अलंकार के प्रकार एवं उदाहरण

अलंकार शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है ‘आभूषण’ यानी गहने, किन्तु शब्द निर्माण के आधार पर अलंकार शब्द ‘अलम्’ और ‘कार’ दो शब्दों के योग से बना है। ‘अलम्’ का अर्थ है ‘शोभा’ तथा ‘कार’ का अर्थ हैं ‘करने वाला’। अर्थात् काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तथा उसके शब्दों एवं अर्थों की सुन्दरता में वृद्धि करके चमत्कार उत्पन्न करने वाले कारकों को अलंकार कहते हैं। आचार्य केशव ने काव्य में अलंकारों के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए कहा कि-
जदपि सुजाति सुलक्षणी, सुबरन सरस सुवृत्त।
भूषण बिनु न बिराजही, कविता, वनिता मित्त।।
वास्तव में अलंकारों से काव्य रुचिप्रद और पठनीय बनता है, भाषा में गुणवत्ता और प्राणवत्ता बढ़ जाती है, कविता में अभिव्यक्ति की स्पष्टता व प्रभावोत्पादकता आने से कविता संप्रेषणीय बन जाती है।

अलंकार किसे कहते हैं

अलंकार का अर्थ शब्द और अर्थ में सौंदर्य उत्पन्न करने वाली वर्णन शैली को ‘अलंकार’ कहते हैं। या ‘‘काव्य की शोभा बढ़ाने वाले तत्व या कारक को अलंकार कहते हैं।’’ 

मनुष्य के सौंदर्य प्रेम का प्रभाव जहां उसके रहन-सहन वेशभूषा आदि पर पड़ता है, वहां उसकी भाषा और भावाभिव्यक्ति भी इस प्रवृत्ति के प्रभाव से अछूते नहीं रह सकते। 

अत: वाणी को रोचक एवं भावाभिव्यक्ति को प्रभावोत्पादक बनाने के लिए कुछ साधन अपनाएं जाते हैं, इन्हीं साधनों को अलंकार कहते हैं। 

‘‘अलंकार’’ शब्द का शाब्दिक अर्थ होता है- आभूषण या सुन्दरता । जैसे आभूषण नारियों का श्रृंगार है, उसी प्रकार साहित्य में शब्दों और अर्थों में चमत्कार लाने वाले तत्व ‘अलंकार’ हैं।

अलंकार की परिभाषा

आचार्य भामह ने अलंकारों के विषय में कहा है कि अलंकार काव्य का सबसे प्रमुख सौंदर्याधायक तत्त्व है। 

भामह ने शब्द तथा अर्थ की वक्रता से युक्त उक्ति को अलंकार बताया है। इसके पश्चात दण्डी ने शब्दालंकार की अपेक्षा अर्थालंकार पर विशेष विस्तार प्रस्तुत किया। 

इन्होंने काव्य के शोभाकर धर्मों को अलंकार के रूप में परिभाषित करते हुए उनकी अनन्तता की ओर संकेत किया - ते चाद्यापि विकल्प्यन्ते कस्तान् कात्यस्र्येन वक्ष्यति। 

आचार्य कुन्तक का मत है कि विदग्धों का भंगीपूर्ण कथन ही वक्रोक्ति है और वही अलंकार है। 

आनन्दवर्धन का कथन है कि जिस प्रकार कामिनी के शरीर को कुण्डल आदि अलंकार शोभित करते हैं, उसी प्रकार काव्यगत अलंकार काव्यशरीर (शब्द और अर्थ) को शोभित करते हैं।

अलंकार का विकास

वेदों में अलंकारों का विवेचन तो नहीं मिलता किन्तु उपमा और रूपक आदि के उदाहरण वहां प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होते हैं। एक-एक मंत्र में उपमाओं एव रूपकों की भरमार दिखाई पड़ती है। 

उपमा का प्रयोग ऋग्वेद में है और सायण ने उसका अर्थ उपमान या दृष्टान्त के रूप में किया है। उपमा के अतिरिक्त अतिशयोक्ति एवं रूपक के भी सुन्दर प्रयोग ऋग्वेद में निबद्ध हैं। 

उषा से सम्बन्धित मंत्रों में एक ही साथ चार उपमाएं गुम्फित हैं - अभ्रातेव पुंस इति प्रतीची, गतीरुगिव सनये धनानाम्। जायेव पत्य उशती सुवासा, उषा हस्त्रेव निरिणीते आस:  अतिशयोक्ति का भी निम्न उदाहरण प्रस्तुत है - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया, समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्य: पिप्पलवं स्वादृत्यनश्न्नन्यो अभिचाकशीति अर्थात् एक साथ रहने वाले तथा परस्पर सख्यभाव रखने वाले दो पक्षी जीवात्मा तथा परमात्मा, एक ही वृक्ष का आश्रय लेकर रहते हैं। उन दोनों में से एक जीवात्मा तो उस वृक्ष के फल कर्मफलों को स्वाद लेकर खाता है। 

किन्तु दूसरा ईश्वर उनका उपभोग न करता हुआ केवल देखता रहता है। कहीं-कहीं उत्प्रेक्षा के सुन्दर उदाहरण प्राप्त होते हैं - ‘उषा हस्नेव निण्र्ाीते अप्स:’ अर्थात् उषा हँसती हुई अपने रूप को प्रकाशित करती हैं। 

इन उदाहरणों से यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि वेदों में अलंकारों का विश्लेषण या मीमांसन किया गया है। इनका प्रयोग यह सूचित करता है कि वैदिक युग में भी लोगों को अलंकारों का ज्ञान था। इसी प्रकार वेदांगों व उपनिषदों में भी अलंकार के सूत्र दिखाई पड़ते हैं। 

निघण्टु के व्याख्याकार यास्क ने निरुक्त में अपने पूर्ववर्ती गाग्र्य का उल्लेख करते हुए उपमा का लक्षण किया है - लुप्तोपमानानि अर्थोपमानानि इत्याचक्षते। नाट्यशास्त्र और पुराणों की परिधि से मुक्त अलंकार शास्त्र के ग्रंथ का दर्शन सर्वप्रथम भामह के काव्यालंकार के रूप में होता है।

इसे ही अलंकार तत्त्व का विवेचन करने वाला आद्य शास्त्र कहा जा सकता है, जिसका विकास क्रमश: दण्डी, उद्भट, वामन, रुद्रट, आनन्दवर्धन, कुन्तक, मम्मट, विश्वनाथ, रूय्यक, अप्पयदीक्षित और पण्डितराज जगन्नाथ के ग्रंथों में हुआ है।

अलंकार का महत्व 

काव्य में अलंकारों का महत्व स्वत: सिद्ध है। समालोचना के प्रारंभिक काल में अलंकारों को काव्य का प्रमुख सौन्दर्याधायक तत्त्व माना जाता था। 

आचार्य भामह का कथन है कि जिस प्रकार कामिनी का मुख बिना आभूषणों के सुशोभित नहीं होता, उसी प्रकार अलंकारों के बिना काव्य भी अलंकृत नहीं होता।

अलंकार के प्रकार एवं उदाहरण

अलंकार कितने प्रकार के होते हैं नीचे दिया जा रहा है-

अलंकार के प्रकार
1. शब्दालंकार -जहाँ शब्द को परिवर्तित करके उसके स्थान पर उसी शब्द का पर्यायवाची दूसरा शब्द प्रयुक्त करने पर अलंकार नहीं रहता, वहां यह समझा जाता है कि उस अलंकार की स्थिति विशेष रूप से उस शब्द के कारण ही थी। इसलिए उसे शब्दालंकार कहा जाता है। 

शब्दालंकारों में अनुप्रास, यमक और श्लेष प्रमुख हैं। जहां काव्य में चमत्कार का आधार केवल शब्द हो वहां शब्दालंकार होता है। 

जैसे -(1) ‘चारू चन्द्र की चंचल किरणें’’ (2) ‘काली घटा का घमण्ड घटा।’’

 

2. अर्थालंकार -जहां शब्दों को परिवर्तित करके समानार्थक दूसरे शब्द प्रयुक्त करने पर भी अलंकार अक्षुण्ण रहे, वहां अर्थालंकार होता है। अर्थालंकारों में प्रमुख, उपमा, अर्थापत्ति, अर्थान्तरन्यास इत्यादि हैं। 

जहां पर काव्य में अर्थों के माध्यम से काव्य में सुन्दरता का होना पाया जाए। वहां अर्थालंकार होता है 

जैसे -‘पीपर पात सरिस मन डोला’’।

3. अनुप्रास अलंकार -अनुप्रास शब्द अनु+प्र+आस के योग से बना है। अनु का अर्थ है - अनुकूल या बार-बार प्र का अर्थ प्रकर्ष, निकटता तथा आस का अर्थ रखना या विन्यास करना। इस प्रकार इसका अर्थ हुआ वर्णनीय रस के अनुकूल व्यंजनों का बार-बार पास-पास विन्यास। 

आचार्य मम्मट ने काव्य प्रकाश में अनुप्रास के लक्षण को इस प्रकार  बताया है - स्वर की विषमता अर्थात् असमानता होने पर भी व्यंजन की सरूपता होने को अनुप्रास कहते है। 

विश्वनाथ के अनुसार स्वर की विषमता होने पर भी जो शब्द साम्य होता है, वह अनुप्रास है। इसके पाँच भेद हैं। जहां एक ही वर्ण बार-बार दोहराया जाए, अर्थात् वर्णों की आवृत्ति हो वहां अनुप्रास-अलंकार होता है। 


जैसे - चारू-चंद्र की चंचल किरणें खेल रही थीं जल-थल में। 

 

इसके पाँच भेद हैं।

  1. छेकानुप्रास
  2. वृत्त्यनुप्रास
  3. श्रुत्यनुप्रास
  4. लाटानुप्रास
  5. अन्त्यानुप्रास
4. उभयालंकार - जहां शब्द और अर्थ दोनो में चमत्कार निहित होता है, वहां उभयालंकार होता है। इसका अलग से कोई प्रकार नहीं होता ।

5. श्लेष अलंकार - जहां काव्य में प्रयुक्त किसी एक शब्द के कई अर्थ निकले और चमत्कार उत्पन्न करते हों वहां ‘श्लेष’ अलंकार होता है।

जैसे-जो ‘रहीम’ गति दीप की, कुल कपूत की सोय।  बारे उजियारो करे, बढ़े अंधेरो होय।

स्पष्टीकरण- रहीम जी कहते हैं कि जो हालत दीपक की होती है वही हालत एक कुलीन कपूत की होती हैं। क्योंकि दीपक (बारे) जलाने पर प्रकाश करता है और बालक (बारे) बचपन में प्रकाश देता है। अच्छा लगता है किन्तु दीपक के (बढ़े) बुझने पर अंधेरा हो जाता है ऐसे ही कपूत के बड़े होने पर खानदान में अंधेरा हो जाता है।

6. रूपक अलंकार -निरपह्नव अर्थात् निषेधरहित विषय (उपमेय) में रूपित भेदरहित उपमान के आरोप को रूपक कहते हैं। जहां भेद रहित उपमान का उपमेय पर आरोप हो, परन्तु उपमेय के स्वरूप का कोर्इ निषेधक शब्द न हो, वहां रूपक अलंकार होता है। 

परिभाषा - जहां काव्य में समानता के कारण उपमेय और उपमान में समानता या एक रूपता दिखाई जाती है वहां ‘रूपक’ अलंकार होता है। 

जैसे- ‘‘चरण-सरोज परवारन लागा।’’ 

इस पंक्ति में केवट राम के चरण रूपी कमल को धोने लगा। 

यहां उपमेय ‘चरण’ को ही उपमान ‘सरोज’ बताकर एकरूपता दिखाई गई है अत: यहां रूपक अलंकार है। रूपक अलंकार के अन्य उदाहरण:-

चरण कमल बन्दौ हरि राई।
उदित उदय गिरी मंच पर, रघुबर बाल-पतंग ।
बिकसे सन्त सरोज सब, हरषे लोचन भंग।।
हे जग जीवन के कर्णधार! चिर जन्म-मरण के आर-पार ।
शाश्वत जीवन-नौका विहार।

 

इस पंक्ति में परमेश्वर को जग-जीवन का कर्णधार कहा है, जन्म मरण इसके दो किनारे हैं और शाश्वत जीवन-परम्परा को नौका-विहार बताया गया है अत: सर्वत्र एक रूपता के कारण सुन्दर ‘रूपक’ है।
7. यमक अलंकार - जब कोई शब्द अनेक बार आए और उसके अर्थ प्रत्येक बार भिन्न-भिन्न हो उसे यमक अलंकार कहते हैं  

जैसे- सारंग ले सारंग चली, सारंग पूजो आय। सारंग ले सारंग धरयौ, सारंग सारंग मांय । 

यहां सारंग शब्द, सात बार आया है जिसका क्रमश: अर्थ 1. घड़ा 2. सुंदरी 3. मेघ 4. वस्त्र 5. घड़ा 6. सुंदरी 7.  सरोवर बसन देहु, ब्रज में हमें बसन देहु ब्रजराज । यहाँ बसन शब्द दो बार आया है जिसका अर्थ 1. वस्त्र 2. रहने मूरत मधुर मनोहर देखी,  मयहु विदेह विदेह विसेखी । 

यहाँ विदेह शब्द दो बार आया है जिसका अर्थ 1. राजा जनक 2. शरीर की सुध-बुध भूल जाना।

8. उत्प्रेक्षा अलंकार -उत्प्रेक्षा अलंकार वह है, जिसे प्रकृत (उपमेय) की उसके समान (अप्रकृत) उपमान के साथ तादात्म्य-सम्भावना कहा करते हैं। उत्प्रेक्षा का अर्थ है संभावना या कल्पना अर्थात् एक वस्तु को दूसरी वस्तु मान लिया जाये। जहां उपमेय में उपमान की संभावना या कल्पना की जाय वहां उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। उत्प्रेक्षा अलंकार के कुछ वाचक शब्द हैं-मानों, मनु, मनहुं, जानो, जनु, ज्यों, इमि आदि। जैसे- 

मानहुं सूर काढ़ि डारि हैं वारि मध्य में मीन’’  

पंक्ति में कृष्ण के वियोग में व्याकुल गायों को पानी से निकाली गई मछलियां के रूप में कल्पित किया गया है।

मानहु जगत छीर-सागर मगन है। 

इस उदाहरण में ऐसा प्रतीत होता है कि मानों सारा संसार दूध के सागर में डूबा हुआ है।

सोहत ओढ़े पीत पट, श्याम सलोने गात। 

मनहुं नीलमणि सैल पर आतप परयौ प्रभात ।इस उदाहरण में भगवान श्रीकृष्ण को नीलमणि पर्वत और पीतपट को प्रभात की किरणें माना गया है ।
9. अतिशयोक्ति अलंकार - जहां किसी वस्तु या बात का वर्णन इतना अधिक बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि लोक मर्यादा का उल्लंघन सा प्रतीत होता हो उसे अतिशयोक्ति अलंकार कहते हैं। जैसे -

चले धनुष से बाण,  साथ ही शुत्र सैन्य के प्राण चलें।’ 

इस उदाहरण में धनुष से वाणों के चलने के साथ ही शत्रु सेना के प्राण निकल चले साथ-साथ बताया है जो अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णित है।

हनुमान की पूंछ में लगन न पाई आग। 
लंका सारी जल गई गए निशाचर भाग।। 

इस उदाहरण में हनुमान की पूंछ में आग लगे बिना ही लंका जल गई, बताया गया है जो अधिक बढ़ा-चढ़ाकर वर्णित है

लखन-सकोप वचन जब गोले । 
डगमगानि महि दिग्गज डोले ।। 

इस उदाहरण में लक्ष्मण के क्रोधित होकर बोलने से पृथ्वी डगमगा उठी और दिशाओं के हाथी कांप गये। यहां अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णित है।
10. संदेह अलंकार - ‘सन्देह’ वह अलंकार है जिसमें (उपमेय की उपमान के साथ एकरूपता में) एक (सादृश्यमूलक) संशय अथवा संदेह रहा करता हैजहां समानता के कारण एक वस्तु में अनेक अन्य वस्तु होने की संभावना दिखाई पड़े और यह निश्चय न हो पाये कि यह वही वस्तु है। उसे संदेह अलंकार कहते है। जैसे -

सारी बीच नारी है कि नारी बीच सारी है।
कि सारी ही की नारी है कि नारी ही की सारी है।
हरि-मुख यह आती! किधौं कैधौं उगो मयंक?

इस उदाहरण में हरि के मुख में हरिमुख और चन्द्रमा दोनों के होने का संदेह दिखाई पड़ता है। यहां पर हरि के मुख को देखकर सखी यह निश्चय नहीं कर पा रही है कि यह हरि का मुख है या चन्द्रमा उगा है।

तारे आसमान के है आये मेहमान बनि,
केशो में निशाने मुकतावली सजायी है?
बिखर गयो है चूर-चूर है कै चन्द कैन्धौं,
कैधों, घर-घर दीप-मलिका सुहायी है?

इस उदाहरण में दीप-मलिका में तारावली, मुक्तामाला और चन्द्रमा के चूण्र्ाीभूत कणों का संदेह होता है ।

11. उपमा अलंकार - जहां एक वस्तु की तुलना दूसरी वस्तु से की जाती है, वहां उपमा अलंकार होता है।

उपमा के अंग- इसके चार अंग होते है-
  1. उपमेय-जिसकी तुलना की जाती है।
  2. उपमान-जिसके साथ तुलना की जाती है।
  3. साधारण धर्म-जो गुण उपमेय व उपमान दोनों में पाया जाता है।
  4. वाचक शब्द-जो शब्द उपमेय व उपमान को जोड़ता हो ।
उदाहरण-’ पीपर पात सरिस मन डोला।’ इसमें मन उपमेय, पीपरपात उपमान, डोला साधारण धर्म और सरिस वाचक शब्द है।

उपमा के भेद - उपमा के 2 भेद हैं- 

1. पूर्णोपमा- जहां उपमा के चारों अंग उपस्थित होते हैं वहां पूर्णोंपमा होता है उदाहरण - (1) चरण कमल सम कामेल (2) मुख चंद्र सम सुन्दर । इसमें पूर्णोपमा है ।  

2. लुप्तोपमा अलंकार-जहां उपमा के चारों अंगों में से एक या अधिक अंग लुप्त होते हैं, वहां लुप्तोपमा अलंकार होता है। उदाहरण -

(1) ‘तुम सम पुरूष न मो-सम नारी।’ 
(2) ‘राधा का मुख चन्द्रमा जैसा है।’ 

इस उदाहरण में मुख उपमेय, चन्द्रमा उपमान, जैसा वाचक शब्द है। साधारण धर्म लुप्त हैं, इसलिए यहां लुप्तोपमा अलंकार हैं।
12. दृष्टांत अलंकार - दृष्टान्त वह अलंकार है, जिसमें उपमेय वाक्य और उपमान वाक्य दोनों वाक्यों में इन सबका अर्थात् उपमान, उपमेय और साधारण धर्म का बिम्बप्रतिबिम्बभाव दृष्ट होता है। जहां पर उपमेय तथा उपमान में बिंब-प्रतिबिंब का भाव झलकता हो, वहां पर दृष्टांत अलंकार होता है। 

‘‘कान्हा कृपा कटाक्ष की करै कामना दास।
चातक चित में चेत ज्यों स्वाति बूंद की आस।’’

इसमें कृष्ण की आंखों की तुलना स्वाति नक्षत्र के पानी से तथा सेवक अथवा भक्त की तुलना चातक पक्षी से की जाती है। किन्तु यहां उपमा अलंकार न होकर दृष्टांत अलंकार होगा, क्योंकि तुलना उदाहरण देते हुए की गई है अर्थात दृष्टांत के साथ की गई है।

19 Comments

  1. बहुत सुंदर। धन्यावाद

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  2. It's really helpful. .. thanks a lot....

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  3. बहुत मुश्िल था मगर अब आसान लग रहा है

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  4. Very helpful thank you so much👍🔥😍♥️

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  5. कहे कबीर में कौन सा अलंकार है

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  6. Nice explanation
    Thankyou so much

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  7. thankx for this information

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  8. Very Useful and Nice Post SirThanksGood Job 👍🏻

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  9. बहुत सुन्दर

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