जैन धर्म का इतिहास || उपदेश सिद्धांत

जैन धर्म की उत्पत्ति


जैन धर्म शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। एक शब्द है 'जैन' दूसरा शब्द है धर्म। जिस प्रकार शिव को देवता मानने वाले शैव और विष्णु को मानने वाले वैष्णव कहलाते हैं उसी प्रकार 'जिन' को देवता मानने वाले जैन कहलाते हैं । और उनके धर्म को जैन धर्म कहते हैं। जिन शब्द का अर्थ है जीतने वाला ।

जिसने अपने आत्मिक विकारों पर पूरी तरह से विजय प्राप्त कर ली हो वही 'जिन' है। अतः जो इस जगत की वासनाओं, इच्छाओं, इन्द्रियों और मन पर विजय प्राप्त करते हैं उन्हें जैन धर्म में जिन कहा जाता है। जिन अर्थात् जो व्यक्ति जिनेन्द्र देव के सिद्धान्तों का पालन करते हैं वे जैन कहलाते हैं । तीर्थकर का शाब्दिक अर्थ है धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करने वाला अर्थात् जो विश्वरूपी सागर के पार होने हेतु धर्मरूपी घाट का निर्माण करते हैं वे तीर्थकर कहलाते हैं।

तीर्थ का अर्थ 'पुल' या सेतु है कितनी ही बड़ी नदी क्यों न हो, सेतु द्वारा निर्बल से निर्बल व्यक्ति भी उसे सुगमता से पार कर सकता है। इसी प्रकार तीर्थकरों ने संसार रूपी सरिता को पार करने के लिए धर्म शासन रूपी सेतु का निर्माण किया है ।

जैन धर्म में चौबीस तीर्थकर हुए हैं जिसमें भगवान ऋषभदेव प्रथम और महावीर चौबीसवें तीर्थकर हैं । आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित ग्रन्थ 'बृहत्स्वयम्भू' में बताया गया है कि "तीर्थकर वह है जिसके द्वारा अच्छाई के विस्तृत रूप का दर्शन होता व्याख्या के अनुसार जो अपनी इच्छाओं व रागद्वेषों आदि को जीत ले वे तीर्थंकर कहलाते हैं । जैन ग्रन्थों में तीर्थंकरों के लिए अरिहंत शब्द का प्रयोग किया जाता है। अरिहंत शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है अरि और हनन, जिसका अर्थ है अरि (कर्मशत्रु) का हनन (नष्ट) करने वाला । जो मन के विकारों से युद्ध करते हैं, वासनाओं से संघर्ष करते हैं, रागद्वेष को पूर्णरूप से पराजित कर अपने अधीन कर लेते हैं अध्यात्मिक साधनाओं द्वारा अरिहंत कहलाते हैं । जैन धर्म ईश्वर की सत्ता में विश्वास नहीं करता है किन्तु जैन तीर्थंकरों की उपासना ईश्वर के समान ही करते हैं। सभी तीर्थकर अहिंसा में विश्वास करने वाले तपस्वी एवं त्यागी होते थे। इन्होंने संयम एवं कठोर तप के द्वारा सम्पूर्ण ज्ञान को प्राप्त किया और जीवन भर अहिंसा का उपदेश दिया। सभी तीर्थकरों का विवरण जैन पुराणों तथा अन्य चरित्र ग्रन्थों में मिलता है। आदि पुराण में ऋषभदेव का और उत्तरपुराण में अन्य तीर्थकरों का जीवन परिचय प्राप्त होता है । भवदेव सूरी के पार्श्वनाथ चरित्र, सकल कीर्ति के विमलनाथ पुराण, नेमिनाथ पुराण आदि ग्रन्थों में तीर्थकरों के जीवन परिचय मिलते हैं ।

भगवान ऋषभदेव का वर्णन भागवत् पुराण में मिलता है। अन्य तीर्थकरों ने नेमिनाथ या अरिष्टनेमि का भी उल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है। जैन धर्म के अनुसार प्रत्येक कालचक्र में अवसर्पिणी के सुषमा - दुषमा नामक तीसरे काल के अन्त में और उत्सर्पिणी के दुषमा - सुषमा नामक चौथे काल के प्रारम्भ में जब यह सृष्टि भोग युग से कर्मयुग में प्रविष्ट होती है तब क्रमश: चौबीस तीर्थकर उत्पन्न होते हैं यह परम्परा आदि काल से है। जैन आगम के अनुसार अतीत काल में अनन्त तीर्थंकर हो चुके हैं। वर्तमान में ऋषभदेव व अन्य चौबीस तीर्थकर हुए हैं। और भविष्य में भी चौबीस तीर्थकर होंगे। चौबीस तीर्थकर जो हुये हैं वे इस प्रकार हैं- है।" 
1- ऋषभनाथ
2- अजितनाथ
3- सम्भवनाथ
4- अभिनन्दननाथ 
5– सुमतिनाथ
6- पद्मप्रभु
7- सुपार्श्वनाथ
8- चन्द्रप्रभु 
9- पुष्पदंत
10 – शीतलनाथ
11- श्रेयांसनाथ
12- वासुपूज्य
13 – विमलनाथ
14- अनन्तनाथ
15 - धर्मनाथ
16- शान्तिनाथ 
17- कुन्थुनाथ
18- अरहनाथ
19 – मल्लिनाथ
20 – मुनिसुव्रतनाथ 
21– नमिनाथ
22– नेमिनाथ
23– पार्श्वनाथ
24- महावीर

जैन धर्म की उत्पत्ति

जैन श्रुतियों के अनुसार, जैन धर्म की उत्पत्ति एवं विकास के लिए 24 तीर्थकर उत्तरदायी थे। जैन सम्प्रदाय के अनुयायियों का विश्वास है महावीर स्वामी 24 वें तथा अन्तिम तीर्थकर थे। कुछ जैन अनुयायी प्रथम तीर्थकर ऋृष्भदेव को जैन धर्म का संस्थापक मानते है। जो भी हो इतना सत्य तो अवश्य हैं कि जैन धर्म के 24 वें तीर्थकरों में महावीर स्वामी के काल में जैन धर्म का काफी प्रचार-प्रसार हुआ। ऋृष्भदेव का नाम ऋृग्वेद में भी आता है। महावीर स्वामी 24 वें तथा अन्तिम तीर्थकर थे। 23वें तीर्थकर पाश्र्वनाथ थे।

प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव

जैन धर्म के संस्थापक व प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव थे। ऋषभदेव का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता है । चौदहवें कुलकर नाभिराज और उनकी पत्नी मरूदेवी से ऋषभदेव उत्पन्न हुए । इनका जन्म अयोध्या में हुआ था । इन्हें वृषभनाथ भी कहा जाता है। चौबीस तीर्थकरों में से प्रथम होने के कारण इन्हें आदिनाथ भी कहा जाने लगा। जैन धर्म का आरम्भ यहीं से माना जाता है। राजगद्दी पर बैठते ही उन्होंने लोगों को असि, मसि, कृषि, वाणिज्य और शिल्प आजीविका के साधन इन छः कर्मों की व्यवस्था की ।

लोगों को कर्मों के आधार पर क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन तीनों वर्णों की व्यवस्था की इसलिए इन्हें प्रजापति कहा गया इनकी दो पत्नियाँ थीं, सुनन्दा और नन्दा | सुनन्दा से भरत और ब्राह्मी तथा नन्दा से बाहुबली और सुन्दरी प्रमुख हैं। अपनी ब्रह्मी और सुन्दरी नामक दो पुत्रियों को क्रमशः अंक और अक्षर विद्या सिखाकर समस्त कलाओं में निपुण किया । ब्राह्मी लिपि का प्रचलन इसी समय से माना जाता है। नागरी लिपि को विद्वान उसका ही विकसित रूप मानते हैं ।

राजमहल में नीलांजना नामक नृत्यांगना की आकस्मिक मृत्यु हो जाने से इन्हें वैराग्य हो गया। अतः अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को समस्त राज्य का भार सौंपकर दिगम्बरी दीक्षा धारण कर, वन को तपस्या करने चले गये । भरत बहुत प्रतापी सम्राट हुये उन्होंने अपने दिग्विजय द्वारा सर्वप्रथम चक्रवर्ती पद प्राप्त किया, इसलिए इस देश का नाम भरत के नाम पर 'भारत' पड़ा। जैन साहित्य में भी इसका उल्लेख मिलता है।" ऋषभदेव ने कठोर तपस्या एवं साधना करके कैवल्य प्राप्त किया और अपने समस्त विकारों को जीत लिया था इसलिए 'जिन' कहलाए तथा उनके द्वारा प्ररूपित धर्म जैन धर्म कहलाया । इस प्रकार जैन धर्म का प्रवर्तन प्रारम्भ हो गया और उसी समय से जैन धर्म पूरी मानवता का धर्म बन गया । ऋग्वेद के अतिरिक्त हरिवंश पुराण में भी उन्हें प्रलम्ब महाधारी कहा है । 

डा० सागरमल जैन ने ऋग्वेद में अर्हत और ऋषभवाची ऋचायें नामक लेख में लिखा है "ऋग्वेद में न केवल सामान्य रूप सम्बद्ध अर्हत, अर्हन् व्रात्य, मुनि, श्रमण आदि शब्दों का उल्लेख मिलता है, अपितु उसमें अर्हत् परम्परा उपास्थ वृषभ का भी शताधिक बार उल्लेख मिलता है।" ऋग्वेद में वृषभवाची 112 ऋचाएँ प्राप्त हुई हैं। यद्यपि यह कहना कठिन है कि इन समस्त ऋचाओं में प्रयुक्त वृषभ शब्द ऋषभदेव का ही वाची है। फिर भी कुछ ऋचाएँ तो अवश्य ऋषभदेव से सम्बद्ध ही मानी जा सकती हैं कि ऋग्वेद में जैनों के आदि तीर्थकर ऋषभदेव से सम्बद्ध निर्देश उपलब्ध होते हैं। 5 ऋग्वेद के अतिरिक्त यजुर्वेद, अथर्ववेद, और सामवेद में भी ऋषभदेव के अनेक बार उल्लेख मिलता है ।

भगवान शीतलनाथ -

जैन धर्म के दसवें तीर्थंकर शीतलनाथ भगवान हैं नौवें तीर्थंकर के तीर्थ के अन्त भाग में लाखों करोड़ों वर्षों तक धर्म का विच्छेदन हो गया तब असंख्य वर्ष पूर्व भरत क्षेत्र की भद्रिलापुरी नामक नगरी में भगवान शीतलनाथ का जन्म हुआ।" इनके पिता का नाम दशरथ और माता का नाम सुनन्दा थी। माघकृष्ण द्वादशी के दिन पूर्वाषाढ़ नक्षत्र में भगवान शीतलनाथ का जन्म हुआ। पुष्पदंत स्वामी के मोक्ष जाने के बाद नौ करोड़ सागर बीत जाने पर भगवान शीतलनाथ का जन्म हुआ । इनकी आयु एक लाख पूर्व की थी और शरीर नब्बे धनुष ऊँचा था । इनका शरीर स्वर्ण के समान उज्ज्वल पीत वर्ण का था। पौष चतुर्दशी के दिन उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गयी। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर ने रमवशरण की रचना की । इन्द्र की प्रार्थना से उन्होंने अनेक देशों में विहार कर संसार और मोक्ष का स्वरूप बताया उनके उपदेश के प्रभाव से लोगों के हृदयों से धर्म कर्म की शिथिलता इस तरह दूर हो गयी, जिस तरह सूर्य के प्रकाश से अंधकार दूर हो जाता है। उनके समवशरण में ऋद्धियों के और मनः पर्यय ज्ञान के धारक इक्यासी (81) गणधर थे । आयु के अन्त समय में श्री सम्वेद शिखर पर पहुँचे वहाँ एक महीने का योग निरोध कर अश्विन शुक्ल अष्टमी के दिन अधातियों कर्मों का नाश कर मोक्ष प्राप्त किया ।

पाश्र्वर्ननाथ

जौन श्रुतियों के अनुसार 23 वें तीर्थाकर पाश्र्वनाथ बनारस के राजा अश्वसेन एवं रानी वामा के पुत्र थे। उनका काल महावीर स्वामी से 250 वर्ष पहले माना जाता हैं। उन्होंने 30 वर्ष की आयु में सिंहासन का परित्याग कर दिया और सन्यासी हो गए। 83 दिन की घोर तप्स्या के बाद इन्हें ज्ञान की प्राप्ति हुई। जैन श्रुतिओं के अनुसार इन्होंने 70 वर्ष तक धर्म का प्रचार किया। पाश्र्वनाथ ‘पदार्थ’ की अन्नतता में विश्वास करते थे। इनके अनुयायियों को निगर््रथ कहा जाता था।  पाश्र्वनाथ के समय में निर्ग्रंथ संप्रदाय सुसंगठित था। निर्ग्रंथ के चार गणों (संघो) मे से प्रत्येक गण एक गणधर के अंतर्गत था। पाश्र्वनाथ भी वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड तथा देववाद के कुट आलोचक थे। इन्होंने जाति प्रथा पर भी प्रहार किया। प्रत्येक व्यक्ति को ये मोक्ष का अधिकारी मानते थे चाहे वह किसी जाति का हो। नारियों को भी इन्होंने अपने धर्म में प्रवेश दिया था। उनकी मूल शिक्षा थी प्राणियों की हिंसा न करना, सदा सत्य बोलना, चोरी न करना तथा संपति न रखना । महावीर स्वामी के माता-पिता की पाश्र्वनाथ के अनुयायी थे।

महावीर स्वामी

महावीर स्वामी का मूल नाम वर्धमान था। इनका जन्म वैशाली के पास कुड़ीग्राम में जातृक नामक कुल के राजा सिद्धार्थ के घर 540 ई0पू0 हुआ। इनकी माता त्राीशला लिच्छवी राजा गणराज्य के मुखिया चेटक की पुत्री थी। महावीर का बचपन एक राजकुमार का रहा तथा हर प्रकार की सुविधाओं से पूर्ण था। इनकी पत्नी का नाम यशोदा तथा पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। 30 वर्ष की आयु तक इनके माता-पिता की मृत्यु हो चुकी थी एवं महावीर स्वामी गृहस्थ जीवन से ऊब चुके थे। 

फलत: इन्होंने परिवार के सभी सदस्यों के समक्ष घर त्यागने का प्रस्ताव रखा जो अन्नत: स्वीकार कर लिया गया तथा इन्होंने अपने बडे़ भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर घर त्याग दिया। पहले उन्होंने एक वस्त्र धारण किया और फिर उसका भी तेरह मास के उपरान्त परित्याग कर दिया तथा बाद में ‘नग्न भिक्षु’ की भान्ति भ्रमण करने लगे। 

घोर तपस्या करते हुए 12 वर्ष तक एक सन्यासी का जीवन व्यतीत किया। लोगों ने उन पर पत्थर फैंके तथा कुते छोड़े, लेकिन महावीर स्वामी अपने तप मार्ग पर अटल रहे। अपनी तपस्या के 13वें वर्ष में, 42 वर्ष की आयु में आधुनिक बिहार में ऋृजुपालिका (केवालिन) नदी के तट पर जम्भिभय ग्राम (जृम्भिका ग्राम) में उन्हें ज्ञान केवलिन की प्राप्ति हुई। बाद में उनकी प्रसिद्धि “महावीर (सर्वोच्च यौद्धा)” या “जिन” (विजयी) के नामों से हुई। उनको “निग्रंथ” (बन्धनों से मुक्त ) के नाम से भी जाना जाता था।

अगले 30 वर्षो तक वह एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण करते रहे और कोसल, मगध तथा अन्य पूर्वी क्षेत्रों में अपने विचारों का प्रचार किया। वह एक वर्ष में आठ माह विचरन करते थे और वर्षा ऋतु के चार माह पूर्वी भारत के किसी प्रसिद्ध नगर में व्यतीत करते। इनकी पत्नी यशोदा, पुत्री प्रियदर्शनी, दामाद जमाली के अतिरिक्त इनके शिष्यों में वैशाली का शासक चेटक, अवन्ति का शाशक प्रद्योत, मगध नरेश बिम्बिसार, कौशाबी व वैशाली के मतल शासक अपने परिवारों सहित थे। 

महावीर स्वामी के पश्चात् जैनधर्म

महावीर के पश्चात् प्रधान गणधर जैनसंघ के नायक गौतम हुये। प्रारम्भ में गणधर गौतम वेद-वेदान्तों के ज्ञाता प्रकाण्ड ब्राह्मण पंडित थे। महावीर स्वामी के निर्वाण के दिन ही इन्हें सायंकाल में कैवल्य प्राप्त हुआ, उसके बाद आचार्य सुधर्मा को कैवल्य (ज्ञान) प्राप्त हुआ । 22 वर्षों तक उन्होंने संघ का नेतृत्व किया। उसके बाद जम्बू स्वामी ने संघ का नेतृत्व किया। इन्होंने 39 वर्षो तक जैन धर्म की प्रभावना की। चंपानगरी के श्रेष्ठी के पुत्र थे और महावीर स्वामी से प्रभावित थे । अन्त में मथुरा चौरासी नामक स्थान पर उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया। इनके पश्चात् क्रमशः विष्णु कुमार, नंदि पुत्र अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँच श्रुत केवली हुए जिनके नेतृत्व में संघ चला। इन पाँचों का कालयोग सौ वर्ष होता है। इन्हें सम्पूर्ण श्रुत का ज्ञान था इनमें अंतिम श्रुत केवली भद्रबाहु का जैन धर्म के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। इनके पूर्व सम्पूर्ण जैन संघ अखण्ड और अविभक्त था लेकिन इनकी मृत्यु के बाद साधुओं में मतभेद गणभेद आदि प्रारम्भ हो गया तथा यहीं से दिगम्बर एवं श्वेताम्बर मत का प्रारम्भ हुआ ।

श्वेताम्बर सम्प्रदाय का प्रादुर्भाव

मगध राज्य में जो भयंकर दुर्भिक्ष भद्रबाहु के समय में पड़ा उसने साधुओं के संघ में मतभेद को जन्म दिया। निग्रन्थ मान्यता के अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त के समय में बारह वर्ष का अकाल पड़ा उस समय जैन साधुओं की संख्या बहुत ज्यादा थी । आचार्य भद्रबाहु ने भावी संकट को जानकर सम्पूर्ण संघ को दक्षिण भारत की ओर विहार करने का आदेश दिया। सम्राट चन्द्रगुप्त भी संघ के साथ प्रस्थान कर गये। अपनी मृत्यु निकट जान आचार्य भद्रबाहु भी कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में कटवप्र नाम के पहाड़ी पर रूक गये तथा संघ को चोल, पाण्डय आदि प्रदेशों में जाने का आदेश दिया फिर उन्होंने समाधि मरणपूर्वक देह त्याग दिया। मुनि चन्द्रगुप्त ने भी इसी स्थान पर तपस्या की जिसके कारण इस पहाड़ी का नाम चन्द्रगिरि पड़ गया। इसी स्थान पर छठी शताब्दी का एक लेख प्राप्त हुआ है जिसके आधार पर विद्वानों ने चन्द्रगुप्त को जैन मुनि होना निर्विवाद रूप से स्वीकार किया गया है।

आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में मुनियों का एक संघ उत्तर भारत में ही रूक गया था। अकाल के दुर्दिनों में भी अपनी कठोरचर्या, नियम-संयम, आचार-विचार को आगम के अनुसार सुरक्षित नहीं रख सके, जिसके फलस्वरूप संघ के मुनि, वस्त्र, पात्र आवरण आदि का प्रयोग करने लगे । इस प्रकार समय बीतने पर आचार्य स्थूलभद्र ने उनसे कहा कि "अपने कुत्सित आचरण को छोड़कर अपनी निन्दागर्हा पूर्वक फिर से मुनियों का श्रेष्ठ आचरण ग्रहण करो। किन्तु अनेक प्रयासों पर भी वे बीते हुए शिष्टाचार को रोक न सकें ।

अतः यहीं से जैन संघ दो भागों में बँटना प्रारम्भ हो गया। पहला संघ मूल आगम के अनुसार आचरण करने वाला था वह मूल आम्नाय कहलाया तथा दूसरा संघ शिथिलाचारी साधुओं का था जिसे आगे चलकर ई०सन् की प्रथम शताब्दी में श्वेताम्बर संघ कहा गया।

आरम्भ में शिथिलाचारी साधुओं ने अपनी नग्नता छिपाने के लिए एकमात्र खण्ड वस्त्र रखा जिसे वे अपनी कलाई पर लटका लेते थे इसलिए वे अर्द्धफलक कहलायें। मथुरा के कंकाली टीला से प्राप्त एक शिलापट्ट पर एक ऐसे ही साधु का चित्र अंकित है जो अपने हाथ पर वस्त्र लटकाये हुए है। उसका शेष शरीर नग्न है आगे चलकर इस वस्त्र को धागे द्वारा कटि में बाँधा जाने लगा फिर लंगोट का प्रयोग होने लगा। वस्त्रों के साथ पात्र आदि चौदह उपकरणों का भी विधान हो गया।" वस्त्रधारी साधु श्वेताम्बर और मूल आगम के अनुसार रहने वाले निर्वस्त्र साधु दिगम्बर कहलाये । वास्तव में इस विभाजन का मूल कारण साधुओं का वस्त्र परिधान था जो लोग साधुओं की नग्नता के पक्षपाती थे एवं महावीर के मूल आचारों को मानते थे वे दिगम्बर कहलाये इन्हें मूलसंघ नाम से भी जाना जाता है और जो लोग वस्त्र, पात्र का समर्थन करते थे, वे श्वेताम्बर कहलाये ।

श्वेताम्बर सम्प्रदाय में कुछ अन्य सम्प्रदाय हुये हैं ।

1. चैत्यवासी सम्प्रदाय - चैत्यवासी सम्प्रदाय की स्थापना संवत् 850 के लगभग हुआ । कुछ शिथिलाचारी मुनियों ने विहार को छोड़कर मंदिरों में रहना प्रारम्भ कर दिया, धीरे-धीरे इनकी संख्या बढ़ती गई। ये शास्त्र संग्रह के लिए आवश्यक धन भी रखने लगे और इसी धन के द्वारा निगम नामक शास्त्रों की रचना की । हरिचन्द्र सूरी ने प्रबोध प्रसंकरण में इन चैत्यवासी साधुओं की कड़ी आलोचना की है। समय-समय पर इन दोनों साधुओं के बीच शास्त्रार्थ एवं विवादों का उल्लेख मिलता है। 1 चैत्यवासी 45 आगमों को स्वीकार करते हैं। श्वेताम्बरों में जो जाति या श्री पूज्य' कहलाते थे, वे मठवासी या चैत्यवासी शाखा का एक अंग है तथा जो संवेगी मुनि कहलाते हैं वे वनवासी शाखा के हैं ।

2. स्थानक वासी - स्थानक सम्प्रदाय की स्थापना पन्द्रहवी शताब्दी में अहमदाबाद के मुनि ज्ञान श्री के शिष्य "लोकाशाह" द्वारा कही गयी। इस सम्प्रदाय के लोग मूर्ति पूजा एवं साधु समाज में प्रचलित आचार-विचार को आगम के विरूद्ध बताकर उनका विरोध किया और इसे लोकागच्छ नाम दिया गया। लोकागच्छ सम्प्रदाय के सभी अनुयायी इस सम्प्रदाय में सम्मिलित हो गये ये अपना धार्मिक क्रिया कर्म मंदिरों में न करके गुरूओं के निवास स्थान में करते थे इसलिए इन्हें स्थानकवासी कहा जाता है। इस सम्प्रदाय को साधुमार्गी सम्प्रदाय भी कहते हैं इस सम्प्रदाय में साधु श्वेत वस्त्र पहनते हैं तथा मुख पर पट्टी बाँधते हैं इस सम्प्रदाय में 32 आगमों की मान्यता है ।

3. तेरापंथी - स्थानक सम्प्रदाय के साधुओं में आगे चलकर कुछ शिथिलता आने लगी तथा भिक्षुओं के प्रति अनेक आचरण की शिथिलता के कारण श्रावकों में तीखी प्रतिक्रिया होने लगी एवं भिक्षुओं के प्रति श्रावकों की श्रद्धा भी डगमगाने लगी। विक्रम संवत् 1817 चैत्र शुक्ल नवमी के दिन पृथक संघ की स्थापना कर ली। इन आचार्य “भिक्षु” का जन्म सन् 1783 में कटालियाँ जोधपुर नगर में हुआ था। संघ की स्थापना के समय पर उनके साथ तेरह साधु और तेरह श्रावक थे इसी संख्या के आधार पर इस सम्प्रदाय का नाम तेरहपंथ पड़ा। स्थानक सम्प्रदाय की तरह इस सम्प्रदाय में भी 32 आगमों का उल्लेख किया गया है। इस सम्प्रदाय में एक ही आचार्य होते है और उसी का निर्णय अंतिम रूप में स्वीकार होता है।

इस प्रकार मूर्तिपूजन, मंदिरमार्गी, स्थानकवासी और तेरहपंथ नाम सम्प्रदायों में विभक्त श्वेताम्बर सम्प्रदाय भारत के विभिन्न भागों में फैल गया है। गुजरात, राजस्थान, और पंजाब में इसकी विशेष संख्या है। श्रुत परम्परा महावीर स्वामी के पश्चात् भी भारत से जैनधर्म लुप्त नहीं हुआ। महावीर स्वामी के पश्चात् भी उनकी वाणी का अनुसरण कर जैनधर्म कोअंगीकार किया। महावीर स्वामी के निर्वाण के बाद गौतम स्वामी, सुधर्माचार्य और जम्बू स्वामी ने बासठ् वर्षो तक धर्म का प्रचार किया। तत्पश्चात् पाँच श्रुत केवली हुये चौदह वर्षो तक आचार्य विष्णु ने सोलह वर्षो तक नंदिमित्र ने, बाईस वर्षो तक आचार्य अपराजित ने, उन्नीस वर्षों तक गोवर्धन ने उनतीस वर्षो तक आचार्य भद्रबाहु ने ज्ञानदीप प्रज्वलित किया ।

इनके बाद दस वर्षों तक दस पूर्वधारी विशाखाचार्य ने, उन्नीस वर्षो तक प्रोष्ठिलाचार्य ने, सत्रह वर्षो तक क्षत्रियाचार्य ने, इक्कीस वर्षों तक जयसेनाचार्य ने, अट्ठारह वर्षों तक घृतिसेनाचार्य ने, सत्रह वर्षों तक सिद्धार्थाचार्य ने, अट्ठारह वर्षो तक घृतिसेनाचार्य ने, तेरह वर्षो तक विषयाचार्य ने, बीस वर्षो तक बुद्धिलिंगाचार्य ने, चौदह वर्षों तक देवाचार्य ने चौदह वर्षों तक धर्मसेनाचार्य ने जैन धर्म का प्रचार किया। इस प्रकार एक सौ तेरासी (183) वर्षो तक दशपूर्वधारी धर्म का प्रचार–प्रसार करते रहे।

इसके बाद अट्ठारह वर्षों तक एक दशांग धारी नक्षत्राचार्य ने, बीस वर्षों तक जयपालाचार्य ने उन्तालीस वर्षों तक पाण्डवाचार्य ने, दस वर्षों तक ध्रुवसेनाचार्य ने एवं बीस वर्षो तक कंसाचार्य ने श्रुतज्ञान की ज्योति को प्रज्ज्वलित किया। तत्पश्चात् शुभचन्द्राचार्य ने छः वर्षो तक यशोभद्राचार्य ने अट्ठारह वर्षों तक, भद्रबाहु ने तेईस वर्षों तक तथा लोहाचार्य ने पचास वर्षों तक धर्म का प्रचार किया। इसके पश्चात् अट्ठाईस वर्षों तक एकांग के धारी अहिवत्याचार्य ने, इक्कीस वर्षों तक माधनवद्याचार्य, उन्नीस वर्षों तक धनसेनाचार्य ने श्रुतज्ञान को जीवित रखा ।

दिगम्बर सम्प्रदाय

भट्टारक पंथ प्रारम्भ में सभी जैन साधु वनों - उपवनों में रहते थे तथा वर्षा काल को छोड़कर शेष काल में वे एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। मात्र आहार के लिए ही साधु नगरों में थे। ये साधु अधिकांश समय मंदिरों में निवास करने लगे यह प्रवृत्ति दोनों सम्प्रदायों में एक साथ बढ़ी, जिसके फलस्वरूप श्वेताम्बर सम्प्रदाय में वनवासी एवं चैत्यवासी के रूप में मुनियों के दो भेद हो गये । दिगम्बर सम्प्रदाय में इस प्रकार का कोई उल्लेख नहीं मिलता फिर भी उनमें चैत्यवास की प्रवृत्ति चली थी। प्रारम्भ में चैत्यवास का प्रमुख उद्देश्य सिद्धान्त ग्रन्थों का पठन-पाठन एवं अध्ययन करना था। लेकिन बाद में जंगलों को छोड़कर ये नगरों में निवास करने लगे फिर भी इनकी मूलचर्या में कोई अन्तर नहीं आया। धीरे-धीरे शिथिलाचार बढ़ता रहा और परिस्थितियों तथा मनुष्य की स्वाभाविक दुर्बलताओं से उन्हें प्रोत्साहन मिला। आने वाले समय में मुनियों को वनवास छोड़कर जिन मंदिरों में रहने का विचार बतलाया गया है इसे ही चैत्यवास कहते हैं । ये ही आगे चलकर भट्टारक सम्प्रदाय (पंथ) के जनक बने इनके कारण अनेक मन्दिरों भट्टारकों की गद्दियाँ एवं मठ स्थापित हो गये तथा इनमें चैत्यवासी साधु मठाधीश बनकर स्थायी रूप से रहने लगे। परिग्रह एवं उपभोग के साधनों के प्रति उनका झुकाव बढ़ता चला गया श्वेताम्बर सम्प्रदाय में यह प्रवृत्ति पहले से ही पायी जाती थी परन्तु अब दिगम्बर सम्प्रदाय का यह वर्ग वस्त्र की ओर आकृष्ट होने लगा। इसका प्रारम्भ बसंतकीर्ति द्वारा मांडव दुर्ग (मांडलगढ़ राजस्थान) में किया गया।

भट्टारक प्रथा भी लगभग यही से आरम्भ हुआ, दिगम्बर भट्टारक नग्न रूप को पूज्य मानते थे और दिगम्बर मूर्तियों का ही निर्माण कराते थे। साथ ही दिगम्बर मुद्रा भी धारण करते थे। ये मठाधीश बनकर रहते थे तथा वहीं से तीर्थों एवं मठों की समस्त गतिविधियों का संचालन करते थे।

विभिन्न विचारकों ने भट्टारक सम्प्रदाय को एक स्वतंत्र सम्प्रदाय मानते थे। भट्टारक वस्त्र स्वीकार करने के बाद भी दिगम्बर मुद्रा को ही अपना आदर्श मानते थे स्वयं को मुनि की जगह भट्टारक कहने का भी यही कारण था।
वस्तुतः भट्टारक परम्परा मध्यकाल में मुगलों के बढ़ते प्रभाव एवं बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों का परिणाम था । ऐसी परिस्थितियों के कारण एक नये मार्ग का प्रवर्तन करना पड़ा, यद्यपि भट्टारकों के आधार में कुछ शिथिलता अवश्य आयी दूसरी ओर इससे बड़ा लाभ यह हुआ इन भट्टारकों ने अनेक शास्त्र भण्डारों से युक्त विद्या केन्द्र स्थापित किये मध्यकालीन साहित्य का सृजन प्रायः इन्हीं केन्द्रों से हुआ । इसी कारण भट्टारक पंथ सभी प्रमुख नगरों में स्थापित हो गया। भट्टारक युग में प्रतिलिपि कराये गये अनेक प्राचीन ग्रन्थ जयपुर, जैसलमेर, कारंजा, श्रवणबेलगोला, मूडबद्री, कोल्हापुर आदि के बड़े-बड़े शास्त्र भण्डारों में सुरक्षित है। दक्षिण भारत के कुछ स्थानों पर ही भट्टारक गद्दियाँ (मठ) शेष रह गये हैं वर्तमान में भट्टारकों का अभाव हो गया है।

तेरह पंथ और बीस पथ -  भट्टारक युग में शिथिलचार के विरूद्ध दिगम्बर सम्प्रदाय में एक नये पंथ का उदय हुआ जिसे तेरह पंथ कहा जाता है। इस पंथ का उदय विक्रम की सत्रहवीं सदी में पं० बनारसी दास जी द्वारा आगरा मे हुआ। जब यह पंथ तेरह पंथ के नाम से प्रचलित हो गया तो भट्टारकों का पुराना पंथ बीस पंथ कहलाने लगा किन्तु ये नाम कैसे पड़ा ? इस सम्बन्ध में पं० जगमोहन लाल जी की यह उपपत्रि कुछ हद तक ठीक है । इनके अनुसार उस समय देश में भट्टारक की बीस प्रमुख गद्दियाँ थीं। इन्हें अपना गुरू मानने वाले बीस पंथी कहलाये तथा जो तेरह प्रकार के चरित्र का पालन करने वाले शुद्धचारी मुनियों के उपासक थे वे तेरहपंथी कहलाये ।

वस्तुतः तेरह पंथ और बीस पंथ मतों में कोई खास अन्तर नहीं है मात्र पूजा पद्धति में ही अंतर है। बीसपंथी भगवान की पूजा में हरे फल-फूल आदि चढ़ाते हैं जबकि तेरहपंथी चावल आदि सूखे पदार्थ ही चढ़ाते हैं उत्तर भारत में इस पथ का उदय हुआ।

तारण पंथ -  मुस्लिम आक्रान्ताओं के आक्रमण के फलस्वरूप जैन मूर्तिकला और स्थापत्य को नष्ट किया और उसी समय एक तारण तरण नाम के व्यक्ति आगे चलकर संत तारण स्वामी के नाम से विख्यात हुआ । इस पंथ का जन्म मूर्तिपूजा के विरोध में हुआ। संत तारण तरण के द्वारा प्ररूपित होने के कारण यह पंथ तारण तरण पंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । संत तारण तरण ने चौदह ग्रन्थों की रचना की । ये पंथ मूर्तिपूजा में विश्वास नहीं करते थे, ये अपने चौत्यालयों में विराजमान शास्त्रों की पूजा करते हैं यहाँ संत तारण तरण स्वामी द्वारा रचित ग्रन्थों के अतिरिक्त दिगम्बर जैनाचार्य के ग्रन्थों को मान्यता प्राप्त हैं । ये दिगम्बर मुनियों को ही अपना आदर्श गुरू मानते थे संत तारण तरण स्वामी का प्रभाव मध्य प्रदेश के कुछ भागों तक सीमित रहा है। दिगम्बर पंथ में पंथ-भेद होने के कारण भी उनमें किसी भी प्रकार की विद्वेष नहीं है सब एक-दूसरे से घुले-मिले हैं। इनकी आचार परम्परा भी लगभग एक सी हैं सभी दिगम्बर प्रतिमा तथा तीर्थों को आदर्श मानते हैं तथा दिगम्बर गुरुओं की उपासना करते हैं। इसमें मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक में दिगम्बर जैन के प्रमुख स्थल हैं। इसके अलावा बिहार, पश्चिम बंगाल, असम, गुजरात में भी दिगम्बर जैनो की काफी संख्या है।

जैन धर्म के त्रिरत्न सिद्धांत

जैन दर्शन में 18 पाप (वर्जित कार्य) बताये गये हैं- (1) हिंसा ( 2 ) झूठ (3) चोरी (4) कुशील (मैथुन) ( 5 ) परिग्रह (6) क्रोध (7) मान (8) माया (9) लोभ (10) मोह (राग) ( 11 ) द्वेष ( 12 ) कलह ( 13 ) दोषारोपड़ (14) चुगली (15) असंयम में ( 16 ) रति और संयम में अरति ( 16 ) पर - परिपाद ( 17 ) माया - मोह (18) मिथ्या दर्शन रूपी शल्य । इनसे बचने के लिए निम्नलिखित तीन आदर्श वाक्यों को जीवन में अपनाना अनिवार्य है। यही आदर्श वाक्य त्रिरत्न के नाम से जाने जाते है।
  1. सत्य विश्वास- मनुष्य का अपने ऊपर तथा जैन मत के सभी तीर्थकरों पर विश्वास होना चाहिए। 
  2. सत्य ज्ञान - मनुष्य का ज्ञान मिथ्या पर आधारित न होकर सत्य की खोज की ओर होना चाहिए। 
  3. सत्य कर्म - मनुष्य का कर्म महाव्रतों पर आधारित होना चाहिए, उसे ऐसा कुछ नही करना चाहिए जो वह अपने लिए नही चाहता।
इन पापों में जो भी जीव चाहे वह जैन हो या जैनेत्तर मन, वचन, काय पूर्वक त्याग कर अग्रसर होता है वह मोक्ष मार्ग का अनुसरण करता है । जैन दर्शन में मोक्ष को ही सर्वोच्च सुख माना है।

जैन धर्म के पांच महाव्रत या अणुवृत

संसार में दुःख ही दुःख है और यदि सुख भी मोक्ष को छोड़कर अन्यत्र कहीं है तो वह स्वर्ग में है, जैन दर्शन में क्षणिक माना गया है परन्तु यदि शाश्वत और अविनश्वर सुख है तो वह मोक्ष ही है और इसे पाने हेतु मुनि अवस्था को धारण करना पड़ता है ।

जैन दर्शन में मुनियों के लिए अट्ठाईस मूल गुणों का वर्णन किया गया है इनमें से यदि एक भी मूलगुण का पालन नहीं किया जा सकता तो इसे मुनि नहीं कहा जा सकता है। ये अट्ठाईस मूलगुण निम्न हैं- पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रिय निरोध, छः आवश्यक, सात शेष गुण ( अदन्त धावन, अस्नान, भू-शयन, स्थिति भोजन, एकभुक्ति, केशलोंच और नग्नता । 
  1. अहिंसा :- यह जैन धर्म का सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत है, जिसका संबंध मन, वचन व कर्म तीनों से है। जैन धर्म के अनुसार सभी जीवन समान है। किसी जीव को मारने या हानि पहुंचाने का विचार मन मे उत्पन्न होना भी हिंसा हैं। किसी को छेड़ना, चिढ़ाना, कठोर शब्द बोलना, मारना या पीड़ा देना भी हिंसा का ही रूप है। पैदल चलने या भोजन करने से भी किसी जीव की हत्या नहीं होनी चाहिए।
  2. अमृषा (सत्य वचन) :- मनुष्य के वचन सदा सत्य एवं मधुर होने चाहिए। सत्य बोलने से आत्मा शुद्ध होती है। क्रोध व मोह की स्थिति में मनुष्य को मौन रहना चाहिए।
  3. अस्तेयेय (चोरी न करना) :- चोरी करना पाप है तथा असत्य भी, बिना किसी की अनुमति के किसी की वस्तुओं का संग्रह अनुचित है। यह संग्रह मोह-माया को बढ़ाता है। यह दूसरे अर्थो में हिंसा भी है।
  4. अपरिग्रह (संग्रह न करना):- जैन धर्म भौतिक वस्तुओं का त्याग व सम्पति का संग्रह न करने पर बल देता है।
  5. बह्म्मचार्य:- मनुष्य को भोग वासना से दूर रहकर संयमपूर्ण जीवन व्यतीत करना चाहिए।

जैन धर्म का विस्तार 

महावीर स्वामी ने अपने संघो को ग्यारह गणों में बांटा तथा पावा में चर्तुविध संघ की स्थापना की। महावीर के ग्यारह शिष्य थे जिनको गन्धर्व था सम्प्रदायों का प्रमुख कहा जाता था। आर्य सुघर्मा अकेला ऐसा गन्धर्व था जो महावीर की मृत्यु के पश्चात भी जीवित रहा और जो जैन धर्म का प्रथम ‘थेरा’ या मुख्य उपदेशक हुआ। राजा नंद के काल में जैन धर्म के संचालन का कार्य दो ‘थेरो’ (आचार्यो) द्वारा किया जाता था:- (i) सम्भूताविजय और (ii) भद्रबाहू (i) छठे थेरा (आचार्य) भद्रबाहू, मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के समकालिन थे। धीरे-धीरे महावीर के समर्थक सारे देश में फैल गए। जैन धर्म को शाही संरक्षण की कृपा भी रही। 

जैन अनुश्रुतियों के अनुसार, अजातशत्रु का उत्तराधिकारी उदयन, जैन धर्म का अनुयायी था। सिकन्दर के भारत पर आक्रमण के समय जैन भिक्षुकों को सिन्धु नदी के किनारे भी पाया गया था। चन्द्रगुप्त मौर्य जैन धर्म का अनुयायी था। और उसने भद्रबाहू के साथ दक्षिण की और प्रवास किया तथा जैन धर्म का प्रचार किया। पहली सदी. ई0 में मथुरा एवं उज्जैन जैन धर्म के प्रधान केन्द्र बन गए।

बौद्ध धर्म की तुलना में जैन धर्म की सफलता शानदार थी। इसकी सफलता का एक मुख्य कारण था कि महावीर एवं उसके अनुयायियों ने संस्कृत के स्थान पर लोकप्रिय भाषा (प्राकृत, धार्मिक साहित्य को अर्ध-मगधी में लिखा गया) का प्रयोंग किया। जनता के लिए सरल एवं घरेलू निर्देशों ने लोगों को आकर्षित किया।

जैन सभाये

चन्द्र गुप्त मौर्य के शासन की समाप्ति के समीप दक्षिण बिहार में भयंकर अकाल पड़ा। यह बाहरह वर्षो तक चला। भद्रबाहू और उनके शिष्यों ने कर्नाटक राज्य में श्रावण बेल गोला की और विस्थापन किया। अन्य जैन मुनि स्थूलबाहुभद्र के नेतृत्व में मगध में ही रह गए। उन्होंने पाटलीपुत्र में 300 ई0पू0 के आस-पास सभा का आयोजन किया। इस सभा में महावीर स्वामी की पवित्रा शिक्षाओं को 12 अंगों में विभाजित किया गया।

दूसरी जैन सभा का आयोजन 512 ई0 में गुजरात में वल्लभी नामक स्थान पर देवर्धिमणी क्षमा श्रमण की अध्यक्षता में किया गया। इसका मुख्य उदेश्य धार्मिक शास्त्रों को एकत्रा एवं उनकों पुन: क्रम से संकलित करना था। किन्तु प्रथम सभा के संकलित बारहवां अंग इस समय खो गया था। शेष बचे हुए अंगो की अर्धमगधी में लिखा गया।

2. सम्प्रदाय -

जैन धर्म में फूट पड़ने का समय लगभग 300 ई0पू0 माना जाता है। महावीर के समय में ही एक वस्त्र धारण करने को लेकर मतभेद स्पष्ट होने लगे थे। श्रावण बेल गोल से मगध वापस लौटने के बाद भद्रबाहु के अनुयायियों ने इस निर्णय को मानने से इन्दकार कर दिया कि 14 पर्व खो गए थे। मगध में ठहरने वालों तथा प्रस्थान करने वालों में मतभेद बढते ही गए। मगध में ठहरने वाले सफेद वस्त्रों को धारण करने के अभ्यस्त हो चुके थे और महावीर की शिक्षाओं से दूर होने लगे जबकि पहले वाले नग्न अवस्था में रहते और कठोरता से महवीर की शिक्षाओं का अनुसरण करते। जैन धर्म का प्रथम विभाजन दिगम्बर (नग्न रहने वालों) और श्वेताम्बर (सफेद वस्त्र धारण करने वालो) के बीच हुआ। अगली शताब्दियों में पुन: दोनों सम्प्रदायों में कई विभाजन हुए। इनमें महत्वपूर्ण वह सम्प्रदाय था जिसने मूर्ति-पूजा को त्याग दिया और ग्रंथो की पूजा करने लगे। वे श्वेताम्बर सम्प्रदाय में “तेरापन्थी” कहलाये और दिगम्बर सम्प्रदाय में समवास कहलाये। यह सम्प्रदाय छठीं ईसवीं में अस्तित्व में आया।

जैन धर्म का प्रसार

महावीर ने अपने अनुयायियों की धार्मिक विधि को व्यवस्थित किया । जैन धर्म की शिक्षाओं के प्रसार के लिये दक्षिणी और पूर्वी भारत में भेजे गये । बाद की जैन परम्परा के अनुसार, चन्द्रगुप्त मौर्य ने कर्नाटक के बीच धर्म के प्रसार में मदद की । उन्होंने अपनी गद्दी त्याग दी और अपने जीवन के अन्तिम पांच वर्ष सन्यासी के रूप में कर्नाटक में बिताये । लेकिन यह परम्परा किसी अन्य स्त्रोत द्वारा प्रमाणित नहीं है ।

दक्षिण भारत में जैन धर्म के प्रसार का अन्य कारण महावीर की मृत्यु के 200 वर्षो बाद मगध में फैला भयंकर आकाल फैलाया । यह आकाल 12 वर्षो तक रहा और इसने अनेक जैनियों को दक्षिण की ओर जाने पर मजबूर किया । बासदी नामक मठ सम्बन्घी अनेक संस्थाएॅं कर्नाटक में फैल गई और अप्रवासी सैनिकों ने जैन धर्म के प्रसार में मदद की । जब अकाल खत्म हो गया, तो अनेक जैनी लौट आये, जहां स्थानीय जैनियों से उनके कुछ मतभेद हो गये । मतभेदों को दूर करने के लिए पाटलिपुत्र में एक संयुक्त गोष्ठी आयोजित की ।

जैन धर्म कलिंग में फैला और फिर तमिलानाडु पहुंचा । धीरे-धीरे यह राजस्थान, मालवा और गुजरात में भी फैला । यह व्यापारी समुदाय में लोकप्रिय हो गया । अहिंसा पर बहुत अधिक बल होने से किसान जैन बनने से हतोत्साहित हुए, क्योंकि खेती-बाड़ी में कुछ कीटों को मारना आवश्यक होता है । जैन धर्म कर्म के परिणामों में विश्वास रखता है । यह सद्व्यवहार और नैतिकता पर बल देता है तथा अहिंसा, सच्चाई और संयम का उपदेश देता है ।

संदर्भ-
  1. मुनि प्रमाण सागर जी जैन धर्म एवं दर्शन, पृ0–25, 1998 2-
  2. तीर्थंकर महावीर एवं उनकी देशना, पृ0-3 जैन बालचंद, जैन प्रतिमा विज्ञान, पृ० - 30
  3. तीर्थंकर महावीर एवं उनकी आचार्य परम्परा, पृ0 - 5, 

3 Comments

  1. जैनधर्म और मातंग धर्म कि जाणकारी मिलेगी क्या?

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  2. Thank you for sharing this blog with us. You may also visit here History of Jain dharm

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