लेखांकन का सैद्धांतिक आधार
लेखा पुस्तकों को तैयार करने तथा बनाएँ के लिए कुछ नियम एवं सिद्धांत विकसित किये गय है। इन नियम /सिद्धांत को अवधरणाएँ एवं परिपाटियाँ वर्गो में बाँटा जा सकता है। लेखांकन अभिलेखों को तैयार करने एवं रखने के यह आधार है। इसमें हम विभिन्न अवधारणाओं, उनके अर्थ एवं उनके महत्व को पढेग़े ।व्यवसायिक लेन-देना का हिसाब रखने का इतिहास बहतु पुराना हैं समय-समय पर अलग-अलग देशों में विद्वान लेखापालकों ने लेखांकन के क्षेत्र में अनेक प्रथाओं एवं परम्पराओं को जन्म दिया है। तथा अपने-अपने ज्ञान, प्रयोगों व अनुभावों के आधार पर लेखांकन सिद्धांतों को प्रतिपादित भी किया है। किन्तु ये सिद्धांत विश्वव्यापी नहीं है। यही कारण है कि आज भी व्यावसायक सौदों का हिसाब रखे की विधियों का भिन्नता है किन्तु फिर भी लेने-देनों का लेखांकन करने के लिए अनेक तर्कसंगत ऐसे विचार है जिन्है। बिना प्रमाण के ही स्वीकार कर लिया गया है।
अत: लेखांकन की मान्यताओं का लेखांकन की अवधारणाओं से तात्पर्य विभिन्न व्यावसायिक सौदा को लिखने हेतु व्यक्त किये गए तर्कसंगत विचारों से है जिन्हें बिना प्रमाण के ही स्वीकार कर लिया गया है।
इ.एल. कोलहर के शब्दों में, कोई निश्चित विचार जो क्रमबद्धीकरण का कार्य करता है, अवधारणा कहलाता है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि लेखांकन की मान्यताओं या अवधारणों में व्यावसायिक लेन-देनों का लेखांकन करने के लिए उन सभी स्वीकृत तथ्यों, विचारों तथा कल्पनाओं को शामिल किया जाता है जिनसे लेखांकन सिद्धांतों को प्रतिपादित करना संभव हुआ है। लेखांकन की प्रमुख मान्यताओं का वर्णन निम्नानुसार है।
अर्थ एवं व्यावसायिक इकाई अवधारणा
आइए एक उदाहरण लें। भारत में एक मूलभूत नियम हे जिसे सभी को पालन करना होता है और वह है कि प्रत्येक व्यक्ति को सड़क पर अपने बाए ओर चलना है अथवा अपने वाहन को चलाना है। इसी प्रकार से कुछ नियम हैं जिनका एक लेखांकार को व्यावसायिक लेने देनों के अभिलेखन एवं खातों को बनाते समय पालन करना होता है। इन्हें हम लेखांकन अवधारणा कह सकते हें अत: हम कह सकते हैं।लेखांकन अवधारणा से अभिप्राय उन मूलभूत परिकल्पनाओं एवं नियमों तथा सिद्धांतों से है जो व्यावसायिक लेने देना एवं अभिलेखन एवं खाते तैयार करने का आधार होते है ।
मुख्य उद्देश्य लेखांकन अभिलेखों में एकरूपता एवं समरूपता बनाए रखना है । यह अवधरणाएँ को वर्षों के अनुभव से विकसित किया गया है, इसलिए यह सार्वभौमिक नियम है। नीचे विभिन्न लेखांकन अवधारणाएँ दी गई है। जिनका आगें के अनुभवों में वर्णन किया गया है।
- * व्यावसायिक इकाई अवधारणा
- * मुद्रा माप अवधारणा
- * चालू व्यापार अवधारणा
- * लेखांकन अवधि अवधारणा
- * लेखांकन लागत अवधारणा
- * द्विपक्षीय अवधारणा
- * वसूल अवधारणा
- * उपार्जन अवधारणा
- * मिलान अवधारणा
माना वह 5000 रू. नकद तथा 5000 रू. की वस्तुएँ व्यापार से घरेलु खर्चे के लिए ले जाता है। स्वामी द्वारा व्यवसाय में से रोकड़ /माल को ले जाना उसका निजी व्यव है। यह व्यवसाय नहीं है। इसे आहरण कहते हैं। इस प्रकार व्यावसायिक इकाई की अवध् ाारणा यह कहती है कि व्यवसाय और उसके स्वामी अपने लिएअथवा अपने परिवार के लिए व्यवसाय में से कोई खर्च करता है। तो इसे व्यवसाय का खर्च नहीं बल्कि स्वामी का खर्च माना जाएगा तथा इसे आहरण के रूप में दिखाता जाएगा।
नीचे दिए गए बिन्दु व्यावसायिक इकाई की अवधारणा के महत्व पर प्रकाश डालते है :
- यह अवधारणा व्यवसाय के लाभ के निर्धारण में सहायक होती है। क्योकि व्यवसाय में केवल खर्चों एवं आगम का ही लेखा किया जाता है तथा सभी निजी एवं व्यक्तिगत खर्चों की अनदेखी की जाती है ।
- यह अवधारणा लेखाकारों पर स्वामी की निजी/व्यक्तिगत लेन देना के अभिलेखन पर रोक लगाती है ।
- यह व्यापारिक दृष्टि से व्यावसायिक लेन-देनों के लेखा करने एवं सूचना देने के कार्य को आसान बनाती है।
- यह लेखांकन, अवधारणों परिपाटियों एवं सिद्धांतों के लिए आधार का कार्य करती है।
इस अवधारणा का एक पहलू यह भी है कि लेन-देनों का लेखा-जोखा भौतिक इकाइयों में नही बल्कि मुद्रा इकाइयों में रखा जाता है। उदाहरण के लिए माना 2006 के अंत में एक संगठन के पास 10 एकड़ जमीन पर एक कारखना है, कार्यालय के लिए एक भवन है जिसमें 50 कमरे हैं 50 निजी कम्प्यूटर है, 50 कुर्सी तथ मेजे हैं 100 कि.ग्रामकच्चा माल है। यह सभी विभिन्न इकाइयों में दर्शाये गए हैं। लेकिन लेखांकन में इनका लेखा-जोखा मुद्रा के रूप में अर्थात् रूपयों में रखा जाता है। इस उदाहरण में कारखानों की भूमि की लागत 12 करोड़ रूपए, कार्यालय के भवन की 10 करोड़ रू. कम्प्यूटरों की 10 लाख रू. कार्यालय की कुर्सी तथा मेजों की लागत 2 लाख रू. तथा कच्चे माल की लागत 30 लाख् रू. है। इस प्रकार से सगं ठन की कुल परिसंपत्तियों का मूल्य 22 करोड 2 लाख् रूपया है। इस प्रकार से लेखा पुस्तकों में कवे ल उन्ही लेन-देन का लेखाकंन किया जाता है जिन्है। मदु ा्र में दशार्य ा जा सके वह भी केवल मात्रा में मुदा्र मापन की अवधारणा यह स्पष्ट करती है कि मुद्रा ही एक ऐसा मापदण्ड है जिसमें हम व्यवसाय में खरीदी गई वस्तुओं, सम्पत्तियों, व्यवसाय के देनदारों-लेनदारों, समय समय पर प्राप्त होने वाली आय व किये जाने वाले व्ययों का योग लगा सकते है तथा व्यवसाय के सम्पूर्ण हिसाब को सर्वसाधारण के समझ के अनुसार रख सकते है।
मुद्रा माप अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओ के द्वारा दर्शाया गया :
- यह अवधारणा लेखाकारों का मार्गदर्शन करती है कि किसका लेखा किया जाए और किसका नहीं ।
- यह व्यावसायिक लेन-देनों के अभिलेखन में एकरूपता लाने में सहायक होता है ।
- यदि सभी व्यावसायिक लेन-देनों को मुद्रा में दर्शाया जाता है तो व्यावसायिक इकाई ने जो खाते बनाए हैं उन्हें समझना आसान होगा ।
- इससे किसी भी फर्म के दो भिन्न अवधियों के और दो भिन्न फमोर्ं के एक ही अवधि के व्यावसायिक निष्पादन की तुलना करना सरल हो जाता है ।
चालू व्यापार अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओं के द्वारा दर्शाया गया :
वर्ष का प्रारम्भ आदि 1 जनवरी से होता है तथा 31 दिसम्बर को समाप्त होता है तो यह केलेण्डर वर्ष कहलाता है। वर्ष यदि 1 अप्रैल को प्रारम्भ होता है तथा अगले वर्ष में 31 मार्च को समाप्त होता है तो वित्तीय वर्ष कहलाता है ।
लेखा अवधि अवधारणा के अनुसार लेखा-पुस्तकों में लेन-देनों का लेखा एक निश्चित अवधि को ध्यान में रखकर किया जाता है। अत: इस अवधि में खरीदी बेची गई वस्तुओं का भुगतान, किराया वेतन आदि का लेखा उस अवधि के लिए ही किया जाताहै ।
- इस अवधारणा की सहायता से वित्तीय विवरण तैयार किए जाते हैं ।
- इस अवधारणा के आधार पर स्थायी सम्पत्तियों पर अवक्षयण लगाया जाता है।
- इसस े निवेशकों को बड़ी सहायता मिलती है क्योकि यह उन्हें विश्वास दिलाया है कि उनको उनके निवेश पर आय प्राप्त होती रहेगी ।
- इस अवधारणा के न होने पर स्थायी सम्पत्तियों की लागत को उनके क्रय के वर्ष में व्यय माना जाएगा ।
- व्यवसाय का आकलन भविष्य में उसकी लाभ अर्जन क्षमता से किया जाता है।
- व्यापार के माल और सम्पत्ति तथा हिसाब-किताब के मूल्य के बारे में अनुमाननही लगाता ।
वर्ष का प्रारम्भ आदि 1 जनवरी से होता है तथा 31 दिसम्बर को समाप्त होता है तो यह केलेण्डर वर्ष कहलाता है। वर्ष यदि 1 अप्रैल को प्रारम्भ होता है तथा अगले वर्ष में 31 मार्च को समाप्त होता है तो वित्तीय वर्ष कहलाता है ।
लेखा अवधि अवधारणा के अनुसार लेखा-पुस्तकों में लेन-देनों का लेखा एक निश्चित अवधि को ध्यान में रखकर किया जाता है। अत: इस अवधि में खरीदी बेची गई वस्तुओं का भुगतान, किराया वेतन आदि का लेखा उस अवधि के लिए ही किया जाताहै ।
लेखांकन अवधि अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओं के द्वारा दर्शाया गया :
- यह व्यवसाय की भविष्य की संभावनाओं के पूर्वानुमान में सहायक होता है ।
- यह व्यवसाय की एक निश्चित समय अवधि की आय पर कर निर्धारण मे सहायक होता है।
- यह एक निश्चित अवधि के लिए व्यवसाय के निश्पादन मूल्याँकन एवं विष्लेशण करने में बैंक, वित्तीय संस्थान, लेनदार आदि की सहायता करता है ।
- यह व्यावसायिक इकाइयों को अपनी आय को नियमित मध्यान्तर पर लाभांश रूप में वितरण करने में सहायता प्रदान करता है ।
लेखांकन लागत अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओं के द्वारा दर्शाया गया :
द्विपक्षीय लेखांकन का आधारभूत एवं मूलभूत सिद्धांत है। यह व्यावसायिक लेन-देनों को लेखांकन पुस्तकों में अभिलेख्ति करने का आधार प्रदान करता है। इस अवध् ाारणा के अनुसार व्यवसाय के प्रत्येक लेन-देन का प्रभाव दो स्थानों पर पड़ता है अर्थात् यह दो खातों को एक-दूसरे के विपरीत प्रभावित करता है। इसीलिए लेन-देनों का दो स्थानों पर अभिलेखन करना होगा। उदाहरण के लिए मान नकद माल खरीदा। इसके दो पक्ष है :
उपर्युक्त लेखा सभीकरण के अनुसार व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ का मूल्य सदैव स्वामी एवं बाह्य लेनदारों की दावे की राशि के बराबर होता है। यह दावा पूँजी अथवा स्वामित्व पूँजी के नाम से जाना जाता है तथा बाह्य लोगों की दावेदारी को देयताएँ अथवा लेनदारों की पूँजी कहते है। द्विपक्षीय अवधारणा लेन-देन के दो पक्षों की पहचान करने में सहायक होती है जो लेखा पुस्तकों में लने -दने के अभिलेखन में नियमों को पय्र ोग करने मे सहायक होता है।द्विपक्षीय अवधारणा का प्रभाव है कि प्रत्येक लेन-देन का समपत्तियाँ एवं देयताओं पर समान प्रभाव इस प्रकार से पड़ता है कि कुल सम्पत्तियाँ सदा कुल देयताओं के बराबर होते है।आइए कुछ और व्यावसायिक लेन-देनों का उसके द्विपक्षीय रूप में विश्लेषण करे।
1. व्यवसाय के स्वामी ने पूँजी लगाई ।
- इस अवधारणा के अनुसार संपत्ति को उसके क्रय मूल्य पर दिखाया जाता है जिसको सहायक प्रलेखों से प्रमाणित किया जा सकता है ।
- इससे स्थायी सम्पत्तियों पर अवक्षयण की गणना करने में सहायता मिलती हैं ।
- लागत अवधारणा के परिणामस्वरूप सम्पत्ति को लेखा बहियों में नहीं दिखाया जाएगा यदि यवसाय ने इसको पा्रप्त करने के लिए कोई भुगतान नहीं किया है।
सम्पत्तियाँ =दायित्व + पूँजी या पूँजी = सम्पत्तियाँ - दायित्व
Assets =Liabilities + Capital = Assets – Liabilities
द्विपक्षीय लेखांकन का आधारभूत एवं मूलभूत सिद्धांत है। यह व्यावसायिक लेन-देनों को लेखांकन पुस्तकों में अभिलेख्ति करने का आधार प्रदान करता है। इस अवध् ाारणा के अनुसार व्यवसाय के प्रत्येक लेन-देन का प्रभाव दो स्थानों पर पड़ता है अर्थात् यह दो खातों को एक-दूसरे के विपरीत प्रभावित करता है। इसीलिए लेन-देनों का दो स्थानों पर अभिलेखन करना होगा। उदाहरण के लिए मान नकद माल खरीदा। इसके दो पक्ष है :
- नकद भुगतान
- माल को प्राप्त करना।
परिसंपत्तियाँ = देयताएँ + पूँजी
उपर्युक्त लेखा सभीकरण के अनुसार व्यवसाय की परिसंपत्तियाँ का मूल्य सदैव स्वामी एवं बाह्य लेनदारों की दावे की राशि के बराबर होता है। यह दावा पूँजी अथवा स्वामित्व पूँजी के नाम से जाना जाता है तथा बाह्य लोगों की दावेदारी को देयताएँ अथवा लेनदारों की पूँजी कहते है। द्विपक्षीय अवधारणा लेन-देन के दो पक्षों की पहचान करने में सहायक होती है जो लेखा पुस्तकों में लने -दने के अभिलेखन में नियमों को पय्र ोग करने मे सहायक होता है।द्विपक्षीय अवधारणा का प्रभाव है कि प्रत्येक लेन-देन का समपत्तियाँ एवं देयताओं पर समान प्रभाव इस प्रकार से पड़ता है कि कुल सम्पत्तियाँ सदा कुल देयताओं के बराबर होते है।आइए कुछ और व्यावसायिक लेन-देनों का उसके द्विपक्षीय रूप में विश्लेषण करे।
1. व्यवसाय के स्वामी ने पूँजी लगाई ।
- अ. रोकड़ की प्राप्ति
- ब. पूँजी में वृद्धि (स्वामीगत पूँजी)
- अ. बैंक शेष में कमी
- ब. मशीन का स्वामित्व
- अ.रोकड़ प्राप्त हुई
- ब. ग्राहक को माल की सुपुर्दगी की गई
- अ.रोकड़ का भुगतान
- ब. किराया (व्यय किया)
- वेतन का भुगतान किया
- किराए का भुगतान किया
- किराया प्राप्त हुआ
आइए नीचे दिए गए उदाहरणों का अध्ययन करें :
वूसली अवधारणा के अनुसार आगम की वसूली उस समय मानी जाएगी जबकि वस्तुओं अथवा सेवाओं की वास्तव में सुपुर्दगी की गई है ।
- एन पी ज्वैलर्स को 500000 रू के मूल्य के सोने के आभूषणों की आपूर्ति करने का आदेश प्राप्त हुआ। उन्होनें 200000 रू के मूल्य के आभूषणों की आपूर्ति 31 दिसम्बर, 2005 मे कर दी और शेष की आपूर्ति जनवरी 2006 में की ।
- बंसल ने 2006 में 100000 रू का माल नकद बेचा तथा माल की सुपुर्दगी इसी वर्ष में की ।
- अक्षय ने वर्ष समाप्ति 31 दिसम्बर, 2005 में 50000 रू का माल उधार बेचा ।
- एन. पी ज्वैलर्स की वर्श 2005 की आगम राशि 200000 रू. है । मात्र आदेश प्राप्तकरना आगम नहीं माना जब तक कि माल की सुपुर्दगी न की गई हो ।
- वर्ष 2005 के लिए बंसल की आगम राशि 1,00,000 रू. है क्योंकि माल की वर्ष 2005 में सुपर्दगी की गई । रोकड़ भी उसी वर्ष में प्राप्त हो गई ।
- अक्षय का वर्ष 2005 का आगम 50000 रू. है क्योकि उपभोक्ता को वर्ष 2005 में माल की सुपर्दगी की गई ।
वूसली अवधारणा के अनुसार आगम की वसूली उस समय मानी जाएगी जबकि वस्तुओं अथवा सेवाओं की वास्तव में सुपुर्दगी की गई है ।
संक्षेप में कह सकते हैं कि वसूली वस्तुओं अथवा सेवाओं के नकद अथवा उधार बेच देने के समय होती है । इसका अभिप्राय: प्राप्य के रूप में सम्पत्तियों के आन्तरिक प्रवाह से है ।
वसूली अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओं के द्वारा दर्शाया गया :
लेखांकन में उपार्जन अवधारणा अन्तर्गत यह माना जाता है कि आगम की वसूली सेवा या वस्तुओं के विक्रय के समय होगी न कि जब रोकड़ की प्राप्ति होती है । उदाहरण के लिए माना एक फर्म ने 55000 रू. का माल 25 माचर्, 2005 को बेचा लेकिन भुगतान 10 अप्रैल, 2005 तक प्राप्त नहीं हुआ । राशि देय है तथा इसका फर्म को बिक्री की तिथि अर्थात् 25 मार्च, 2005 को भुगतान किया जाना है । इसको वर्ष समाप्ति 31 मार्च, 2005 की आगम में सम्मिलित किया जाना चाहिए । इसी प्रकार व्ययों की पहचान सेवाओं की प्राप्ति के समय की जाती है न कि जब इन सेवाओं का वास्तविक भुगतान किया जाता है । उदाहरण के लिए माना फर्म ने 20000 रू. की लागत का माल 29 मार्च, 2005 को प्राप्त किया लेकिन 2 अप्रैल, 2005 को किया गया । उपार्जन अवधारणा के अनुसार व्ययों का अभिलेखन वर्श समाप्ति 31 मार्च 2005 के लिए किया जाना चाहिए जबकि 31 मार्च, 2005 तक कोई भुगतान प्राप्त नहीं हुआ है।
यद्यपि सेवाएँ प्राप्त की जा चुकी है तथा जिस व्यक्ति का भुगतान किया जाना है उसे लेनदार दिखाया गया है ।
विस्तार से उपार्जन अवधारणा की मांग है कि आगम की पहचान उस समय की जाती है जबकि उसकी वसूली हो चुकी हो और व्ययों की पहचान उस समय की जाती है जबकि वह देय हों तथा उनका भुगतान किया जाना हो न कि जब भुगतान प्राप्त किया जाता है अथवा भुगतान किया जाता है ।
- यह लेखाकंन सूचना को अधिक तर्क संगत बनाने में सहायक है ।
- इसके अनुसार वस्तुओं के क्रेता को सुपुर्द करने पर ही अभिलेखन करना चाहिए ।
लेखांकन में उपार्जन अवधारणा अन्तर्गत यह माना जाता है कि आगम की वसूली सेवा या वस्तुओं के विक्रय के समय होगी न कि जब रोकड़ की प्राप्ति होती है । उदाहरण के लिए माना एक फर्म ने 55000 रू. का माल 25 माचर्, 2005 को बेचा लेकिन भुगतान 10 अप्रैल, 2005 तक प्राप्त नहीं हुआ । राशि देय है तथा इसका फर्म को बिक्री की तिथि अर्थात् 25 मार्च, 2005 को भुगतान किया जाना है । इसको वर्ष समाप्ति 31 मार्च, 2005 की आगम में सम्मिलित किया जाना चाहिए । इसी प्रकार व्ययों की पहचान सेवाओं की प्राप्ति के समय की जाती है न कि जब इन सेवाओं का वास्तविक भुगतान किया जाता है । उदाहरण के लिए माना फर्म ने 20000 रू. की लागत का माल 29 मार्च, 2005 को प्राप्त किया लेकिन 2 अप्रैल, 2005 को किया गया । उपार्जन अवधारणा के अनुसार व्ययों का अभिलेखन वर्श समाप्ति 31 मार्च 2005 के लिए किया जाना चाहिए जबकि 31 मार्च, 2005 तक कोई भुगतान प्राप्त नहीं हुआ है।
यद्यपि सेवाएँ प्राप्त की जा चुकी है तथा जिस व्यक्ति का भुगतान किया जाना है उसे लेनदार दिखाया गया है ।
विस्तार से उपार्जन अवधारणा की मांग है कि आगम की पहचान उस समय की जाती है जबकि उसकी वसूली हो चुकी हो और व्ययों की पहचान उस समय की जाती है जबकि वह देय हों तथा उनका भुगतान किया जाना हो न कि जब भुगतान प्राप्त किया जाता है अथवा भुगतान किया जाता है ।
इससे एक समय विशेष के वास्तविक व्यय एवं वास्तविक आय को जान सकते हैं। इससे व्यवसाय के लाभ का निर्धारण करने में सहायता मिलती है ।
9. मिलान अवधारणा - मिलान अवधारणा के अनुसार आगम के अर्जन के लिए जो आगम एवं व्यय कि
जाए वह एक ही लेखा वर्ष से सम्बन्धित होने चाहिए। अत: एक बार यदि आगम की
प्राप्ति हो गई है तो अगला कदम उसको सम्बन्धित लेखा वर्ष में आबटंन करना है और
यह उपार्जन के आधार पर किया जा सकता है।
यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि व्यवसाय में अर्जित आगम व किये गए व्ययों को कैसे सम्बन्धित किया जाए। आगम व व्ययों का मिलान करते समय सर्वप्रथम एक निश्चित अवधि की आगम को निर्धारित करना चाहिए इसके बाद इस आगम को प्राप्त करने के लिए किये गए व्ययों को निर्धारित करना चाहिये। अर्थात् आगम का व्ययों से मिलान करना चाहिए, न कि व्ययों का आगम से। सिद्धांत के अनुसार आगम का व्ययों से मिलान करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है।
यह सिद्धांत स्पष्ट करता है कि व्यवसाय में अर्जित आगम व किये गए व्ययों को कैसे सम्बन्धित किया जाए। आगम व व्ययों का मिलान करते समय सर्वप्रथम एक निश्चित अवधि की आगम को निर्धारित करना चाहिए इसके बाद इस आगम को प्राप्त करने के लिए किये गए व्ययों को निर्धारित करना चाहिये। अर्थात् आगम का व्ययों से मिलान करना चाहिए, न कि व्ययों का आगम से। सिद्धांत के अनुसार आगम का व्ययों से मिलान करते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखा जाना आवष्यक है।
लाभ-हानि खाते में जब आगम की किसी मद को आय पक्ष में लिखा जाता है तो
उस आगम को प्राप्त करने के लिए किये गए व्यय को भी व्यय में लिखा जाना चाहिए।
भले ही व्यय का नगद भुगतान किया गया हो या भुगतान न किया गया हो। अर्थात्
अदत्त व्यय (Outstandingexpense) को भी लिखा जाना चाहिए ।
2. जब भुगतान की गई किसी व्यय राशि का कुछ भाग आगामी वर्ष में आगम का सृजन करने वाला हो को ऐसे व्यय भाग को आगामी वर्ष का व्यय माना जाना चाहिए तथा चालू वर्ष में इसको चिट्ठे (Balance sheet) के सम्पत्ति पक्ष में दर्शाना चाहिए।
3. वर्ष के अन्त में जो माल बिकने से रह जाता है, ऐस माल सम्पूर्ण लागत को आगामी वर्ष की लागत मानकर इसे आगामी वर्ष के हिसाब में शामिल किया जाना चाहिए ।
4. आगम की ऐसी कोई मद जिसके लिए माल या सेवाओं का हस्तान्तरण आगामी वर्ष में किया जाना है तो इस आगम को चालू वर्श की आगम नहीं मानना चाहिए बल्कि इसे चालू वर्ष के दायित्वों में सम्मिलित करना चाहिए ।
आइए एक व्यवसाय के दिसम्बर 2006 के निम्नलिखित लेन-दने ों का अध्ययन कर।ें
2. जब भुगतान की गई किसी व्यय राशि का कुछ भाग आगामी वर्ष में आगम का सृजन करने वाला हो को ऐसे व्यय भाग को आगामी वर्ष का व्यय माना जाना चाहिए तथा चालू वर्ष में इसको चिट्ठे (Balance sheet) के सम्पत्ति पक्ष में दर्शाना चाहिए।
3. वर्ष के अन्त में जो माल बिकने से रह जाता है, ऐस माल सम्पूर्ण लागत को आगामी वर्ष की लागत मानकर इसे आगामी वर्ष के हिसाब में शामिल किया जाना चाहिए ।
4. आगम की ऐसी कोई मद जिसके लिए माल या सेवाओं का हस्तान्तरण आगामी वर्ष में किया जाना है तो इस आगम को चालू वर्श की आगम नहीं मानना चाहिए बल्कि इसे चालू वर्ष के दायित्वों में सम्मिलित करना चाहिए ।
आइए एक व्यवसाय के दिसम्बर 2006 के निम्नलिखित लेन-दने ों का अध्ययन कर।ें
- बिक्री : नकद 2000 रू. एवं उधार 1000 रू.
- वेतन भुगतान 350 रू. किया
- कमीश्न का भुगतान 150 रू. किया
- ब्याज प्राप्त 50 रू. किया
- 140 रू. किराया प्राप्त किया जिसमें से 40 रू. 2007 के लिए है ।
- भाड़े का भुगतान 20 रू. किया
- पोस्टेज 30 रू.
- 200 रू. किराए के दिए जिसमें से 50 रू. 2005 के लिए दिए ।
- वर्ष में नकद माल 1500 रू. एवं उधार 500 रू. खरीदा ।
- मशीन पर अवक्षयण 200 रू. लगा ।
मिलान अवधारणा के महत्व को नीचे दिए गए बिन्दुओं के द्वारा दर्शाया गया :
- यह दिशा प्रदान करता है कि किसी अवधि विशेष के सही लाभ-हानि निर्धारण के लिए व्ययों का आगम से किस प्रकार से मिलान किया जाए ।
- यह निवेशक/अंशधारियों को व्यवसाय के सही लाभ अथवा हानि को जानने में सहायक होता है ।
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