हठयोग साधना का ऐतिहासिक विकास एवं परम्परा

सामान्यतया हठयोग का अर्थ सामान्य जन जबरदस्ती किए जाने वाले शरीर की शक्ति के विपरीत बल लगाकर किए जाने वाले योग के अर्थ में लेते है, परंतु यह उचित नहीं है। ‘हठ’ शब्द का अर्थ शास्त्रों में प्रतीकात्मक रूप से लिया गया है। शरीर, मन व प्राण को वश में करना हठयोग का लक्ष्य है, क्योंकि शरीर और मन की साधना किए बिना आध्यात्मिक लाभ प्राप्त नहीं किया जा सकता।

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शरीर की शुद्धि की छह क्रियाएं हठयोग में वर्णित की गई हैं। इनसे शरीर की आंतरिक शुद्धि होती है। इनसे शरीर के तीन दोष (वात, पित्त, कफ) सम अवस्था में आ जाते हैं। शरीर के विभिन्न रोग षट्कर्मों के द्वारा दूर हो जाते हैं। ये  षट्कर्म हैं- धौति, नेति, बस्ति, नौलि, त्राटक और कपालभाति। धौति के चार भेद घरेण्ड संहिता में दिए गए हैं जो इस प्रकार हैं- 1. अतं: धौति, 2. दंत धौति, 3. हृद धौति, 4. मलू शोधन धौति।


हठयोग प्रदीपिका में दस मुद्राओं  का वर्णन प्राप्त होता है। घरेण्ड संहिता में 25 मुद्राओं का वर्णन मिलता है। इनमें महामुद्रा, महाबंध, खेचरी, उड्डियान, मूलबंध, जलांधर   बंध, विपरीतकरणी, वज्राले ी, शक्तिचालिनी आदि मुख्य मुद्राएं हैं। हठयोग में कुंडलिनी शक्ति के जागरण के लिए मुद्राओं का अभ्यास किया जाता है।

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हठयागे के ग्रंथ ‘हठ प्रदीपिका’ में अष्टविध प्राणायामों का उल्लेख मिलता है। ये 8 प्राणायाम हैं- 1. सूर्य भेदन, 2. उज्जायी, 3. भस्त्रिका, 4. भ्रामरी, 5. शीतली, 6. सीत्कारी, 7. मर्छू ा, 8. प्लाविनी।

प्राणायाम से शरीर हल्का हो जाता है। शरीर की नस-नाडि़यां विकार रहित हो जाती है तथा चित्त की चंचलता दूर होती है।

प्रत्याहार इंद्रियो पर संयम का नाम है। इससे साधक में धैर्य की उत्पत्ति होती है तथा सांसारिक विषयों के प्रति आसक्ति भाव का नाश होता है।

हठयोग साधना का ऐतिहासिक विकास 

हठयोग साधना के ऐतिहासिक विकास को हम दो परम्पराओं में बाँट सकते है:- (1) परम्परानुसार विकास (2) ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक विकास।

1. परम्परानुसार विकास

परम्परानुसार हठ्योग साधना के विकास में ऐसी मान्यता चली आ रही है कि समस्त साधनों का मूल योग है, तप, जप, संन्यास, उपनिषद् ज्ञान आदि मोक्ष हेतु अनेक हैं किन्तु सर्वोत्कृष्ट योग मार्ग ही है और योगमार्ग में प्राथमिक योग हठयोग ही है। इसी योग के प्रभाव से शिव सर्वसामाथ्र्य, ब्रह्यकर्त्ता, विष्णु पालक हैं। योग के मुख्य उपदेष्टा भगवान शिव नें पार्वती जी से कहा कि ब्रह्य जी की कथा से योगी याज्ञवलक्यस्मृृिति बनी है। विष्णु (भगवान श्री कृष्ण जिनके अवतार मान जाते है।) ने गीता एवं भागवत् के ग्यारहवें स्कंध में कहा है कि इसके मुख्य आचार्य आदिनाथ (शिवजी) हैं। इन्हीं से नाथ संप्रदाय शुरू हुआ। ऐसी श्रुति है कि एक समय आदिनाथ किसी द्वीप में योगेश्वरी, जगत्जननी, भगवती आदिशिक्त्त, माँ पार्वती को योग साधना को समझा रहे थे तभी एक मछली ने यह दिव्य ज्ञान एवं दिव्य साधना से दिव्य मनुष्य देह प्राप्त किया एवं मत्स्येन्द्रनाथ के नाम से जाने गये। 

इन्हीं मत्स्येन्द्रनाथ नें हठयोग साधना का प्रचार प्रसार किया इनके अनुयायियों में शाबरनाथ (जिन्होंने शाबरतंत्र का प्रार्दुभाव किया) इसी श्रृंखला में आनंदभैरव नाथ, चौरंगीनाथ, आदि हुऐ। ऐसी मान्यता प्रचलित है कि ये योगी इच्छाअनुसार कही भी विचरण कर सकते थे। एक समय भ्रमण के दौरान एक चोर को हाथ पैर कटे हुऐ इन्होंने देखा इनकी कृपा दृष्टि से उस चोर के हाथ-पाँव ऊग आये तथा उसे सत्यज्ञान भी हो गया। मत्स्येन्द्रनाथ जी से योग पाकर चौरंगिया नाम योगी सिद्ध विख्यात हुआ। 

मत्सयेन्द्रनाथ से योग पाकर मीननाथ, गोरखनाथ, विरूपाक्ष बिलेशय, मंथानभैरव, सिद्धवृद्ध, कंथड़ी कोरंटक, सुरानंद, सिद्धपाद, चर्पटी, कानेरी, पूज्यवाद, नित्यानंद, निरंजन, कपाली, विंदुनाथ, काकचंडीश्वर, अल्लाम, प्रभुदेव, धोडाचोली, टिंटिणी, भानुकी, नारदेव, चण्डकापालिक तारानाथ इत्यादि योगसिद्धि पाकर योगाचार्य हुए हैं।

2. ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक विकास

ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक ज्ञान के आधार पर हठयोग साधना का विकास क्रम अनुमान लगाया जा सकता है। आप जानते है कि विश्व की सर्वाधिक प्राचीन सभ्यता सिन्धुघाटी की सभ्यता है। इस काल से शुरू कर हठयोग के विकास को समझने हेतु पुरातात्विक धरोहरों एवं प्राचीन साहित्य का आधार बनाया गया है। इस प्रकार काल क्रमानुसार हठयोग विज्ञान का ऐतिहासिक विकास  है -

1. पूर्व वैदिक काल:- पुरातात्विक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि वैदिक काल के पूर्व 3000 सवीं पूर्व में सिन्धु घाटी नामक एक ऐसी सभ्यता थी जिसमें मातृ शिक्त्त की पूजा की जाती थी। यही से पुुरावशेष के रूप में प्राप्त पशुुपतिनाथ की मुद्रा पद्यमासन में अर्धनिमिलित नेत्र जो नासिका के अग्रभाग पर स्थिर है। हठयोग साधना के अंग आसन का साक्ष्य प्रदान करता है। इससे हठयोग साधना की परम्परा का ऐतिहासिक कालानुक्रम पूर्व वैदिक काल तक पहुँचता है।

2. वैदिक काल:- हठयोग साधना का ज्ञान वैदिक समय में था क्योंकि वैदिक साहित्य से ज्ञात होता है कि प्राणापनादि वायु, सत्यधर्म की महत्ता, ध्यान, आचारशुद्धि ध्यानात्मक आसन की स्थिति आदि हठयौगिक क्रिया-प्रक्रियाओं का स्पष्ट उल्लेख प्राप्त होता है। हठयोग को प्राणयोग भी कहते है। शथपथ ब्राम्हण, एतय ब्राम्हण, कौशीतिकी ब्राम्हण, जैमनीय एवं गोपथ ब्राम्हण आदि में प्राणविद्या के बा में विस्तार से वर्णन है। प्रणव विद्या का विकसित रूप इस काल में आ चुका था।

3. उपनिषदों को काल:- उपनिषदों के काल में हठ्योग साधना चरम उत्कर्ष पर थी। इस काल के साहित्य में प्राणयोग पर असाधारण साहित्य प्राप्त होता है। वृहदारण्यकोपनिषद् (1.5.3) एवं छांदोग्य उपनिषद् (1.3.3) में प्राण अपान आदि पाँच वायुओं के महत्व का वर्णन किया गया है। हद्रय तथा उससे निकलने वाली नाड़ियो का वर्णन कठोपनिषद (2:3:16) तथा छांदोग्य उपनिषद (8.6.1) में पाया जाता है। हठ्योग में सबसे आधिक महत्वपूर्ण समझी जाने वाली सुषुम्नानाड़ी का अप्रत्यक्ष उल्लेख भी इन दोनों उपनिषदों में तथा तैतरीय उपनिषद् (6.1) में मिलता है। श्वेताश्वतर उपनिषद में हठयोग के अभ्यासों का क्रमवार विवरण प्राप्त होता है। तथा उनका शरीर क्रियात्मक प्रभाव का वर्णन भी प्राप्त होता है। जिसकी परम्परा परिवर्ती हठयोग साहित्य में प्राप्त होती है।

4. महाकाव्य काल:- रामायण एवं महाभारत काल में हठयोग साधना का पर्याप्त प्रयोग मिलता है। इस काल के अतुलनीय ग्रंथ श्रीमद्भगवत गीता में भी क जगह हठयोग साधना के तत्व प्राप्त होते है।

5. सूत्र:- यह काल योग दर्शन की महान कृति पांतजल योग सूत्र के संकलन का काल रहा इसी समय के पहिले भगवान बुद्ध एवं भगवान महावीर का समय रहा। इस तीनों धाराओं में हठयोग साधना के पर्याप्त तत्व प्राप्त होते है।

6. स्मृति  काल:- स्मृति काल में हठयोग साधना का स्वरूप कुछ विशेष अर्थो के प्रार्दुभाव के साथ हुआ। इस काल से रचित याज्ञवलक्य स्मृति, मनुस्मृति, दक्षस्मृति आदि में पर्याप्त हठयोग साधना के सिद्धांत समाहित है।

7. पौराणिक काल:- पौराणिक काल में हठयोग साधना पर पर्याप्त साहित्य उपलब्ध होता है। प्रथम सवी सदी के आसपास से पौराणिक काल की शुरूआत हो जाती है। इस काल में 18 पुराणों की परम्परा है साथ ही इनके 18 उपपुराण भी है हंलाकि इनकी संख्या सैकड़ों में भी हो सकती है। इन पुराणों में हठयोग साधना के क संदर्भ जगह-जगह पर प्राप्त होते है।

8. मध्य काल:- मध्यकाल में हठयोग साधना की गहरी परम्परा रही है। इन परम्पराओं को चार प्रकारों में पृथक-पृथक अध्ययन की सुविधा हेतु बाँटा जा सकता है। ये  है- (अ) तन्त्र धारा (ब) नाथ धारा (स) भक्तिधारा (द) शंकराचार्य धारा। इस काल में हठयोग साधना का उद्भव अपने चरमोत्कर्ष पर था। तन्त्रों में हिन्दू और बौद्ध दोनों तन्त्रों में हठयोग की साधनाओं के स्त्रोत भ पड़े है। नाथों तथा सिद्धों की साधना पद्धति तो शुद्ध हठयोग साधना विधान ही है। भिक्त्त काल में भी हठयोग साधना के तत्व शण्डिल्य सूत्र, नारद भक्ति सूत्र इत्यादि में प्राप्त होते हैं। शंकराचार्य धारा भी प्राण साधना द्वारा हठयोग से ओत-प्रोत है।

9. पूर्व आधुनिक काल:- इस काल में स्वामी शिवानंद, स्वामी विवेकानंद , स्वामी कुवल्यानंद आदि योग साधकों ने हठयोग के अंगोपर पर्याप्त बल दिया है। एवं हठयोग साधना पर वैज्ञानिक प्रयोग भी इस समय में किये गये है। इस काल हठयोग साधना के क ग्रंथों का प्रणायन हुआ।

10. 21 वीं शताब्दी का प्रारम्भ काल:- इस काल में विशेष धार्मिक सामाजिक आंदोलनो के रूप में योग का जो स्वरूप विकसित हो रहा है उसमें सर्वाधिक प्रयोग हठयोग साधना के अंगों का हो रहा है। इस काल में हठयोग साधना के आश्रमों संस्थाओं विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों के स्तर पर भी हठ्योग साधना के अभ्यास को महत्व दिया जा रहा है। इस साधना पद्धति पर शोध की संभावनाएं बढ़ी है मेडिकल कॉलेजों में हठयोग के शरीर क्रियात्मक प्रभाव पर अनेक शोध परियोजनाएँ संचालित हो रही है। शसकीय स्तर पर भी इस साधना पद्धति को समर्थन एवं अनुदान प्राप्त हो रहा है।

हठयोग साधना की परम्परा

हठयोग साधना का अन्तिम लक्ष्य महाबोध समाधि है। हठयोग साधना की परम्परा में हठयोग के आदि उपदेष्टा योगीश्वर भगवान शिव से प्रारम्भ होती है। अन्य योगों की परम्परा की तरह ही योग विज्ञान का ऐतिहासिक विकास तभी से शुरू हो जाता है जब से मनुष्य का अस्तित्व शुरू होता हैं। 

भारतीय संस्कृति में ज्ञान के सभी स्त्रोतों का उदगम् श्वर से शुरू होता है। जिस प्रकार श्वर अनादि और अजन्मा है, उसी प्रकार हठयोग विज्ञान भी सृष्टि के आरम्भ काल से प्रवाहमान है। 

आदिनाथ भगवान शिव का कथन शिवसंहिता में प्राप्त होता है कि-

शिवविधा महाविद्या गुप्ता गुप्ता चाग्रे महेश्वरी।
मदभाषितमिदं शास्त्रं गोवनीय मतो बुधौ:
। हठविधा परं गोप्या योगिना सिद्धिमिच्छता।। (शिवसंहिता 5/249)

अर्थात् यह हमारी कही हु महाविधा को ही शिव विद्या कहते है यह विद्या सभी प्रकार से गोपनीय है। यह विधा हठयोग से शुरू होती है ऐसा आगे भगवान शिव का मत इस परम्परा और इसके महत्व एवं उपयोगिता को निम्नश्लोक द्वारा स्पष्ट करता

त्रैलोकये यानि भूतानि तानि सर्वाणि देहत:।
मेरूं संवेष्टय सर्वत्र व्यवहार: प्रवर्तते।
जनाति य: सर्वमिदं स योगी मात्र संशय:।। (शिव संहिता 2/4)

अर्थात जो त्रैलाकय में चराचर वस्तु हैं सो सब इसी शरीर में मेरू के आश्रय हो के सर्वत्र अपने अपने व्यवहार को वर्तते हैं, जो मनुष्य यह सब जानता है सो योगी है। इसमें संशय नहीं हठयोग के अभ्यास की महत्तता पर भी आदि देव भगवान शिव का बड़ा स्पष्ट उपदेश है।

हठं बिना राजयोगो राजयोगं बिना हठ:।
तस्मात् प्रवर्तते योगी हठे सदगुरूमार्गत:।।  

अर्थात् हठयोग के बिना राजयोग और राजयोग के बिना हठयोग सिद्व नहीं होता इस हेतु से योगी को उचित है कि योगवेत्ता सद्गुरू द्वारा हठयोग में प्रवृत हो। परिवर्तो समय में भगवान शिव द्वारा उपदेशित योग की परम्परा ने दो स्वरूप ले लिए एक परम्परा वैदिक परम्परा और दूसरी तांत्रिक परम्परा है। योग की तांत्रिक परम्परा हमारी आधुनिक जीवन पद्धति के अधिक समीप है फिर भी वैदिक और औपनिषदिक अवधारणा किसी भी दृष्टि से कम प्रासंगिक नहीं है। 

वेद ऋषियों-मनीषियों के मौलिक आध्यात्मिक, तात्विक, नैतिक, सामाजिक एवं व्यावहारिक विचारों के संग्रह हैं। इस परम्परा नें सृष्टि के प्रत्येक पहलू का अनुभव श्वरीय स्वरूप या प्रकृति की एक अभिव्यिक्त्त के रूप में किया है। वेद वस्तुत: चेतना के साक्षात्कार है जो चिन्तक विशेषों के कारण भिन्नता लिए प्रतीत होते है किन्तु अन्तिम सार सभी में एक समान ही है। 

ज्ञान और बुद्धि के स्तर पर वैदिक विचार धारा या तांत्रिक विचार धारा जो भी हो किन्तु हठयोग की सैंद्धान्तिक पृष्ठभूमि के मूल में उपरोक्त्त सभी धारायें एक हो जाती है ये सिद्धांत है-
  1. शरीर और मन दोनों एक दूस को प्रभावित करते है।
  2. प्राण और मन में दोनों परस्पराश्रित हैं।
इन दोनों हठयोग के सिद्धांतों में मंत्र, लय एवं तारक योग की भी सैद्धांतिक आवश्यकता की पूर्ति हो जाती है। क्योंकि स्थूल शरीर सूक्ष्म शरीर का ही परिणाम है इस कारण स्थूल शरीर का प्रभाव सूक्ष्म शरीर पर समानरूप से पड़ता है। अत: स्थूल शरीर के अवलम्बन से सूक्ष्म शरीर पर प्रभाव डालकर चित्त वृत्तिनिरोध करने की जितनी भी शैलियां है उन सबको हठयोग के अन्र्तभूत ही समझा जाता है।

हठयोग परम्परा के प्रमुख ऋषि 

हमने योग विज्ञान के परिचायात्मक स्वरूप के अंर्तगत हठ्योग परम्परा के प्रमुख ऋषियों महर्षि भृगु और महर्षि विश्वमित्र के नामों का उल्लेख किया था। इसी श्रृखला में नौ नाथों एवं चौरासी सिद्धों की भी गणना होती है। हठयोग के दो प्रमुख भेद है जो निम्नानुसार है:- (1) मार्कण्डेय हठयोग और (2) नाथपंथी हठयोग।

1. मार्कण्डेय हठयोग 

प्राचीन नालन्दा विश्वविद्यालय बिहार राज्य में स्थित था। 0 सन् 750 के आसपास अन्तिम गुप्त राजा के समय बिहार में बौद्ध मतावलंबी पालवंशीय राजाओं का प्रभुत्व बढ़ गया इनका राज्य कामरूप (असम) तक फैला था। इन्होंने भगलपुर के पास उदन्तपुरी में एक विशाल पुस्तकालय स्थापित किया और उसी के पास विक्रमशिला नामक वौद्ध विश्वविद्यालय 800 0 में स्थापित किया इन्ही दो संस्थाओं के प्रभाव के कारण नालन्दा विश्वविद्यालय का पतन हो गया था। इस विश्वविद्यालय में बड़े स्तर पर मंत्रायान, तंत्रयान तथा वज्रयान का अध्ययन होने लगा। वाममार्गीय तांत्रिक उपासना जिसे सहजयान भी कहते है। यह सहजयान के साधक लोग 84 सिद्धों के नाम से विख्यात हुऐ। 

इन 84 सिद्धों में प्रमुख सिद्ध सरहपा, शबरपा, लूहिपा, तिलोपा, भुसुक, जालन्धरपा, मीनपा, कव्हपा, नारोपा, तथा शन्तिपा विशेष रूप से प्रसिद्ध सिद्धों में जाने जाते है। इन सिद्धो में सिद्ध नरोपा सुप्रसिद्ध दीपंकर श्रीज्ञान के गुरू थे। और नरोपा के गुरू सिद्ध तिलोपा थे। 

गोरखनाथजी के गुरू मत्स्येन्द्रनाथ के सिद्ध मीनपा के पुत्र थे। और सिद्ध जालन्धरपा मत्स्येन्द्रनाथ के गुरू थे।

2. नाथपंथी हठयोग

नाथ सम्प्रदाय का उदय लगभग 1000 0 के आसपास हुआ। इस साधना धारा के नौ नाथों का वर्णन  है- नौ नाथ:- 1. गोरक्ष नाथ 2. ज्वालेन्द्रनाथ 3. कारिणनाथ 4. गहिनीनाथ 5. चर्पटनाथ 6. वणनाथ 7. नागनाथ 8. भतर्ृनाथ तथा 9. गोपीचन्द्रनाथ।

नाथ सम्प्रदाय के साधक कनफट योगी भी कहलाते है। इनकी विशेषता उनके कान में बड़े बड़े सींग के कुण्डल होना है। इसका तात्पर्य अत्यन्त गूढ़ है। कान छेदने से साधारणतया अन्त्रवृद्वि तथा अण्डवृद्धि रोग नहीं होते। और कुछ साधकों का मत है कि इस प्रक्रिया से योगसाधना में भी सहायता मिलती है इन योगियों के गले में काले ऊन का एक बटा हुआ धागा होता है जिसे सेलेलेली कहते है। और इस सेली में सींग की एक छोटी सी सीटी बँधी रहती है जिसे नाद (श्रृगीनाद) के प्रतीक अर्थ से लिया जाता है।यह नादानुसंधान अथवा प्रणवाभ्यास का धोतक है। इनके हाथ में नारियल का खप्पर होता है।

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