समाजवाद का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, विशेषताएं, गुण/दोष

आधुनिक आर्थिक प्रणाली का एक अन्य प्रमुख प्रकार समाजवाद है। समाजवाद का जन्म पूँजीवाद एवं व्यक्तिगत संपत्ति की बुराइयों के विरोध में हुआ। स समाजवाद में व्यक्ति एवं वैयक्तिक स्वार्थ की अपेक्षा समाज और सामूहिक हित को अधिक महत्व दिया जाता है।

समाजवाद का अर्थ

समाजवाद अंग्रेजी भाषा के सोशलिज्म (socialism) शब्द का हिन्दी पर्यायवाची है। सोशलिज्म शब्द की उत्पत्ति सोशियस socious शब्द से हुई जिसका अर्थ समाज होता है। इस प्रकार समाजवाद का सम्बन्ध समाज और उसके सुधार से है। अर्थात समाजवाद मूलतः समाज से सम्बन्धित है और न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए प्रयत्नशील है। समाजवाद शब्द मुख्य रूप से तीन अर्थों में प्रयुक्त किया जाता है -
  1. यह एक राजनीतिक सिद्धांत है। 
  2. यह एक राजनीतिक आंदोलन है। 
  3. इसका प्रयोग एक विशेष प्रकार की सामाजिक व आर्थिक व्यवस्था के लिये किया जाता है। 

समाजवाद की परिभाषा

वेकर कोकर के अनुसार - ‘‘समाजवाद वह नीति या सिद्धांत है जिसका उद्देश्य एक लोकतांत्रिक केन्द्रीय सत्ता द्वारा प्रचलित व्यवस्था की अपेक्षा धन का श्रेष्ठ कर वितरण और उसके अधीन रहते हुए धन का श्रेृठतर उत्पादन करना है।’’

बर्नार्ड शॉ के अनुसार - ‘‘समाजवाद का अभिप्राय संपत्ति के सभी आधारभूत साधनों पर नियंत्रण से है। यह नियंत्रण समाजवाद के किसी एक वर्ग द्वारा न होकर स्वयं समाज के द्वारा होगा और धीरे धीरे व्यवस्थित ढंग से स्थापित किया जायेगा।’’

समाजवाद की विशेषताएं

1. व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व - समाजवाद व्यक्तिवाद के विपरीत विचार है जो व्यक्ति की अपेक्षा समाज को अधिक महत्व देता है इस विचारधारा की मान्यता है कि समाज के माध्यम से ही व्यक्ति का सम्पूर्ण विकास हो सकता है। 

2. पूंजीवाद का विरोधी - समाजवाद पूंजीवाद का विरोधी है समाजवाद के अनुसार समाज में असमानता तथा अन्याय का कारण पूंजीवाद की विद्यमानता है। पूंजीवाद में उत्पादन का समान वितरण न होने के कारण संपत्ति पर पूंजीवाद का अधिकार होता है समाजवादियो के विचार में पूंजीपति व श्रमिकों में संघर्ष अनिवार्य है। अत: समाजवाद उत्पादन व वितरण के साधनो को पूंजीपति के हाथो से समाज को सौंपना चाहता है। 

3. सहयोग पर आधारित - समाजवाद प्रतियोगिता का विरोध करता है और सहयोग में वृध्दि करने पर बल देता है राष्ट्रीय तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सहयोग करके अनावश्यक प्रतिस्पधार् को समाप्त किया जा सकता है। 

4. आर्थिक समानता पर आधारित - समाजवाद सभी व्यक्तियों के लिये आर्थिक समानता प्रदान करने का पक्षपाती है। समाजवादी विचारकों का मत है कि आर्थिक असमानता अधिकांश देशों का मूल कारण है। 

5. उत्पादन तथा वितरण के साधनों पर राज्य का नियंत्रण - समाजवादी विचारको का मत है कि सम्पूर्ण देश की सम्पत्ति पर किसी व्यक्ति विशेष का नियंत्रण न होकर सम्पूर्ण समाज का नियंत्रण होना चाहिए। उत्पादन तथा वितरण के साधन यदि राज्य के नियंत्रण में रहेंगे तो सभी व्यक्तियों की आवश्यकताएं पूरी हो जायेंगी। 

6. लोकतांत्रीय शासन में आस्था- समाजवादी विचारक राजय के लोकतंत्रीय स्वरूप में विश्वास रखते है। ये मताधिकार का विस्तार करके संसद को उसकी व्यवस्था चलाने के लिये एक महत्वपूर्ण साधन मानते है। इस व्यवस्था से व्यक्तियों को राजनीतिक सत्ता की प्राप्ति होती है। 

समाजवाद के प्रकार 

स्पष्ट है कि समाजवाद के आज अनेक रूप पाए जाते हैं, किंतु इनमें सहकारी समाजवाद, राज्य समाजवाद, माक्र्सवाद समाजवाद, स्वप्नलोकी समाजवाद, समष्टिवादी समाजवाद, प्रजातांत्रिक समाजवाद, साम्यवादी समाजवाद, श्रम संघवाद, पेफबियनवाद, श्रेणी संघवादी समाजवाद आदि प्रमुख हैं। इनमें से कुछ का हम यहाँ संक्षेप में उल्लेख करेंगे- 

1. सहकारी समाजवाद

इस प्रकार के समाजवाद में मजदूर अपनी सहकारी समितियाँ बनाकर उद्योगों का संचालन करते हैं। वे स्वयं उद्योग के मालिक भी होते हैं और मजदूर भी। इस प्रकार का समाजवाद स्केण्डिनेविया में पाया जाता है। 

2. राज्य समाजवाद 

इसमें राज्य को बुराई के रूप में नहीं मानकर उत्तम वितरण की व्यवस्था करने वाली संस्था माना जाता है। इसमें उत्पादन के साधनों का राष्ट्रीयकरण कर दिया जाता है, राज्य को एक कल्याणकारी संस्था माना जाता है, व्यक्ति को राज्य के एक अंग के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह प्रजातंत्र में विश्वास करता है, स्वतंत्राता एवं समानता में विश्वास करता है और समाज का आधार वर्ग-संघर्ष नहीं वरन् वर्ग-सहयोग मानता है। 

3. पेफबियनवाद 

पेफबियनवादी समाजवाद को धीरे-धीरे एवं प्रजातंत्राीय ढंग से लाने में विश्वास करते हैं। वे क्रांति एवं रक्तपात में विश्वास नहीं करते। पेफबियनवाद का उद्देश्य भूमि और उद्योग में होने वाले मुनापेफ का लाभ समस्त समाज को पहुँचाना है। इसके लिए पेफबियनवादी कई उपाय अपनाने का सुझाव देते हैं, जैसे-(i) काम के घंटे, बेकारी, बीमारी, न्यूनतम मजदूरी, सफाई व सुरक्षा से संबंधित कानून बनाना (ii) सार्वजनिक वस्तुओं पर सरकार का नियंत्रण स्थापित करना (iii) उत्तराधिकार में प्राप्त होने वाली संपत्ति पर कर लगाना, आदि। 

4. प्रजातांत्रिक समाजवाद 

इसे विकासवादी समाजवाद भी कहा जाता है।  भारत में इसी पद्धति को अपनाया गया है। यह पूँजीवाद के स्थान पर समाजवाद की स्थापना के लिए बल और हिंसा के प्रयोग को अनुचित मानता है। यह इनके स्थान पर शांतिपूर्ण एवं संवैधानिक तरीकों को अपनाने पर बल देता है। 

5. श्रम-संघवाद 

श्रम-संघवाद को परिभाषित करते हुए ह्यूवर लिखते हैं, ‘‘वर्तमान युग में श्रम-संघवाद से अभिप्राय उन क्रांतिकारियों के सिंधान्तों और कार्यक्रमों से है जो पूँजीवाद को नष्ट करने तथा समाजवादी समाज की स्थापना करने के लिए औद्योगिक संघों की आर्थिक शक्ति का प्रयोग करना चाहते हैं।’’ श्रम-संघवादी राज्य के विरु( हैं क्योंकि वे राज्य को पूँजीपतियों का मित्र एवं श्रमिकों का विरोधी मानते हैं। ये लोग संघर्ष एवं क्रांति में विश्वास करते हैं और प्रजातंत्रा के विरोधी हैं। ये राज्य समाजवाद के पक्ष में नहीं हैं। 

6. श्रेणी समाजवाद 

श्रेणी समाजवादी पूंजीवादी के विरुद्ध हैं। ये समूह तथा व्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्व पर शोर देते हैं तथा उद्योगों में स्वशासन चाहते हैं। ये उत्पादन का प्रबंध और नियंत्रण राज्य द्वारा नहीं चाहते। ये स्थानीय स्तर पर कम्यून स्थापित करना चाहते हैं जिनमें उत्पादकों एवं उपभोक्ताओं का प्रतिनिधित्व हो।

समाजवाद के गुण

1. शोषण का अन्त - समाजवाद श्रमिको एवं निर्धनों के शोषण का विरोध करता है। समाजवादियो ने स्पष्ट कर दिया है कि पूंजीवादी व्यवस्था में पूंजीपतियों के शडयंत्रो के कारण ही निर्धनों व श्रमिकों का शोषण होता है। यह विचारधारा शोषण के अन्त में आस्था रखने वाली है। इसलिये विश्व के श्रमिक किसान निर्धन इसका समर्थन करते है। 

2. सामाजिक न्याय पर आधारित - समाजवादी व्यवस्था में किसी वर्ग विशेष के हितों को महत्व न देकर समाज के सभी व्यक्तियों के हितो को महत्व न देकर समाज के सभी व्यक्तियों के हितों को महत्व दिया जाता है यह व्यवस्था पूंजीपतियों के अन्याय को समाप्त करके एक ऐसे वर्गविहीन समाज की स्थापना करने का समर्थन करती है जिसमें विषमता न्यूनतम हो। 

3. उत्पादन का लक्ष्य सामाजिक आवश्यकता - व्यक्तिवादी व्यवस्था में व्यक्तिगत लाभ को ध्यान में रखकर किये जाने वाले उत्पादन के स्थान पर समाजवादी व्यवस्था में सामाजिक आवश्यकता और हित को ध्यान में रखकर उत्पादन होगा क्योंकि समाजवाद इस बात पर बल देता है कि जो उत्पादन हो वह समाज के बहुसंख्यक लोगों के लाभ के लिए हो। 

4. उत्पादन पर समाज का नियंत्रण - समाजवादियो का मत है कि उत्पादन और वितरण के साधनो पर राज्य का स्वामित्व स्थापित करके विषमता को समाप्त किया जा सकता है। 

5. सभी को उन्नति के समान अवसर - समाजवाद सभी लोगों को उन्नति के समान अवसर प्रदान करने के पक्षपाती है इस व्यवस्था में को विशेष सुविधा संपन्न वर्ग नहीं होगा। सभी लोगों को समान रूप से अपनी उन्नति एव विकास के अवसर प्राप्त होंगे। 

6. साम्राज्यवाद का विरोधी - समाजवाद औपनिवेशिक परतंत्रता और साम्राज्यवाद का विरोधी है। यह राष्ट्रीय स्वतंत्रता का समर्थक है। लेनिन के शब्दों में ‘‘साम्राज्यवाद पजूं ीवाद का अंतिम चरण है।’’ 

समाजवादियो का मत है कि जिस प्रकार पूंजीवाद में व्यक्तिगत शोषण होता है ठीक उसी प्रकार साम्राज्यवाद में राज्यों को राजनीतिक एवं आर्थिक रूप से परतंत्र बनाकर शोषण किया जाता है। 

समाजवाद के दोष

1. राज्य के कार्य क्षेत्र में वृद्धि - समाजवाद में आर्थिक तथा राजनीतिक दोनों क्षेत्रों में राज्य का अधिकार होने से राज्य का कार्य क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत हो जायेगा जिसके परिणामस्वरूप राज्य द्वारा किये जाने वाले कार्य समुचित रूप से संचालित और संपादित नहीं होंगे। 

2. वस्तुओ के उत्पादन में कमी - समाजवाद के आलोचकों की मान्यता है कि यदि उत्पादन के साधनों पर सपं ूर्ण समाज का नियंत्रण हो तो व्यक्ति की कार्य करने की प्रेरणा समाप्त हो जायेगी और कार्य क्षमता भी धीरे धीरे घट जायेगी। व्यक्ति को अपनी योग्यता का प्रदर्शन करने का अवसर नहीं मिलेगा तो वस्तुओं के उत्पादन की मात्रा घट जायेगी। 

3. पूर्ण समानता संभव नहीं- प्रकृति ने सभी मनुष्य को समान उत्पन्न नहीं किया। जन्म से कुछ बुद्धिमान तो कुछ मख्ूर् ा कुछ स्वस्थ कुछ परिश्रमी होते है। इन सबको समान समझना प्राकृतिक सिद्धांत की अवहेलना करना है। अत: पूर्ण समानता स्थापित नहीं की जा सकती।

4. समाजवाद प्रजातंत्र का विरोधी - प्रजातंत्र में व्यक्ति के अस्तित्व को अत्यंत श्रेष्ठ स्थान प्राप्त है वही समाजवाद में वह राज्य रूपी विशाल मशीन में एक निर्जीव पूर्जा बन जाता है।
नौकरशाही का महत्व - समाजवाद में राज्य के कार्यों में वृद्धि होने के कारण नौकरशाही का महत्व बढता है। आरै सभी निर्णय सरकारी कर्मचारियों द्वारा लिये जाते है ऐसी स्थिति में भष्टाचार बढता है। 

5. समाजवाद हिंसा को बढाता है - समाजवाद अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए क्रांतिकारी तथा हिंसात्मक मांग को अपनाता है। वह शांतिपूर्ण तरीको में विश्वास नही करता। वह वर्ग संघर्ष पर बल देता है। जिसके परिणामस्वरूप समाज में वैमनस्यता और विभाजन की भावना फैलती है। 
उपर्युक्त आलोचनाओं के आधार पर समाजवाद पर अव्यावहारिक अमनोवैज्ञानिक एवं अक्रियात्मक सिद्धांत है।

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