गौतम बुद्ध का जीवन परिचय एवं उपदेशों का वर्णन

गौतम बुद्ध
गौतम बुद्ध

गौतम बुद्ध की वास्तविक जन्म तिथि वाद-विवाद का विषय है परन्तु अधिकतर विद्वानों द्वारा इसको लगभग 566 बी.सी.ई. माना गया है। गौतम बुद्ध के माता-पिता ने उनका नाम सिद्धार्थ रखा था। गौतम बुद्ध के बचपन का नाम सिद्धार्थ था। और उनके पिता शुद्धोधन शाक्य गण के मुखिया थे तथा उनकी माँ का नाम माया था जो कोलिया गण की राजकुमारी थीं। उनका जन्म नेपाल की तराई में स्थित लुम्बिनी (आधुनिक रुमिन्डै) नामक स्थान पर हुआ था। यह जन्म नेपाल की तराई में स्थित लुम्बिनी में हुआ था जो कपिलवस्तु से लगभग 14 मील की दूरी पर है। जन्म के 7वें दिन इनकी माता का निधन हो गया एवं इनका पालन पोषण सौतेली मां गौतमी ने किया। यह जानकारी हमें अशोक के एक स्तम्भ लेख के द्वारा मिलती है। 

16 वर्ष की आयु में सिद्धार्थ का विवाह यशोधरा (इनके अन्य नाम गोपा, बिंना तथा भद्रकच्छा भी उल्लिखित है) से कर दिया। इनसे एक पुत्र उत्पन्न हुआ। किन्तु सिद्धार्थ प्रसन्न न हुए वरन् उसे मोह-बंधन मानकर ‘राहू’ कहा और उसका नाम राहुल रख दिया। 

उन्होंने सांसरिक दु:खों से निवृति का मार्ग खोजने के लिए अपनी पत्नी तथा शिशु का सोते हुए ही छोड़ कर 29 वर्ष की अवस्था में गृहत्याग कर दिया इस घटना को बौद्ध साहित्य में महाभिनिष्कमण कहा जाता है।

इन्होंने 29 वर्ष की अवस्था में गृह-त्याग किया और 35 वर्ष की उम्र में कठोर तपस्या के बाद ‘गया’ में, पीपल के वृक्ष के नीचे, निरंजना नदी के तट पर, वैषाख पूर्णिमा के दिन ध्यान लगाया। आठ दिन की समाधि के उपरान्त 35 वर्ष की आयु में वैसाखी मास की पूर्णिमा की रात्रि को उन्हें सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई। इससे वे बौद्ध (ज्ञानी) अर्थात बुद्ध कहलाए तथा गया ‘बौद्ध गया’ के रूप में विख्यात हो गया। ज्ञान-प्राप्ति के बाद उन्होंने पहला उपदेश ऋषिपतन (सारनाथ) में पांच शिष्यों को दिया जो ‘धर्म-चक्र परिवर्तन’ के नाम से जाना जाता है। यहीं पर प्रथम बुद्ध संघ की स्थापना हुई। 

सारनाथ के बाद वे मगध गए जहां के शासक बिम्बिसार ने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। अजातशत्रु, कौशल नरेश प्रसेनचित, धनी व्यापारी अनाथपिड़क इत्यादि के अतिरिक्त बुद्धे पिता, मौसी, पत्नी व पुत्र ने भी इस धर्म को स्वीकार कर लिया। 40 वर्ष तक विभिन्न क्षेत्रों में प्रचार करते हुए, कुशीनगर में 80 वर्ष की अवस्था में उन्हें निर्वाण प्राप्त हुआ।

कुशीनगर (उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले में स्थित कसिया) में 80 वर्ष की आयु में (486 बी.सी.ई.) गौतम बुद्ध की मृत्यु हो गई। 

गौतम बुद्ध के उपदेश और चार आर्य सत्य

ज्ञान प्राप्ति के पश्चात गौतम बुद्ध ने अपने मत के प्रचार का निश्चय किया। उन्होंने सर्वप्रथम सारनाथ में पाँच ब्राह्मण सन्यासियों को अपना पहला उपदेश दिया। ये वही सन्यासी थे जो कि कठोर साधना से विरत हो जाने के कारण गौतम का साथ छोड़ चुके थे। इस उपदेश को धर्म चक्र प्रवर्तन कहा गया। यह उपदेष दुःख, दुःख के कारणों तथा उनके समाधान से संबंधित था। इसे चार आर्य सत्य (चतारि आरिय सच्चानि) कहा जाता है। अपने ज्ञान प्राप्ति के चरण में गौतम बुद्ध को ‘प्रतीत्यसमुत्पाद’ के सिद्धान्त का बोध हुआ था, जिसका तात्पर्य इस तथ्य से है कि संसार की सभी वस्तुयें किसी न किसी कारण से उत्पन्न हुई है और इस प्रकार वे इस पर निर्भर हैं। गौतम बुद्ध के चार आर्य सत्य निम्न हैं-
  1. संसार दुःखों से परिपूर्ण है।
  2. सारे दुःखों का कोई न कोई कारण है। इच्छा, अज्ञान और मोह मुख्यतः दुःख के कारण हैं।
  3. इच्छाओं का अन्त मुक्ति का मार्ग है।
  4. मुक्ति (दुःखों से छुटकारा पाना) अष्टांगिक मार्ग द्वारा प्राप्त की जा सकती है।
ख) अष्टांगिक मार्ग में निम्नलिखित सिद्धांत समाहित हैं:
  1. सम्यक् दृष्टि: इसका अर्थ है कि इच्छा के कारण ही इस संसार में दुःख व्याप्त है। इच्छा का परित्याग ही मुक्ति का मार्ग है।
  2. सम्यक् संकल्प: यह लिप्सा और विलासिता से छुटकारा दिलाता है। इसका उद्देश्य मानवता का े प्रेम करना और दूसरों को प्रसन्न रखना है।
  3. सम्यक् वाचन: अर्थात् सदैव सच बोलना।
  4. सम्यक् कर्म: इसका तात्पर्य है स्वार्थरहित कार्य करना।
  5. सम्यक् जीविका: अर्थात् व्यक्ति को ईमानदारी से अर्जित साधनों द्वारा जीवन-यापन करना चाहिए।
  6. सम्यक् प्रयास: इससे तात्पर्य है कि किसी को भी बुरे विचारों से छुटकारा पाने के लिए इन्द्रियों पर नियंत्रण होना चाहिए। कोई भी मानसिक अभ्यास के द्वारा अपनी इच्छाओं एवं मोह को नष्ट कर सकता है।
  7. सम्यक् स्मृति: इसका अर्थ है कि शरीर नश्वर है और सत्य का ध्यान करने से ही सांसारिक बुराइयां े से छुटकारा पाया जा सकता है।
  8. सम्यक् समाधि: इसका अनुसरण करने से शान्ति प्राप्त होगी। ध्यान से ही वास्तविक सत्य प्राप्त किया जा सकता है।
बौद्ध मत ने कर्म के सिद्धान्त पर बल दिया, जिसके अनुसार वर्तमान का निर्णय भूतकाल के कार्य करते हैं। किसी व्यक्ति की इस जीवन और अगले जीवन की दशा उसके कर्मों पर निर्भर करती है।

प्रत्येक व्यक्ति स्वयं अपने भाग्य का निर्माता है। अपने कर्मों को भोगने के लिए हम बारबार जन्म लेते हैं। अगर कोई व्यक्ति किसी भी तरह का पाप नहीं करता है तो उसका पुनर्जन्म नहीं होगा। इस प्रकार बुद्ध के उपदेशों का अनिवार्य तत्व या सार ‘‘कर्म-दर्शन’’ है।

बुद्ध ने निर्वाण का प्रचार किया। उनके अनुसार यही प्रत्येक व्यक्ति के जीवन का अंतिम उद्देश्य है। इसका तात्पर्य ह ै सभी इच्छाओं से छुटकारा, दुःखों का अन्त जिससे अन्ततः पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है। इच्छाओं की समाप्ति की प्रक्रिया के द्वारा कोई भी निर्वाण पा सकता है। इसलिए बुद्ध ने उपदेश दिया कि इच्छा ही वास्तविक समस्या है। पूजा और बलि इच्छा को समाप्त नहीं कर सकेंगे। इस प्रकार वैदिक धर्म में हाने े वाले अनुष्ठानों एवं यज्ञों
के विपरीत बुद्ध ने व्यक्तिगत नैतिकता पर बल दिया। 

बुद्ध ने न ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकारा और न ही नकारा। यह व्यक्ति और उसके कार्यों के विषय में अधिक चिन्तित थे। बौद्ध मत ने आत्मा के अस्तित्व को भी स्वीकार नहीं किया। 

इनके अतिरिक्त बुद्ध ने अन्य पक्षों पर भी बल दिया: 
  • बुद्ध ने प्रेम की भावना पर बल दिया। अहिंसा का अनुसरण करके प्रेम को सभी प्राणियों पर अभिव्यक्त किया जा सकता है। यद्यपि अहिंसा के सिद्धांत को बौद्ध मत में अच्छी तरह से समझाया गया था, परन्तु इसको इतना महत्व नहीं दिया गया जितना कि जैन मत में।
  • व्यक्ति को मध्य मार्ग का अनुसरण करना चाहिए। कठोर संन्यास एवं विलासी जीवन दोनों से बचना चाहिए।
बौद्ध धर्म का थोड े़ ही समय में एक संगठित धर्म के रूप में उद्भव हुआ और बुद्ध के उपदेशों को संग्रहीत किया गया। बौद्ध धर्म के इस सगं ्रहीत साहित्य (उपदेशों का संग्रह-पिटक) को तीन भागों  में बांटा  गया है:
  1. सुत्त-पिटक में पांच निकाय हैं जिनमें धार्मिक सम्भाषण तथा बुद्ध के संवाद संकलित हैं। पांचवें निकाय में जातक कथायें (बुद्ध के पूर्व जन्मों से सम्बद्ध कहानियाँ) हैं।
  2. विनय पिटक में भिक्षुओं के अनुशासन से संबंधित नियम हैं।' 
  3. अभिधम्म-पिटक में बुद्ध के दार्शनिक विचारों का विवरण है। 

बौद्ध धार्मिक ग्रंथ

गौतम बुद्ध के धार्मिक विचारों को विद्वानों, दार्शनिकों, विचारकों आदि ने लिपिबद्ध कर ग्रंथों में लिखा। बौद्ध साहित्य में निम्नलिखित धार्मिक ग्रंथ प्रमुख है -

1. त्रिपिटक:- बौद्ध धार्मिक ग्रंथों को त्रिपिटक कहते है, पिटक से तात्पर्य टोकनी या समूह से है। ये निम्न
है - (1) सुत्त पिटक:- इनमें बुद्ध के उपदेष है। इनमें पाँच निकाय है - दीर्घ निकाय, मज्झिम निकाय, संयुत्त निकाय, अंगुत्तर निकाय, खुद्दक निकाय। प्रत्येक निकाय में सूत्र ग्रंथ हैं।

पश्चिमी पुस्तकालय में त्रिपिटक पुस्तकें
पश्चिमी पुस्तकालय में त्रिपिटक पुस्तकें

(2) विनय पिटक:- इसके 3 भाग है - (अ) सूत्तविभंग (ब) खन्धक (3) परिवार

(3) अभिधम्य पिटक:- यह पिटक बौद्ध धर्म के दार्शनिक विचारों से संबंधित है।

बुद्ध के प्रमुख शिष्य

बौद्धधर्म के प्रचार में केवल भगवान् बुद्ध की चारिकाओं तथा उपदेशों का ही हाथ नहीं था; उनके प्रमुख शिष्य - सारिपुत्त, मोग्गलान, महाकस्सप, आनन्द तथा उपालि की देन भी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि अपने शिष्यों के सहयोग से ही भगवान् बुद्ध अपने धर्म की नींव को सुदृढ़ बनाने में सफल हुए । सारिपुत्र, मोग्गलान तथा महाकस्सप मगधवासी थे, आनन्द तथा उपालि कपिलवस्तु के रहने वाले थे। इन सभी ने भगवान् बुद्ध के सन्देशों के प्रचार में महत्त्वपूर्ण कार्य किया ।

सारिपुत्त भगवान् के अग्रश्रावक ( प्रमुख - शिष्य) माने जाते थे। भगवान् ने अपने सभी शिष्यों के सम्मुख सारिपुत्त को प्रज्ञावानों में अग्रणी घोषित कर दिया था । और भिक्षुसंघ में भगवान् के बाद उन ही स्थान माना जाता था । 30 सारिपुत्त बुद्ध के बहुत प्रिय एवं विश्वासपात्र शिष्य थे। कभी कभी प्रवचन के समय बुद्ध केवल विषय का प्रस्ताव मात्र कर देते और सारिपुत्त उपदेश देकर उनके द्वारा प्रशंसित होते । सारिपुत्त के प्रवचनों में सर्वाधिक प्रमुख है दसुत्तरसुत्त और संगीतिसुत्त । बुद्ध सारिपुत्त की प्रज्ञा की सर्वदा प्रशंसा करते थे । सारिपुत्त भगवान् के इतने बड़े भक्त थे कि वे उस समय तक कोई नियम विरुद्ध कार्य नहीं करते थे, जब तक कि बुद्ध स्वयं उनसे वैसा करने को नहीं कहते। एक बार वे रुग्ण हो गये और उन्हें ज्ञात था कि लहसुन खाने से वे स्वस्थ हो जायेंगे, परन्तु उन्होंने बुद्ध की अनुमति मिलने पर ही लहसुन खाया । अपनी मृत्यु के कुछ समय पूर्व उन्होंने भगवान् बुद्ध में अपनी अगाध श्रद्धा का प्रदर्शन किया था, जब उन्होंने नालन्दा में सिंहनाद किया । 

महामोग्गल्लान या मोग्गल्लान ( मौद्गल्यायन) का स्थान भगवान् बुद्ध के प्रमुख शिष्यों में द्वितीय था। उनका जन्म राजगृह के निकट कोलितग्राम में हुआ था।संयोगवश सारिपुत्त और मोग्गल्लान, दोनों परम मित्रों का जन्म एक ही दिन हुआ था । दोनों की मित्रता प्रगाढ़ थी। अतः जब सारिपुत्त ने मोग्गल्लान को भगवान् की शरण में जाने का अपना निश्चय बतलाया तो उन्होंने अपने मित्र का साथ नहीं छोड़ा 35 मोग्गल्लान को इद्विमन्तों में अग्रणी माना जाता था । 

महाकस्सप धुतवादियों में अग्रणी माने जाते थे। उनका जन्म मगध के महातीर्थ नामक ब्राह्मण ग्राम में एक ब्राह्मण कुल में हुआ था। पालि सूत्रों के अनुसार महाकस्सप के ही सभापतित्व में बुद्ध - निर्वाण के अनन्तर राजगृह में पाँच सौ प्रमुख बौद्ध भिक्षुओं की संगीति हुई जिसका नाम पड़ा - प्रथम बौद्ध संगीति कहा जाता है कि इन भिक्षुओं ने राजगृह की सप्तपर्णी गुहा में एकत्र होकर धम्म तथा विनय के सूत्रों का इस उद्देश्य से पाठ किया कि भगवान् द्वारा उपदिष्ट सूत्रों के स्वरूप को यथावत् सुरक्षित रखा जा सके। 

महावंस में इस संगीति का नाम थेर-संगीति दिया गया है और कहा गया है कि इसके फलस्वरूप बौद्ध-धर्म का जो स्वरूप स्थिर हुआ वह थेरवाद कहलाया ।  पालित्रिपिटक में महाकस्सप का प्रथम बौद्ध संगीति के सभापति के रूप में उल्लेख होना बौद्ध धर्म में उनके महत्त्वपूर्ण स्थान का द्योतक है।

बुद्ध का कार्यक्षेत्र

आरम्भ में बौद्ध धर्म का प्रमुख गढ़ बना - बिहार प्रदेश, - जहाँ से इस धर्म का प्रसार देश के विभिन्न भागों में हुआ। बिहार के अतिरिक्त उत्तर प्रदेश के पूर्वी भूभाग में इसका विशेष प्रचार हुआ । पालि- त्रिपिटक के अनुसार भगवान् बुद्ध का कार्यक्षेत्र मज्झिम देश में सीमित रहा। अतः मज्झिम देश के सीमा निर्धारण से तथा भगवान् बुद्ध की पदयात्रा के विवरण के आधार पर बौद्धधर्म के प्रचार- क्षेत्र का वास्तविक अनुमान लगाना संभव है 55 पूर्व दिशा में कजंगल (वर्तमान कंकजोल, जिला संथाल परगना ) तक बुद्ध के जाने का उल्लेख मिलता है, अतः यही मज्झिम देश की पूर्वी सीमा होगी। भगवान् बुद्ध दक्षिण में हजारीबाग के जिले की सललवती नदी के पार नहीं गये। दक्षिण - पूर्व में वे सुंसमारगिरि, कौशाम्बी तथा अवन्ती गये। महावग्ग ग्रन्थ के अनुसार अवन्ती में बौद्धमतावलम्बियों की संख्या न्यून थी । पश्चिम दिशा में बुद्ध मज्झिमनिकाय के अनुसार थुल्लकोट्ठित (कुरु राज्य में) तक गये थे, पर अंगुत्तरनिकाय में मथुरा तक ही उनके जाने का उल्लेख मिलता है। महावग्ग के अनुसार ब्राह्मणग्राम थूण ( थानेश्वर ) मज्झिम देश की पश्चिमी सीमा था । मज्झिम देश के उत्तरी सीमान्त में उसीरध्वज नाम पर्वत था जो हरिद्वार के निकट है। अतः पश्चिम तथा उत्तर दिशाओं में बौद्धधर्म का प्रसार वर्तमान उत्तर प्रदेश की सीमा के पार नहीं हुआ । भगवान् बुद्ध ने जीवन के पच्चीस वर्ष श्रावस्ती में व्यतीत हुए । पालि - निकाय में उनके धर्मोपदेशों तथा पदयात्राओं से सम्बद्ध जिन स्थानों का उल्लेख मिलता है, उनमें अधिकतम पूर्वी उत्तरप्रदेश तथा बिहार में पड़ते हैं, अतः यही भूभाग बौद्ध धर्म का गढ़ था जहाँ से उसका प्रसार मध्य प्रदेश में उज्जयिनी तक हुआ ।

भगवान् बुद्ध का लक्ष्य

भगवान् बुद्ध का लक्ष्य था मोक्ष का मार्ग बतलाना, अध्यात्मशास्त्र की जटिलताओं का तर्क की सहायता से समाधान ढूँढना नहीं । वे संसार को ऐसा सरल धर्म-मार्ग बतलाना चाहते थे जिस पर चलकर सभी मनुष्य सांसारिक कष्टों से मुक्ति पा सकें। लोक शाश्वत है अथवा अशाश्वत, लोक अन्तवान् है या अनन्त, जीव और शरीर एक हैं या भिन्न, तथागत मरणोपरांत होता है या नहीं - इत्यादि दार्शनिक समस्याओं की व्याख्या बुद्ध ने नहीं की, क्योंकि उनके विचार में ये प्रश्न अर्थसंहित नहीं हैं और न ब्रह्मचर्यसाधक ही 56 श्रावकों द्वारा पूछे जाने पर उन्होंने इन प्रश्नों का उत्तर देने से इन्कार कर दिया। आचार-मार्ग के लिए वैराग्य, उपशम, अभिज्ञा (लोकोत्तर ज्ञान) संबोधि ( परम ज्ञान ) तथा निर्वाण (आत्यन्तिक दुःख- निरोध) उत्पन्न करने में साधक न होने के कारण इन प्रश्नों को बुद्ध ने अव्याकृत ( कथन के अयोग्य) बतलाया 57 इस विषय में उन्होंने एक अतिसुन्दर यह दृष्टान्त दिया – “यदि कोई व्यक्ति विषदिग्ध वाण से विद्ध होकर पीड़ा से कराह रहा हो और उसके वन्धु-बान्धव चिकित्सा के लिए किसी वैद्य को बुलाने के लिए उद्यत हों, तो क्या उस समय उस रोगी द्वारा वैद्य के नाम, गोत्र, रूप, रंग आदि जानने का आग्रह करना बहुत बड़ी मूर्खता नहीं होगी?" इसी प्रकार की दशा भवरोग से पीड़ित रोगियों की है। मनुष्य तो नाना प्रकार के दुःखों से पीड़ित है जिनसे मुक्ति पाने के लिए उसे एक आचारमार्ग की आवश्यकता है, न कि अध्यात्म की। अतः भगवान् ने उन प्रश्नों का उत्तर न देकर मोक्ष का उपाय बतलाया। पश्चात् जब बौद्ध दर्शन - शास्त्र संगठित हुआ तो दार्शनिक प्रश्नों के उत्तर भी दिये गये।

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