मुद्रा की परिभाषा और मुद्रा का कार्य

मुद्रा का कार्य लेन -देन को इतना सरल और सस्ता बनाना है कि उत्पादन में जितना भी माल बने वह नियमित रूप से वह उपभोक्ताओं के पास पहुंचता रहे और भुगतान का क्रम निरंतर चलता रहे। विभिन्न अर्थशास्त्रियों द्वारा मुद्रा को परिभाषित किया गया एवं इसके कार्यों का अवलोकन किया गया है।

मुद्रा की परिभाषा

मुद्रा की कोई  भी ऐसी परिभाषा नहीं है जो सर्वमान्य हो। विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा की अलग-अलग परिभाषाएँ दी है। 

1. क्राउथर के अनुसार, “मुद्रा वह चीज है जो विनिमय के माध्यम के रूप में सामान्यतया स्वीकार की जाती है और साथ में मुद्रा के माप तथा मुद्रा के संग्रह का भी कार्य करें।”

2. हार्टले विदर्स तथा वाकर के अनुसार, “मुद्रा वह है जो मुद्रा का कार्य करें।”

3. जे. एम. केन्ज के अनुसार, “मुद्रा में उन सब चीजों को शामिल किया जाता है जो बिना किसी प्रकार के सन्देह अथवा विशेष जांच के वस्तुओं तथा सेवाओं को खरीदने और खर्च को चुकाने के साधन के रूप में साधारणत: प्रयोग में लाई  जाती है।”

4. प्रो. चैण्डला के अनुसार-“किसी आर्थिक प्रणाली में मुद्रा का केवल एक मौलिक कार्य है, वस्तु तथा सेवाओं के लेन -देन को सरल बनाना।”

मुद्रा के कार्य

किनले द्वारा इन्हें तीन वर्गो में विभाजित किया गया है- 
  1. मुख्य अथवा प्राथमिक कार्य 
  2. सहायक कार्य 
  3. आकस्मिक कार्य। 
मुद्रा के कार्यों का विकास भी उसी क्रम में हुआ है, जिस क्रम में मनुष्य के आर्थिक जीवन का विकास हुआ है। यह कार्य आज भी नहीं रुका है। मुद्रा एक साधन है, साध्य नहीं। यह वह धुरी है, जिसके ओर चारांे ओर अर्थविज्ञान केन्द्रित है। यह विशिष्ट अर्थव्यवस्था की उपज है। मुद्रा, आर्थिक विकास के लिए बचत तथा निवेश को प्रोत्साहित करने में योगदान करती है। 

मुद्रा के उपयोग के कारण ही वित्तीय संस्थाओं जैसे बैंक तथा अन्य गैर-बैंक वित्तीय संस्थाओं का सृजन हुआ है। मुद्रा के कार्य को निम्न प्रकार विभाजित किया है-

1. मुद्रा के प्राथमिक या मुख्य कार्य

आधुनिक मुद्रा के प्राथमिक कार्य विनिमय का माध्यम एवं मूल्य की मापकता है-

1. विनिमय का माध्यम - मुद्रा का सबसे महत्वपूर्ण कार्य विनिमय का माध्यम है। वस्तु और सेवाओं का विनिमय प्रत्यक्ष रूप से वस्तुओं तथा सेवाओं में न होकर मुद्रा के माध्यम से होता है। मुद्रा के कारण मनुष्य को अपना समय और शक्ति ऐसे दूसरे व्यक्ति की खाजे करने में नष्ट करने की आवश्यकता नहीं रही है जिसके पास उसकी आवश्यकता की वस्तुएँ है। और जो अपनी उन वस्तुओं की बदले में उन दूसरी वस्तुओं को स्वीकार करने को तैयार है जो उस पहले मनुष्य के पास है। फलत: मुद्रा के विनिमय के कार्य को बहुत ही सरल एवं सहज बना दिया है।

2. मूल्य का मापक - मुद्रा का दूसरा महत्वपूर्ण कार्य वस्तुओं तथा सेवाओं के मूल्यों को मापने का है। वस्तु विनिमय प्रणाली की एक बड़ी कठिनाइर् यह निर्णय करना था कि एक वस्तु की दी हु मात्रा के बदले दूसरी वस्तु की कितनी मात्रा प्राप्त होनी चाहिए। मुद्रा से सामान्य मूल्य मापक का कार्य करके समाज को इस असुविधा से मुक्त कर दिया है।

2. मुद्रा के गौण या सहायक कार्य

मुद्रा के प्राथमिक कार्यों के अलावा इसके कुछ गौण अथवा सहायक कार्य भी होते है, जो निम्न प्रकार है-

1. भावी भुगतानों का आधार - मुद्रा का सबसे प्रथम गौण कार्य भावी भुगतान का आधार है। आधुनिक युग में सम्पूर्ण आथिर्क ढाँचा साख पर आधारित है और इसमें भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए उधार लेन-देन की आवश्यकता पड़ती है। ऋण का लेन-देन मुद्रा के माध्यम से ही होता है। वस्तुओं के रूप में ऋण के लेन -देन के कार्य में कठिनाई होती है। इसलिए इस कार्य में लिए मुद्रा का प्रयागे किया जाता है।

2. मूल्य संचय का आधार - मुद्रा का दूसरा गौण कार्य मूल्य संचय का आधार है। वस्तुत: मुद्रा मूल्य संचय का भी साधन है। वस्तु विनिमय प्रणाली में मुद्रा के अभाव में धन संचय करने में कठिनाई होती थी। मुद्रा के आविष्कार ने इस कठिना को दूर कर दिया है।

3. क्रयशक्ति का हस्तांतरण - मुद्रा का तीसरा महत्वपूर्ण कार्य क्रयशक्ति का हस्तांतरण है। मुद्रा के क्रयशक्ति को एक मनुष्य से दूसरे मनुष्य तथा एक स्थान से दूसरे स्थान को हस्तांतरित किया जा सकता है। क्रयशक्ति का हस्तांतरण करके मुद्रा ने विनिमय को व्यापक बनाने में सहायता की है।

3. मुद्रा के आकस्मिक कार्य 

मुद्रा के प्राथमिक तथा गौण कार्यों  के साथ ही प्रो किनले के अनुसार, मुद्रा के अग्रांिकत चार आकस्मिक कार्य भी होते हैं

1. साख का आधार - मुद्रा के आकस्मिक कार्यों में सर्वप्रथम साख के आधार पर कार्य करना है। आज के युग में साख मुद्रा का महत्व, मुद्रा के महत्व से भी अधिक हो गया है। आजकल समस्त औद्योगिक तथा व्यापारिक गतिविधियाँ साख मुद्रा की आधारशिला पर टिकी है। बैंकों द्वारा उत्पन्न साख मुद्रा की सहायता से अर्थव्यवस्था की उन्नति संभव हो पायी है।

2. आय के वितरण में सहायक - मुद्रा का दूसरा आकस्मिक कार्य आय के वितरण में सहायक का कार्य करना है। मुद्रा समाज में राष्ट्रीय आय को उत्पादन के विभिन्न साधनों के बीच वितरण करने में सुविधा प्रदान करती है। यह ज्ञातव्य है कि किसी देश में जितना उत्पादन होता है उसमें उत्पत्ति के विभिन्न साधनों का सहयोग होता है।

3. पूंजी के सामान्य रूप का आधार - मुद्रा सभी प्रकार की पूंजी के सामान्य रूप का आधार होती है। मुद्रा के रूप में बचत करके विभिन्न वस्तुओं को प्राप्त किया जा सकता है। आजकल धन या पूंजी को मुद्रा के रूप में ही रखा जाता है। इससे पूंजी के तरलता एवं गतिशीलता में वृद्धि होती है। आधुनिक युग में मुद्रा के इस कार्य का विशेष महत्व है।

4. उपभोक्ता को सम-सीमान्त उपयोगिता प्राप्त करने में सहायक - मुद्रा के माध्यम से ही उपभोक्ता अपनी आय को विभिन्न प्रयोगों में इस प्रकार से व्यय करता है कि सभी प्रयोग से एक समान उपयोगिता प्राप्त हो। इस प्रकार वह अपनी आय से अधिकतम संतुष्टि प्राप्त कर सकता है। उत्पादन के क्षत्रे में भी मुद्रा के प्रयोग से सभी साधनों की सीमान्त उत्पादकता को बराबर करने में सुिवधा प्राप्त होती है जिससे उत्पादन अधिकतम होता है।

4. मुद्रा के अन्य कार्य 

मुद्रा के उपर्युक्त कार्यों  के अलावा कुछ अर्थशास्त्रियों ने मुद्रा के कुछ अन्य कार्य भी बताये हैं जो निम्न प्रकार है -

1. इच्छा की वाहक - फ्रेंक डी. ग्राह्य के अनुसार, मुद्रा मनुष्य को समाज में ऐसी क्षमता प्रदान करती है जिसके द्वारा वह भावी बदलती हु परिस्थितियों के अनुसार संचित क्रयशक्ति का प्रयोग कर सकता है। यदि मुद्रा के स्थान पर अन्य वस्तु का सचंय किया जाये तो यह सुिवधा उपलब्घ नहीं हो सकती है क्योंकि मुद्रा में वह गुण है जिसे किसी भी वस्तु में किसी भी समय विनिमय किया जा सकता है। मुद्रा मनुष्य को भावी निर्णय लेने में सहायता करती है।

2. तरल सम्पत्ति का रूप - प्रो. कीन्स के अनुसार, मुद्रा तरल सम्पत्ति के रूप में बहतु महत्वपूर्ण कार्य सम्पादित करती है। तरलता के कारण मुद्रा स्वयं मूल्य सचंय का कार्य करती है। मनुष्य की सम्पत्ति में मुद्रा सबसे उत्तम सम्पत्ति है। इसीलिए प्रत्यके मनुष्य अपनी सम्पत्ति को अन्य सम्पत्ति में संचित रखने की बजाय मुद्रा के रूप में संचित रखते हैं। मनुष्य क कारणों से मुद्रा को तरल या नकद रूप में रखता है। आकस्मिक संकटों का सामना करने प्रतिदिन के लेन -देन अथवा सटटे या निवेश के उद्देश्य से मुद्रा को तरल सम्पत्ति के रूप में रखता है।

3. भुगतान-क्षमता का सूचक - प्रो. आर.पी. केण्ट के अनुसार, “मुद्रा मनुष्यों को ऋण भुगतान करने की क्षमता प्रदान करती है।” किसी व्यक्ति या फर्म के पास मुद्रा -रूपी तर सम्पत्ति उसी भुगतान-क्षमता की सूचक होती है। मुद्रा की अनुपस्थिति व्यक्ति या फर्म को दिवालिया घोषित कर देती है। इसीलिए प्रत्येक व्यक्ति या फर्म को अपने ऋण का भुगतान करने के लिए अपनी आय अथवा साधनों का कुछ भाग नकद में संचित रखना आवश्यक होता है।

मुद्रा के उपर्युक्त कार्यों के विवेचन से स्पष्ट है कि मुद्रा समाज के आर्थिक विकास के लिए अत्यन्त आवश्यक है। मुद्रा के अभाव में मनुष्य के लिए सभ्य जीवन बिताना अत्यन्त कठिन है। मानव सभ्यता के विकास के लिए मुद्रा का उपयोग अत्यन्त आवश्यक ह।

5. मुद्रा के स्थैतिक एवं प्रावैगिक कार्य

पाॅल एन्जिग के अनुसार मुद्रा के कार्यो को स्थैतिक एवं प्रावैगिक कार्यों के आधार पर विभाजित किया जा सकता है।

स्थैतिक कार्य वे कार्य होते है जिनसे अर्थव्यवस्था संचालित होती है परन्तु उसमें वे गति अथवा वेग उत्पन्न नहीं करते है। इस आधार पर विनिमय माध्यम, मूल्य मापक, क्रय के संचय, हस्तांतरण अथवा स्थगित भुगतान के रूप में मुद्रा के मुख्य एवं सहायक कार्य है क्योंकि इनसे प्रत्यक्ष रूप से वेग उत्पन्न नहीं होता है।

एक स्वतन्त्र अर्थव्यवस्था में मवदे, कीमत प्रणाली के संचालन के माध्यम के रूप में भी कार्य करती है। मुद्रा के स्थैतिक कार्यों को निष्क्रिय कार्य, परम्परागत कार्य, स्थिर कार्य तथा तकनीकी कार्य भी कहते हैं।

दूसरी ओर, मुद्रा के वे कार्य जिनसे आर्थिक गतिविधियां सक्रिय रूप में प्रभावित होती है। वे कार्य मुद्रा के प्रावैगिक कार्य कहलाते है। मुद्रा का सबसे महत्वपूर्ण सक्रिय कार्य कीमत को प्रभावित करना है और जैसा की आप जानते है कि कीमत स्तर में परिवर्तन होने से ही आर्थिक परिस्थितयां प्रभावित होने लगती है। मुद्रा की मांग और पूर्ति में परिवर्तन होने से मुद्रा के मूल्य में परिवर्तन होता है, जिसके परिणामस्वरूप रोजगार, उत्पादन, आय-स्तर आदि सभी प्रभावित होने लगते है। जब मौद्रिक विस्तार के फलस्वरूप लोगों के पास अधिक क्रय-शक्ति होती है, तब वस्तुओं की कीमतंे बढ़ने लगती है, और इसके साथ-साथ उत्पादन विस्तार वृद्धि तथा आय-वृद्धि की प्रवृत्तियां उत्पन्न होने लगती है। इसकी गति तीव्र होने पर मुद्रा स्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

अर्थव्यवस्था की ब्याज दरें, बचत, निवेश, सरकारी व्यय तथा उत्पत्ति के साधनों का उपयोग प्रभावित होता है, जिनसे आर्थिक स्थिति सक्रिय रूप में प्रभावित होती है। पाॅल ऐन्जिग ने यह स्पष्ट किया कि मुद्रा की सहायता से ही सरकार घाटे के बजट बना पाती है। मुद्रा के रूप में व्यय करने से सरकार आर्थिक विकास एवं सामाजिक विकास के कार्यक्रमों को पूरा करती है।

पूँजी को तरलता प्रदान करना, साख के आधार के रूप में कार्य करना मुद्रा के प्रावैगिक कार्य ही है। वास्तव में मुद्रा के प्रावैगिक कार्य उतने ही महत्वपूर्ण है, जितने उसके स्थैतिक कार्य है।

6. मुद्रा का आधारभूत कार्य

प्रो. चैण्डलर के अनुसार:- ‘‘मुद्रा का आधारभूत उद्देश्य, ’चलन के चक्के’ तथा ’व्यापार के यंत्र’ के रूप में कार्य करता है। अधिकतर विनिमय माध्यम के कार्य को ही आधारभूत कार्य मानते है, क्योंकि अन्य कार्य इसी आधार पर कार्य करती है।’’

हैन्सन के अनुसार मुद्रा के सभी परम्परागत अथवा स्थैतिक कार्य उसके विनिमय माध्यम कार्य की ही शाखाएँ मात्र है।

संदर्भ -
  1. Dr. J.C. Pant and J.P. Mishra - Economics, Sahitya Bhavan Publication, Agra.
  2. Dr. TT Sethi - Monetary Economics, Laxminarayan Agrawal, Agra.
  3. Dr. TT Sethi - Macroeconomics
  4. Dr. M. L. Jhingan - Monetary Economics

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