स्वामी विवेकानंद का जीवन दर्शन || स्वामी विवेकानंद जी के शैक्षिक विचार / शैक्षिक दर्शन


स्वामी विवेकानंद का जीवन परिचय
स्वामी विवेकानंद
स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी, 1863 को कलकत्ता के एक प्रसिद्ध वकील विश्वनाथ दत्त के घर हुआ। माता प्रेम से उन्हें वीरेश्वर कहती थी पर नामकरण संस्कार के समय उनका नाम नरेन्द्रनाथ रखा गया। उनकी माता जी धार्मिक विचारों की थी। उनका परिवार एक पारंपरिक कायस्थ परिवार था, स्वामी विवेकानंद के 9 भाई-बहन थे। उनके पिता, विश्वनाथ दत्त, कलकत्ता हाई कोर्ट के वकील थे।

दुर्गाचरण दत्ता जो नरेन्द्र के दादा थे, वे संस्कृत और पारसी के विद्वान थे जिन्होंने 25 साल की उम्र में अपना परिवार और घर छाडे़कर एक सन्यासी का जीवन स्वीकार कर लिया था। उनकी माता, भुवनेश्वरी देवी एक देवभक्त गृहिणी थी। स्वामीजी के माता और पिता के अच्छे सस्कारो और अच्छी परवरिश के कारण स्वामी जी के जीवन को एक अच्छा आकार और एक उच्चकाेिट की सोच मिली।

नरेन्द्रनाथ एक मेघावी छात्र थे। 1879 में प्रथम श्रेणी में प्रवेशिका परीक्षा उत्तीर्ण कर उन्होंने कलकत्ता के सबसे अच्छे महाविद्यालय- प्रेसीडेन्सी कॉलेज में प्रवेश लिया। बाद में वे एक दूसरे महाविद्यालय में भी पढ़े। विवेकानंद का अंग्रेजी और बंगला- दोनो ही भाषाओं पर अधिकार था। धर्मशास्त्र, इतिहास, विज्ञान आदि विषयों में इनकी गहरी रूचि थी। वे विद्याथ्री जीवन में अत्यन्त ही क्रियाशील थे एवं विभिन्न क्रियाकलापों में रूचि लेते थे। परम्परागत भारतीय व्यायाम एवं कुश्ती से लेकर क्रिकेट जैसे आधुनिक खेल में उनकी रूचि थी। 

बी0ए0 की परीक्षा के उपरांत नरेन्द्र के पिता उनका विवाह कराना चाहते थे पर नरेन्द्र गृहस्थ का जीवन जीना नहीं चाहते थे। पिता की अकस्मात् मृत्यु ने विवाह के प्रसंग को रोक दिया। पर नरेन्द्र के कन्धे पर पूरे परिवार का बोझ आ पड़ा।

नरेन्द्रनाथ को कोई भी बन्धन या मोह बाँध नहीं सका। 24 वर्ष की अवस्था में नरेन्द्रनाथ ने सन्यास ग्रहण कर लिया- वे अपने योग्य गुरू रामकृष्ण परमहंस के योग्यतम शिष्य ‘स्वामी विवेकानंद’ के रूप में ‘जगत प्रसिद्ध’ हुए। विवेकानंद ने परिब्राजक के रूप में कश्मीर से कन्याकुमारी तक समस्त भारत का भ्रमण किया। इस अनवरत भ्रमण ने जहाँ स्वामी विवेकानंद के ज्ञान को बढ़ाया वहीं वे भारत के दीन-दुखियों की विवशता को भी अपनी आँखों से देख सके। 

अपने गुरू स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विचारों के प्रसार, वेदान्त ज्ञान के अध्ययन एवं प्रचार तथा दीन-दुखियों की सेवा के लिए स्वामी विवेकानंद ने 1 मई, 1897 को रामकृष्ण मिशन की स्थापना की। स्वामी विवेकानंद की मृत्यु  39 वर्ष की अल्पावस्था में 4 जुलाई 1902 बेलूर मठ, पश्चिम बंगाल में हुई। 

स्वामी विवेकानंद का जीवन दर्शन

स्वामी विवेकानंद ने वेदान्त-दर्शन की व्याख्या आधुनिक परिप्रेक्ष्य में की तथा निराशा एवं कुंठा के दल-दल में फँसी हुई भारतीय जनता को जीवन का नया पथ दिखाया।स्वामी विवेकानंद का वेदों और उपनिषदों पर अटूट विश्वास था।  स्वामी विवेकानंद के अनुसार मनुष्य के जीवन का अन्तिम उद्देश्य आत्मानुभूति है। वस्तुत: वे आत्मानुभूति, मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति को समानाथ्री मानते थे। 

स्वामी जी मानते थे कि सभी मनुष्यों में ईश्वर का निवास है अत: मानव सेवा सबसे बड़ा धर्म है। मनुष्य को मन, वचन और कर्म से शुद्ध होकर अर्थोपार्जन करना चाहिए, दीन-हीनों की सेवा करनी चाहिए और योग मार्ग द्वारा आत्मानुभूति प्राप्त करते हुए मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए।
  1. धर्म - विवेकानंद के अनुसार भविष्य के धार्मिक आदर्शों को सभी धर्मों में जो कुछ भी सुन्दर और महत्वपूर्ण है, उन सबको एक साथ लेकर चलना पड़ेगा। ईश्वर सम्बन्धी सभी सिद्धान्त- सगुण, निर्गुण, अनन्त, नैतिक नियम अथवा आदर्श मानव धर्म की परिभाषा के अन्तर्गत आना चाहिए। स्वामी विवेकानंद सभी धर्मों की एकता में विश्वास करते थे। 
  2. सत्य - विवेकानंद के अनुसार, विश्व में सत्य एक है और मानव उसे विभिन्न दृष्टिकोण से देखते हैं। 
  3. अहिंसा - विवेकानंद अहिंसा को श्रेष्ठ मानते है पर हिंसा को सर्वथा त्याज्य नहीं। 
  4. त्याग -स्वामी विवेकानंद के अनुसार त्याग का अर्थ है, स्वार्थ का सम्पूर्ण अभाव।
  5. मानव सेवा - विवेकानंद ने यह सीख दी कि मानव सेवा ही ईश्वर सेवा है। उससे मुँह मोड़ना धर्म नहीं है। वे कहते थे अगर तुम्हें भगवान की सेवा करनी है तो मानव की सेवा करो। 
  6. जाति व्यवस्था के विरोधी - विवेकानंद भारत में व्याप्त सामाजिक बुराईयों के विरूद्ध लगातार संघर्ष करते रहे। 
  7. सामाजिक व्याधि के प्रतिकार का उपाय: शिक्षा - विवेकानंद कहते हैं ‘‘समाज के दोषों को दूर करने के लिए प्रत्यक्ष रूप से नहीं वरन् शिक्षा-दान द्वारा परोक्ष रूप से उसकी चेष्टा करनी होगी।’’
  8. देशभक्ति की आवश्यकता - विवेकानंद एक प्रखर राष्ट्र भक्त थे और वे सभी भारतीयों को राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत-प्रोत देखना चाहते थे।

स्वामी विवेकानंद का शैक्षिक दर्शन

उन्होंने चार प्रकार के दान बताये: धर्म (आध्यात्मिक ज्ञान का) दान, ज्ञान दान, प्राण दान और अन्न दान। इन सब में उन्होंने प्रथम दो दानों को श्रेष्ठ दान माना। वे ज्ञान-विस्तार को भारत की सीमाओं से बाहर भी ले जाना चाहते हैं। भारत ने संसार को अनेक बार आध्यात्मिक ज्ञान दिया। 

स्वामी विवेकानंद के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य

शिक्षा के उद्देश्यों का विवेचन करते हुए वे लिखते हैं ‘‘जो शिक्षा प्रणाली जन-साधारण को जीवन-संघर्ष से जूझने की क्षमता प्रदान करने में सहायक नहीं होती, जो मनुष्य के नैतिक बल का, उसकी सेवा-वश्त्ति का, उसमें सिंह के समान साहस का विकास नहीं करती, वह भी क्या शिक्षा के नाम के योग्य है?’’ स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा के महत्वपूर्ण उद्देश्य बतलाये-
  1. अन्तर्निहित पूर्णता की अभिव्यक्ति: विवेकानंद ने शिक्षा का सर्वाक्तिाक महत्वपूर्ण उद्देश्य मानव में निहित पूर्णता का विकास है।
  2. मानव-निर्माण करना: स्वामी विवेकानंद ने शिक्षा प्रमुख उद्देश्य मानव का निर्माण करना बताया। वे कहते हैं ‘‘शिक्षा द्वारा मनुष्य का निर्माण किया जाता है। समस्त अध्ययनों का अन्तिम लक्ष्य मनुष्य का विकास करना है। 
  3. शारीरिक पूर्णता: विवेकानंद के अनुसार मानव तभी पूर्णता प्राप्त कर सकता है जब उसका शरीर स्वस्थ हो। शारीरिक दुर्बलता पूर्णता के लक्ष्य प्राप्त करने में सबसे बड़ा बाधक तत्व है। 
  4. चरित्र का निर्माण: स्वामी विवेकानंद उसी शिक्षा को शिक्षा मानते थे जो चरित्रवान स्त्री-पुरूष को तैयार कर सके। उनके अनुसार सबल राष्ट्र के निर्माण हेतु नागरिक का चरित्रवान होना आवश्यक है। 
  5. जीवन-संघर्ष की तैयारी: शिक्षा विद्याथ्री को भावी जीवन के लिए तैयार करती है। विवेकानंद की दृष्टि में जीवन-संघर्ष की तैयारी के लिए तकनीकी एवं विज्ञान की शिक्षा आवश्यक है। 
  6. राष्ट्रीयता की भावना का विकास: विवेकानंद भारत की दुर्दशा से अत्यन्त ही मर्माहत थे। वे एक ऐसी शिक्षा व्यवस्था का विकास करना चाहते थे जो भारतीय विद्यार्थियों में राष्ट्रीयता की भावना का विकास कर सके। 
इस प्रकार शिक्षा के माध्यम से विवेकानंद भारतीयों के मध्य राष्ट्र के प्रति पूर्ण समर्पण की भावना का विकास करना चाहते थे।

पाठ्यक्रम 

विवेकानंद के अनुसार धर्म शिक्षा की आत्मा है। विवेकानंद की धर्म की परिभाषा अत्यन्त व्यापक है। वे धर्म अन्तर्गत सम्प्रदाय विशेष को न मानकर नैतिक जीवन पद्धति को मानते हैं। वे पाश्चात्य शिक्षा को अधर्म के विस्तार का कारण मानते हैं। हृदय का विकास जहाँ मानव को आध्यात्मिक बनाता है वहीं मात्र बौद्धिक विकास उसे स्वाथ्री बनाता है।

विवेकानंद शिक्षा में आध्यात्म के साथ विज्ञान एवं तकनीकी की शिक्षा आवश्यक मानते हैं। स्वामी विवेकानंद का यह स्पष्ट तौर पर मानना था कि भारतीय आध्यात्म एवं पश्चिमी विज्ञान का समन्वय ही मानव कल्याण का सर्वाधिक विश्वसनीय आधार बन सकता है। स्वामी विवेकानंद का मानना था कि आधुनिक विज्ञान एवं तकनीकी तथा उद्योग की शिक्षा ने मानव के जीवन को आरामदायक बनाया है। पर अगर इसका विकास बिना नैतिक- आध्यात्मिक समन्वय के साथ हुआ तो यह मानव जाति के विनाश का कारण बन सकता है। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान स्वामी विवेकानंद की भविष्यवाणी सच हुई।

विवेकानंद की शिक्षा व्यवस्था में कला को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। वे मानते थे कि ‘‘कला हमारे धर्म का ही एक अंग है।’’ उन्होंने विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं शिक्षाशास्त्रियों का ध्यान चित्रांकित पात्रों, नयनाभिराम साड़ियों आदि से लेकर कश्“ाक की झोपड़ियों तथा अनाज भरने के कोठारों तक खींचा। उन्हें जीवन का हर आयाम कलात्मक दिखता था और वे शिक्षा को कला की साधना का माध्यम बनाने पर जोर देते थे।

स्वामी विवेकानंद भाषा की शिक्षा के संदर्भ में अत्यधिक उदार थे। वे संस्कृत भाषा की शिक्षा पर अत्यधिक जोर देते थे क्योंकि यही हमारे धर्म और संस्कृति की भाषा है। इसके साथ ही मातृभाषा की शिक्षा आवश्यक मानते थे। विज्ञान एवं तकनीक की उचित शिक्षा के लिए वे अंग्रेजी की भी शिक्षा महत्वपूर्ण मानते थे।

जनसामान्य में शिक्षा के प्रसार हेतु विवेकानंद की शिक्षा-व्यवस्था में शारीरिक शिक्षा, खेलकूद और व्यायाम को उचित स्थान दिया गया है। वे नवयुवकों को गीता पढ़ने की बजाए फुटबाल खेलने का सुझाव देते थे। उनका मानना था कि अगर शरीर स्वस्थ होगा तो गीता भी बेहतर ढ़ंग से समझ में आयेगी। उन्होंने नवयुवकों को शक्ति का महत्व बताते हुए कहा- ‘‘शक्ति ही जीवन और कमजोरी मृत्यु है। शक्ति परम सुख है और अजर अमर जीवन है, कमजोरी कभी न हटने वाला बोध और यन्त्रणा है, कमजोरी ही मृत्यु है।’’

इस प्रकार शिक्षा के पाठ्यक्रम में स्वामी विवेकानंद ने प्राच्य धर्म, दर्शन और भाषा तथा पाश्चात्य ज्ञान-विज्ञान, तकनीक एवं औद्योगिक प्रशिक्षण को स्थान दिया। उन्होंने स्पष्ट रूप से यह महसूस किया था कि पाश्चात्य जगत के भौतिक ज्ञान से हम अपना भौतिक विकास कर सकते है और अपने देश के आध्यात्मिक ज्ञान से पश्चिमी जगत का कल्याण कर सकते है। इस प्रकार से स्पष्ट है कि पाठ्यक्रम के सम्बन्ध में स्वामी विवेकानंद का दृष्टिकोण समन्वयवादी, आधुनिक और व्यापक था।

शिक्षण विधि 

स्वामी विवेकानंद के अनुसार ज्ञान प्राप्त करने की सर्वोत्तम विधि एकाग्रता है। वे कहा करते थे कि जितनी अधिक एकाग्रता होगी उतना ही अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। उनका कहना था कि एकाग्रता के बल पर जूता पॉलिश करने वाला भी बेहतर ढ़ंग से जूता पॉलिश कर सकेगा एवं रसोइया भी अधिक अच्छा भोजन बना सकेगा।

एकाग्रता तभी आ सकती है जब मनुष्य में अनासक्ति हो। स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि तथ्यों का संग्रह शिक्षा नहीं है। सच्ची शिक्षा है तन को अनासक्ति द्वारा एकाग्र करने की क्षमता विकसित करना। इससे सभी तरह के तथ्यों का संग्रह किया जा सकता है, समस्याओं को समझा जा सकता है और उनके निराकरण का मार्ग ढूंढ़ा जा सकता है।

स्वामी विवेकानंद लौकिक एवं आध्यात्मिक दोनों ही प्रकार के ज्ञान के लिए योग विधि को अपनाने पर बल देते थे। भौतिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए जहाँ अल्प योग (अल्पकाल की एकाग्रता) पर्याप्त है वहीं आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए पूर्ण योग (दीर्घकालीन एकाग्रता) आवश्यक है।

स्वामी विवेकानंद शिक्षा को प्रत्येक बालक-बालिका का जन्म सिद्ध अधिकार मानते थे। खोये हुए सांस्कृतिक एवं भौतिक वैभव को फिर से प्राप्त करने के लिए जनसाधारण की शिक्षा को वे आवश्यक बताते थे। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कहा- ‘‘मेरे विचार में जनसाधारण की अवहेलना राष्ट्रीय पाप है और हमारे पतन का कारण है। जब तक भारत की सामान्य जनता को एक बार फिर से शिक्षा, अच्छा भोजन और अच्छी सुरक्षा प्रदान नहीं की जायेगी, तब तक सर्वोत्तम राजनीतिक कार्य भी व्यर्थ होंगे।’’ वे शिक्षा की सुविधा सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध कराना चाहते थे।

स्वामी विवेकानंद के जीवन एवं शिक्षा सम्बन्धी विचार आज की परिस्थितियों में भी उतनी ही उपयोगी है जितनी उनके समय में थी। आज वेदान्त और विज्ञान के समन्वय की आवश्यकता और अधिक है। स्वामी विवेकानंद का दर्शन मानव मात्र का कल्याण के लिए है। उन्होंने स्वंय कहा था- ‘‘हम मानव-निर्माण का धर्म चाहते हैं। हम मनुष्य का निर्माण करने वाले सिद्धान्त चाहते हैं और हम मानव निर्माण की सर्वागींण शिक्षा चाहते हैं।’’

शिक्षक का दायित्व 

विवेकानंद ने कहा कि शिक्षक का कार्य मार्ग से रूकावटें हटाना है। अर्थात् व्यक्ति के अन्तर्गत ब्रह्मत्व की शक्ति पहले से ही विद्यमान है, शिक्षा का कार्य उसे उजागर करना है।

सर्वजनीन और सर्वसुलभ शिक्षा प्रसार के लिए स्वामी जी ने शिक्षा देने हेतु ऐसे अध्यापकों की अपेक्षा की जो सदाचारी हों, त्यागी हों और उच्च भाव से ओत-प्रोत हों। उन्होंने यह स्पष्ट किया कि भारत में शिक्षा ‘ज्ञानदान’ या ‘विद्यादान’ अत्यन्त महत्वपूर्ण माना गया है और यह दानी पुरूषों द्वारा होता है। अत: ज्ञान प्रसार का कार्य निस्वार्थ त्यागी पुरूषों के कन्धों पर ही होना चाहिए। शिक्षकों को निस्वार्थ भाव से शिक्षा देनी चाहिए न कि धन, नाम या यश सम्बन्धी स्वार्थ की पूर्ति के लिए। शिक्षकों को मानव-जाति के प्रति विशुद्ध प्रेम से प्रेरित होना चाहिए क्योंकि स्वार्थ पूर्ण भाव, जैसे लाभ अथवा यश की इच्छा, इसके अभीष्ट उद्देश्य को नष्ट कर देगा।

शिक्षा के लिए विवेकानंद गुरूगृह प्रणाली के पोषक थे। उनका मत था कि विद्यालयों का पर्यावरण एवं वातावरण गुरूगृह की ही तरह शुद्ध होना चाहिए, जहाँ व्यायाम, खेल-कूद, अध्ययन-अध्यापन के साथ भजन-कीर्तन और ध्यान की भी व्यवस्था हो। वे कहते है- ‘‘मेरे विचार के अनुसार शिक्षा का अर्थ है गुरूकुल-वास। शिक्षक के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोई शिक्षा हो ही नहीं सकती। जिनका चरित्र जाज्वल्यमान अग्नि के समान हो, ऐसे व्यक्ति के सहवास में शिष्य को बाल्यावस्था के आरम्भ से ही रहना चाहिए, जिससे कि उच्चतम शिक्षा का सजीव आदर्श शिष्य के सामने रहे।’’

विद्यार्थी के कर्तव्य 

शिक्षार्थी के लिए स्वामी जी कठोर नियमों का पालन एवं इन्द्रिय निग्रह पर जोर देते थे, जिससे छात्र शिक्षक में श्रद्धा रखकर सत्य को जानने का प्रयास करें। उन्होंने कहा ‘‘शिक्षक के प्रति श्रद्धा, विनम्रता, समर्पण तथा सम्मान की भावना के बिना हमारे जीवन में कोई विकास नहीं हो सकता। उन देशों में जहाँ शिक्षक-शिक्षार्थी सम्बन्धों में उपेक्षा बरती गई है, वहाँ शिक्षक एक व्याख्याता मात्र रह गया है। वहाँ शिक्षक अपने लिये पाँच डालर की आशा रखने वाले और छात्र, शिक्षक के व्याख्यान को अपने मस्तिष्क में भरने वाले रह जाते हैं। इतना कार्य सम्पन्न होने पर दोनों अपनी-अपनी राह पर चल देते हैं। इससे अधिक उनमें कोई सम्बन्ध नहीं रह गया है।’’

विवेकानंद विद्यार्थी-जीवन में ब्रह्मचर्य पालन पर जोर देते हैं। उनके अनुसार इस काल में विद्याथ्री को मन, वचन और कर्म से ब्रह्मचर्य-पालन करना चाहिए। इससे संकल्प-शक्ति दृढ़ होती है तथा आध्यात्मिक शक्ति तथा वाग्मिता का विकास होता है।

नारी शिक्षा 

स्वामी विवेकानंद स्त्री-पुरुष समानता के समर्थक थे। इसलिए महिलाओं की शिक्षा भी उनकी शिक्षा सम्बन्धी योजना में महत्वपूर्ण विषय है। उनका मानना था कि देश की उन्नति के लिए महिलाओं की शिक्षा अत्यन्त आवश्यक है। महिलाओं की शिक्षा के लिए उन्होंने तपस्वी, ब्रह्मचारिणी तथा त्यागी महिलाओं को प्रशिक्षण देना आवश्यक माना ताकि ऐसी महिलायें दूसरी महिलाओं को सम्यक शिक्षा प्रदान कर सकें।

महिलाओं की समुचित शिक्षा के लिए विवेकानंद ने पुरुषों की भाँति महिलाओं के लिए अलग संघ स्थापित करने पर जोर दिया। उनका विचार था कि मठों की स्थापना के माध्यम से वहाँ प्रशिक्षित ब्रह्मचारी स्त्रियाँ, सन्यासी और सुशिक्षित बन कर नारी जाति को शिक्षा देने का प्रयास करेंगी। शिक्षित स्त्रियाँ भले-बुरे का ज्ञान प्राप्त कर सकेंगी और स्वतंत्र तथा स्वाभाविक रूप से प्रगतिपथ पर अग्रसर हो सकेंगी। पुरुषों की तरह स्त्रियों को भी भाषा, गणित, विज्ञान, सामाजिक विषयों तथा लौकिक विषयों की शिक्षा दी जानी चाहिए, जिससे वे दूसरों तक सम्यक रूप से प्रसारित कर सकें।

वे कहते हैं कि ‘‘जिस तरह माता-पिता अपने पुत्रों को शिक्षा देते है उसी तरह उन्हें पुत्रियों को भी शिक्षित करना चाहिए। जबकि हम उन्हें प्रारम्भ से ही दूसरे पर निर्भर रहकर परतंत्र रहने की शिक्षा देते हैं।’’ विवेकानंद की दृष्टि में मिलनी चाहिए कि वे दूसरों पर निर्भर रहने की बजाय स्वयं अपनी समस्याओं का निराकरण कर सकें। वे लड़कियों की शिक्षा के केन्द्र में धर्म को रखने का सुझाव देते हैं। इसके अतिरिक्त इतिहास एवं पुराण, गृह-व्यवस्था, कला एवं शिल्प, बच्चों की उचित देखभाल, पाक कला आदि की शिक्षा देने का सुझाव देते हैं। वे कन्याओं से ‘सीता’ के उज्ज्वल चरित्र से शिक्षा लेने को कहते हैं।

शिक्षा का प्रसार 

स्वामी विवेकानंद ने राष्ट्र और मानव की समस्याओं का निदान शिक्षा को माना। वे शिक्षा को समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुँचाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति के प्रभावशाली माध्यमों के प्रयोग पर बल दिया।

भ्रमणकारी सन्यासियों द्वारा शिक्षा 

स्वामी विवेकानंद की यह योजना श्रमण प्रकृति से मिलती-जुलती है। उन्होंने कहा कि शिक्षा के प्रसार का कार्य उन हजारों सन्यासियों के माध्यम से हो सकता है जो गाँव-गाँव धर्मोपदेश करते हुए घूमते रहते हैं। उन्हीं के शब्दों में ‘‘हमारे देश में एकनिष्ठ और त्यागी साधु हैं जो गाँव-गाँव धर्म की शिक्षा देते फिरते हैं। यदि उनमें से कुछ लोगों को शैक्षिक विषयों में भी प्रशिक्षित किया जाये तो गाँव-गाँव दरवाजे जाकर वे न केवल धर्म की ही शिक्षा देंगे बल्कि ऐहिक शिक्षा भी दिया करेंगे।’’

रामकृष्ण मिशन 

स्वामी विवेकानंद ने मानव जाति के उत्थान के लिए रामकृष्ण मिशन गठन किया। विवेकानंद ने इसका उद्देश्य निश्चित किया- ‘‘आत्मनो मोक्षार्थ जगत् हिताय च।’’- ‘अपनी मुक्ति तथा जगत के कल्याण के लिए।’ रामकृष्ण मठ की स्थापना 1897 में की गई तथा रामकृष्ण मिशन का पंजीकरण 1909 में किया गया। मठ और मिशन स्वामीजी के शिक्षा सम्बन्धी विचारों को साकार रूप देने का माध्यम है। मठ का मुख्य कार्यालय बेलूर मठ में है। देश में तो मठ और मिशन की अनेक शाखायें हैं ही, विदेशों में भी 130 शाखायें स्थापित की गई हैं। रामकृष्ण मिशन का एक महत्वपूर्ण कार्य है जनसेवा। यह आपदा की स्थिति में पूरी निष्ठा से लोगों की सेवा करता है।

1 Comments

Previous Post Next Post