399 ई0 पू0 में सुकरात को मृत्यु दण्ड दिया गया तो प्लेटो की आयु 28 वर्ष थी। इस घटना से परेशान होकर वह राजनीति से विरक्त होकर एक दार्शनिक बन गए। उसने अपनी रचना ‘रिपब्लिक’ में सुकरात के सत्य तथा न्याय को उचित ठहराने का प्रयास किया है। यह उसके जीवन का ध्येय बन गया। वह सुकरात को प्राणदण्ड दिया जाने पर एथेन्स छोड़कर मेगरा में चला गया। क्योंकि वह लोकतन्त्र से घृणा करने लग गया था।
प्लेटो का जीवन परिचय
प्लेटो महान् यूनानी दार्शनिक थे। प्लेटो का जन्म 427 ई. पूर्व में एथेन्स के एक कुलीन परिवार में हुआ था। उनके पिता अरिस्टोन एथेन्स
के अन्तिम राजा कोर्डस के वंशज थे। माता पेरिकतिओन यूनान के सोलन घराने से थी। प्लेटो का वास्तविक नाम
एरिस्तोकलीज था, उसके अच्छे स्वास्थ्य के कारण उसके व्यायाम शिक्षक ने इसका नाम प्लाटोन रख दिया।
लोगों
का विचार है कि इस दौरान वह इटली, यूनान और मिस्र आदि देशों में घूमता रहा। वह पाइथागोरस के सिद्धान्तों का ज्ञान
प्राप्त करने के लिए 387 ई0 पू0 में इटली और सिसली गया। सिसली के राज्य सिराक्यूज में उसकी भेंट दियोन तथा वहाँ के
राजा डायोनिसियस प्रथम से हुई। उसके डायोनिसियस से कुछ बातों पर मतभेद हो गए और उसे दास के रूप में इजारन
टापू पर भेज दिया गया। उसे इसके एक मित्र ने वापिस एथेन्स पहुँचाने में उसकी मदद की।
प्लेटो ने 386 ई. पू. में इजारन टापू से वापिस लौटकर अपने शिष्यों की मदद से एथेन्स में अकादमी खोली जिसे यूरोप का प्रथम विश्वविद्यालय होने का गौरव प्राप्त है। उसने जीवन के शेष 40 वर्ष अध्ययन-अध्यापन कार्य में व्यतीत किए। प्लेटो की इस अकादमी के कारण एथेन्स यूनान का ही नहीं बल्कि सारे यूरोप का बौद्धिक केन्द्र बन गया। उसकी अकादमी में गणित और ज्यामिति के अध्ययन पर विशेष जोर दिया जाता था।
उसकी अकादमी के प्रवेश द्वार पर यह वाक्य लिखा था- “गणित
के ज्ञान के बिना यहाँ कोई प्रवेश करने का अधिकारी नहीं है।” यहाँ पर राजनीतिज्ञ, कानूनवेता और दार्शनिक शासक बनने
की भी शिक्षा दी जाती थी।
अपने किसी शिष्य के आग्रह पर वह एक विवाह समारोह में शामिल हुआ और वहीं पर सोते समय 81 वर्ष की अवस्था में प्लेटो की मृत्यु हो गयी।
अपने किसी शिष्य के आग्रह पर वह एक विवाह समारोह में शामिल हुआ और वहीं पर सोते समय 81 वर्ष की अवस्था में प्लेटो की मृत्यु हो गयी।
प्लेटो की प्रमुख रचनाएँ
सुकरात से सम्बन्धित रचनाएँ हैं। इन रचनाओं के विचार सुकरान्त के विचारों की ही अभिव्यक्ति है।- अपोलॉजी (Apology)
- क्रीटो (Crito)
- यूथीफ्रो (Euthyphro)
- जोर्जियस (Gorgias)
- मीनो (Meno)
- प्रोटागोरस (Protagoros)
- सिंपोजियम (Symposium)
- फेडो (Phaedo)
- रिपब्लिक (Republic)
- फेड्रस (Phaedrus)
- कथोपकथन (Dialogues)
- पार्मिनीडिज (Parmenides)
- थीटिटस (Theaetetus)
- सोफिस्ट (Sophist)
- स्टेट्समैन (Statesman)
- फीलिबस (Philobus)
- टायमीयस (Timaeus)
- लॉज (Laws)
- रिपब्लिक (Republic)
प्लेटो का शिक्षा दर्शन
प्लेटो के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य
प्लेटो ने शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य बताये:-- अपने सर्वप्रसिद्ध ग्रन्थ रिपब्लिक में प्लेटो स्पष्ट घोषणा करता है कि ‘अज्ञानता ही सारी बुराइयों की जड़ है। सुकरात की ही तरह प्लेटो सद्गुणों के विकास के लिए शिक्षा को आवश्यक मानता है। प्लेटो बुद्धिमत्ता को सद्गुण मानता है। हर शिशु में विवेक निष्क्रिय रूप में विद्यमान रहता है- शिक्षा का कार्य इस विवेक को सक्रिय बनाना है। विवेक से ही मानव अपने एवं राष्ट्र के लिए उपयोगी हो सकता है।
- प्लेटो एवं अन्य प्राच्य एवं पाश्चात्य आदर्शवादी चिन्तक यह मानते हैं कि जो सत्य है वह अच्छा (शिव) है और जो अच्छा है वही सुन्दर है। सत्य, शिव एवं सुन्दर ऐसे शाश्वत मूल्य हैं जिसे प्राप्त करने का प्रयास आदर्शवादी शिक्षाशास्त्री लगातार करते रहे हैं। प्लेटो ने भी इसे शिक्षा का एक महत्वपूर्ण उद्देश्य माना।
- सुकरात एवं प्लेटो के काल में ग्रीस में सोफिस्टों ने व्यक्तिवादी सोच पर जोर दिया था। लेकिन आदर्शवादी शिक्षाशास्त्रियों की दृष्टि में राज्य अधिक महत्वपूर्ण है। राज्य पूर्ण इकाई है और व्यक्ति वस्तुत: राज्य के लिए है। अत: शिक्षा के द्वारा राज्य की एकता सुरक्षित रहनी चाहिए। शिक्षा के द्वारा विद्यार्थियों में सहयोग, सद्भाव और भातश्त्व की भावना का विकास होना चाहिए।
- न्याय पर आधारित राज्य की स्थापना के लिए अच्छे नागरिकों का निर्माण आवश्यक है जो अपने कर्तव्यों को समझें और उसके अनुरूप आचरण करें। प्लेटो शिक्षा के द्वारा नई पीढ़ी में दायित्व बोध, संयम, साहस, युद्ध-कौशल जैसे श्रेष्ठ गुणों का विकास करना चाहते थे। ताकि वे नागरिक के दायित्वों का निर्वहन करते हुए राज्य को शक्तिशाली बना सकें।
- प्लेटो के अनुसार मानव-जीवन में अनेक विरोधी तत्व विद्यमान रहते हैं। उनमें सन्तुलन स्थापित करना शिक्षा का एक महत्वपूर्ण कार्य है। सन्तुलित व्यक्तित्व के विकास एवं उचित आचार-विचार हेतु ‘स्व’ को नियन्त्रण में रखना आवश्यक है। शिक्षा ही इस महत्वपूर्ण कार्य का सम्पादन कर सकती है।
- जैसा कि हमलोग देख चुके हैं प्लेटो ने व्यक्ति के अन्तर्निहित गुणों के आधार पर समाज का तीन वर्गों में विभाजन किया है। ये हैं: संरक्षक, सैनिक तथा व्यवसायी या उत्पादक वर्ग। दासों की स्थिति के बारे में प्लेटो ने विचार करना भी उचित नहीं समझा। पर ऊपर वर्णित तीनों ही वर्णों को उनकी योग्यता एवं उत्तरदायित्व के अनुरूप अधिकतम विकास की जिम्मेदारी शिक्षा की ही मानी गई।
पाठ्यक्रम
उसके अनुसार जीवन के प्रथम दस वर्षों में विद्यार्थियों को अंकगणित, ज्यामिति, संगीत तथा नक्षत्र विद्या अनुसरण किया जाए तो यह अनुपयोगी है। विद्यार्थियों को कविता, गणित, खेल-कूद, कसरत, सैनिक-प्रशिक्षण, शिष्टाचार तथा धर्मशास्त्र की शिक्षा देने की बात कही गई। प्लेटो ने खेल-कूद को महत्वपूर्ण माना लेकिन उसका उद्देश्य प्रतियोगिता जीतना न होकर स्वस्थ शरीर तथा स्वस्थ मनोरंजन प्राप्त करना होना चाहिए। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क तथा आत्मा का निवास संभव है। प्लेटो की शिक्षा व्यवस्था में जिम्नास्टिक (कसरत) एवं नृत्य को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है।प्लेटो ने साहित्य, विशेषकर काव्य की शिक्षा को महत्वपूर्ण माना है। काव्य बौद्धिक संवेदनशील जीवन के लिए आवश्यक है। गणित को प्लेटो ने ऊँचा स्थान प्रदान किया है। रेखागणित को प्लेटो इतना अधिक महत्वपूर्ण मानते थे कि उन्होंने अपनी शैक्षिक संस्था ‘एकेडमी’ के द्वार पर लिखवा रखा था कि ‘जिसे रेखागणित न आता हो वे एकेडमी में प्रवेश न करें।’ इन विषयों में तर्क का प्रयोग महत्वपूर्ण है- और सर्वोच्च प्रत्यय- ईश्वर की प्राप्ति में तर्क सहायक है।
शिक्षा के स्तर
प्लेटो ने आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की तरह बच्चे के शारीरिक एवं मानसिक विकास की अवस्था के आधार पर शिक्षा को विभिन्न स्तरों में विभाजित किया है। ये विभिन्न स्तर हैं- ;1. शैशवावस्था:- जन्म से लेकर तीन वर्ष शैशव-काल है। इस
काल में शिशु को पौष्टिक भोजन मिलना चाहिए और उसका
पालण-पोषण उचित ढ़ंग से होना चाहिए। चूँकि प्लेटो के
आदर्श राज्य में बच्चे राज्य की सम्पत्ति है अत: राज्य का यह
कर्तव्य है कि वह बच्चे की देखभाल में कोई ढ़ील नहीं होने दे।
2. नर्सरी शिक्षा:- इसके अन्र्तगत तीन से छह वर्ष की आयु के
बच्चे आते हैं। इस काल में शिक्षा प्रारम्भ कर देनी चाहिए।
इसमें कहानियों द्वारा शिक्षा दी जानी चाहिए तथा खेल-कूद
और सामान्य मनोरंजन पर बल देना चाहिए।
3. प्रारम्भिक विद्यालय की शिक्षा:- इसमें छह से तेरह वर्ष के
आयु वर्ग के विद्याथ्र्ाी रहते हैं। वास्तविक विद्यालयी शिक्षा इसी
स्तर में प्रारम्भ होती है। बच्चों को राज्य द्वारा संचालित
शिविरों में रखा जाना चाहिए। इस काल में लड़के-लड़कियों
की अनियन्त्रित क्रियाओं को नियन्त्रित कर उनमें सामन्जस्य
स्थापित करने का प्रयास किया जाता है। इस काल में संगीत
तथा नृत्य की शिक्षा देनी चाहिए।
नृत्य एवं संगीत विद्याथ्र्ाी में
सम्मान एवं स्वतंत्रता का भाव तो भरता ही है साथ ही स्वास्थ्य
सौन्दर्य एवं शक्ति की भी वृद्धि करता है। इस काल में गणित
एवं धर्म की शिक्षा भी प्रारम्भ कर देनी चाहिए।
4. माध्यमिक शिक्षा:- यह काल तेरह से सोलह वर्ष की उम्र की
है। अक्षर ज्ञान की शिक्षा पूरी कर काव्य-पाठ, धार्मिक सामग्री
का अध्ययन एवं गणित के सिद्धान्तों की शिक्षा इस स्तर पर दी
जानी चाहिए।
5. व्यायाम :- यह सोलह से बीस वर्ष की
आयु की अवधि है। सोलह से अठारह वर्ष की आयु में युवक-युवती
व्यायाम, जिमनैस्टिक, खेल-कूद द्वारा शरीर को मजबूत बनाते
हैं। स्वस्थ एवं शक्तिशाली शरीर भावी सैनिक शिक्षा का
आधार है। अठारह से बीस वर्ष की अवस्था में अस्त्र-शस्त्र का
प्रयोग, घुड़सवारी, सैन्य-संचालन, व्यूह-रचना आदि की शिक्षा
एवं प्रशिक्षण दिया जाता है।
6. उच्च शिक्षा:- इस स्तर की शिक्षा बीस से तीस वर्ष की आयु
के मध्य दी जाती है। इस शिक्षा को प्राप्त करने हेतु भावी
विद्यार्थियों को अपनी योग्यता की परीक्षा देनी होगी और केवल
चुने हुए योग्य विद्याथ्र्ाी ही उच्च शिक्षा ग्रहण करेंगे। इस काल
में विद्यार्थियों को अंकगणित, रेखागणित, संगीत, नक्षत्र विद्या
आदि विषयों का अध्ययन करना था।
7. उच्चतम शिक्षा:- तीस वर्ष की आयु तक उच्च शिक्षा प्राप्त
किए विद्यार्थियों को आगे की शिक्षा हेतु पुन: परीक्षा देनी पड़ती
थी। इसमें ‘डाइलेक्टिक’ या दर्शन
का गहन अध्ययन करने की व्यवस्था थी। इस शिक्षा को पूरी
करने के बाद वे फिलॉस्फर या ‘दार्शनिक’ घोषित हो जाते थे।
ये समाज में लौटकर अगले पन्द्रह वर्ष तक संरक्षक के रूप में
प्रशिक्षित होंगे और व्यावहारिक अनुभव प्राप्त करेंगे। राज्य का
संचालन इन्हीं के द्वारा होगा।
शिक्षण-विधि
प्लेटो के गुरू सुकरात, संवाद (डायलॉग) द्वारा शिक्षा देते थे- प्लेटो भी इसी पद्धति को पसन्द करते थे। प्लेटो ने संवाद के द्वारा मानव जीवन के हर आयाम पर प्रकाश डाला है। एपालोजी एक अत्यधिक चर्चित संवाद है जिसमें सुकरात अपने ऊपर लगाए गए समस्त आरोपों को निराधार सिद्ध करते है। ‘क्राइटो’ एक ऐसा संवाद है जिसमें वे कीड़ो के साथ आत्मा के स्वरूप का विवेचन करते हैं।प्लेटो अपने गुरू सुकरात के संवाद को स्वीकार कर उसका
विस्तार करता है। उसने संवाद को ‘अपने साथ निरन्तर चलने वाला संवाद’
कहा। सुकरात ने इसकी क्षमता सभी लोगों में पाई पर
प्लेटो के अनुसार सर्वोच्च सत्य या ज्ञान प्राप्त करने की यह शक्ति सीमित
लोगों में ही पायी जाती है। शाश्वत सत्य का ज्ञान छठी इन्द्रिय यानि विचारों
का इन्द्रिय का कार्य होता है।
इस प्रकार सुकरात अपने समय की प्रजातांत्रिक
धारा के अनुकूल विचार रखता था जबकि इस दृष्टि से प्लेटो का विचार
प्रतिगामी कहा जा सकता है।
सारगर्भित
ReplyDeletechhan
ReplyDeletethanks for information...
ReplyDeleteयह अतुलनीय एवम् ज्ञानवर्धक जानकारी उपलब्ध करवाने हेतु धन्यवाद
ReplyDeleteGood
ReplyDeleteKya hal hai
DeleteThanks for incredible knowledge
ReplyDeleteTheory is best
ReplyDeleteThank you very much
ReplyDeleteNice 👌👍👍
ReplyDeleteThank you so much
ReplyDeleteThanks for this sir
ReplyDeleteThanks for this sir
ReplyDeleteThank you very much
ReplyDeletevery useful
ReplyDeleteVrinda Singh thanks for tjis
ReplyDeleteप्लेटो के विचारों का गहन अध्ययन आपके इस लेख में प्रतिबिम्बित हो रहा है। साथ ही आपके मेहनत का फल है कि आपने इतने अच्छे से एक एक पहलू को उजागर किया है
ReplyDeleteThanks you
ReplyDeleteUseful
ReplyDeleteThanks sir
ReplyDeleteBest knowledge
ReplyDeletebhai Swami Vivekananda ji kaha aa aa gye isme
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