अनुक्रम
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जीवन के लिए आवश्यक वस्तुयें भूमि, हवा और जल इन तीनों मंडलों के मिलन
क्षेत्र जो चित्र में अंकित हैं, में ही संभव हैं।
हमें इस पट्टी का महत्व समझकर इसे प्रदूशित होने से बचाना चाहिये ताकि
हमारा जीवन सुरक्षित रह सके। यह पट्टी वायुमंडल में उध्र्वाकार रूप से लगभग 10 किमी.
की गहरा तक विस्तृत है यह समुद्र में जहॉं लगभग 10.4 कि.मी. की गहरा तक और
पृथ्वी की सतह से लगभग 8.2 कि.मी. की गहरा तक विस्तृत हैं जहाँ सर्वाधिक जीवित
जीव पायें जाते हैं।
जीवन के कुछ रूप विषम दशाओं में भी पायें जाते हैं। शैवाल (अलगाइर्) और थर्मोफिलिक इस प्रकार के जीवन के दो उदाहरण हैं। शैवाल जिसे जीवन के पहले रूप में से एक माना जाता हैं,बर्फीले अंटार्कटिका जैसे प्रतिकूल वातावरण में भी जीवित रह सकता हैं। दूसरे छोर पर थर्मोफिलिक (उष्मा पसंद करने वाला) जीवाणु सामान्यत: गहरे समुद्र में ज्वालामुखी छिद्रों में रहता हैं, जहाँ तापमान 300 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहता हैं। वास्तव में ये जीवाणु क्वथनांक ( 0.से) से कम तापमान पर जीवित नहीं रह सकते।
यह किसी भी आकार का हो सकता हैं- जैसे छोटा सा तालाब, अमेजान का वर्षावन, अथवा पूरा संसार एक चित्र 5.2 एक वन का परिस्थितिक पारिस्थितिक तंत्र हो सकता हैं। पारितंत्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1935 में ए.जी. टॉसले द्वारा किया गया था। पारितंत्र की अवधारणा मुख्यरूप से दो पहलुओं के चारों ओर घुमती हैं।
उत्पादक (पौधे) पोशण स्तर (भोजन स्तर) में प्रथम स्थान पर हैं। शाकाहारी जो पौधों पर निर्भर रहते हैं द्वितीय भोजन स्तर पर आते है। वे मासं ाहारी जो शाकाहारी जन्तुओं को खाते हैं, तृतीय पोषक स्तर पर आते हैं मांसाहारी जो दूसरे मांसाहारी को खाते हैं, चतुर्थ पोषण स्तर पर आते हैं। सर्वाहारी, अपघटक एवं परजीवी अपने भोजन के अनुरूप विभिन्न पोषण स्तर पर आते हैं। मनुष्य सर्वाहारी हैं, यदि वह अनाज जैसे गेंहूँ, चाँवल या शाक-सब्जियों आदि का सेवन करता हैं तो यह द्वितीयस्तर पर हैं परन्तु वह मूर्गे या बकरे का मांस खाते हैं, तो वह तृतीय पोषण स्तर पर माना जायेगा।
इस प्रकार स्पष्ट हैं कि एक जंतु से दूसर जंतु में ऊर्जा का स्थानान्तरण होता हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी जीव भोजन अथवा ऊर्जा के लिये एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। प्रकृति में मुख्यत: दो प्रकार की खाद्य श्रृंख्ला होती हैं। एक खाद्य श्रृंखला हरे पौधों से प्राप्त होती हैं और शाकाहारियों से होती हु मांसाहारियों तक जाती हैं। यह श्रृंखला ग्रेजिंग या घास स्थलीय (चारे वाली) खाद्य श्रृंखला कहलाती हैं। दूसरे प्रकार की खाद्य - श्रृंखला मृत कार्बनिक पदार्थो से शुरू होकर अन्य क तरह के जंतुओं तक जाती हैं जिनमें मांसभक्षी, कीट तथा सुक्ष्म जीव सभी शामिल हैं। इस श्रृंखला को मृतोपजीवी खाद्य श्रृंखला कहते हैं।
चारे वाली तथा मृतोपजीवी खाद्य श्रृंखलायें आपस में जुड़ी रहती हैं। इसी प्रकार की क श्रृंख्लायें आपस में जुड़कर खाद्य जाल बनाती हैं।
खाद्य श्रृंखला में शीर्ष पर सर्वाहारी हैं जो अपनी ऊर्जा सभी तीन स्तरों से पा्र प्त
करते हैं। जैसा कि हम पूर्व में बता चुके हैं कि पाध्ै ाों को खाने वाले पा्र णी शाकाहारी तथा
माँसभक्षी प्राणियों को मांसाहारी कहते हैं तथा सर्वाहारी जीव, वे होते हैं, जो पौधों और
पशु-पक्षियों दोनो को खातें है। मानव सर्वाहारी की श्रण्े ाी में आता हैं जो पौधों और
पशु-पक्षियों दोनो को खाते हैं। इसलिये खाद्य पिरामिड के शीर्ष पर सर्वाहारी अर्थात
मानव ही होता हैं।
जीवन के कुछ रूप विषम दशाओं में भी पायें जाते हैं। शैवाल (अलगाइर्) और थर्मोफिलिक इस प्रकार के जीवन के दो उदाहरण हैं। शैवाल जिसे जीवन के पहले रूप में से एक माना जाता हैं,बर्फीले अंटार्कटिका जैसे प्रतिकूल वातावरण में भी जीवित रह सकता हैं। दूसरे छोर पर थर्मोफिलिक (उष्मा पसंद करने वाला) जीवाणु सामान्यत: गहरे समुद्र में ज्वालामुखी छिद्रों में रहता हैं, जहाँ तापमान 300 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहता हैं। वास्तव में ये जीवाणु क्वथनांक ( 0.से) से कम तापमान पर जीवित नहीं रह सकते।
जैवमंडल के घटक
अजैविक घटक -
इन घटकों में वे सभी अजैविक घटक सम्मिलित होते हैं जो सभी जीवित जीवाणओं के लिये आवश्यक होते हैं। ये हैं- (1) स्थलमंडल (भूपपर्टी का ठोस भाग), (2) वायुमंडल और (3) जलमंडल। खनिज, पोशक तत्व, कुछ गैंसे तथा जल जैविक जीवन के लिये तीन मूलभूत आवश्यकतायें हैं। मृदा तथा अवसाद खनिज पोशक तत्वों के मुख्य भंडार हैं। वायुमंडल जैविक जीवन के लिये आवश्यक गैसों का भंडार हैं तथा महासागर तरल जल का प्रमुख भंडार है। जहाँ ये तीनों भंडार आपस में मिलते हैं, वह क्षेत्र जैविक जीवन के लिये सबसे अधिक उपजाऊ क्षेत्र होता हैं। मृदा की उपरी परत और महासागरों के उथले भाग जैविक जीवन को जीवित रखने के लिये सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं।जैविक घटक -
पौधे, जीव जन्तु और सूक्ष्म जीवाणुओं सहित मानव पर्यावरण के तीन जैविक घटक हैं-- पौधो - जैविक घटकों में पौधे सबसे महत्वपूर्ण हैं। केवल ये ही प्राथमिक उत्पाद हैं क्योंकि ये प्रकाश संष्लेशण प्रक्रिया द्वारा अपना भोजन स्वंय बनाते हैं, इसीलिये इन्हें स्वपोशी कहा जाता हैं। ये स्वपोशी होने के साथ जैविक पदार्थों एवं पोषक तत्वों के चक्र ण एवं पुर्नचक्रण में भी मदद करते हैं। अत: पौधे सभी जीवों के लिये भोजन और ऊर्जा के प्रमुख स्त्रोत हैं।
- पशु- पौधे के बाद पशु मुख्य उपभोक्ता हैं इसलिये पशुओं को विषम-तंत्र कहा जाता हैं। सामान्यत: पशुओं के निम्नलिखित तीन कार्य माने जाते हैं-(1) पौधों द्वारा भोजन के रूप में उपलब्ध कराये गये जैविक पदार्थों का उपयोग. (2) भोजन को ऊर्जा में बदलना (3) ऊर्जा की वृद्धि और विकास में प्रयोग करना।
- सूक्ष्मजीव- इनकी संख्या असीमित हैं तथा इन्हें अपघटक के रूप में माना जाता हैं। इसके अंतर्गत विभिन्न प्रकार के सूक्ष्म जीवााणु, फफूँदी आदि आते हैं। ये जीवाणु मृत पौधों और पशुओं तथा अन्य जैविक पदार्थों को अपघटित कर देते है। इस प्रक्रिया द्वारा वे अपना भोजन पा्र प्त करते हैं। अपघटन की इस प्रक्रिया द्वारा वे अपना भोजन प्राप्त करते हैं। इस प्रक्रिया द्वारा वे जटिल जैविक पदार्थो को विच्छेदित तथा अलग-अलग कर देते हैं ताकि प्राथमिक उत्पादक अर्थात पौधें उनका दुबारा उपयोग कर सकें।
ऊर्जा घटक -
ऊर्जा के बिना पृथ्वी पर जीवन संभव नहीं हो पाता, ऊर्जा प्रत्येक प्रकार के जैविक जीवन के उत्पादन तथा पुर्नउत्पादन के लिये जरूरी हैं। सभी जीव मशीन की तरह कार्य करने के लिये ऊर्जा का प्रयोग करते हैं तथा ऊर्जा के एक प्रकार को दूसरे में बदलते हैं। सूर्य ऊर्जा का प्रमुख स्त्रोत हैं।परिस्थितिक तथा पारितंत्र
वनस्पति जगत तथा प्राणी जगत के सभी जीव एक दूसरे को प्रभावित करने के साथ-साथ अपने भौतिक पर्यावरण से भी प्रभावित होते हैं। पर्यावरण तथा जीवों के बीच पारस्परिक क्रियाओं के अध्ययन को ‘पारिस्थितिकी’ कहते हैं। किसी क्षेत्र के भौतिक पर्यावरण तथा उसमें रहने वाले जीवों के बीच होने वाली पारस्परिक क्रियाओं की जटिल व्यवस्था को ‘पारिस्थितिक तंत्र‘ कहते है।यह किसी भी आकार का हो सकता हैं- जैसे छोटा सा तालाब, अमेजान का वर्षावन, अथवा पूरा संसार एक चित्र 5.2 एक वन का परिस्थितिक पारिस्थितिक तंत्र हो सकता हैं। पारितंत्र शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1935 में ए.जी. टॉसले द्वारा किया गया था। पारितंत्र की अवधारणा मुख्यरूप से दो पहलुओं के चारों ओर घुमती हैं।
- यह विभिन्न घटकों और उपघटकों के बीच अंतर्सबंधों का अध्ययन करती हैं।
- पारितंत्र के विभिन्न घटकों के मध्य ऊर्जा का प्रवाह जो इस बात के लिये आवश्यक निर्धारक हैं कि एक जैविक समुदाय कैसे कार्य करता हैं?
पारितंत्र के कार्य-
- ऊर्जा प्रवाह
- खाद्य श्रृंखला
- पोशक अथवा जैव-भू रसायनिक चक्र
- परिवर्धन एवं विकास
- नियंत्रण रचनातंत्र अथवा संत्रातिकी
- समय और स्थान में विविधता प्रतिरूप
उत्पादक (पौधे) पोशण स्तर (भोजन स्तर) में प्रथम स्थान पर हैं। शाकाहारी जो पौधों पर निर्भर रहते हैं द्वितीय भोजन स्तर पर आते है। वे मासं ाहारी जो शाकाहारी जन्तुओं को खाते हैं, तृतीय पोषक स्तर पर आते हैं मांसाहारी जो दूसरे मांसाहारी को खाते हैं, चतुर्थ पोषण स्तर पर आते हैं। सर्वाहारी, अपघटक एवं परजीवी अपने भोजन के अनुरूप विभिन्न पोषण स्तर पर आते हैं। मनुष्य सर्वाहारी हैं, यदि वह अनाज जैसे गेंहूँ, चाँवल या शाक-सब्जियों आदि का सेवन करता हैं तो यह द्वितीयस्तर पर हैं परन्तु वह मूर्गे या बकरे का मांस खाते हैं, तो वह तृतीय पोषण स्तर पर माना जायेगा।
इस प्रकार स्पष्ट हैं कि एक जंतु से दूसर जंतु में ऊर्जा का स्थानान्तरण होता हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि सभी जीव भोजन अथवा ऊर्जा के लिये एक दूसरे पर आश्रित होते हैं। प्रकृति में मुख्यत: दो प्रकार की खाद्य श्रृंख्ला होती हैं। एक खाद्य श्रृंखला हरे पौधों से प्राप्त होती हैं और शाकाहारियों से होती हु मांसाहारियों तक जाती हैं। यह श्रृंखला ग्रेजिंग या घास स्थलीय (चारे वाली) खाद्य श्रृंखला कहलाती हैं। दूसरे प्रकार की खाद्य - श्रृंखला मृत कार्बनिक पदार्थो से शुरू होकर अन्य क तरह के जंतुओं तक जाती हैं जिनमें मांसभक्षी, कीट तथा सुक्ष्म जीव सभी शामिल हैं। इस श्रृंखला को मृतोपजीवी खाद्य श्रृंखला कहते हैं।
चारे वाली तथा मृतोपजीवी खाद्य श्रृंखलायें आपस में जुड़ी रहती हैं। इसी प्रकार की क श्रृंख्लायें आपस में जुड़कर खाद्य जाल बनाती हैं।
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पारितंत्र के प्रकार
विभिन्न आधारों पर पारितंत्र को विविध प्रकारों में बाँटा गया हैं परन्तु इनमें आवास के आधार पर वर्गीकरण महत्वपूर्ण हैं। इस आधार पर पारितंत्र को सामान्यत: दो भागों में बांटा जा सकता हैं- (1) स्थलीय पारितंत्र और (2) जलीय पारितंत्र।1. स्थलीय पारितंत्र - जैसा कि नाम से स्पष्ट हैं यह सम्पूर्ण पृथ्वी के 29 प्रतिशत भाग को घेरे हुए हैं। स्थलीय पारितंत्र मानव के लिये भोजन और कच्चे माल का प्रमुख स्त्रोत हैं। यहां पर पौधों और पशुओं के समूहों में जलीय पारितंत्र से अधिक विविधता हैं। स्थलीय जीवों में जलीय पारितंत्र की अपेक्षा सहिष्णुता की सीमा अधिक होती हैं लेकिन कुछ मामलों में जल स्थलीय कारकों को सीमित करने का कारक बन जाता हैं। जहाँ तक उत्पादकता का प्रश्न हैं स्थानीय पारितंत्र जलीय पारितंत्र से अधिक उत्पादक हैं।
ऊपर दी ग चर्चा स्थलीय और जलीय पारितंत्रों के बीच तुलना हैं। लेकिन स्थलीय पारितंत्रों की भोैतिक अवस्थाओं और जैविक समूहों पर उसकी प्रतिकिय्र ा में आरै भी विभिन्नता है। इसलिये स्थलीय पारितत्रं ों को विभिन्न उपविभागों में बांटा गया हैं- (1)उच्चभूमि अथवा पर्वतीय पारितंत्र (2) निम्नभूमि पारितंत्र (3) मरूस्थलीय पारितंत्र। विशिष्ट प्रयोजन और उद्देश्य के आधार पर इन्हें फिर उपविभागों में बांटा जा सकता हैं। जीवन के अधिकतम रूप निम्न भूमियों में पायें जाते हैं और ये ऊँचा बढ़ने के साथ-साथ घटतें जाते हैं, क्योंकि वहाँ ऑक्सीजन और वायुमंडल दाब घट जाता हैं।
2. जलीय पारितंत्र - यह पारितंत्र पृथ्वी के धरातल पर विभिन्न रूपों में उपस्थित 71
प्रतिशत जल का उल्लेख करता हैं। स्थलीय पारितंत्र की तरह जलीय
पारितंत्र को भी विभिन्न उपविभागों में बांटा जा सकता हैं परंतु इस
पारितंत्र के प्रमुख उप विभाग हैं- जलीय, ज्वारनदमुखीय और समुद्री
पारितंत्र। इन पारितंत्रों को आगे और भी छोटे-छोटे उप विभागों में बांटा
जा सकता हैं। अगर हम इन्हें विस्तार की दृश्टि से अथवा मापक की दृष्टि
से देखे तो ये विस्तृत खुले समुद्र से लेकर छोटे तालाब तक में फैले हैं।
जलीय पारितंत्र के विभिन्न प्रकारों के अंदर विभिन्नता मुख्य रूप से
अजैविक कारकों से संबंधित हैं। लेकिन इन पारितंत्रों में रहने वाले जैविक
समूहों में भी विभिन्नता मिलती हैं।
जैसे कि पहलें भी चर्चा की जा चुकी हैं जलीय पारितंत्र की सीमा रेखा बनाने वाला कारक जल की वह गहरा हैं जहां तक प्रकाश प्रवेश कर सकता हैं। पोशकों की इस उपलब्धता और विघटित ऑक्सीजन का सकेंद्रण अन्य कारक हैं। अगर हम इन सब कारकों को ध्यान में रखें तो यह पता चलता हैं ेिक ज्वारनदमुखीय पारितंत्र जलीय पारितंत्र में सबसे अधिक उत्पादक हैं। हालांकि खुले समुद्र क्षेत्रफल के अनुसार सबसे अधिक विस्तृत है। ये स्थलीय पारितंत्र मे मरूस्थलों की भांति सबसे कम उत्पादक हैं।
एक अन्य पहलू जो जलीय पारितंत्र में जीवन की विविधता का निर्धारण करता हैं, वह हैं जीवों की अनुकूलन शीलता। कुछ जीव अनन्य रूप से जल में रहते हैं जैसे - मछली । जबकि कुछ जीवों की प्रकृति जलस्थलीय हैं। कुछ महत्वपूर्ण जलथलीय जीव हैं मेंढ़क, मगरमच्छ, दरिया घोड़ा और जलीय पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ। आगे जल में भी कुछ जीव या तो केवल मीठे जल में रहते हैं या खारे जल में और कुछ जीव मीठे और खारे जल दोनों में रहते हैं। हिल्सा मछली अंतिम प्रकार का उदाहरण हैं। एचीनोडमर्स और कोलेन्ं टे्रट्स कवे ल खारे पानी में रहते है। जबकि बहुत से प्रकार की मछलियाँ जैसे रेहू, कतला आदि केवल मीठे जल मे पा जाती हैं।
कार्बन डाइ ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, मिथेन ओजोन तथा क्लोरो-फ्लोरो काबर्न ऐसी गैसे हैं जो ऊष्मा को अवशोषित करती है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें कहते हैं क्योंकि यह ग्रीन हाउस की काँच की दीवार की तरह काम करती है। इनके द्वारा अवशोषित उष्मा बाहर नहीं जा सकती। क्षोभमंडल में उश्मा का इस प्रकार रोका जाना ही ग्रीन हाउस प्रभाव हैं।
औद्योगिक विकास के साथ कोयला, पेट्रोलियम तथा अन्य रसायनों के दोहन में वृद्धि हु हैं, इससे कार्बन डा ऑक्साइड का पर्याप्त मात्रा में निर्माण हुआ हैं। जंगलों के दोहन ने भी कार्बनडा आक्सइड को जन्म दिया जिससे वायुमंडल में तापमान बढ़ने लगा है, जो जीवन के लिये खतरा को बढ़ावा देने के समान हैं।
भारत उपमहाद्वीप को फसल तथा वानस्पतिक विविधता के हिन्दुस्तान उद्गम केंद्र के रूप में जाना जाता हैं। 166 फसली जातियाँ तथा इनसे संबंधित 320 जंगली प्रजातियों का उद्गम यहाँ माना जाता हैं। इन सभी प्रजातियों में विविधता चकित करा देने वाली है। भारत विश्व के उन चार देशों में से हैं जो उगा जाने वाली वनस्पतियों का मूल देश हैं। भारत में अनाज आदि की 51 प्रजातियों, फलों की 104 प्रजातियाँ मसालों (भोजन को महकदार बनाने वाले पौधे) की 27 प्रजातियों ,सब्जियों तथा दालों की 55 प्रजातियाँ रेशेदार पौधों की 24 प्रजातियाँ, तेल युक्त बीजों की 12 प्रजातियों तथा चाय, कॅाफी और गन्ने की क अन्य वन्य जातियाँ पा जाती हैं। गाय बैल की 27 जातियाँ प्रमुख हैं। उदाहरण के तौर पर भारत में पायी जाने वाली भैंसों की 8 जातियाँ पूरे विश्व की भैंसों की जीनिक विविधता का प्रतिनिधित्व करती हैं।
जैसे कि पहलें भी चर्चा की जा चुकी हैं जलीय पारितंत्र की सीमा रेखा बनाने वाला कारक जल की वह गहरा हैं जहां तक प्रकाश प्रवेश कर सकता हैं। पोशकों की इस उपलब्धता और विघटित ऑक्सीजन का सकेंद्रण अन्य कारक हैं। अगर हम इन सब कारकों को ध्यान में रखें तो यह पता चलता हैं ेिक ज्वारनदमुखीय पारितंत्र जलीय पारितंत्र में सबसे अधिक उत्पादक हैं। हालांकि खुले समुद्र क्षेत्रफल के अनुसार सबसे अधिक विस्तृत है। ये स्थलीय पारितंत्र मे मरूस्थलों की भांति सबसे कम उत्पादक हैं।
एक अन्य पहलू जो जलीय पारितंत्र में जीवन की विविधता का निर्धारण करता हैं, वह हैं जीवों की अनुकूलन शीलता। कुछ जीव अनन्य रूप से जल में रहते हैं जैसे - मछली । जबकि कुछ जीवों की प्रकृति जलस्थलीय हैं। कुछ महत्वपूर्ण जलथलीय जीव हैं मेंढ़क, मगरमच्छ, दरिया घोड़ा और जलीय पक्षियों की विभिन्न प्रजातियाँ। आगे जल में भी कुछ जीव या तो केवल मीठे जल में रहते हैं या खारे जल में और कुछ जीव मीठे और खारे जल दोनों में रहते हैं। हिल्सा मछली अंतिम प्रकार का उदाहरण हैं। एचीनोडमर्स और कोलेन्ं टे्रट्स कवे ल खारे पानी में रहते है। जबकि बहुत से प्रकार की मछलियाँ जैसे रेहू, कतला आदि केवल मीठे जल मे पा जाती हैं।
भूमंडलीय जलवाायिक परिवर्तन
हाल के वशोर्ं मे तेजी से बढ़ती हु जनसंख्या के उपयोग के लिये पृथ्वी वी के संसाधनो का तेजी से दोहन, हमारी अपव्ययी जीवन शैली आदि ने वायुमंडल में कार्बन स्तर को अत्याधिक बढ़ा दिया हैं इससे पृथ्वी का तापमान बढ़ रहा है।कार्बन डाइ ऑक्साइड, कार्बन मोनोऑक्साइड, मिथेन ओजोन तथा क्लोरो-फ्लोरो काबर्न ऐसी गैसे हैं जो ऊष्मा को अवशोषित करती है। इन गैसों को ग्रीन हाउस गैसें कहते हैं क्योंकि यह ग्रीन हाउस की काँच की दीवार की तरह काम करती है। इनके द्वारा अवशोषित उष्मा बाहर नहीं जा सकती। क्षोभमंडल में उश्मा का इस प्रकार रोका जाना ही ग्रीन हाउस प्रभाव हैं।
औद्योगिक विकास के साथ कोयला, पेट्रोलियम तथा अन्य रसायनों के दोहन में वृद्धि हु हैं, इससे कार्बन डा ऑक्साइड का पर्याप्त मात्रा में निर्माण हुआ हैं। जंगलों के दोहन ने भी कार्बनडा आक्सइड को जन्म दिया जिससे वायुमंडल में तापमान बढ़ने लगा है, जो जीवन के लिये खतरा को बढ़ावा देने के समान हैं।
हरित गृह प्रभााव के परिणााम -
- यह अनुमान लगाया गया हैं कि अगर कार्बन डाइ ऑक्साइड के स्तर के बढ़ने की वर्तमान दर यही रही तो वायुमंडलीय तापमान 21वी सदी के अंत तक 20 से 30 तक बढ़ जायेगा। इसके परिणाम स्वरूप बहुत सी हिमानियां पीछे खिसक जायेगी, ध्रुवीय क्षत्रे ों में बर्फीली चोटियॉ गायब हो जायंगे ी और बहुत बड़े पैमाने पर विश्व के अन्य भागों में बर्फ के भंडार गायब हो जायेंगे। एक अनुमान के अनुसार यदि पृथ्वी की सारी बर्फ पिघल जाये तो सभी महासागरों की सतह पर और निचले तटीय क्षेत्रों में लगभग 60 मीटर पानी बढ़ जायेगा। भूमंडलीय तापमान द्वारा समुद्री जल स्तर में केवल 50 से 100 सेंटीमीटर की वृद्धि विश्व के निचले क्षेत्रों जैसे बांग्लादेश, पश्चिम बंगाल और सघन बसे हुये तटीय शहरों जैसे शंघा और सेन फ्रांसिस्कों को जलमग्न कर देगी।
- कार्बन डा ऑक्साइड के बढ़े हुये संकेंद्रण और उष्णकटीबंधीय महासागरों के अधिक गर्म होने के कारण अधिक संख्या में चक्रवात और हरीकेन आयेंगे। पर्वतों पर बर्फ के जल्दी पिघलने से मानसून के समय अधिक बाढ़े आयेंगी। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के अनुसार बढ़ता हुआ समुद्री जल स्तर लगभग तीन दशकों में तटीय शहरों जैसे मुंब, बोस्टन, चिट्टगाँव और मनीला को जलमग्न कर देगा।
- भूमंडलीय तापमान में जरा सी भी वृद्धि खाद्यान्न उत्पादन पर प्रतिकूल असर डालेगी। अत: उत्तरी गोलार्द्ध में गेहूँ उत्पादन क्षेत्र शीतोष्ण कटिबंध के उत्तर में खिसक जायेंगे।
- समुद्र के ऊपरी जलस्तर के गर्म होने से महासागरों की जैविक उत्पादकता भी कम हो जायेगी। उध्र्वाधर चक्रण द्वारा समुद्र के निचले भागों से समुद्र की सतह की ओर पोशकों का परिवहन भी कम हो जायेगा।
हरित गृह प्रभाव नियंत्रण एवं उपचारी उपाय
हरित गृह प्रभाव के लगातार बढ़ते जाने को उपायों द्वारा कम किया जा सकता है:-- कार्बनडाइऑक्साइड के संकेंद्रण को अत्यंत विकसित और औद्योगिक देशों जैसे संयुक्त राष्ट्र अमेरिका और जापान तथा विकासशील देशों जैसे चीन आरै भारत द्वारा जीवाश्म इर्ंधनों के उपयोग में जोरदार कटौती करके कम किया जा
- वैकल्पिक सफल र्इंधनों का विकास करने के लिये वैज्ञानिक उपाय किये जाने चाहिये। मीथेन, पेट्रोलियम का विकल्प हो सकती हैं। जल विद्युत ऊर्जा का विकास एक अच्छा विकल्प हैं।
- कारखानों और मोटर गाड़ियों से खतरनाक गैसों के उत्सर्जन पर रोक लगनी चाहिये।
- महानगरों में मोटर गाड़ियों को चलाने के दिनों को सीमित करना भी एक अन्य विकल्प हो सकता हैं। सिंगापरु और मैक्सिकों शहर इस पथ््र ाा को अपना रहे हैं।
- उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबध्ं ाीय देशों मे जीवाष्म इर्ंधनों के विकल्प के रूप में सौर ऊर्जा का विकास किया जा सकता हैं।
- बायोगैस संयंत्र लगाने चाहिये जो कि घरेलू उपयोग के लिये एक पारंपरिक ऊर्जा का साधन हैं।
- वनरोपण में वृद्धि करके कार्बन डाइऑक्साइड स्तर को निश्चित रूप से कम किया जा सकता हैं। जिससे अंतत: हरित गृह प्रभाव कम हो जायेगा।
भारत विश्व में जैव विविधता
भारत विश्व में 12 सर्वाधिक जैवविविधता वाले देशों में से एक है। हमारे देश ने पृथ्वी की 2 प्रतिशत भूमि पर, विश्व की पाँच प्रतिशत जैवविविधता सहेज रखी हैं। अनुमानत: हमारे देश में 45,000 वन्य वनस्पतियों तथा 77,000 जन्तु प्रजातियाँ हैं। भारत में सूचीबद्ध की ग कुल वनस्पति तथा जन्तु प्रजातियॉं विश्व की चिहिन्त वन्य प्रजातियों का 6.5 प्रतिशत हैं। भारत में प्रजाति, पारितंत्र तथा जीनिक जैवविविधता का विशाल भंडार हैं। भारतीय उपमहाद्वीप तीन जैव भौगोलिक क्षेत्रों के संगम क्षेत्र में स्थित हैं तथा इसी कारण भारतीय उपमहाद्वीप में अफ्रीकी, यूरोपीय, चीनी तथा हिंदमलया सभी मूलों के लक्षणों से युक्त वनस्पतियाँ तथा जन्तु पायें जाते हैं। इस जैवविविधता का कारण यहाँ पायी जाने वाली जलवायु तथा पर्यावरणीय विविधता भी हैं। हिमालय की ऊंचाइयों से लेकर समुद्र तट और मैदान तथा अत्यधिक वर्षा प्रदेश से लेकर शुष्क मरूस्थल सभी भारत में विद्यमान हैं।भारत उपमहाद्वीप को फसल तथा वानस्पतिक विविधता के हिन्दुस्तान उद्गम केंद्र के रूप में जाना जाता हैं। 166 फसली जातियाँ तथा इनसे संबंधित 320 जंगली प्रजातियों का उद्गम यहाँ माना जाता हैं। इन सभी प्रजातियों में विविधता चकित करा देने वाली है। भारत विश्व के उन चार देशों में से हैं जो उगा जाने वाली वनस्पतियों का मूल देश हैं। भारत में अनाज आदि की 51 प्रजातियों, फलों की 104 प्रजातियाँ मसालों (भोजन को महकदार बनाने वाले पौधे) की 27 प्रजातियों ,सब्जियों तथा दालों की 55 प्रजातियाँ रेशेदार पौधों की 24 प्रजातियाँ, तेल युक्त बीजों की 12 प्रजातियों तथा चाय, कॅाफी और गन्ने की क अन्य वन्य जातियाँ पा जाती हैं। गाय बैल की 27 जातियाँ प्रमुख हैं। उदाहरण के तौर पर भारत में पायी जाने वाली भैंसों की 8 जातियाँ पूरे विश्व की भैंसों की जीनिक विविधता का प्रतिनिधित्व करती हैं।
बहुत अच्छा लेख धन्यवाद सर
ReplyDeletewww.hihindi.com
जैवमंडल और भू - दृश्य
ReplyDeletehttps://rajexamnotes.blogspot.com/2018/09/biosphere-and-landscape.html
Bahut khub....
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