नियंत्रण का अर्थ, महत्व एवं विशेषताएं

नियंत्रण का अर्थ पूर्व निर्धारित लक्ष्यों व उद्देश्यों के अनुसार प्रमापित कार्य सम्पन्न हो रहा है या नहीं जॉंच करना, यदि नहीं हो रहा है तो कमियों एवं कारणों की खोज कर सुधारात्मक कार्यवाही करना है। नियंत्रण के अर्थ में केवल किए गए काम की मात्रा की ही जॉंच नहीं की जाती है बल्कि किए गए काम की गुणवत्ता, उसमें लगे समय और उसकी लागत संबंधी जांच भी शामिल है। नियंत्रण में सम्मिलित हैं:-
  1. कार्य की प्रकृति, मात्रा एवं समय-सारिणी को जानना;
  2. निष्पादन का योजना से मिलान;
  3. विचलन का विश्लेषण, यदि है तो;
  4. सुधारात्मक कदम उठाना, और;
  5. योजनाओं में परिवर्तन का सुझाव, यदि आवश्यक है तो,

    नियंत्रण की विशेषताएं

    1. योजना नियंत्रण का आधार है- नियंत्रण यह जांच करता है कि निष्पादन योजना के अनुरूप है या नहीं। अत: नियोजन नियंत्रण से पूर्व की क्रिया है तथा यह निष्पादन के मानक एवं लक्ष्य का निर्धारण करता है।
    2. प्रबंधक का कार्य है- नियंत्रण संस्था प्रमुख का कार्य नहीं है प्रबंधक का कार्य है। जिसमें कार्य को प्रबंधक की ओर से कोई अन्य नहीं कर सकता स्वयं प्रबंधक को करना पड़ता है। 
    3. नियंत्रण सर्वव्यापक है- नियंत्रण प्रबन्ध के सभी स्तरों पर किया जाने वाला कार्य है। यह सभी कार्यात्मक क्षेत्रों तथा सभी इकाइयों एवं विभागों में किया जाता है। इस प्रकार से नियंत्रण सर्वव्यापक है। 
    4. कार्यवाही नियंत्रण का सार है- नियंत्रण कार्यवाही मूलक प्रक्रिया है। यदि निष्पादन में सुधार के लिए अथवा योजनाओं में परिवर्तन के लिए सुधारात्मक कार्यवाही नहीं की गई है तो नियंत्रण का मूल उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। 
    5. साधनों पर नियंत्रण- व्यक्ति ही नहीं अन्य साधनों पर नियंत्रण किया जाता है। जैसे- सामग्रीयों, मशीन तथा उत्पादन के अन्य निर्जीव साधन।
    6. नियंत्रण आगे की ओर देखता है- नियंत्रण भविष्योन्मुखी होता है। यह वर्तमान निष्पादन को मापता है तथा सुधारात्मक कदम के लिए दिशा-निर्देश देता है। यह भविष्य में योजनाओं के अनुसार कार्य निष्पादन को सुनिश्चित करता है। इस प्रकार से यह भविष्योन्मुखी है। 
    7. उपक्रम को सहायता- नियंत्रण संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायता करती है। जो कि दीर्घकालीन योजना का एक अंग होता है। 
    8. निरंतर प्रक्रिया- नियंत्रण की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। प्रबंधक संस्था के उद्देश्यों की पूर्ती एवं कार्यों में समन्वय बनाने का प्रयास करता है। जो कि निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया होती हैं।

      नियंत्रण की आवश्यकता एवं महत्व

      नियंत्रण प्रबंध का अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। नियंत्रण के बिना कार्य की कमियॉं व विचलन का ज्ञान नहीं हो सकता है, इसके अभाव में सुधारात्मक कार्य ही नहीं किया जा सकता है और कमियॉं विद्यमान रहेगी। आजकल कई कारणों से नियंत्रण का महत्व निरंतर बढ़ रहा है। व्यावसायिक संस्थाओं का आकार बढ़ गया है और उनकी गतिविधियों में विविधताएं आ गई हैं। इसके अतिरिक्त बाजार में विभिन्न उत्पादकों और विक्रेताओं के बीच अधिक प्रतियोगिता है। अत: प्रबंधकों के लिए कार्यों की दक्षता में लगातार सुधार बनाये रखना आवश्यक है। इस प्रयोजन के लिए किये गये कार्य की नियमित जांच करना आवश्यक है, ताकि लागत और क्षति को न्यूनतम किया जा सके। यह भी आवश्यक है कि समय-समय पर उपलब्धियों के लक्ष्यों को ऊंचा उठाया जाये और अच्छा काम करने पर कर्मचारियों को पुरस्कृत किया जाये। यह केवल नियंत्रण की प्रक्रिया से ही सम्भव है। इसलिए नियंत्रण:
      1. लक्ष्यों को प्राप्त करने में सहायक है।
      2. समय रहते सुधारात्मक कदम उठाने में सहायक है। 
      3. कर्मचारियों के कार्य निष्पादन के स्तर के निरीक्षण व सुधार में सहायक है। 
      4. उत्तम समन्वय में सहायक है। 
      5. बेहतर नियोजन में सहायक है।
      6. त्रुटियों को कम करने में सहायक है। 
      7. निर्णय लेने में सहायक है। 
      8. पर्यवेक्षण को सरल बनाता है। 
      9. अनुशासन बनाये रखने में सहायक है।

        नियंत्रण प्रक्रिया

        1. मानय या प्रमाप निर्धारित करना 
        2. कार्य का मापन 
        3. कार्य का मूल्यांकन 
        4. विचलनों के कारणों का पता लगाना
        5. सुधारात्मक कार्यवाही करना
        1. मानकों या प्रमापों का निर्धारण- नियंत्रण का प्रथम कदम मानक या प्रमाप निर्धारित करना है। प्रमाप की उत्पत्ति नियोजन से होती है इससे वास्तविक निष्पादन का तुलना की जाती है। मानक विभिन्न प्रकार के हो सकते हैं जेैसे- प्रतिघण्टे उत्पादन की इकाइयों की संख्या, उत्पादन की प्रति इकाई लागत, रद्दी और अवशिष्ट की प्रतिदिन के लिए स्वीकृत मात्रा, उत्पाद की गुणवत्ता आदि। निर्धारित मानक प्राप्त होने योग्य हों, न बहुत ऊॅंचे और न ही बहुत कम। यदि मानक बहुत ऊॅचें होगें तो कर्मचारी हतोत्साहित हो जायेंगे। दूसरी ओर यदि वे बहुत कम होंगे तो संगठन का संचालन सामान्य दक्षता से निम्न स्तर पर होगा। यदि मानक उपलब्धि ठीक न हो तो विचलन की क्षम्य सीमा का निर्धारण भी आवश्यक हैं। ऐसा मानको की न्यूनतम और अधिकतम सीमा के रूप में निर्धारण द्वारा किया जाना चाहिए। यदि कार्य उपलब्धि इस सीमा के अंतर्गत हो तो किसी सुधारात्मक कार्यवाही की आवश्यकता नहीं होती है।

        2. कार्य का मापन- नियंत्रण का दूसरा कदम किए गए कार्य का मापन करना है। मापन कार्य अवलोकन, निरीक्षण एवं रिपोर्टिंग के माध्यम से किया जा सकता है। प्रथम स्तर पर विस्तृत नियंत्रण किया जाता है जो साधारणत: निरीक्षण द्वारा अथवा रिपोर्ट मांग कर निरंतर अंतरालों पर किया जा सकता है। प्रबंध के उच्चतर स्तरों के लिए नियमित अंतराल पर रिपोर्ट तैयार की जाती है। यह आवश्यक है कि काम का मापन और आकलन यथासम्भव शीघ्र किया जाय ताकि यदि सुधारात्मक कार्य की आवश्यकता हो तो वह समय पर किया जा सके।

        3. कार्य का मूल्यांकन- नियंत्रण प्रक्रिया में अगला चरण निर्धारित मानकों की तुलना वास्तविक रूप से निष्पादित कार्य से करना है। वास्तविक कार्य और मानक कार्य की तुलना से तीन परिणाम निकल सकते हैं, (क) किया गया वास्तविक कार्य मानक कार्य के बराबर है, (ख) उससे अधिक है, अथवा (ग) उससे कम है। यदि वास्तविक कार्य मानक कार्य के बराबर है तो किसी कार्यवाही की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यदि मानक व वास्तविक कार्य में अंतर है तो सुधारात्मक कार्यवाही आवश्यक हो जाती है। प्रबंधकों को निश्चित करना चाहिए कि क्या ये अंतर क्षम्य सीमा के अंदर हैं अथवा नहीं। सुधारात्मक कार्य की आवश्यकता तभी पड़ती है जब ये अंतर क्षम्य सीमा से बाहर हों।

        4. विचलन के कारणों का पता लगाना- सुधारात्मक कार्य आरम्भ करने से पहले प्रबंधक को विचलन के कारणों का पता लगाना चाहिए। हो सकता है कि दोष अधीनस्थ कर्मचारियों का न हो। ऐसा भी हो सकता है कि निर्धारित मानक तक पहुंचना सम्भव न हो। फिर विचलन अधीनस्थ कर्मचारी की गलती के कारण नहीं बल्कि प्रबंधक द्वारा जारी किए गए निर्देशों के कारण हुआ हो। इस प्रकार विचलन का पता लगाना ही पर्याप्त नहीं है। उपयुक्त सुधारात्मक कार्य सुनिश्चित करने के लिए उन कारणों का पता लगाया जाना चाहिए जिनसे विचलन हुआ है।

        5. सुधारात्मक कार्य करना- एक बार विचलन के कारणों का पता लग जाये तो अगला कदम इन विचलनों में सुधार करना है। जैसा कि पहले कहा गया है प्रबंधकों को बड़े विचलनों की ओर अधिक ध्यान देना चाहिए और छोटे विचलनों जो कि क्षम्य सीमा के अंदर हों उनकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। मानक से हुए विचलनों का सुधार तत्काल होना चाहिए ताकि आगे होने वाली हानि से बचा जा सके।

        अच्छी नियंत्रण प्रणाली

        नियंत्रण प्रणाली को उद्देश्यपूर्ण व प्रभावशाली बनाने के लिए आवश्यक है कि उसमें आवश्यक गुण हों -
        1. आसान : यह आसान व शीघ्रता से समझने योग्य होनी चाहिए। 
        2. स्पष्ट उद्देश्य : लक्ष्यों का निर्धारण इतना स्पष्ट व मात्रात्मक इकाइयों में होना चाहिए कि उनकी व्याख्या करते समय किसी प्रकार के भिन्न-भिन्न अर्थ न निकाले जा सकें। 
        3. उचित : यह संगठन की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उचित होनी चाहिए। एक व्यापारिक संगठन की नियंत्रण प्रणाली एक विनिर्माण इकाई की नियंत्रण प्रणाली से भिन्न होगी। 
        4. लचीली : नियंत्रण प्रणाली में इतना लचीलापन होना चाहिए कि परिवर्तनों के अनुसार उसमें भी बदलाव लाया जा सके तथा इसे समय के साथ आने वाले परिवर्तनों के अनुकूल बनाया जा सके। 
        5. भविष्योन्मुखी : एक अच्छी नियंत्रण प्रणाली को भविष्य में विचलनों को कम करने का प्रयास करना चाहिए और ऐसे कदम उठाने चाहिए कि आगे भी यह विचलन कम ही रहें। 
        6. अपवादों पर ध्यान दें: एक प्रभावी एवं किफायती या कम खर्चीली नियंत्रण प्रणाली वह है जो निष्पादन के लिए महत्वपूर्ण घटका े आरै कारणों पर ध्यान केन्द्रित करती है। निर्धारित मानकों से विचलनों को फिर चाहे वह सकारात्मक हों अथवा नकारात्मक, प्रबंधकों की जानकारी में लाना चाहिए। यदि छोटे विचलनों पर ज्यादा ध्यान दिया गया तो इससे समस्याएं पैदा होंगी। इससे नियोजित निष्पादन नहीं हो पाएगा तथा नियंत्रण प्रणाली मंहगी सिद्ध होंगी।

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