन्दी की सबसे कम प्रभाव पड़ता है वा हैं उपभोक्ता वस्तुओं का निर्माण करने वाले उद्योग।

संक्षेप में मन्दी के काल की निम्नलिखित विशेषतायें हैं :
  1. विनियोग एवं उत्पादन को निम्न स्तर
  2. बड़े पैमाने पर बेरोजगारी
  3. न्यून मजदूरी, न्यून आय, न्यून कीमतें एवं न्यून लाभ
  4. न्यून अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार
  5. न्यून ब्याज दर
  6. निराशाजनक आर्थिक परिवेश
    2. पुनरुद्वार (Recovery) की अवस्था - मन्दी से निम्नतम बिंदु के बाद जब व्यवसायिक क्रियाओं में वृद्धि होने लगती हैं तो उस अवस्था को पुनरुद्वार की अवस्था कहते हैं। इस अवस्था में अथव्यवस्था की आर्थिक स्थिति मन्दी की स्थिति की तुलना में अधिक सन्तोषजनक होती है। प्रारंभ में व्यवसायिक क्रियाओं में थोड़ा सा सुधार होता है। उद्यमी यह महसूस करने लगते हैं कि देश की आर्थिक स्थिति में मन्दी के काल की तुलना में कुछ सुधार होने लगा है। धीरे-धीरे औद्योगिक उत्पादन बढ़ने गता है। रोजगार के स्तर में भी वृद्धि होने लगती हैं कीमतों में धीमी किन्तु निश्चित वृद्धि होती है। लाभ की मात्रा में भी थोड़ी वृद्धि होने लगती है। मजदूरियाँ भी बढ़ने लगती है, यद्यपि वे उस अनुपात में नहीं बढ़ती जितनी कीमतें बढ़ती हैं। बढ़ते हुये लाभ को देखकर निदेशक पूँजीगत वस्तु उद्योगों में नये-नये निवेश करते हैं। बैंक साख का विस्तार करते हैं। कुल मिलाकर मन्दी के काल की निराशावादिता के स्थान पर अर्थव्यवस्था में आशावादिता की स्थिति आ जाती है।

    पुनरुद्वार की यह प्रक्रिया लगातार तेज होती जाती है। किन्तु इस प्रक्रिया की भी एक सीमा होती है और यह सीमा पूर्ण रोजगार द्वारा निर्धारित होती है। सामान्तय: पुनरुद्वार की अवस्था की काल उन शक्तियों की प्रकृति पर निर्भर करता है जो कि पुनरुद्वार करती हैं। पुनरुद्वार करने वाली शक्तियाँ निम्न हो सकती हैं—(i) नवीन विधियों की खोज, (ii) नये बाजार उपलब्ध होना, (iii) विनियोग के नये नये रूप का पता लगाना, (iv) नवीन उत्पादों का चलन इत्यादि।

    3. पूर्ण रोजगार की अवस्था - यह व्यापार चक्र की तीसरी अवस्था है। इसे सम्पन्नता (Prosperity) भी कहा जाता है। पूर्ण रोजगार की स्थिति को प्राप्त करना प्राय: सभी देशों की राष्ट्रीय आर्थिक नीतियों की लक्ष्य होता है। इस अवस्था में उत्पत्ति के सम्पूर्ण साधन कार्य में लगे होते हैं। प्रत्येक उत्पत्ति के साधन की स्वामी जो प्रचलित दर पर अपने साधन को उत्पादन कार्य में लगाना चाहता है, लगा सकता है। पूर्ण रोजगार का अर्थ यह नहीं है कि बेकारी बिल्कुल नहीं रह जाती क्योंकि श्रम की गतिशीलता के कारण श्रमिक एक काम को छोड़कर दूसरे काम पर पहुँच जाने के बीच में रहता है।

    संक्षेप में पूर्ण रोजगार की अवस्था में (i) आर्थिक क्रिया अनुकूलतम स्तर (Optimum Level) पर पहुँच जाती है, (ii) रोजगार पूर्णता तक पहुँच जाता है अर्थात काम करने की शक्ति और इच्छा रखने वाला कोई भी व्यक्ति बेकार नहीं रहता, (iii) उत्पादन, मजदूरियों, कीमतों और आय सभी में स्थामित्व आ जाता है।

    4. तेजी की अवस्था - पुनरुद्वार की लहर पूर्ण रोजगार पर पहुँच कर रुक जाय ऐसा नहीं होता, वरन् अर्थव्यवस्था तेजी की दिशा में बढ़ती रहती है। एक बार पूर्ण रोजगार की अवस्था तक पहुँचने पर यदि व्यय इसके बाद भी बढ़ता रहे, तो निम्नलिखित लक्षण प्रकट होने लगते हैं :—
    1. पूर्ण रोजगार की अवस्था के बाद भी विनियोग होते रहने के कारण वास्तविक उत्पादन में तो वृद्धि नहीं होती (क्योंकि संसाधनों की पूर्ण उपभोग हो चुका होता है) बल्कि कीमतों में वृद्धि हो जाती है।
    2. साहसीगण प्रत्येक बात को अधिक आशावादी दृष्टि से देखने लगते हैं जिससे सभी उद्योगों में अत्यधिक विनियोग होने लगता है। इससे पहले से ही रोजगार पर लगे हुये उत्पत्ति के साधनों पर चारों ओर से दबाव बढ़ जाता है।
    3. इस अवधि में अर्थव्यवस्था के प्रत्येक क्षेत्रा में उत्पादन बढ़ता है— नई-नई इमारतों का निर्माण होता है, नये-नये कारखाने स्थापित हो जाते हैं और नये व्यापार चल निकलते हैं।
    4. इस तरह एक अवस्था ऐसी भी आ जाती है जो ‘अत्यधिक रोजगार’ (Hyper Employment) प्रदान करती है अर्थात काम की कमी नहीं होती वरन् काम करने वालों की कभी अनुभव की जाने लगती है।
    5. यद्यपि इस अवस्था में नकद मजदूरी बढ़ जाती है परनतु मूल्य इससे भी तेजी से बढ़ जाते हैं अत वास्तविक मजदूरी घट जाती है।
    6. लाभों में प्रतिदिन वृद्धि होती है और यह असामान्य तरीक से ऊँचे हो जाते हैं। कुल मिलाकर ‘लाभ प्रसार’ (Profit Inflation) अग्नि में घी डालने का कार्य करता है तथा तेजी और भी बढ़ जाती है।
      5. अवरोध की अवस्था - तेजी एवं पूर्ण रोजगार की अवस्थाओं के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाले अत्यधिक रोजगार, अत्यधिक लाभ, बढ़े हुये पूँजीगत निवेश एवं बढ़ती हुयी कीमतें जैसे तत्व अर्थव्यवस्था में अनावश्यक आशावादिता फैला देते हैं। इसी अनावश्यक आशावादिता में स्व-विनाश (Self-destruction) के बीज विद्यमान रहते हैं। अर्थव्यवस्था के विभिन्न खण्डों में कठिनाइयाँ उत्पन्न होने लगती हैं। उत्पादन साधन दुर्लभ हो जाते हैं और उनकी कीमतों में और अधिक वृद्धि होने लगती है। व्यवसायियों एवं उद्योगपतियों की लागत सम्बन्धी गणनाओं में गड़बड़ी हो जाती है। जल्दीबाजी में स्थापित नयी-नयी फर्में असफल हो जाती है। 

      इसका परिणाम यह होता है कि व्यवसायी एवं उद्योगपति आवश्यकता से अधिक सावधान हो जाते हैं। नयी-नयी व्यवसायिक परियोजनाओं से वे मुँह फेर लेते हैं; यहाँ तक कि वे वर्तमान इकाइयों का विस्तार करने से भी हिचकिचाते हैं। इससे अवरोध की अवस्था का आधार तैयार हो जाता है अर्थात तेजी के बाद मन्दी का पुनरागमन होता है।

      पहले की अवस्था में व्यवसायियों में उत्पन्न आशावादिता के स्थान पर अब उनमें निराशावादिता फैल जाी है। उनमें डर की भावना व्याप्त हो जाती है और वे असमंजस में पड़ जाते हैं। कुछ व्यवसायों के फेल हो जाने से उनमें आतंक छा जाता है, बैंक भी आतंकित होने लगते हैं और घबराकर व्यवसायियों से अपने ऋण वापस मांगने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि अद्धिाक व्यवसाय फेल होने लगते हैं। कीमतें गिरने लगती है और व्यवसायियों के विश्वास को बहुत बड़ा आघात पहुँचता है। निर्माण क्रिया मन्द पड़ जाती है और निर्माणी उद्योगों में बेरोजगारी के चिन्ह प्रकट होने लगते हैं। यह प्रारंभिक बेरोजगारी धीरे-धीरे अन्य क्षेत्रों में भी फैल जाती है। इस बेरोजगारी से आय, व्यय, कीमतों एवं लाभ की दरों में कमी हो जाती है। 

      महत्वपूर्ण है कि अवरोध या प्रतिसार (Recession) का संचयी प्रभाव (Cumulative effect) पड़ता है, जब एक बार अवरोध प्रारम्भ हो जाता है तो धीरे-धीरे उसका प्रभाव बढ़ता चला जाता है। अत: यह मन्दी का रूप धारण कर लेता है अर्थात मन्दी से ही व्यापार चक्र की शुरूआत होती है और मन्दी के पुनरागमन से ही इसकी पूर्णता होता है।

      व्यापार चक्र की उपरोक्त पाँच अवस्थायें होती हैं। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि हर व्यापार चक्र इन पाँचों अवस्थाओं से इसी क्रम से होकर गुजरता है। इसी प्रकार व्यापार चक्र की विभिन्न अवस्थाओं को समयावधि के बारे में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता।

      व्यापार चक्र के सिद्धांत 

      व्यापार चक्र पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की अत्यन्त जटिल समस्या है। व्यापार चक्र क्यों आते हैं ? और बार बार लगभग नियत समय पर ही क्यों होते हैं ? इन प्रश्नों के उत्तर के लिये विभिन्न अर्थ शास्त्रिायों ने समय-समय पर विभिन्न सिद्धांत प्रस्तुत किये हैं। मोटे रूप में इन्हें दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है -
      1. वह वर्ग जो मौद्रिक घटकों को आर्थिक उतार चढ़ाव का कारण मानता है। इस वर्ग के समर्थक हैं लूडविग, हेयक, हाट्रे, हिक्स आदि, और
      2. वह वर्ग है जो अमौद्रिक घटकों को आर्थिक उतार चढ़ाव अर्थात व्यापार चक्रों का कारण मानता है। इस वर्ग में स्टैनले, जेवन्स, विक्सेल, पीगू आदि अर्थशास्त्री आते हैं।
      1. व्यापार चक्र के अमौद्रिक सिद्धांत 
      1. जलवायु सिद्धांत 
      2. मनोवैज्ञानिक सिद्धांत 
      3. अधिक उत्पादन का सिद्धांत 
      4. अधिक बचत का सिद्धांत 
      5. नवप्रवर्तन सिद्धांत 
      2. व्यापार चक्र के मौद्रिक सिद्धांत 
      1. हेयक का अधि-विनियोग सिद्धांत 
      3. कीन्स का व्यापार चक्र सिद्धांत 
      4. हिक्स का व्यापार चक्र का सिद्धांत

      1. व्यापार चक्र के अमौद्रिक सिद्धांत 

      1. जलवायु सिद्धांत - जलवायु सिद्धांत व्यापर चक्र का प्राचीनतम सिद्धांत हैं इसके प्रतिपादक डब्लू स्टेनले जेवन्स (W. Stanley Javans) ने अपने प्रसिद्ध ‘सूर्य चिन्ह सिद्धांत’ (Sunspot Theory) में व्यापार चक्र को सूर्य में उन चिन्हों से जोड़ा जो प्रत्येक 10 वर्ष की अवधि के उपरान्त सूर्य में उत्पन्न होते हैं अर्थात उनके अनुसार समय समय पर सूर्य में होने वाले परिवर्तन व्यवसाय के लयबद्ध उतार चढ़ावों को निर्धारित करते हैं। 

      जेवन्स ने यह बताया कि सूर्य में कुछ वर्षों के पश्चात नियमानुसार कुछ धब्बे दिखायी पड़ते हैं। इन धब्बों के कारण सूर्य पृथ्वी को पर्याप्त गर्मी नहीं पहुचा पाता, जिससे मानसून अच्छा नहीं रहता परिणामस्वरूप फसलों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, और मानव जाति के लिए मन्दी अथवा अवसाद की दशायें उत्पन्न कर देती हैं । उसके विपरीत, यदि सूर्य तल पर काले धब्बे नहीं दिखयी पड़ते तो वर्षा/फसल अच्छी होगी। इससे कृषि के साथ-साथ उद्योगों में भी सम्पन्नता आती है। अच्छी फसलों के कारण यातायात उ़द्योत तथा बहुत से अन्य उद्योगों की सेवाओं की मांगी भी बढ़ जाती है जिसके परिणामस्वरूप सम्पन्नता की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो राष्ट्रीय अर्थव्यवथा के सभी क्षेत्रों कें फैल जाती है। 

      जलवायु में यह परिवर्तन ठीक समय से नियमित रूप से होते हैं जिसके कारण देशों में मन्दी व तेजी की दशायें समय से और नियमित रूप से फैलती रहती है।

      2. मनोवैज्ञानिक सिद्धांत - कुछ अर्थाधास्त्रियों द्वारा व्यापार चक्रों की व्याख्या नियोजकों की मनोवृत्ति के आधार पर करने का प्रयास किया गया है। इस सिद्धांत के मुख्य समर्थक प्रो0 पीगू (Pigou) हैं। इस सिद्धांत के अनुसार व्यवसायियों एवं उद्योगपतियों में क्रियाशील होने वाली आशवादिता एवं निराशावादिता के मनोभावों के कारण ही व्यावसायिक उच्चावचन होते रहते हैं। मनुष्य में बहुत कुछ भेड़-चाल पाई जाती है, अर्थात एक मनुष्य के हृदय में वैसा करने की इच्छा उत्पन्न होने लगती जैसा कि अन्य व्यक्ति कर रहा हो या कर चुका हो। कभी-कभी भेड़-चाल की प्रवृत्ति इतनी प्रबल हो जाती है कि लोगों की निर्णय शक्ति जवाब दे जाती है और प्रत्येक व्यक्ति वैसा ही करने लगता है जैसा कि दूसरे कर रहे हों और इस बात पर ध्यान नहीं देता कि वे ऐसा क्यों कर रहे थे। इस प्रवृत्ति को मनोवैज्ञानिक भाषा में भीड़-मनोवृत्ति (Crowd Psychology) कहते हैं, जो किसी आदेश के समय उत्पन्न हो जाती है। 

      इसी प्रकार व्यापारिक क्षेत्र में जब कोई महत्वपूर्ण घटना घटित हो जाती है तो दूसरों पर इसका प्रभाव शीघ्रता से पड़ने लगता है और उनके कार्य भी उसी प्रकार होने लगते हैं अर्थात व्यापारिक क्षेत्र में देखा देखी की प्रवृत्ति पायी जाती है।

      समय-समय पर व्यवसायी एवं उद्योगपति आशावादिता से प्रभावित होते रहते हैं। कुछ बड़े-बड़े व्यवसायी एवं उद्योगपति यह महसूस करने लगते हैं व्यावसायिक समय अच्छा चल रहा है और यह अच्छा समय भविष्य में भी चलता रहेगा। इस आशावादिता से अन्य छोटे-छोटे व्यापारी एवं उद्योगपति भी आशावादी दृष्टिकोण अपनाते हैं। इस प्रकार शीघ्र ही समूचा व्यवसायी वर्ग आशावाद से प्रभावित हो उठता है। इस प्रकार आशावाद की मनोवृत्ति से प्रभवित होकर व्यवसायी एवं उद्योगपति अर्थ व्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में नये-नये निवेश करने लगते हैं। इससे तेजी की अवस्था का सूत्रापात होने लगता है। इस प्रकार कभी कमी व्यवसायी एवं उद्याोगपति व्यापार के व्विष्य के प्रति निराशावाद हो जाते है। बड़े-बड़े व्यवसायी एवं उद्योगपति अपने इस निराशावाद को छोटे-छोटे व्यवसायियों एवं उद्योगपतियों की ओर प्रसारित करते हैं। 

      अन्त में समूचा व्यवसायी वर्ग में निराशा की लहर फैल जाती है। इस सामान्य निराशावाद से प्रभावित होकर व्यवसायी एवं उ़द्योगपति नये-नये निवेश करना बन्द कर देते हैं। निराशावाद इतना अधिक बढ़ जाता है कि व्यवसायी एवं उद्योगपति वर्तमान उत्पादन क्षमता में भी कटौती कर देते हैं। 

      इससे अर्थव्यवस्था में मन्दी कमी शुरुआत होने लगती है। अत: मन्दी एंव तेजी निवेशकर्ताओं में उठने वाले निराशावाद एवं आशावाद के मनोभावों के अन्तरण से होती हैं।

      3. अधिक उत्पादन का सिद्धांत - इस सिद्धांत को व्यापार चक्र का प्रतियोगिता सिद्धांत भी कहते हैं। इस सिद्धांत का प्रतिपादक समाजवादी प्रवृत्ति के अर्थशस्त्रिायों द्वारा किया गया है। इस सिद्धांत के अनुसार व्यपार चक्र अति-उत्पादन (Over production) के परिणामस्वरूप ही उत्पन्न हुआ करते हैं और अति-उत्पादन एक स्वतन्त्रा एवं प्रतियोगी अर्थवयवस्था में अनेक प्रतियोगी फर्मे होती हैं, समरूप वस्तु (Homogeneous Commodity) का उत्पादन करती है और उसे एक ही बाजार में बेचती हैं। 

      परिणामत: उनके बीच प्रतियोगिता अनिवार्य हो जाती है। प्रत्येक फर्म बाजार के अधिकाधिक भाग पर कब्जा करने का प्रयास करती है। इसी प्रयास में वह वस्तु का इतना अधिक उत्पादन कर लेती है कि उसके लिये उसे बाजार में बेचना कठिन हो जाता है। उस प्रकार वस्तु का अति उत्पादन हो जाता है ओर बाजार में माल की बाढ़ आ जाती है। अति उत्पादन की इस परिस्थिति में वस्तु की कीमत में कमी होना अनिवार्य हो जाता है। यही बात अन्य वस्तुओं के साथ होती है।

      जबकि वस्तुओं की कीमतें गिरने लगती हैं उनकी उत्पादन लागत बढ़ने लगती है क्योंकि उत्पादकों की पारस्परिक प्रतियोगिता के कारण कच्चे माल एवं उत्पाद साधनों की व्यापक दुर्लभता हो जाती है परिणामस्वरूप उत्पादकों को उनके लिये अधिक कीमते चुकानी पड़ती हैं। इस प्रकार दो बाते एक साथ घटित होती हैं। एक तो कीमते नीचे गिरती हैं और दूसरी ओर लागतें ऊपर उठती हैं। इस प्रकार लाभ की मात्रा बहुत कम हो जाती है, जिससे उत्पादकगण उत्पादन को घटाने के लिये बाध्य होते हैं। 

      कुछ सीमान्त फर्में धराशायी हो जाती हैं। इससे अन्य फर्मों के भाग्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। व्यावसायिक फर्मे अधिकाधिक फेल होने लगती हैं। अन्तत: समूची अर्थव्यवस्था मन्दी की चपेट में आ जाती है।

      4. अधिक बचत का सिद्धांत - अधिक बचत सिद्धांत को व्यापार चक्र का अल्प उपयोग सिद्धांत (Under consumption Theory) भी कहते हैं। आधुनिक रूप में इसे हॉबसन (Hobson) ने प्रस्तुत किया है। इस सिद्धांत के अनुसार पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में प्रचलित आय सम्बन्धी असमानतायें ही व्यापार चक्र के मूलभूत कारण हैं। इस सिद्धांत के अनुसार समाज में गरीबों एवं अमीरों के मध्य जो व्यापक आय असमानतायें पाई जाती हैं उनके कारण उत्पन्न हुई ‘अधिक बचत’ और ‘न्यून उपयोग’ की विलक्षण घटनायें सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था को व्यापार चक्र के उबलते हुये कड़ाहे में सरका देती है।

      आार्थिक असमानताओं के अन्तर्गत धनी लोगों की आय इतनी अधिक हो जाती है कि वे इसका उपभेग नहीं कर पाते और आय की काफी भाग बचाते रहते हैं। यह बचत उत्पादक कार्यों में लगाई जाती है जिससे अधिक उत्पादन किया जाता है और इसकी मात्रा इससे अधिक हो जाती है जो कि निर्धन वर्ग खरीद सकता है (अर्थात पूर्ति मांग से अधिक हो जाती है)। यदि राष्ट्रीय लाभांश में निर्धनों की मांग कुछ अधिक होता तो वे संभवत: इस बढ़ी हुई आय का प्रयोग कुछ सीमा तक अपने उपभोग में करते। इस प्रकार ‘अर्तिाक बचत’ के कारण या यों कहिये कि ‘न्यून उपभोग’ के कारण माल की पूर्ति उसकी खपत से अधिक हो जाती है। 

      अत: मन्दी का काल या मूल्यों में उतार प्रारंभ हो जाता है। मूल्यों के काफी गिरने पर उत्पादन की अतिरिक्त मात्रा खरीद ली जाती है। धनवानों की बचत तो बराबर रहती है और उनका विनियोग भी जारी रहता है जिससे उत्पादन फिर बढ़ने लगता है और फिर तेजी की स्थिति प्रकट हो जाती है। इसका कारण भी अधिक बचत है। 

      अत: स्पष्ट है कि बार-बार के इन संकटों से तभी छुटकारा मिल सकता है जबकि उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति उत्पादन की समस्त लागत के बराबर हो अर्थात माल के उत्पादन में जितना व्यय किया जाय वह समाज को (उपभोक्ता को सम्मिलित करते हुये) लौटा दिया जाय लेकिन ऐसा नहीं हो पाता, क्योंकि राष्ट्रीय आय का एक बड़ा भाग धनी वर्गों के पास चला जाता है जो कि गिनती में थोड़े होते हैं जबकि श्रमिकों के पास, जिनकी संख्या अधिक होती है, बहुत थोड़ा भाग पहुंचता है। परिणाम यह होता है कि कुल पर उपभोक्ताओं के पास इतनी क्रय शक्ति नहीं होती कि वह उत्पादन लागत के बराबर हो।

      5. नवप्रवर्तन सिद्धांत - अमेरिकन अर्थशास्त्राी, जोसेफ शुम्पीटर (Joseph Schumpeter) ने नव प्रवर्तन सिद्धांत का प्रतिपादन किया था। प्रो0 शुम्पीटर के अनुसार पूंजीवादी देश की आख्रथक प्रणाली में समय-समय पर जो नव प्रवर्तन होते रहते हैं, उन्हीं के कारण व्यापार चक्र की शुरुआत होती है। अब प्रश्न उठता है कि नवप्रवर्तन से क्या आशय है। 

      प्रो0 शुम्पीटर के अनुसार ‘‘नव प्रवर्तन की आशय ऐसी किसी नवीन प्रवर्तन से है जो उत्पादन की वर्तमान प्रविधियों में उद्यमियों द्वारा रूपान्तरण (transformation) कर दिया जाता है।’’ निम्नलिखित में से कोई भी ‘नव प्रवर्तन’ हो सकता है :
      1. कोई नया यान्त्रिाक अविष्कार,
      2. किसी नवीन वस्तु की उत्पादन,
      3. उत्पादन की किसी नवीन प्रविधि का विकास,
      4. वर्तमान वस्तुओं के लिये नये बाजारों का विकास,
      5. वर्तमान व्यवसायिक उपक्रमें के कच्चे माल के नये स्त्रोतों का विकल्प,
      6. नये प्रकार के कच्चे माल का विकास
      7. व्यवसायिक संगठन के नवीन रूपों का विकास, और
      8. व्यवसायिक प्रबन्धन में नवीन प्रविधियों को विकास। 
      शुम्पीटर नवप्रवर्तन एवं आविष्कार (Invention) में मोलिक भेद करते हैं। ‘आविष्कार’ से अभिप्राय किसी नवीन वस्तु की खेाज से होता है लेकिन नवप्रवर्तन की अर्थ किसी नयी चीज को व्यवहार में लागू करने से होता है। लाभ को बढ़ाने अथवा तीव्र प्रतियोगिता के अन्तर्गत उसकी दर को बनाये रखने की आशंसा व्यवसायिक नवप्रवर्तनों को प्रोत्साहित करती है। अत: प्रतियोगी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में नवप्रवर्तन अनिवार्य रूप से घति होते रहते हैं। नवप्रवर्तन भी दो प्रकार को होते हैं -

      (i) नवप्रवर्तनों की लघु लहरें (Smaller Waves of innovations)। प्रथम प्रकार के नव प्रवर्तनों से दीर्घकालीन व्यापार चक्र घ्टित होते हैं, जबकि दूसरी प्रकार के नवप्रवर्तनों से अल्पकालीन व्यापार चक्रों का सूत्रापात होता है।

      प्रो0 शुम्पीटर के अनुसार ‘नवप्रवर्तनों की लघु लहरें’ अलग अलग नहीं आती बल्कि समूहों में आती हैं। इसका कारण यह है कि व्यवसायियों को लब भी कोई नया विचार सूझता है तो वे तुरन्त ही उसे व्यवहार में नहीं ले आते। इस प्रकार नेय-लनये विचारों का संचय होता रहता है और उपयुक्त समय पर व्यवसायी लोग उन्हें व्यवहारिक रूप प्रदान करते हैं जब एक बार किसी नये विचार को प्रमुख फर्मों द्वारा कार्यस्रूप मं परिणत कर दिया जाता है तो अन्य फर्मे भी तेजी से उनका अनुसरण करने लगती हैं। तेजी-मन्दी चक्र का विश्लेषण शुम्पीटर के अनुसार जब कभी कोई नवप्रवर्तन होता है तो उससे वर्तमान आर्थिक प्रणाली में असन्तुलन उत्पन्न होता है। आर्थिक प्रणाली का यह असन्तुलन तब तक जारी रहता है जब तक किसी नयी सन्तुलन स्थिति में आार्थिक शक्तियों का पुन: समायोजन नहीं हो जाता।

      व्यापार चक्र की तेजी को स्पष्ट करने हेतु प्रो0 शुम्पीटर यह मान लेते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था पूर्ण रोजगार की स्थिति में होती है। सभी उत्पादन साधन पहले पूर्णतया कार्य-संलग्न होते हैं, कोई भी साधन ऐसा नहीं होते जो बेरोजगार हो। यदि मान लीजिये कि ऐसे समाज में कोई नवप्रवर्तन घटित होता है जिसके माध्यम से व्यवसायीगण किसी नयी वस्तु का उत्पादन करते हैं। इसका अभिप्राय यह हुआ कि देश की अर्थव्यवस्था में पूर्णतया एक नया उद्योग स्थापित हो गया है। अब उत्पादन के सभी साधन तो पहले ही पूर्णतया कार्य संलग्न हैं। प्रश्न अब यह पैदा हाता है कि नया उद्योग आवश्यक साधनों को कहां से प्राप्त करेगा। स्पष्ट है कि नया उद्योग ऊँचे पारिश्रमिकों का प्रलोभन देकर उत्पाद साधनों को वर्तमान उद्योगों से ही प्राप्त करेगा।

      इस प्रकार समग्र रूप में सभी साधों के पारिश्रमिक बढ़ जायेंगे। इससे वर्तमान उद्योगों की उत्पादन लागतें बढ़ जायेंगी। वर्तमान उद्योगों की लागतों में ही वृद्धि नहीं होगी बल्कि उनके उत्पादन में भी कमी हो जायेगी। इसका कारण यह है कि वर्तमान उद्यागों को अब पहले से कम मात्र में उत्पादन साधन उपलब्ध होते हैं। इसी दौरान बैंक साख का विस्तार करके नये उद्योग का वित्त प्रबन्ध किया जायेगा। नये उद्यागों में लगाये गये उत्पादन साधनों को वर्तमान उद्योगों की अपेक्षा अधिक ऊँचे पारिश्रमिक दिये जायेंगे। इस प्रकार नये उद्योग में लगे श्रमिकों के पास पहले की अपेक्षा अधिक क्रय शक्ति होगी। इस क्रय शक्ति को वे वर्तमान उद्योगों द्वारा उत्पादित वस्तुओं पर व्यय करेंगे। परिणामत: वर्तमान उद्योगों के माल की मांग बढ़ जायेगी।

       यद्यपि इन उद्योागों के माल की मांग बढ़ जायेगी, उत्पादन साधनों की दुर्लभता के कारण इनके माल की पूर्ति नहीं बढ़ सकेगी, बल्कि पहले की अपेक्षा गिर जायेगी। परिणामत: वर्तमान उद्योगों की कीमतों एवं लाभ-दरों में तेजी से वृद्धि होने लगेगी। ऊँची लाभ दरों से प्रभावित होकर वर्तमान उद्योगों के उद्यमी अपनी-अपनी उत्पादन क्षमताओं का विस्तार करने लगेंगें वर्तमान उद्योगों के विस्तर का वित्त प्रबन्ध (Finance) बैंक साख का प्रसार करके किया जायेगा। उस प्रक्रिया की पुनरावृत्ति जारी रहेगी। एक समय ऐसा आयेगा जब देश की अर्थव्यवस्था में स्फीतिक दशाएं उत्पन्न होने लगेंगी।

      इसमें सन्देह नहीं कि नये उद्योग को स्थापित होने में कुछ समय लग जाता है। इस अन्तरिम अवधि में नया उद्योग स्फीतिक शक्तियों को बल प्रदान करता है। इसका कारण स्पष्ट है। नये उद्यग की स्थापना के परिणामस्वरूप मजदूरों के हाथ में अतिरिक्त क्रय-शक्ति आ जाती है। लेकिन इस क्रय-शक्ति को खपाने के लिये अन्तरिम काल में वह उद्योग सममूल्य उत्पादन प्रदान करने में असमर्थ रहता है। जब नये उद्योग का माल बाजार में आता हैं, तब भी उसका स्फीतिक प्रभाव समाप्त नहीं हो जाता, बल्कि जारी रहता है। अग्रणी फर्मों द्वारा कमाये गये ऊँचे लाभ से आकर्षित होकर नयी नयी फर्में प्रविष्ट होने लगती हैं। इन फर्मों का वित्त प्रबन्ध बैंक साख के अतिरिक्त प्रसार से किया जाता है। इससे स्फीतिक आग (Inflationary fire) और भड़क उठती है। इस प्रकार प्रक्रिया की पुनरावृत्ति होती रहती है। इन सबका परिणाम यह होता है कि अर्थव्यवस्था में तेजी आ जाती है।

      अर्थव्यवस्था का समृद्धिकाल से मन्दीकल में प्रवेश जब नये उद्योग की वस्तु बाजार में आती है, तो हय पुराने उद्याअगों की वस्तुओं से प्रतियेागिता करती है। उपभोक्तागण पुनारी वस्तुओं की मांग को स्थगित करके नयी वस्तु को खरीदने लगते हैं। उस सीमा तक पुराने उद्यागों की वस्तुओं की मांग गिर जाती है। परिणामत: इन वस्तुओं की कीमतें गिर जाती हैं। इसी दौरान नये उद्याग में लगी फर्में अपने अर्जित लाभ में से उन ऋणों को चुकाना प्रारंभ कर देती हैं जो उन्होंने बैंक से ले रखे थे। इससे बैंक साख की पूर्ति में कमी हो जायेगी और देश की अर्थव्यवस्था पर इसका अवस्फीतिक प्रभाव (Deflationary effect) पड़ने लगेगा। मांग में हुई कमी को ध्यान में रखते हुये पुराने उद्योगों में संलग्न फर्में श्रमिकों एवं अन्य उत्पाद साधनों को काम से हटाकर अपने उत्पादन में कमी करना प्रारंभ कर देगी। बेरोजगार हुये श्रमिकों के पास क्रय शक्ति का अभाव हो जायेगा। 

      अत: वे न केवल पुराने उद्यागों, बल्कि नये उद्योग के माल को खरीदना भी कर कर देंगे। इस प्रकार वस्तुओं की मांग लगातार गिरती चली जायेगी। अन्तत: अर्थ व्यवस्था व्यापार चक्र के मन्दी काल में प्रविष्ट हो जायेगी।

      2. व्यापार चक्र के मौद्रिक सिद्धांत 

      1. हाट्रे का शुद्ध मौद्रिक सिद्धांत - इस सिद्धांत के प्रतिपादक हाट्रे के अनुसार, व्यापार चक्र विशुद्धतया एक मौद्रिक समस्या है। उनके अनुसार, ‘‘अमौद्रिक घटक (जैसे युद्ध भूकम्प, हड़ताल, फसलों की बरबादी इत्यादि) अर्थ व्यवस्था के विभिन्न भागों में आंशिक और अस्थायी मन्दी तो उत्पन्न कर सकते हैं, लेकिन वे व्यापार चक्र के रूप में एक ऐसी स्थायी और पूर्ण मन्दी उत्पन्न नहीं कर सकते, जिसमें कि उत्पत्ति साधनों की बेरोजगारी सामान्यत: बढ़ जाय। 

      इस सिद्धांत के अनुसार लोचदार मु्रद्रा-पूर्ति लोचदार होती है, अत: इसका विस्तार एवं सुकुचन वैकल्पिक रूप में होता रहता है। संक्षेप में, मुद्रास्फीति (inflation) एवं मुद्रा अवस्फीति (deflation) के कारण ही व्यावसायिक क्रियाओं में उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। हाट्रे के अनुसार, ‘‘मुद्रा के प्रवाह में परिवर्तन होना आर्थिक क्रिया के परिवर्तनों का, तेजी ओर मन्दी की वैकल्पिक अवल्पिायों का, और अच्छी एवं बुरी व्यापारिक दशाओं का, एकमात्रा एवं पर्याप्त कारण है।’’

      जब बैंक साख के विस्तार के माध्यम से मुद्रा-आपूर्ति में वृद्धि की जाती है तथा उसके साथ ही मुद्रा के संचलन वेग (Velocity of circulation of money) में भी वृद्धि हो जाती है तब देश में समृद्धिकाल का सूत्रापात होता है। बढ़ी हुई मुद्रा आपूर्ति के परिणाम स्वरूप उपभोक्ताओं के परिव्ययों में वृद्धि हो जाती है, साथ ही विनियोग में भी वृद्धि होती है। इसी प्रकार जब बैंक साख के संकुचन के माध्यम से मुद्रा आपूर्ति में कमी की जाती है और और उसके साथ ही मुद्रा का संचालन वेग भी कम हो जाता है तब देश में मन्दीकाल का प्रारम्भ होता है। मुद्रा आपूर्ति में की गयी कमी के परिणामस्वरूप उपभेक्ता परिणामों में भी कमी हो जाती है, निवेश घट जाता है। इस प्रकार घटे हुये उपभोक्ता परिव्ययों से चक्रीय मन्दी का प्रारंभ होता है। चूंकि मुद्रा का विस्तार एंव संकुचन बैंक साख के विस्तार एवं संकुचन के कारण होता है, अत: देश की बैकिंग प्रणाली ही, वास्तव में व्यापार चक्र की क्रियाशीलता के लिये उत्तरदायी होती है।

      बैंक साख और चक्रीय तेजी बैंक साख के विस्तार के परिणाम स्वरूप ब्याज की दरों में कमी हो जाती है। घटी हुई ब्याज दर से आकर्षित होकर व्यवसायी लोग अपने स्टॉक में वृद्धि करने हेतु बैंकों से अधिक ऋण लेने लगते हैं। वे अत्यधिक मात्रा में उत्पादकों का वस्तुओं का आर्डर भेजने लगते हैं। उत्पादक इन आर्डरों की पूर्ति के लिये उत्पत्ति साधनों में वृिद्ध करने लगते हैं। इसका परिणाम यह होता है कि देश में उत्पत्ति के साधनों की मांग में वृद्धि हो जाती है। उत्पत्ति साधनों की मांग बढ़ने से उनकी प्ररस्कार देरे बढ़ जाती हैं और रोजगार में भी वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार जनता के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ने से प्रभावपूर्ण मांग में भी वृद्धि हो जाती है। इन सब घटनाओं के कारण चक्रीय तेजी को बल मिलेगा और भविष्य में उसका वेग बढता चला जायेगा। लेकिन तेजी की यह प्रवृत्ति असीमित नहीं होती। समृद्धि का काल उस समय समाप्त हो जायेगा जब बैंक साख विस्तार नीति का परित्याग कर देंगे। प्रश्न उठता है कि बैंक विस्तार की नीति को अचानक रोक क्यों देते हैं? व्यावसायिक सौदों, मौद्रिक आय एवं उपभोक्ता व्ययों में हुई वृद्धि के कारण बैंको की नकदी निकलकर परिचलन में आ जाती है। 

      उपभोक्ताओं, व्यवसायियों एवं उद्योगपतियों द्वारा अधिक नकदी की मांग के कारण बैंकों से नकदी का तेजी से निकास होने लगता है, साथ ही बैंकों को अपने दायित्वों के अनुपात में एक न्यूनतम नकद कोष रखना पड़ता है। इससे बैंकों की तरलता (Liquidity) खतरे में पड़ जाती है।

      अत: इस खतरे से बचने हेतु बैंक साख का फैलाव बन्द कर देते हैं अर्थात बैंक ऋणों पर रोक लगा देते हैं। इसका यह आशय नहीं है कि वे ऋण देना बिल्कुल रोक देते हैं। वे ब्याज दरों में वृद्धि करके नये ऋणों को हतोत्साहित करने लगते हैं यही नहीं, बैंक अपने उधार दी रकम (अल्पकालीन ऋणों एवं याचना राशियों) को ग्राहकों से वापस लेना पा्ररंभ कर देते हैं। यह परिवर्तन साहसियों के लिये विपत्तियों का तूफान लाता है। व्यवसायियों ने अकस्मात डर बैठ जाता है और अपने बकाया ऋणों को चुकाने हेतु उन्हें अपने स्टाक किसी भी कीमत पर बेचने पड़ते हैं। इससे बाजार में मन्दी छा जाती है। कीमतें नीचे गिरना शुरू हो जाती हैं। यहां तक कि कमजोर एवं सीमान्त फमो। के साथ ही कुछ सुदृढ़ फर्में भी अपने वित्तीय दायित्वों को निभाने में असमर्थ हो जाती हैं ओर अंत में साख की असाधारण संरचना (Credit super structure) ताश के बने हुये महल के समान तेजी से ढह जाती हैं। कुछ फमो।्र के फेल हो जाने से शेष फर्मों में भय यहां तक कि आतंक फैल जाता है। वे उत्पादन में कटौती करना प्रारंभ कर देती हैं। उपभोक्ताओं द्वारा खरीददारी घटा दी जाती है। परिणामस्वरूप चक्रीय मन्दी की शुरुआत हो जाती है। जब एक बार मन्दी प्रारंभ हो जाती है तो काालान्तर में इसकी तीव्रता वढ़ता जाती हे। समूची अर्थव्यवस्था में निराशा एवं अवसाद का वातावरण छा जाता है। इस प्रकार तेजी एवं मन्दी की वैकल्पिक अवधियां आती जाती रहती हैं।

      2. हेयक का अधि-विनियोग सिद्धांत - व्यापार चक्र का अधि-विनियोग सिद्धांत आस्ट्रियन अर्थशास्त्राी एफ0 ए0 वान हेयक (F.A. Von Hayek) के नाम से सम्बद्ध है। हेयक के अनुसरार, ‘‘कृत्रिम रूप से निम्न ब्याज दरों पर (ब्याज की बाजार दर प्राकृतिक दर से कम होती है) किया गया बैंक साख का अति निर्गमन ही व्यापार चक्रों की क्रियाशीलता के लिये पूर्णत: उत्तरदायी होता है।’’ हेयक के अुनसार जब तक ब्याज की बाजार दर ब्याज की प्राकृतिक दर के समान रहती है तब तक कोई समस्या उत्पन्न नहीं होती और देश की अर्थव्यवस्था सन्तुलन की अवथा में रहती है। लेकिन समस्या उस समय उत्पन्न होती है जब ब्याज की बाजार दर एवं प्राकृतिक दर में अन्तर उत्पन्न होता है। 

      मान लीजिये कि ब्याज की बाजार दर ब्याज की प्राकृतिक दर से कम है। विनियोग कोषों की मांग बचतों की उपलब्ध पूर्ति से बढ़ जायेगी। इस प्रकार बचतों की मांग एवं पूर्ति के बीच अन्तराल उत्पन्न हो जायेगा। बैंक साख का विस्तार करके इस अन्तराल को दूर करेन का प्रयास किया जायेगा। 

      बैंक साख के विस्तार के परिणामस्वरूप मुद्रा की पूर्ति बढ़ जायेगी और कीमत स्तर में वृद्धि हो जायेगी इससे स्फीति अथवा तेजी का सूत्रापात होगा। यदि हम यह मान लें कि ब्याज की बाजार दर प्राकृतिक दर से अधिक है। इस स्थिति में विनियोग कोषों की मांग बचतों की उपलब्ध पूर्ति से कम होगी। बैंक साख का संकुचन किया जायेगा। परिचलन में मुद्रा की पूर्ति में कमी आ जायेगी उससे कीमत स्तर भी कम हो जायेगा और अर्थव्यवस्था में अवस्फीति अथवा मन्दी का दौर शुरू हो जायेगा।

      अत: जब ब्याज की बाजार दर उसकी प्राकृतिक दर से कम होती है तो विनियोग कोषों की मांग उपलब्ध बचतों की पूर्ति से अधिक बचतों की मांग एवं पूर्ति के इस अन्तर को ब्याज की सस्ती दरों पर बैंक साख का विस्तार करके दूर किया जाता है सस्ती ब्याज दरों से प्रोत्साहित होकर व्यावसायिक फर्में बैंकों से अधिकाधिक ऋण लेंगी तथा अतिरिक्त राशियां उत्पादन के साधनों में वृद्धि के लिये प्रयुक्त करेंगी। परिणामत: उत्पादन वस्तुओं (अर्थात पूंजीगत वस्तुओं) की मांग तथा कीमतें बढ़ जायेंगी और संसाधन उपभोग वस्तुओं के उत्पादन से पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन की ओर अन्तरित होना प्रारंभ कर दंगे। 

      इससे उपभोग वस्तुओं का उत्पादन घट जायेगा तथा उनकी कीमतें बढ़ जायेंगी। कीमतों के बढ़ जाने से लोग अपनी आय द्वारा उनकी कम मात्रा (Forced Saving) कहते हैं। इससे उपभोग वस्तुओं की मांग कम हो जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि उपभोग वस्तु के निर्माण करने वाले उद्योगों में संकुचन आता है तथा उस क्षेत्र से अधिकाधिक संसााधन पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन के क्षेत्रा में अन्तरित होने लगते हैं। इस प्रकार उपयोग वस्तुओं के उत्पादन में कमी दोनों तरफ से आती है. एक तो बैंक द्वारा साख प्रसारण के कारण उपभोग वस्तु उद्याोगों से उत्पादन साधन पूंजी वस्तु उद्याोगों की ओर आकर्षित होने लगते हैं,; और दूसरे, मांग की कमी के कारण भी वस्तुओं के उत्पादन में कमी होती है तथा साधन स्वंय पूंजीगत वस्तुओं के उत्पादन में लोग उद्योगों की ओर खिंच जाते हैं, इस प्रकार व्यापार चक्र के उत्कर्ष (Upswing) की दशा में संसाधन निम्न चरणों से उच्चतर चरणों पर आ जाते हैं। तेजी की इस दशा में कई बाते होती हैं ब्याज की बाजार दर प्राकृतिक दर से नीचे रहती है दोनों के बीच अन्तर बढ़ता जाता है; अधिकाधिक पूंजीगत वस्तुओं का निर्माण किया जाता है तथा अधिकाधिक ऋण लिये जाते हैं।

      तेजी के बाद अवनति अथवा मन्दी (Downswing or depression) आती हैं। उपक्रमी जो अतिरिक्त मुद्रा बैंक से लेकर पूंजीगत वस्तुओं में निर्माण में लगाते हैं, उससे अतिरिक्त आय पैदा होती है। चूंकि लोगों की उपभोग के बारे में भावना अपरिवर्तित रहती है इसलिये अतिरिक्त आय अधिकतर उपभोग पर खर्च होती है। अत: उपभोग वस्तुओं की कीमतें भी बढ़ जाती हैं और उपभोग वस्तुओं का उत्पादन अधिक लाभप्रद हो जाता है। अत: उत्पादन के साधन उपभोग वस्तुओं के उत्पादन की ओर प्रवृत्त होने लगते हैं। इस बीच बैंक यह महसूस करने लगते हैं कि साख का विस्तार बहुत आगे आ चुका है। इसलिये वे साख का संकुचन करने लगते हैं जिसे उत्पादन चरण और भी वे साख लाभदायक होने लगते हैं। इन सब कारणों से संसाधन उत्पादन के उच्चतम चरणों से निम्नतम चरणों की ओर प्रवृत्त होते हैं परन्तु दुर्भाग्यवश संसाधन जितनी जल्दी उच्चतर चरणों से निकल जाते हैं, उतनी शीध्रता से उनकी खपत निम्न चरणों में नहीं हो पाती। परिणामस्वरूप बेरोजगारी फैल जाती है। बैंक भी अपना ऋण वापस मांगने लगते हैं।

      बैंक साख में उत्तरोत्तर कमी, निराशावाद तथा लोगों की मुद्रा संचय की प्रवृत्ति बेरोजगारी को और अधिन गहन कर देती है। अवनति उस समय तक जोर पकड़ती रहती है जब तक बैंक अपनी नीति नहीं बदलते। जब अवसाद की अवस्था एक लम्बे समय तक चलती रहती है व व्यापारियों में यह भावना उत्पन्न हो जाती है अब यह बुरा समय समाप्त हो गया और कालान्तर में दशा इससे बुरी नहीं होगी। इस भावना का कोई आार्थिक कारण नहीं है। धीरे धीरे बैंक के नकद कोष भी बढ़ जाते हैं क्यों कि एक तो व्यापारियों द्वारा पुराने ऋणों का भुगतान किया जाता है तथा दूसरे बैंक में लोग अपनी बचतों को भी जमा कर देते हैं। अब बैंक उत्पादकों को ऋण देने के लिये तत्पर हो जाते हैं। अत: बैंकों द्वारा ब्याज दरों से कमी की जाती है बैंक की ब्याज दर नीची होने से व्यापारियों की आशा फिर जाग्रत हो उठती है, ऋण फिर लिये जाने प्रारंभ हो जाते हैं और धीरे-धीरे अवसाद की दशायें समाप्त हो कर उत्कर्ष (upswing) की दशायें आरमभ हो जाती हैं।

      3. कीन्स का व्यापार चक्र सिद्धांत 

      कीन्स का व्यापार चक्र सिद्धांत (Keynes' theory of Business Cycle) कीन्स ने अपनी पुस्तक सामान्य सिद्धांत (General Theory) में आय, उत्पादन तथा रोजगार के स्तर की व्याख्या की है अर्थात यह बताया है कि किसी देश में आय, उत्पादन तथा रोजगार में कैसे उतार व चढ़ाव होते हैं। हालांकि कीन्स ने व्यापार चक्र का कोई विशेष सिद्धांत नहीं बताया, किन्तु अपनी पुस्तक में उन्होंने जो आय तथा रोजगार के घटने बढ़ने की व्याख्या की है उससे व्यापार चक्र अथवा आर्थिक उतार चढाव का पता चल जाता है, क्योंकि आर्थिक उतार-चढ़ाव भी एक प्रकार से आय तथा रोजगार में उतार चढ़ाव ही है।

      कुल रोजगार प्रभावपूर्ण मांग (कुल व्यय) पर निर्भर करता है। प्रभावपूण्र मांग दो बातों उपभोग पर व्यय एवं विनियोग पर व्यय का योग होता है। चूंकि उपभोग पर व्यय लगभग स्थिर रहता है इसलिये विनियोग की मात्रा में होने वाले उतार-चढ़ाव ही आर्थिक उच्चावचन के मुख्य कारण हैं। विनियोग की मात्रा दो तत्वों पर आधारित रहती है  (i) ब्याज की दर और (ii) पूंजी की सीामान्त उत्पादकता (Marginal efficiency of Capital) विनियोग उस बिंदु तक किया जाता है, जहां पर पूंजी की सीमान्त उत्पादकता ब्याज की दर के बारबर हो जाती है। ब्याज की दर, जो मुद्रा की मात्रा एवं तरलता पसन्दगी (Liquidity Preference) पर निर्भर करती है, कम से कम अल्पकाल में तो स्थायी ही रहती है, इसलिये व्यापारिक क्रियाओं के उतार-चढ़ााव में उसका कोई महत्वपूर्ण योगदान नहीं रहता। अत: पूंजी की सीमान्त उत्पादकता के उतार-चढ़ाव ही विनियोग की मात्रा में उतार-चढ़ाव उत्पन्न करते हैं।

      अत: कीन्स के अनुसार व्यापार चक्र की क्रियाशीलता का मुख्य कारण पूंजी की सीमान्त उत्पादकता में होने वाले उतार-चढ़ाव हुआ करते हैं। पूंजी की सीमान्त उत्पादकता अथवा प्रत्याशित लाभ-दर दो बातों पर निर्भर है : (i) पूंजीगत वस्तुओं से भावी प्राप्तियां अथवा आय (Prospective Yilds from capital goods) तथा (ii) पूंजीगत वस्तुओं की लागत अथवा पूर्ति कीमत (Cost or suppl;y price of capital goods)। इन दोनों में लागत का इतना महत्व नहीं है, इसलिये ‘भावी आय’ में होने वाले परिवर्तनों के द्वारा ही पूेंजील की सीमान्त उत्पादकता निश्चित होती है। चूंकि भविष्य में लाभ व आय की संभावना बदलती रहती है, अत: पूंजी की सीमान्त उत्पादकता भी बदती रहती है जिससे विनियोग में घट-बढ़ होती रहती है। परिणामस्वरूप आार्थिक उतार-चढ़ाव होता रहता है।

      अब प्रश्न यह है कि कीन्स के सिद्धांत के अनुसार व्यपार चक्र की व्याख्या किस प्रकार की जाती है अर्थात व्यापार जब इतने ऊँचे शिखर पर पहुँच जाता है तो फिर नीचे कैसे आता है ? कैसे ऊपर की ओर चढ़ने लगती है। जब व्यापार में तेजी आते-आते यह शिखर पर पहुंच जाता है तो पूंजी की सीमान्त उत्पादकता घटने लग जाती है क्योंकि पूंजी पदार्थों की बहुलता हो जाती है। पूंजी की सीमान्त उत्पदकता के घटने का अर्थ यह होता है कि विनियोग से प्रत्याशित लाभ की दर गिर जाती है। पूंजी की सीमान्त उत्पादकता गिरने से व्यापारियों पर जो निराशाजनक प्रभाव पड़ता है, उसके कारण व्यापार चक्र तेजी से नीचे की ओर चल पड़ता है। अत: कीन्स के अनुसार अर्थव्यवस्था का तेजी से मन्दी की ओर मुड़ जाने का कारण, पूंजी की सीमान्त उत्पादकता की सहसा अत्यन्त नीचे गिर जाना है।

      कुछ समय के लिये व्यापारिक चक्र नीचे की ओर चलता जाता है। जब पूंजी की सीमान्त उत्पादकता के गिर जाने से विनियोग घट जाता है तो आय भी घट जाती है तथा गुणक विपरीत दिशा में चलने लग पड़ता है (The multiplier works in the reverse directions) अर्थात विनियोग के आई कमी की अपेक्षा आय कई गुना अधिक घट जाती है और जब गुणक के प्रभाव के कारण आय और उत्पादन तेजी से घट रहे होते हैं तो रोजगार भी घट जाता है और अर्थव्यवस्था में मन्दी छा जाती है। जैसे पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का घटना तेजी से मन्दी की ओर मुोड़ का कारण था, इसी प्रकार पूंजी की सीमान्त उत्पादकता का कुछ बढ़ जाना व्यापार के पुनरुद्धार (Recovery) का कारण बन जाता है।

      व्यापार चक्र का नियंत्रण

      व्यापार चक्र जिससे आर्थिक क्रियाओं में भारी चक्रीय उतार-चढ़ाव होते रहते हैं, किसी भी समाज के लिये लाभप्रद नहीं है क्योंकि इससे समाज की क्रमबद्ध एवं निर्विघ्न प्रगति को बहुत ठेस लगती है। अत: यह नितान्त आवश्यक है कि अर्थ व्यवस्था में व्यापार चक्र की क्रियाशीलता को रोकने के प्रयास किये जायें। व्यापार चक्र को नियन्त्रिात करने के प्रमुख उपाय निम्नलिखित हैं :—
      1. मैद्रिक नीति (Monetary Policy)
      2. प्रशुल्क अथवा राजकोषीय नीति (Fiscal Policy)
      3. स्वचालित स्थायीकारक (Automatic Stabilizers)
      4. मौद्रिक नीति (Monetary Policy)
      मौद्रिक नीति से आशय आर्थिक स्थिति में वांछित परिवर्तन लाने के लिये मुद्रा तथा साख की मात्रा में परिवर्तन है। दूसरे शब्दों में मौद्रिक नीति के अन्तर्गत वे सभी उपाय आ जाते हैं जिनके द्वारा केन्द्रीय बैंक साख नियन्त्राण के उपकरणों को अधिक प्रभावशाली बाता है। व्यापार चक्र का कारण चाहे कुछ भी हो, मौद्रिक तत्व सदैव उसको बिगाड़ देते हैं। मौद्रिक तत्व संभवत: व्यापार चक्र का सृजन तो नहीं करते लेकिन जब एक बार व्यापार-चक्र चकार्यशील हो जाता है, तो वे इसकी शक्ति को बढ़ा देते हैं। मौद्रिक स्फीति के परिणामस्वरूप कीमतें एवं लाभ की दरे बढ़ने लगती हैं। व्यवसयियों में आशावाद की जहर दौड़ जाती है। इससे चक्रीय तेजी को बल मिलता है। इसके विपरीत, मौद्रिक अवस्फीति से कीमतें एवं शील की दरें गिरने लगती हैं। अथ व्यवस्था में निराशावाद की भावना फैल जाती है।

      इससे चक्रीय मन्दी तेज होती है। चूॅंकि व्यापार चक्र से उत्पन्न व्यवसायिक उच्चावचनों को मौद्रिक तत्व और अधिक उग्र बना देते हैं, अत: यह आवश्यक प्रतीत होता है कि ऐसे मौद्रिक तत्वों को नियन्त्रिात करने हेतु कुछ कदम उठाये जाने चाहिये। इस उद्देश्य की पूर्ति हेतु सरकार को चाहियें कि वह स्थिति से निपटने के लिये एक समुचित मौद्रिक नीति का निर्माण करे। मुद्रा पूति के अनुचित विस्तार को रोका जाय। इसका सर्वोत्तम उपाय यह है कि सरकार मुद्रा अधिकरण से आग्रह करे कि वह नोट निर्गमन के पीछे समुचित एवं पर्याप्त प्रतिभूति की व्यवस्था करे। इसी प्रकार देश के केन्द्रीय बैंक से कहा जाय कि वह साख विस्तार का नियन्त्राण करने हेतु अपने विभिन्न उपकरणों का दृढ़तापूर्वक प्रयोग करे। ये विभिन्न उपकरण निम्न प्रकार हैं : -
      1. बैक दर में परिवर्तन करना (Changes in bank-rate)
      2. खुले बाजार की क्रियायें (Open market operations)
      3. नकद कोष अनुपात को परिवर्तित करना (Changes in cash reserve ratio)
      4. नैतिक प्रभव (Moral suasion) इत्यादि।
      लेकिन जब अर्थव्यवस्था में अति-प्रसार (Over expansion) की प्रवृत्ति दिखाई पड़ने लगे तो केन््रदीय बैंक को चाहिये कि वह अपने अस्त्रों का प्रयोग करके साख-विस्तार को नियन्त्रण में रखे। इसके विपरीत, जब अर्थव्यवस्था में मन्दी की प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होने लगे तो केन्द्रीय बैंक को इन्हीं अस्त्रों का प्रयोग करके साख-विस्तार को प्रोत्साहित करना चाहिये। अत: चक्रीय व्यावसायिक उच्चावचनों की रोकथाम करने एंव आार्थिक स्थितरता को प्रोत्साहित करने में मौद्रिक नीति एक महत्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत कर सकती है।

      प्रशुल्क अथवा रोजकोषीय

      यदि मौद्रिक नीति को अकेले ही क्रियान्वित किया जाय तो यह संभवत: चक्रीय व्यावसायिक उच्चावचनों की प्रभावपूर्ण रोकथाम नहीं कर सकेगी। अत: यह सुझााव दिया जाता है कि यदि हमें वांछित परिणाम प्राप्त करने हैं तो यह अत्यन्त आवश्यक है कि मौद्रिक नीति को समुचित राजकोषीय नीति के साथ समान्वित किया जाय। राजकोषीय नीति के तीन प्रमुख उपकरण हैं. करारोपण (Taxation), सार्वजनिक व्यय तथा सार्वजनिक ऋण।

      यदि व्यवसायिक क्रियाओं में शिथिलता आने लगती है अथवा अर्थव्यवस्था में मन्दी के चिन्ह दिखाई पड़ने लगते हैं तो सरकार को चाहिये कि वह तुरन्त ही उपर्युक्त तीनों राजकोषीण उपकरणों का एक साथ प्रयोग करके मन्दी को रोकथाम करे और देश में आर्थिक स्थिरता बनाये रखे। ऐसे समय पर सरकार का लोगों पर कोई नया कर नहीं लगाना चाहिये; यहां तक कि वर्तमान करों में पर्याप्त कटौती कर देनी चाहिये। इससे लोगों के पास अधिक क्रय शक्ति बची रह सकेगी। मांग में हुई कमी को पूरा करने के लिये लोगों को ज्यादा से ज्यादा मात्रा में वस्तुये एवं सेवायें खरीदने के लिये प्रोत्साहित किया जाना चाहिये। इसका साथ ही साथ शिथिल हुये व्यवसाय को प्रोत्साहित करने हेतु सरकार को एक महत्वाकांक्षी व्यय कार्यक्रम (Ambitious spending programme) क्रियान्वित करना चाहिये। मन्दी के समय सरकार को विभिन्न प्रकार की सार्वजनिक निर्माण कार्य परियोजनाओं को प्रारंभ करना चाहिये। इससे बेरोजगार लोगों को रोजगार के अवसर प्राप्त हो सकेंगे और उन्हें क्रयशक्ति प्राप्त होगी जिसे वे उपभोक्ता वस्तुओं को खरीदने में लगायेंगे। इससे प्रभावपूर्ण मांग एवं व्यावसायिक क्रियाओं में हुई कमी रुक जायेगी। साथ ही इसमें वृद्धि होनी शुरू हो जायेगी। 

      सार्वजनिक निर्माण कार्यों का वित्त प्रबन्धन करने हेतु धन कागजी मुद्रा छापकर अथवा बैकों से ऋण लेकर करना चाहिये। इससे निजी व्यवसायों द्वारा व्यय में की गयी कटौती से अर्थव्यवस्था में अवस्फीति उत्पन्न हो गयी थी, उसमें सुधार होने लगेगा। ऐसे समय पर सरकार हीनार्थ प्रबन्धन (Deficit financing) की नीति अपनानी चाहिये। इसी से अर्थव्यवस्था में आय-प्रवाह को प्रोत्साहन मिलेगा। 

      हीनार्थ प्रबन्धन की नीति के परिणामस्वरूप सरकारी व्ययों में वृद्धि हो जाती है, अर्थव्यवस्था में नवीन क्रय शक्ति का संचार होता है। इससे मन्दी एवं बेरोजगारी से लड़ने में सहायता मिलती है। मन्दी एंव बेरोजगारी से लड़ने में सार्वजनिक ऋण के अस्त्रा का प्रयोग भी सरकार द्वारा किया जा सकता है। सरकार को यथा सम्भव लोगों के उन वर्गों से ऋण लेने चाहिये जिनके पास धन बेकार पड़ा है। सार्वजनिक निर्माण कार्यों को क्रियान्वित करने से सरकार के बजट में जो घाटा उत्पन्न होगा, उसे यदि पूर्णतया नहीं तो अंशत: ही सार्वजनिक ऋण लेकर पूरा करना चाहिये।

      जब देश का आार्थिक पुनरुद्वार (Economic recovery) होने लगता है और अर्थव्यवस्था में समृद्धिकाल का शुभारम्भ होता है और धीरे-धीरे तेजी का असर बढ़ने लगता हे तब ऐसे समय पर सरकार को चाहिये कि वह एक विपरीत नीति का अनुसरण करे। सरकार को निजी व्यय पर नियन्त्राण रखने हेतु वर्तमान करों में वृद्धि कर देनी चाहिये। यहां तक कि लोगों पर नये कर भी लगाने चाहिये। ऐसे समय में सरकार की सार्वजनिक निर्माण कायों पर अपने व्यय में कटौती कर देनी चाहिये। कागजी मृद्रा का संकुचन करना चाहिये। लोगों एवं बैंकों से लिये गये ऋण को लौटा देना चाहिये। इन नीतियों की अनुसरण करने से परिचलन में मुद्रा की मात्रा घट जायेगी। संक्षेप में तेजी के समय में सरकार को अधिक्य का बजट (Surplus budget) की नीति का पालन करना चाहिये।

      अत: स्पष्ट है कि सरकार द्वारा अपनायी गयी क्षतिपूरक राजकोषीय नीति के परिणामस्वरूप देश की अर्थव्यवस्था में स्थायित्व स्थापित होगा और आार्थिक क्रियाओं में उतार चढ़ाव में कमी आयेगी। 

      स्वचालित स्थायीकारक (Automatic Stablizers) व्यापार चक्र की रोकथाम के लिये आवश्यक मौद्रिक एवं राजकोषीय नीतियॉं अधिकांशत: सरकार के विवेक पर निर्भर करती हैं। ये नीतियां तभी लाभदायक सिद्ध होती हैं जब इन्हें सही समय पर क्रियान्वित किया जाय साथ ही इन्हें क्रियान्वित करने में पर्याप्त सतर्कता बरती जाय। इसके अतिरिक्त व्यापार चक्र के साथ निपटने के लिये आधुनिक अर्थशास्त्रिायों ने कई प्रकार के स्वचालित स्थायीकारकों अथवा संरचित स्थायीकारकों (Builtin- stabilizers) का सुझाव दिया है। 

      स्वचालित स्थयीकारक से अभिप्राय उन आार्थिक उपायों से है जो किसी प्रकार की सरकारी आयेाजित कार्यवाही के बिना चक्रीय व्यवसायिक उतार-चढ़ावों को स्वत: ही सन्तुलित बना देता है। स्वचालित स्थायीकारक तीन प्रकार के होते हैं.
      1. मौद्रित स्थायीकारक (Monetary stablizers),
      2. राजकोषीय स्थायीकारक (Fiscal stabilizers), और
      3. प्रावैगिक स्थयीकारक (Dynamic stabilizers)।
      सर्वप्रथम हम यह देखेंगे कि मौद्रिक स्थायीकारक  मन्दीकाल में किस प्रकार क्रियाशील होते हैं? मन्दी काल में लाभ कम हो जाने के कारण विनियोग घट जाता है, बैंकों से लिये जाने वाले ऋण कम हो जाते हैं और बैंकों के पास अत्यधिक नकदी जमा हो जाती है।

      ऐसी स्थिति में बैंक ब्याज दर में कमी कर देते हैं और ऋण आसान बना देते हैं। परिणमस्वरूप ऋण लेना आसान और सस्ता हो जाने से विनियोक्ता अधिक ऋण की मांग करने लगते हैं। इस प्रकार विस्तार की संचयी प्रवृत्ति पुन: नये सिरे से प्रारम्भ हो जाती है।

      राजकोषीय स्थायीकारक के अन्तर्गत करों एवं व्ययों का प्रयोग इस प्रकार से होता है कि वे आास्थिरीकरण के दूर करने के लिये स्वत: ही ठीक दशा में कार्य करते हैं। दूसरे शब्दों में, तेजी स्वंय ऐसी प्रवृत्तियां उत्पन्न करती है जो इसकी रेाकथाम करती हैं और अन्तत: इसे समाप्त कर देती हैं। यही बात मन्दी के बारे में भी लागू होती हैं। आयकर तथा व्ययकर और बेकारी, बीमा, वृद्धावस्था बीमा योजनाएं पेन्शन तथा सामाजिक सुरक्षा के अन्य उपाय आदि ऐसे कदम हैं जो आय और व्यय को लोच प्रदान करते हैं। सीमान्त उपयोग प्रवृत्ति में परिवर्तन, लाभ के पक्ष या विपक्ष में आय का स्थानान्तरण तथा पूंजी उत्पाद में परिवर्तन आदि प्रावैगिक स्थायीकारक हैं। इन तीन प्रकार के परिवर्तनों की जननी स्वंय तेजी या मन्दी है। तेजी ऐसी शक्तियेां को जन्म देती है जो इसे समाप्त कर देती है और यही बात मन्दी के बारे में भी सही है।

      व्यापार चक्रों के सम्बन्ध में हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि व्यापार चक्र एक जटिल समस्या है। कोई भी एक नीति अकेले उन पर प्रभावपूर्ण रोक या नियन्त्राण नहीं लगा सकती है। वास्तव में, मौद्रिक नीति, राजकोषीय नीति एवं स्वचालित स्थायीकारकों के उचित विवेकपूर्ण नियन्त्राण की आवश्यकता है।

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      1. 6. व्यापार चक्र में पुनरुत्थान की स्थिति समझाइये।

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