मीराबाई का जीवन परिचय | भाव पक्ष | कला पक्ष | साहित्य में स्थान एवं रचनाएं

मीरा मेडतियाँ राठौर वंश की थी, मीरा मेडतियाँ के राव दूदा के पुत्र रत्नसिंह की पुत्री थी।102 ये मेड़तियाँ राठौर की उस शाखा के थे जो जोधपुर आकर मेड़ता में बस गए थे। इस प्रकार यह शाखा मारवाड़ी राठौर की एक उपशाखा थी, मारवाड़ी शाखा के मूल पुरूष राव सीहा जी थे जो कन्नौज के राजा जयचंद के पौत्र थे । 103 इन्होंनें 14वीं शताब्दी के प्रारंभ में मारवाड़ में अपना राज्य स्थापित किया था । 104 इनके पश्चात् राव आसथान जी, राव जालणसीजी, राव छाड़ा जी, राव तोड़ा जी, राव सल्खाजी, राव वीरमजी, राव चूड़ा जी, राव कान्हाजी, राव सताजी, राव रिडमल जी, क्रमशः राठौर राज्य के शासक हुए। तत्पश्चात् गद्दी पर मेड़तियाँ शासक के प्रर्वतक दूदाजी के पिताजी राव जोधाजी को प्राप्त हुआ जिन्होंने जोधपुर की नींव रखी ।

मेड़तियाँ शाखा के प्रवर्तक राव दूदा, राव जोधा जी के चौथे पुत्र थें इनका जन्म वि.स. 1417 में आषाढ़ शुक्ल को मारवाड़ की तत्कालीन राजधानी मंडोवर में हुआ था।105 पैतृक राजधानी मंडोवर पर राणा कुंभा का अधिकार हो गया था अतः इनके पिता राव जोधा जी ने पैतृक राज्य की प्राप्ति के लिए पुनः प्रयत्न किया और वि.सं. 1510 में मंडोवर से छह मील दक्षिण में नया किला बनवाया उसी के पास अपने नाम पर जोधपुर नगर बसाया 1106
तत्पश्चात् राव जोधाजी ने अपने पुत्र वरसिंह और राव दूदा जी को मेड़ता अधिकार करने के लिए भेजा, मेड़ता उन दिनों मालवा के सुल्तान महमूद खिलजी के अधिकार में था दोनों भाईयों ने उक्त नगर के साथ ही आसपास के 360 गाँवों पर अधिकार कर लिया था तभी उन्होंने प्राचीन बस्ती के दक्षिण में नया मेड़ता नगर बसाया था। 107 वि.संवत् 1519 की वैशाख शुक्ल तृतीया से दूदा जी अपने भ्राता वरसिंह सहित सपरिवार मेड़ता में आकर रहने लगें | 

मीराबाई का जीवन परिचय
मीराबाई 

मीराबाई का जीवन परिचय 

मीराबाई राणा कुम्भा की महारानी थी। मीराबाई का जन्म राजस्थान में मेवाड़ के निकट चौकड़ी ग्राम में सन् 1498 ई. के आसपास हुआ था। मेड़ता के नरेश राव दूदा मीरांबाई के दादा थे। वे राव दूदा के छोटे पुत्र रतनसिंह की पुत्री थीं। 

मीराबाई का बाल्यकाल उनके वैष्णव भक्त राव दूदाजी के संरक्षण में व्यतीत हुआ। अपने दादा जी के घर में ही मीरां को श्री गिरधरलाल का इष्ट हो गया था और इसका कारण उनके अपने संस्कार तो थे ही, उनके साथ-साथ राव दूदाजी की वैष्णव-भक्ति का भी भरपूर प्रभाव पड़ा था। तथापि यह अत्यन्त आश्चर्यजनक लगता है कि इतना होने पर भी मीरां ने अपने किसी पद में भी राव दूदा जी के नाम का उल्लेख नहीं किया। तथापि इतना तो निर्विवाद है कि दो वर्ष की आयु में ही माता के स्वर्गवास हो जाने के का लालन-पालन राव दूदा के हाथ में हुआ और इसलिए ‘मीराबाई’ में भक्ति के संस्कारों का उत्पन्न हो जाना अत्यन्त स्वाभाविक था। भक्ति के संस्कारों के उदित हो जाने के कारण ‘मीरां’ अपने वैष्णवभक्त दादा जी का ही अनुकरण करती, ठाकुर जी के तिलक लगाती, भोग लगाती, आरती उतारती और नाम स्मरण में खोई रहती।

मीराबाई के पदों में सिसौदिया वंश का उल्लेख मिलता है। उन्होंने अपनी ननद का नाम भी ऊदाबाई बताया है
किन्तु इस सम्बन्ध में अपेक्षित ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। मीराबाई के पिता का नाम रत्न सिंह था और मीराबाई का विवाह महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र कुवर भोजराज के साथ हुआ था। इस प्रकार ‘मीरा’ अपने ससुराल मेवाड़ में आ गई। मीरां का वैवाहिक जीवन सुखमय बीता किन्तु दुर्भाग्यवश वे जल्दी ही विधवा हो गई। मीराबाई के पति कुवर भोजराज की मृत्यु हो गई और इस प्रकार मीरा का सुखमय दाम्पत्य जीवन सदा-सदा के लिए समाप्त हो गया। भोजराज की मृत्यु अचानक हो जाने से मीरा का जीवन अस्तव्यस्त हो गया। 

यही नहीं, इसके चार वर्ष पश्चात ही इनके पिता रत्न सिंह भी स्वर्ग सिधार गए और कुछ ही समय में मीरां को अपने जीवन का सर्वाधिक दुःखद और दुर्भाग्यपूर्ण समय देखना पड़ा। विपत्तियों के इन टूटते हुए पहाड़ों ने मीरां की जीवन-धारा में ही भारी मोड़ ला दिया। 

मीराबाई की बालपन की भक्ति और धर्म के संस्कार अब श्रीकृष्ण प्रेमामृत में एकतान हो गए। अब उनकी एकमात्र रुचि भगवद् भक्ति और साधु-संगति में हो गई।

अब मीरां का अधिकांश समय भगवद् दर्शन और साधुओं से धार्मिक परिचर्चाएँ करने में बीतता था। मीरां ने लोकलाज और कुल की मर्यादा को त्याग कर अपने आराध्य की भक्ति आरम्भ कर दी। कभी-कभी वे श्री गिरधरलाल के प्रेमामृत का पान कर इतनी प्रेमोन्मत्त हो जाती थीं कि पैरों में घूँघरू बांध कर, ताली दे-दे कर श्रीकृष्ण की मूर्ति के सामने नाचने लगतीं।

मीरां के श्वसुर राणा सांगा भी बाबर के  साथ युद्ध करते हुए खेत हो चुके थे, अतः अब मीरां के ससुराल में कोई भी अपना नहीं रहा। राणा सांगा की मृत्यु के पश्चात मीराबाई के देवर विक्रमजीत सिहासन पर बैठे। कहते हैं कि विक्रमजीत ने मीराबाई को अनेक यातनाएं दी जिसका उल्लेख मीरां के पदों में भी सहज सुलभ है।

मीराबाई के देवर को यह पसंद नहीं था कि राणा परिवार की बहू मीरां संतों की मण्डली में घूमे-फायर और गिरधारलाल के मन्दिर में ताली दे-देकर नृत्य करे। उन्हें मीराबाई को मार डालने तक की नई-नई युक्तियाँ सूझीं।
मीरा को मार डालने के लिए विक्रमजीत  ने विष का प्याला भेजा, जिसे मीरां चरणमृत समझ कर पी गई।
मीरा को मारने के लिए पिटारी में सांप भी भेजा गया किन्तु जिसके अनुकूल स्वयं प्रभु हों, उस मीरां के लिए
कुछ भी प्रतिकूल नहीं हो सका। मीरा ने जब उस सांप की पिटारी को खोल देखा तो उसे वहाँ सांप के स्थान
पर शालिग्राम की मूर्ति दिखाई पड़ी। मीरां ने शालिग्राम की उस मूर्ति को प्रेमाश्रुओं से नहला ही दिया। इसी प्रकार
की अनेक यातनाएँ मीरां को दी गई। मीरां के जीवन पर इन यातनाओं का अधिक प्रभाव पड़ा था। मीरा को
भेजे गये विष-प्याले की घटना का उल्लेख तो अन्य कई कवियों ने भी किया है।

मीराबाई की मृत्यु सन् 1546 ई. के आसपास मानी जाती है। 

मीराबाई की रचनाएं

मीराबाई की रचनाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -
  1. गीत गोविन्द की टीका
  2. नरसीजी रो माहेरो
  3. राग गोविन्द
  4. राग मल्हार
  5. सोरठ के पद
  6. मीरा नी गरबो
मीराबाई की पदावली ही मीरा की कृति में सर्वाधिक विश्वसनीय मानी जाती है। अभी तक इस पदावली के पदों की संख्या लगभग दो सौ मानी जाती थी किन्तु फिर भी मीरा की पदावली के पदों की संख्या के सम्बन्ध में विद्वानों ने विभिन्न मत व्यक्त किए हैं। मीरा के प्रामाणिक पदों की संख्या निश्चित रूप से बताना कठिन है। 

मीराबाई की पदावली का प्रकाशन सर्वप्रथम श्रीकृष्णानन्द देव व्यास द्वारा ‘रागकल्पद्रुपम’ के नाम से किया गया था। इस पद-संग्रह में राजस्थान, गुजरात और बंगाल में प्रचलित लगभग पैंतालीस पद संग्रहीत हैं।

1. मीराबाई का मल्हार - मीराबाई ने राग मल्हार की रचना की।

2. गवांगीत -  “गवांगीत” एक प्रकार का भावना प्रधान लघु गीत है मीराबाई के अनेक पद इस प्रकार के हैं डॉ. डी.एल. प्रभात ने मीराकृत कही जाने वाली कुछ रचनाओं का उल्लेख किया है इनके द्वारा गवांगीत की कुछ पंक्तियां निम्न प्रकार हैं। 
“रक्मणि मंगल, रूतमा मानुं रूसण, नरसी मेहता नी हुंडी चरित”

3. सोरठ के पद - मीराबाई ने ‘राग सोरठ' में कई पदों की रचना की हैं। 

4. गीतगोविंद की टीका -  मीराबाई के अनेक पदों में गीत गोविंद की टीका का उल्लेख किया गया हैं विद्वान श्री ब्रजरत्नदास दास ने भी मीरा के पदों में गीत गीतगोविंद की टीका का उल्लेख किया हैं चित्तौड़ के दुर्ग में स्थित कीर्तिस्तम्भ की प्रशस्ति से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता हैं कि मीरा ने गीत गोविंद की टीका की रचना की थी ।

5. नरसी जी का मायरों - मायरों राजस्थान और गुजरात में अत्याधिक प्रचलित एक अनुष्ठान हैं जो विवाह
के समय लड़की की शादी के उपरांत कन्या जन्म पर लड़की के पिता या भाई वस्त्रादि देकर अनुष्ठान में सम्मिलित होते हैं इसे ही मायरो कहते हैं । इस रचना में नरसी जी के मायरों का वर्णन हैं यह माहिरा उनकी पुत्री नानाबाई के घर सम्पन्न हुआ था “कुछ प्रमाणों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है मीरा के जीवनकाल में नरसी जी जीवित थे।''

मीराबाई के पद
निष्कर्ष रूप से यह कह सकते हैं कि मीराबाई की प्रमाणिक रचनाएं उनके द्वारा लिखित पद ही हैं मीराबाई नाम से प्रचलित इन पदों की संख्या 25 से लेकर 500 तक हैं मीराबाई के पदों पर विद्वानों द्वारा लगभग 50 से अधिक पदों की रचना की गयी है । नागरी प्रचारिणी सभा के संग्रहालय में सुरक्षित प्रतियों, डाकोर की प्रतियां एवं अन्य प्रतियों के आधार पर पं. ललित प्रसाद ने मीरा के 103 पदों को प्रमाणिक माना हैं ।

मीराबाई की काव्य भाषा

मीरांबाई के कुछ पदों की भाषा पूर्ण रूप से गुजराती है तो कुछ की शुद्ध ब्रजभाषा। कहीं-कहीं पंजाबी का प्रयोग भी दिखाई देता है। शेष पद मुख्य रूप से राजस्थानी में ही पाए जाते हैं, इनमें ब्रजभाषा का भी पुट मिला हुआ ये चार बोलियाँ हैं- राजस्थानी, गुजराती, ब्रजभाषा और पंजाबी। इन बोलियों में मीरांबाई के पदों के उदाहरण भी देखिए -
राजस्थानी
थारी छूँ रमैया मोसूँ नेह निभावो।
थारो कारण सब सुख छोड़या, हमकूँ क्यूँ तरसावौ।।
गुजराती
मुखड़ानी माया लागी रे मोहन प्यारा।
मुखड़ँ में जोयुँ तारू सर्व जग थायुँ खारू।।
पंजाबी
आवदा जांवदा नजर न आवै।
अजब तमाशा इस दा नी।।
ब्रजभाषा
सखी मेरी नींद नसानी हो,
पिय को पंथ निहारत, सिगरी रैन बिहानी हो।
सब सखियन मिलि सीख दई मन एक न मानी हो।।

मीराबाई का भावपक्ष

  1. मीरा भक्तिकालीन कवयित्री थी। सगुण भक्ति धारा में कृष्ण को आराध्य मानकर इन्होंने कविताएँ की ।
  2. गोपियों के समान मीरा भी कृष्ण को अपना पति मानकर माधुर्य भाव से उनकी उपासना करती रही ।
  3. मीरा के पदों में एक तल्लीनता, सहजता और आत्मसमर्पण का भाव सर्वत्र विद्यमान है।
  4. मीरा ने कुछ पदों में रैदास को गुरू रूप में स्मरण किया है तो कहीं-कहीं तुलसीदास को अपने पुत्रवत स्नेह पात्र बताया है।

मीराबाई का कलापक्ष

  1. मीरा की काव्य भाषा में विविधता दिखला देती है। वे कहीं शुद्ध ब्रजभाषा का प्रयोग करती हैं तो कहीं राजस्थानी बोलियों का सम्मिश्रण कर देती हैं।
  2. मीराबाई को गुजराती कवयित्री माना जाता है क्योंकि उनकी काव्य की भाषा में गुजराती पूर्वी हिन्दी तथा पंजाबी के शब्दों की बहुतायत है पर इनके पदों का प्रभाव पूरे भारतीय साहित्य में दिखला देता है।
  3. इनके पदों में अलंकारों की सहजता और गेयता अद्भुत हैं जो सर्वत्र माधुर्य गुण से ओत-प्रोत हैं।
  4. मीराबाई ने बड़े सहज और सरल शब्दों में अपनी प्रेम पीड़ा को कविता में व्यक्त किया है।

मीराबाई का साहित्य में स्थान

कृष्ण को आराध्य मानकर कविता करने वाली मीराबाई की पदावलियाँ हिन्दी साहित्य के लिए अनमोल हैं। कृष्ण के प्रति मीरा की विरह वेदना सूरदास की गोपियों से कम नहीं है तभी तो सुमित्रानंदन पंत ने लिखा है कि ‘‘मीराबा राजपूताने के मरूस्थल की मन्दाकिनी हैं।’’ ‘हेरी मैं तो प्रेम दीवाणी, मेरो दर्द न जाने कोय।’ प्रेम दीवाणी मीरा का दरद हिन्दी में सर्वत्र व्याप्त है।

मीराबाई का केन्द्रीय भाव

मीरा के पदों का वैशिष्ट्य उनकी तीव्र आत्मानुभूति में निहित है। मीरा के काव्य का विषय है- श्रीकृष्ण के प्रति उनका अनन्यप्रेम और भक्ति । मीरा ने प्रेम के मिलन (संयोग) तथा विरह (वियोग) दोनों पक्षों की सुंदर अभिव्यक्ति की है। श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम में मीरा किसी भी प्रकार की बाधा या यातना से विकल नहीं होती। लोक का भय अथवा परिवार की प्रताड़ना दोनों का ही वे दृढ़ता के साथ सामना करती हैं।

22 Comments

  1. It's not मीराबा it's मीराबाई । By the way it is very nice

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  2. Helpfull 😐😐😐😐😐😕😃😃😃😃😃😃😃😃😃😃😃😃😃😃

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  3. Very very help ful thanks very very thankyou

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  4. Thank you for such a beautiful content of मीराबाई it help a lot in my assignment

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  5. 𝘛𝘩𝘢𝘯𝘬𝘺𝘰𝘶 𝘨𝘰𝘰𝘨𝘭𝘦

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  6. Nice💖💖💖🌹🌹👈👈👈👈👈👈🤗🤗🤗🎂🎂🎂

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