सहकारिता क्या है सहकारी समिति के गुण, दोष या सीमायें

सहकारिता क्या है

सहकारिता दो शब्दों ‘सह+कारिता’ के मेल से बना है। जिसमें सह से आशय हैं’ मिल जुलकर या साथ-साथ तथा कारिता का अर्थ हैं’ कार्य करना’। इस प्रकार मिल जुलकर साथ साथ काम करना सहकारिता हैं। यह एक ऐसा संगठन होता हैं जिसके सदस्य समानता के आधार पर पारस्परिक हित के लिये मिल जुलकर कार्य करते हैं। यह ‘एक सबके लिये और सब एक के लिये’ की भावना पर आधारित एक जीवन पद्धति हैं। 

एच. कलवर्ट के अनुसार:- ‘‘सहकारिता एक ऐसा संगठन हैं जिसमें लोग मनुष्य के रूप में समानता के आधार पर अपनी आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये सहयोग करते हैं।’’

सहकारी संस्थाओं के लक्षण अथवा सिद्धांत

1. कमजोर लोगों द्वारा स्थापना- सहकारी संस्थाओं की स्थापना समाज के ऐसे लोगों द्वारा की जाती हैं जिनके पास साधनों का अभाव होता हैं। ऐसे व्यक्ति मिल जुलकर अपना व्यापार करते हैं, थोड़ी मात्रा में पूंजी लगाते हैं तथा अपने अतिरिक्त समय में संस्थाओं का संचालन करते हैं। सामान्यता सहकारी संस्थाओं की स्थापना मजदूरों, कृषकों आदि द्वारा की जाती हैं।

2. व्यवसाय का होना- प्रत्येक सहकारी संस्था का मुख्य उद्देश्य व्यवसाय चलाना होता हैं। यह व्यवसाय किसी भी रूप में हो सकता हैं, जैसे- सहकारी उपभोक्ता भंडार, सहकारी बैंक, कृषि उपज विपणन सहकारी समिति आदि।

3. प्रजातांत्रीय प्रबंध व्यवस्था- सहकारी संगठन का प्रबंध प्रजातांत्रिक पद्धति पर आधारित होता हैं। इसमें सभी सदस्यों द्वारा चुनी हुई प्रबंध समिति प्रबंध का कार्य करती हैं। इसमें एक व्यक्ति एक मत का सिद्धांत लागू होता हैं। सहकारी संस्था का प्रत्येक सदस्य एक ही वोट दे सकता हैं। चाहे उसके पास कितने ही अंश क्यों न हो।

4. ऐच्छिक सदस्यता- सहकारी समिति में व्यक्ति अपनी इच्छा से शामिल होते हैं। इसके सदस्य बनने हेतु समिति के अंश खरीदना आवश्यक होता है। इसी प्रकार सदस्य जब चाहें स्वेच्छया से संस्था से अलग हो सकते हैं।

5. सामान्य हितों की रक्षा- सहकारिता का मूल मंत्र एक के लिये सब और सबके लिये एक हैं। सहकारी संस्था का उद्देश्य लाभ कमाना नहीं होता बल्कि आवश्यकता पड़ने पर एक दूसरे की मदद करना होता हैं। सहकारी समिति अपने सदस्यों को सस्ता माल देती है। आवश्यकता के समय सदस्यों को ऋण देती हैं तथा अनेक प्रकार से उनके हितों की रक्षा करती है।

6. पारस्परिक सहयोग- सहकारी संस्थाओं में छोटे-बडें, अमीर-गरीब का कोई भेदभाव नहीं किया जाता है। वे सब सामूहिक रूप में पूंजी प्रदान करते हैं तथा मिल जुलकर व्यक्तिगत स्वार्थ से परे सामूहिक हित में कार्य करते हैं।

7. लाभ की भावना नहीं- सहकारिता केवल व्यापार नहीं हैं, बल्कि व्यापार एवं सेवा भावना का मिश्रण हैं। सहकारी संस्थायें लाभ कमाने के दृष्टिकोण से स्थापित नहीं की जाती हैं और न ही इनका उद्देश्य अधिक लाभ कमाना होता हैं। ये संस्थायें अपने सदस्यों व समाज को शोषण से बचाने तथा उनके अधिकतम कल्याण के लिये बनायी जाती हैं।

8. मध्यस्थों का अंत- सहकारी संस्थायें सीधे उत्पादकों से माल खरीदकर ग्राहकों को बेच देती है इससे मध्यस्थों का अंत हो जाता है एवं ग्राहकों का कम मूल्य पर वस्तुतएं उपलब्ध हो जाती है।

सहकारी संस्था (समिति) की स्थापना विधि 

भारत में सहकारी संस्थाओं की स्थापना भारतीय सहकारी समिति अधिनियम 1912 के अधीन होती है। कुछ राज्यों के अपने स्वयं के सहकारिता अधिनियम हैं। सहकारी संस्था (समिति) की स्थापना विधि निम्नानुसार हैं-

1. न्यूनतम सदस्य संख्या- एक सहकारी समिति की स्थापना के लिये कम से कम दस सदस्य अवश्य होने चाहिये। ये व्यक्ति वयस्क होने चाहिये तथा उनमें अनुबंध करने की क्षमता होनी चाहिये।

2. उपनियमों की स्वीकृति-सहकारी संस्था के दैनिक कार्यों को संचालित करने के लिये संस्था के सदस्यों द्वारा उपनियम का निमार्ण करना आवश्यक होता हैं। इन उपनियमों के अंतर्गत समिति का नाम, सदस्यता संबंधी नियम, सदस्यों के अधिकार कर्तव्य, पदाधिकारियों का चुनाव, प्रबंध व्यवस्था, पूंजी आदि से संबंधित नियमों का सविस्तार वर्णन रहता है। इन उपनियमों पर कम से कम 10 सदस्यों के हस्ताक्षर होना चाहिये। राज्य के सहकारिता विभाग- द्वारा आदर्श उपनियम बनाये गये हैं जो इनके लिये ऐच्छिक होते हैं।

3. न्यूनतम पूजीं बैंक में जमा कराना- संस्था की स्थापना के इच्छुक सदस्य संस्था के अंश खरीदकर पूंजी प्रदान करते हैं। इस प्रकार एकत्रित की गई पूंजी राशि को किसी सहकारी बैंक में प्रस्तावित समिति के नाम से जमा कराना आवश्यक होता हैं।

4. पजींयन हेतु आवेदन पत्र जमा कराना- सहकारी समिति अधिनियम के अंतर्गत सहकारी संस्था का पजं ीयन कराना अनिवार्य हैं। पंजीयन के अभाव मे वह अपने नाम के साथ सहकारी शब्द का प्रयोग नहीं कर सकती । प्रत्येक समिति को रजिस्ट्रार आफॅ को- ऑपरेटिव सोसाइटीज नियुक्त रहता हैं। प्रत्येक समिति को रजिस्ट्रार के पास एक आवेदन पत्र के साथ उपनियम की दो प्रतियां भेजनी पड़ती है। इन उपनियमों की जाँ के बाद यदि रजिस्ट्ररी संतुष्ट हो जाता हैं तो संस्था को पंजीयन प्रमाण पत्र दे दिया जाता है और उसी दिन सें संस्था की स्थापना हो जाती है। प्रमाण पत्र के साथ उपनियमों की एक प्रमाणित प्रति भी संस्था को लौटा दी जाती है।

5. पंजीयन शुल्क से मुक्ति- सहकारी समितियों को पंजीयन कराने हेतु कोई पंजीयन शुल्क नहीं देना पड़ता।

6. पदाधिकारियों का चुनाव- सहकारी समिति का पंजीयन हो जाने के बाद संस्था के सदस्यों की एक साधारण सभा बुलायी जाती है। जिसमें समिति का व्यवसाय चलाने हेतु नियमानुसार पदाधिकारियों का चुनाव किया जाता हैं। इस सभा की सूचना रजिस्ट्रार को भी भेजनी चाहिये। यदि वह आवश्यक समझता हैं तो सभा की निष्पक्ष कार्यवाही के लिये किसी अधिकारी की नियुक्त कर सकता हैं जो सभा को मार्गदर्शन देने का कार्य करता है।

7. नये सदस्यों की नियुक्ति- सहकारी संस्था की स्थापना के बाद संस्था अपने अंश बेचकर नये व्यक्तियों को सदस्य बना सकती हैं और पूंजी एकत्रित कर सकती हैं। सहकारी समिति के सदस्यों का दायित्व उनके द्वारा प्रदत्त अंश पूंजी तक सीमित रहता है।

सहकारी समिति के गुण

सहकारी समिति ऐसा संगठन हैं जो व्यापार के लाभ को अधिकतम करने के स्थान पर मानव सेवा को अधिक महत्व देता है। इस व्यावसायिक संगठन के गुण निम्नलिखित है।
  1. इसकी स्थापना आसानी से की जा सकती है।
  2. इसके सदस्यों का दायित्व सीमित होता हैं। 
  3. इसमें सामान्य व्यक्ति आसानी से सदस्य बन सकता है। 
  4. इसे शासन से समय समय पर सहायता प्राप्त होती हैं। 
  5. इसके सदस्यों को कर में छूट प्राप्त होती हैं।

सहकारी समिति के दोष या सीमायें

  1. इसकी पूंजी सीमित होती हैं।
  2. इसके सदस्यों में प्रबंधकीय योग्यता की कमी होती हैं। 
  3.  इस संगठन में भ्रष्टाचार अधिक होता हैं। 
  4. समिति के सदस्यों में प्रेरणा का आभाव होता है। 
  5. समिति के सदस्य कार्य के प्रति दिलचस्पी कम दिखाते है।

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