संसाधन किसे कहते हैं - अर्थ, परिभाषा, वर्गीकरण, महत्व, संसाधन संरक्षण की विधियाँ

संसाधन किसे कहते हैं

संसाधन शब्द का अभिप्राय मानवी उपयोग की वस्तुओं से है। ये प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोनों हो सकती हैं। भूमि, जल, वन, वायु, खनिज घरों, भवनों, परिवहन एवं संचार के साधन ये संसाधन काफी उपयोगी भी हैं और मानव के विकास के लिए आवश्यक भी। संसाधन शब्द का अभिप्राय मानव उपयोग की वस्तुओं से है। ये प्राकृतिक और सांस्कृतिक दोनों हैं।

संसाधन किसे कहते हैं

संसाधन एक ऐसी प्राकृतिक और  मानवीय संपदा हैं, जिसका उपयोग हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु करते हैं। अन्य शब्दों में मानवीय जीवन की प्रकृति विकास तथा अस्तित्व संसाधनों पर निर्भर करता है। प्रत्येक प्राकृतिक संसाधन मानव जीवन के लिए उपयोगी हैं , किंतु उसका उपयोग उपयुक्त तकनीकी विकास द्वारा ही संभव है। जल, वायु, सूर्यातप, वन एवं वन्य जीव मानव जीवन की उत्पत्ति से पूर्व भी विद्यमान थे। 

स्पष्ट है कि मानव ने अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु इन संसाधनों का विकास किया। संक्षेप में यह कह सकते हैं कि पृथ्वी पर विद्यमान तत्व जो मानव द्वारा ग्रहण किए जाने योग्य है संसाधन कहलाते है ।

संसाधन का अर्थ

संसाधन शब्द अंग्रेजी भाषा के Resource शब्द का पर्याय है जो दो शब्दों (Re) तथा (Source) से मिलकर बना है जिसका अर्थ  क्रमशः (Re)- पुनः (Again) या दीर्घ  अवधि तथा 'Source' साधन या उपाय (Device) से हैं।  अन्य शब्दों में प्रकृति में  उपलब्ध साधन जिन पर कोई  जैविक समुदाय दीर्घ अवधि तक निर्भर रह सके तथा पुनः प
पूर्ति या पुननिर्माण की क्षमता रखता है संसाधन कहलाता है। उदाहरण के लिए प्रकृति से प्राप्त वायु तथा सूर्य से प्राप्त प्रकाश ( धूप ) दीर्घ अवधि तक मिलते रहेंगे जबकि वनस्पति वनों को पुनः उत्पादित किया जा सकता है।

अतः स्पष्ट है कि संसाधन प्रकृति में पाया जाने वाला ऐसा पदार्थ गुण या तत्व होता है जो मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति करने में सक्षम हो।

पृथ्वी पर पाई जाने वाली कोई भी वस्तु या पदार्थ संसाधन कहलाएगी कहलाएगी जब उसमेंनिम्नलिखित गुण विद्यमान हो-
  1. वस्तु मानव उपयोगी हो।
  2. इसका रूपांतरण अधिक मूल्यवान तथा उपयोगी  वस्तु के रूप में किया जाना संभव हो।
  3. जिसमें निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति की क्षमता हो।
  4. इन वस्तुओं के दोहन की योग्यता रखने वाला मानव संसाधन भी उपलब्ध हो।
  5. संसाधनों के रूप में सतत विकास करने के लिए आवश्यक पूंजी भी हो।

संसाधन की परिभाषा

संसाधन को विभिन्न विभिन्न विद्वानों ने निम्न रुपों में परिभाषित परिभाषित किया हैं:-

1. स्मिथ एवं फिलिप्स के अनुसार- ’’भौतिक रूप से संसाधन वातावरण की वे प्रक्रियायें हैं जो मानव के उपयोग में आती हैं।
 
2. जेम्स फिशर के शब्दों में- ’’संसाधन वह कोई भी वस्तु हैं जो मानवीय आवश्यकताओं और इच्छाओं की पूर्ति करती हैं।
 
3. जिम्मर मैन के अनुसार- संसाधन पर्यावरण की वे विशेषतायें हैं जो मनुष्य की आवश्यकताओं की पूर्ति में सक्षम मानी जाती हैं, जैसे ही उन्हें मानव की आवश्यकताओं और क्षमताओं द्वारा उपयोगिता प्रदान की जाती हैं।

4. ई. डब्लू  के शब्दों में, संसाधन का अर्थ किसी उद्देश्य की प्राप्ति करना है। यह देश व्यक्तिगत आवश्यकताओं एवं सामाजिक लक्ष्यों की पूर्ति करता है।

5. आर. जे. जोहन्स्टन एवं अन्य के अनुसार, “एक संकल्पना जो मानवीय सन्तुष्टि, सम्पन्नता तथा शक्ति प्रदान करने वाले स्रोतों को निर्दिष्ट करती है ।” श्रम, मानवीय कौशल, विनिवेश, स्थिर पूंजीगत ढाँचा, तकनीकी ज्ञान, सामाजिक स्थिरता तथा सांस्कृतिक एवं भौतिक विशेषताओं को किसी देश का संसाधन माना जा सकता है।

संसाधन का वर्गीकरण

संसाधनों को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत कर सकते हैं। इनमें से प्रमुख वर्गीकरण और वर्गीकरण के आधार इस प्रकार से हैं:
  1. जैविक संसाधन
  2. अजैविक संसाधन

1. जैविक संसाधन

इन संसाधनों में वन, वनोत्पाद, फसलें, पछी, वन्य जीव, मछलियां व अन्य समुद्री जीव जैव संसाधनों के उदाहरण हैं। ये संसाधन नवीकरणीय है क्योंकि ये स्वयं को पुनरूत्पादित व पुनर्जीवित कर सकते हैं। कोयला और खनिज तेल भी जैविक संसाधन है, परंतु ये नवीकरणीय नहीं हैं।

1. वन -  भारत में पाई जाने वाली वनस्पतियों को छ: मुख्य प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है। ये हैं- उष्णकटिबंधीय सदाबहार वन, उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन, कटीली झाड़ियाँ, ज्वारीय वन और पर्वतीय वन।

2. वन्य जीव - भारत में वन्य जीवों की बहुसंख्य प्रजातियाँ पाई जाती हैं। ज्ञात विश्व में, जानवरों की पाई जाने वाली कुल 1.05 मिलियन प्रजातियों में से लगभग 75000 (7-46%) भारत में पाई जाती हैं। 

3. पशुधन -  विश्व की लगभग 57 प्रतिशत भैंसें व लगभग 15 प्रतिशत गाय-बैल भारत में पाये जाते हैं। भारत के दो तिहाई से ज्यादा मवेशी मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, उत्तराखण्ड, झारखण्ड, महाराष्ट्र, उड़ीसा, कर्नाटक व राजस्थान राज्यों में हैं। 

4. मात्स्यिकी - भारत में विभिन्न प्रकार की मछलियों की 1800 से भी ज्यादा प्रजातियाँ विद्यमान हैं। भारत में चार प्रकार की माित्स्यकी, जैसे- सागरीय माित्स्यकी, स्वच्छ जल या अन्त:स्थलीय माित्स्यकी,एस्चुरी माित्स्यकी एवं पेरल मित्स्यकी पायी जाती हैं। 

2. अजैविक संसाधन

इन संसाधनों में पर्यावरण के समस्त निर्जीव पदार्थ सम्मिलित है। भूमि, जल, वायु और खनिज यथा लोहा, ताँबा, सोना आदि अजैविक संसाधन हैं। ये समाप्त होने योग्य हैं व पुनर्नवीनीकरण के योग्य नहीं है, क्योंकि ये न तो नवीनीकृत हो सकते हैं और न ही पुनरूपादित।

1. भूमि संसाधन - भारत 32,87,263 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में विस्तृत हैं। क्षेत्र एवं आकार के आधार पर रूस, कनाड़ा, चीन, संयुक्त राज्य अमरीका, ब्राजील व मिस्र के बाद यह विश्व का सातवाँ सबसे बड़ा राष्ट्र है। यह वृहद् आकार स्वत: एक बहुत बड़ा संसाधन है। लगभग 30 प्रतिशत क्षेत्र पर्वतों से ढका है; जो कि दृश्य सौन्दर्य, सदानीरा नदियों, वनों एवं वन्य जीवों का स्रोत हैं। 

2. जल संसाधन - संसाधनों में विविधता; हिमानियों, धरातलीय नदियों एवं भूमिगत जल, वर्षा एवं महासागरों के रूप भू-आकारों में विविधता का परिणाम है। अनुमानित औसत वार्षिक वर्षा 117 से.मी. है। भारत की पुनर्भरण योग्य भू-जल क्षमता 434 अरब घन मीटर है। आज, 70 प्रतिशत से भी ज्यादा जनसंख्या, अपनी घरेलू आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भूजल का उपयोग करती है। आधे से भी ज्यादा सिंचाई इस स्त्रोत से प्राप्त होती है।

3. खनिज संसाधन - भारत खनिज संसाधनों में बहुत ही धनी है और इसमें एक औद्योगिक शक्ति बनने की क्षमता है। यहाँ लौह अयस्क के आरक्षित क्षेत्र, कोयला, खनिज तेल, बॉक्साइट व अभ्रक के व्यापक निक्षेप पाये जाते हैं। झारखण्ड, उड़ीसा और छत्तीसगढ़ में खनिज निक्षेपों का वृहद् संकेन्द्रण है। देश के कुल कोयला निक्षेप का तीन चौथाई भाग यहाँ है। भारत में पाये जाने वाले अन्य महत्वपूर्ण खनिज हैं- लौह अयस्क, मैगनीज, अभ्रक, बॉक्साइट और रेडियोधर्मी खनिज।

अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए मानव प्रारंभ से ही संसाधनों का उपयोग करता रहा है। यह प्रक्रिया ‘संसाधन उपयोग’ कहलाती है। इस प्रकार संसाधन मनुष्य द्वारा निर्मित किए जाते हैं। 

संसाधन का महत्व 

संसाधन का महत्व वर्णन नीचे दिया जा रहा है-

1. मृदा संसाधन का महत्व 

मिट्टी मानव के लिए आधारभूत संसाधनों में से एक हैं। मानव को आवश्यक आवश्यकताओं की प्राप्ति अधिकांशतः: मिट्टी से ही होती हैं। सांसारिक जीवन में मानव व मिट्टी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में एक दूसरे पर निर्भर हैं। जैव सूची स्तम्भ में मिट्टी सबसे नीचे तथा मनुष्य सबसे ऊपर हैं जिससे यह स्पष्ट होता हैं कि मिट्टी ही सबका प्रमुख आधार हैं। मिट्टी ही वह माध्यम हैं जिसके द्वारा पेड-़ पौधे भूतल से जुड़े रहते हैं। 

मृदा संसार के समस्त जीव जगत के भोजन का मूल सा्रेत हैं। कृषि व पशुपालन की क्रियायें भी प्रत्यक्ष रूप से मृदा संसाधन पर ही निर्भर हैं। संसार के सभी प्राणियों के जीवन का आधार मृदा ही हैं। मिट्टी वनस्पतियों का भी आधार है क्योंकि सभी प्रकार के पेड़-पौधे मिट्टी में ही उगते एवं बढते हैं। 

अत: उनके विकास के लिए उर्वरक तथा उपयोगी मिट्टी अनिवार्य हैं। मनुष्य सहित सभी प्रकार के शाकाहारी प्राणियों का भोजन, अनाज तथा वनस्पतियॉं भोज्य रूप में मिट्टी से ही प्राप्त होती हैं। मांसाहारी जीव-जन्तु, जिन प्राणियों पर निर्भर होते हैं, सामान्यत: वे भी मिट्टी में उगने वाले वनस्पतियों पर ही पलते हैं। इस प्रकार से शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के प्राणियों और मनुष्यों को भोजन मिट्टी से ही प्राप्त होता हैं।

2. जल संसाधन का महत्व 

मानव के लिए जल पूर्णत: प्रकृति प्रदत्त नि :शुल्क उपहार हैं। पृथ्वी पर जल से भरे हुए स्थानों का कुल क्षेत्रफल लगभग 70 प्रतिशत हैं। जल मनुष्य की जैविक आवश्यकता हैं, जिसके बिना मानव जीवन सम्भव नहीं हैं। जीवन के अनिवार्य स्रोत प्राणवायु के बाद प्रथम आवश्यकता जल की ही होती हैं। मनुष्य के शरीर में प्रमुख जैविक क्रियायें निभाने वाले खून का 78 प्रतिशत भाग भी जल ही होता हैं। यही जल मानव के शरीर में रक्त के माध्यम से समस्त पोषक तत्वों को अंग-प्रत्यंग तक पहुँचाता हैं। यही जल वनस्पतियों के पोषण का आधार होता हैं। पीने के साथ ही घरेलू कार्यों, औद्योगिक कार्यों तथा सिंचाई आदि के लिए भी जल की आवश्यकता होती हैं। 

इस प्रकार से जल एक अति महत्वपूर्ण संसाधन हैं। जल की संसाधनता मानव के लिए विविध कार्यों से जुड़ी हुई हैं। जल का उपयोग प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से सभी जीव करते हैं। 

सभी संसाधन किसी न किसी रूप में जल पर आश्रित हैं। जल संसाधन अन्य संसाधनों से पारिस्थितिकी संतुलन बनाये रखने की महत्वपूर्ण भूमिका निभाता हैं। मिट्टी में यदि जल का संचार न हो तो वनस्पतियों के लिए उसके पोषक तत्व निरर्थक होगें। अत: इस स्थिति का यह परिणाम होगा कि वनस्पति एवं जीव-जन्तु का अस्तित्व समाप्त हो जायेगा। परिणामस्वरूप जनपद ही नहीं सम्पूर्ण विश्व की मानव सभ्यता, संस्कृति व प्रगति प्रभावित होगी और जीवन दुर्लभ हो जायेगा। इस प्रकार जल एक मूलभूत संसाधन हैं जो जैवीय मण्डल के जीवन का मुख्य आधार हैं।

3. वन-संसाधनों का महत्व 

प्राकृतिक संसाधनों में वन-संसाधन का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान हैं। प्राचीन काल से ही मानव अपने भोजन के लिए वनों पर ही निर्भर था। आदिकाल में जब मानव को कृषि का ज्ञान नहीं था तो वह वनों से ही भोजन प्राप्त करता था। भोजन पदार्थों के लिए कन्दमूल, फल, जैसे नारियल, अखरोट, अंजीर, जामुन, आम तथा ताड़ से प्राप्त गुड़ आदि प्राप्त करता था तथा वन्य जीव जन्तुओं के शिकार कर उदर-पूर्ति करता था। 

इसके अतिरिक्त रहने के लिए आवास भी घर व काष्ठ, घासों तथा पत्तों से बनाता था तथा वृक्षों के पत्तों तथा छालों से अपना तन ढकता था। वनों द्वारा ही मानव अपनी आवश्यक आवश्यकताओं की पूर्ति करता था। इस प्रकार प्राचीन काल से ही मानव वनों पर ही आश्रित था। प्राचीन काल में ही नहीं वरन् वर्तमान काल में भी वह वन संसाधन पर कितना निर्भर हैं इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता हैं कि घर हो या दफ्तर, मेज, हो या कुर्सी, कागज हो या वस्त्र, सभी के लिए मूल स्रोत पेड़-पौधे ही हैं। 

इसके अतिरिक्त पेड़ पौधों से हमें औषधियाँ प्राप्त होती हैं। 

उद्योगों के लिए कच्चे माल, लकड़ियाँ, विभिन्न रेशे व रुई तथा ईधन के लिए लकड़ी आदि वनों द्वारा ही प्राप्त होती हैं। वास्तव में यदि देखा जाये तो वनस्पति संसाधन मानव जीवन का आधार हैं। प्राणवायु के लिए तो सभी जीव-जन्तु इन्हीं पर निर्भर हैं। प्रत्येक जीव का भोजन किसी न किसी रूप में इस वनस्पति से ही प्राप्त होता हैं जो जीव जन्तु माँसाहारी होते हैं वे अपने भोजन के लिए प्राय: ऐसे जीवों का शिकार किया करते हैं जो शाकाहारी होते हैं। 

शेर और चीते जंगलों में हिरनों का शिकार कर अपना पेट भरते हैं किन्तु हिरन घास और पत्तियों पर ही पलते हैं। मछलियाँ एक दूसरे को खाकर जीवित रहती हैं किन्तु इनमें भी जो सबसे छोटी मछली, जिससे बड़ी मछली का भोजन चलता हैं वह जल में पैदा होने वाले प्लैंकटन पर ही निर्भर करती हैं। वनस्पतियॉं एक ओर पशुओं के लिए चारागाह प्रदान करती हैं वहीं दूसरी ओर ऑक्सीजन का निर्माण कर प्रदूषण को कम कर वातावरण को शुद्ध करने में अमूल्य सहयोग प्रदान करती हैं। अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु नियंत्रण में तथा नदियों के प्रवाह को व बाढ़ को नियन्त्रित करने में अपना सहयोग प्रदान करते हैं। 

जहाँ एक ओर ये भूमि अपरदन रोकते हैं वहीं दूसरी ओर भूमि की आर्द्रता बनाये रखने मे सहयोग करते हैं।

4. जीव-जन्तुओं का महत्व

 जैवीय संसाधन प्राचीन काल से ही मानव के लिए अत्यन्त सुलभ व प्राथमिक संसाधन रहे हैं। विश्व में मानव का सबसे बड़ा आर्थिक साधन पशुधन ही हैं। सभ्यता के प्रारम्भ में पशुओं से माँस व दूध प्राप्त किया जाता रहा हैं, इसके अलावा अन्य आवश्यकताओं जैसे औजार, चमड़ा, ऊन, अस्त्र आदि के लिए भी पशुओं का शोषण किया जाता था। धीरे-धीरे जब मनुष्य सभ्य हुआ तो उसने जीव-जन्तु के साथ सहानुभूति व मित्रता, पशुपालन क्रिया द्वारा जन्तुओं को व्यवस्थित साधन के रूप में परिवर्तित कर लिया हैं। जब पशुओं का प्रयोग सेवा के लिए किया जाने लगा तो भी मुख्य उद्देश्य भोजन ही था। 

बैल का प्रयोग मानव कृषि कार्य में, खेत जोतने के लिए करने लगा। कुछ पशुओं का मूल्य प्राप्त करने, पालने, रक्षक एवं साथी के रूप मे, तो कुछ को राष्ट्रीय क्रीड़ा की वस्तु जैसे घोडा़, कुत्ता, मुर्गा, साँड़ आदि जिनकी कुश्ती बड़ े चाव से देखी जाती हैं, एवं कुछ युद्ध में सहायक के  रूप में जैसे घोड़ा हाथी आदि को पाला जाने लगा। 

चिकित्सा के क्षेत्र में भी इसका अमूल्य योगदान हैं। गिनीपिग सफेद चूहे तथा बहुत से जन्तुओ, खरगोश, बन्दर आदि पर दवाइयों का प्रयोग होता रहता हैं। सभी दवाइयाँ सर्वप्रथम पशुओं पर ही प्रयोग की जाती हैं और लाभप्रद होने पर ही मानव के लिए उन्हें मान्यता दी जाती हैं। 

वैज्ञानिक अनुसंधान और औषधियों के प्रयोग करने के लिए वन्य जीवों को बलि दी जाती हैं। बंदर, खरगोश व चूहों पर पहले प्रयोग किया जाता हैं। इनमें से बहुत से पशुओं की आकृति बिगड़ जाती हैं और उनकी दु:खान्त मृत्यु तक हो जाती हैं। अन्तरिक्ष में भेजा गया पहला जीव लाइका नाम की एक कुतिया थीं। अन्य प्राणियों से प्राप्त कस्तूरी, हाथी दाँत, हिरणों के सींग वास्तव में अमूल्य होते हैं। अनेक ऐसे प्राणी हैं जिनके अवयवों से औषधियाँ बनायी जाती हैं। 

अत: स्पष्ट हैं कि पशुओं का प्रयोग अत्यन्त व्यापक हैं। इसके द्वारा विश्व के अनेक प्रदेशों में भोजन के अभाव को पूरा किया जाता हैं। सम्पूर्ण कैलोरी का लगभग 1/5 भाग इसके द्वारा ही पूरा किया जाता हैं। जिम्मरमैन महोदय के अनुसार विश्व के दो तिहार्इ लागे या तो माँस नहीं खाते या बहुत कम खाते हैं परन्तु समूर, ऊन, और रेशम का प्रयोग अधिक मात्रा में करते हैं।

5. कृषि एवं बागवानी का महत्व 

कृषि का सबसे महत्वपूर्ण कार्य भोजन का उत्पादन हैं। इसमें पशुओं का भोजन भी उपलब्ध है। अधिकांश भोजन कृषि द्वारा ही प्राप्त किया जाता हैं। भारतीय कृषि मानसून का जुआ कहलाती हैं। यदि मानसून समय पर आ जाता हैं तथा वर्षा से कृषि कार्य हेतु पर्याप्त जल प्राप्त होता है तो उत्पादन अच्छा होता हैं जिससे जहाँ एक ओर देश में खाद्यान्नों की पूर्ति होती हैं दूसरी ओर उद्योगों के लिए कच्चे माल की भी प्राप्ति हो जाती हैं। ऐसी स्थिति मे सरकार अपनी कर व्यवस्था को तदनुसार ही निश्चित कर सकती हैं जबकि वर्षा कम होने या अधिक होने के कारण उत्पादन में भारी हानि होती हैं, जिससे राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था अव्यवस्थित हो जाती हैं तथा इस पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता हैं। 

डॉ0 क्रेसी के अनुसार ‘‘किसी भी देश में इतने अधिक व्यक्ति वर्षा पर निर्भर नहीं करते जितने कि भारत मे, क्योंकि सामयिक वर्षा में किंचित भी परिवर्तन होने से सम्पूर्ण देश की समृद्धि रूक जाती हैं।’’

भारत की राष्ट्रीय आय में कृषि उद्योग का सर्वाधिक योगदान भी हैं। कृषि से सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 26 प्रतिशत भाग प्राप्त होता हैं। ‘‘कृषि क्षेत्र में हमारी शक्ति का लगभग 64 प्रतिशत हिस्सा आजीविका प्राप्त कर रहा हैं और सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 26 प्रतिशत इसी क्षेत्र से मिलता हैं। देश के कुल निर्यात में कृषि का योगदान लगभग 18 प्रतिशत हैं। गैर कृषि क्षेत्र के लिए बड़ी मात्रा में उपभोक्ता वस्तुएँ और अधिकांश उद्योगों के लिए कच्चा माल कृषि क्षेत्र से ही प्राप्त होता हैं। बागवानी फसलों के अन्तर्गत फलो, सब्जियो, कंदमूल, फसलो, फूल तथा औषधियाँ मसालों आदि की व्यापक प्रजातियाँ शामिल हैं। 

भारत की शीतोष्ण, उपोष्ण और शुष्क क्षेत्रों जैसी विविध कृषि जलवायु में ये फसलें उत्पन्न की जा रही हैं। भारत फलों का दूसरा बड़ा उत्पादक देश हैं। सब्जी उत्पादन के क्षेत्र में भारत, चीन के बाद सबसे बड़े दूसरे देश के रूप में उभरा हैं। आम, नारियल, काजू मसालों आदि के उत्पादन में भारत का पहला स्थान हैं।

भारत काजू का सबसे बड़ा निर्यातक हैं और विश्व के कुल काजू उत्पादन में भारत का हिस्सा 40 प्रतिशत हैं। भारत अदरक, हल्दी का सबसे बड़ा उत्पादक हैं तथा विश्व के कुल उत्पादन में इसका योगदान क्रमश: 65 और 76 प्रतिशत हैं।

संसाधन संरक्षण की विधियाँ

संसाधनो के संरक्षण से तात्पर्य उनके विवेकपूर्ण व नियोजित उपयोग के साथ ही उनके अपव्यय, दुरुपयोग व अति-उपयोग से बचाव करते हुए प्राकृतिक संसाधनों का पुन: उपयोग करना है। संसाधनों का नियोजित ढंग से उपयोग किया जाना चाहिए ताकि असंतुलन न उत्पन्न हो सके।
  1. संरक्षण के बारे में जागरूकता उत्पन्न की जाए। प्राकृतिक संसाधनों के बड़े पैमाने पर विनाश के घातक परिणामों के बारे में लोगों को जागरूक बनाना चाहिए। 
  2. वृक्षों को काटने से रोकना तथा लोगों में वृक्षों के रोपण तथा पोषण के बारे में जागरूकता उत्पन्न करना, वनों के संरक्षण में सहायक हो सकते हैं। 
  3. पहाड़ी क्षेत्रों में सीढ़ीदार कृषि, समोच्च रेखाओं के अनुरूप जुताई, झूमिंग कृषि पर नियंत्रण, अतिचराई तथा अवनालिकाओं को रोकना, मृदा संरक्षण की कुछ महत्वपूर्ण विधियाँ हैं। 
  4. वर्षा जल को रोकने के लिए बाँधों का निर्माण, सिंचाई तकनीकों का उपयोग, औद्योगिक या घरेलू उपयोग हेतु जल का पुनर्चक्रण अमूल्य जल संसाधन के संरक्षण में सहायता करेंगे। 
  5. खनिज अनवीकरणीय संसाधन है, इसलिए कुशल उपयोग, निकालने व शोधन की ज्यादा अच्छी तकनीकों का विकास, खनिजों का पुनर्चक्रण तथा स्थानापन्नों के उपयोग द्वारा इनका संरक्षण किया जाना चाहिए। 
  6. ऊर्जा के पारम्परिक स्त्रोतों को बचाने के लिए, ऊर्जा के गैर-परम्परागत स्त्रोतों, जैसे- सौर, पवन या जल का विकास करना होगा।

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