उद्यमिता क्या है? इसके सिद्धांत एवं कार्यों की विस्तृत व्याख्या

उद्यमिता का अर्थ

उद्यमी द्वारा किय गये कार्य को उद्यमिता कहते हैं। उद्यमिता एक आर्थिक क्रिया है जो बाजार में व्याप्त सम्भावनाओं को पहचानने की प्रक्रिया है। आर्थिक क्षेत्र में परम्परागत रूप में उद्यमिता का अर्थ व्यवसाय एवं उद्योग में निहित विभिन्न अनिश्चितताओं एवं जोखिम का सामना करने की योग्यता एवं प्रवृत्ति है। उद्यमिता समाज के लोगो में नये नये प्रयोग एवं अनुसंधान करने तथा उपयोगिताओं का सृजन करने की योग्यताओं का विकास करके रोजगार के अवसरों में वृद्धि को करने का कार्य करता है। उद्यमिता के क्षेत्र को तीन भागों में बांटा जा सकता है जिनके सम्बन्ध में उद्यमी को अनेक निर्णय लेने पड़ते है (1) व्यवसायिक अवसरों का ज्ञान होना (2) औद्योगिक इकाई का संगठन करना (3) औद्योगिक इकाई को लाभप्रद एवं गतिशील संस्था के रूप में संचालित करना।

उद्यमिता की परिभाषा

उद्यमिता व्यवसाय में जोखिम उठाने की क्षमता या भावना के साथ-साथ नवाचार एवं नेतृत्व प्रदान करने की योग्यता भी है। कुछ प्रमुख विद्वानों द्वारा दी गई परिभाषाओं का अध्ययन करना आवश्यक है।

1. जोसेफ शुम्पीटर के अनुसार ‘‘ उद्यमिता एक नवाचार कार्य हे। यह स्वामित्व की अपेक्षा एक नेतृत्व कार्य है’’।

2. पीटर एफ ड्रकर के अनुसार ‘‘व्यवसाय में अवसरों को अधिक से अधिक करना अर्थपूर्ण हे। वास्तव में उद्यमिता की यही सही परिभाषा है’’।

3. एच0डब्ल्यू0 जाॅनसन के अनुसारः ‘‘ उद्यमिता तीन आधारभूत तत्वों का जोड़ है-जाँच पड़ताल, नवाचार एवं अनुकूलन’’।

4. राॅबर्ट लैम्ब के शब्दों मेंः ‘‘ उद्यमिता सामाजिक निर्णयन का वह स्वरूप हे जो आर्थिक नवप्रवर्तकों द्वारा सम्पादित किया जाता है’’।

एक सफल उद्यमी की विशेषताएँ

1. पहल क्षमता-एक उद्यमी में नवप्रवर्तन की प्रवृति, अवसर पकडने तथा पहल शुरू करने की क्षमता होनी चाहिए। यदि वह सही समय पर उचित पहल नही करेगा/करेगी तो अवसर हाथ से निकल जायेगा। अत: उद्यमी की पहल करने की क्षमता ही काफी हद तक उद्यम की सफलता की कुँजी है।

2. व्यापक ज्ञान-एक उद्यमी को व्यवसाय के आर्थिक एवं अनार्थिक पर्यावरण जैसे कि बाजार, उपभोक्ता की रूचि, तकनीक आदि का विस्तृत ज्ञान होना चाहिए। यदि इस सबका उचित ज्ञान नही है तो उसने जो निर्णय लिये हैं वह घटिया स्तर के होंगें तथा आगे भविष्य में व्यवसाय की लाभ प्रदता में उनका योगदान नही होगा।

3. जोखिम उठाने की तत्परता-किसी भी व्यवसाय को शुरू करना जोखिमों एवं अनिश्चितताओं से भरा होता है। विभिन्न प्रकार के जोखिम एवं अनिश्चितताओ से कुशलता पूर्वक निपटने के लिए उद्यमी में जोखिम उठाने की तत्परता एवं आवश्यक दूरदर्शिता होनी चाहिए।

4. खुले विचार एवं आशावादी दृष्टिकोण-एक उद्यमी को खुले विचारो वाला होना चाहिए। उसमें गतिशील एवं आशावादी सोंच होनी चाहिए जिसमे कि वह व्यवसायिक पर्यावरण में परिवर्तनों का पूर्वानूमान लगा सके तथा बिना समय खोए कार्यवाही कर सके।

5. अनूकूलनशीलता (स्वयं को वातावरण के अनुकूल ढालना)-उद्यमी को व्यावसायिक पर्यावरण की वास्तविक ताओ को समझ लेना चाहिए। उसे व्यवस्था में आ रहे परिवर्तनो के अनुरूप ढालने के लिए स्वयं तैयर रहना चाहिए। यदि वह परिवर्तन का विरोध करता है और उसकी प्रतिक्रिया में देरी होती है तो वह अवसरों के लाभ उठाने के अवसर खो देगा।

6. आत्मविश्वास-जीवन में सफलता पाने के लिए व्यक्ति के अन्दर आत्मविश्वास होना चाहिए। तभी व ह सफल उद्यमी बन सकता है ।

7. नेतृत्व के गुण-उद्यमी के अन्दर एक अच्छा नेता के गुणो का होना आवश्यक है। उसके अन्दर आत्म-अनुशासन, बुध्दिमता, न्यायप्रियता, सम्मान एवं गौरव आदि विशिष्टताओ के साथ उसमे इन सबके उपर उच्च स्तर की नैतिकता का होना आवश्यक है।

8. कठिन परिश्रम के प्रति रूझान-जीवन में कठिन परिश्रम का कोई पूरक नही हैं। व्यवसाय संचालन में कोई न कोई समस्या आती ही रहती है। व्यवसायी को इनके प्रति सचेत रहना होता है तथा अतिशीघ्र उनका समाधान भी ढूँढना होता है। इसके लिए उद्यमी को कड़ा परिश्रम करना होगा।

उद्यमिता के सिद्धांत

विद्वानों ने समय-समय पर उद्यमिता के सिद्धांतों अथवा विचारधाराओं का प्रतिपादन किया है।

1. उद्यमिता के आर्थिक सिद्धांत

अर्थशास्त्रियों के अनुसार उद्यमिता एवं आर्थिक विकास उन परिस्थितियों में होता है जबकि विशिष्ट आर्थिक परिस्थितियाँ अथवा अवसर उनके लिसे सर्वाधिक अनुकूल हों। उद्यमिता के आर्थिक सिद्धांत के अनुसार उद्यमी ऐसी अनुकूल आर्थिक परिस्थितियों को अधिकतम उपयोग करने के लिये ही व्यावसायिक एवं औद्योगिक क्षेत्र में प्रवेश करता है।

2. उद्यमिता के समाजशास्त्रीय सिद्धांत

समाजशास्त्रियों के अनुसार उद्यमिता का उद्भव विशिष्ट सामाजिक संस्कृति में होता है। समाजशास्त्रीय सिद्धांत के अनुसार सामाजिक अनुमोदन, सास्कृतिक मूल्य, परम्परायें, समूह गत्यात्वकता आदि उद्यमिता के उद्भव एवं विकास के लिये उत्तरदायी हैं। समाजषास्त्रीय सिद्धांत के प्रतिपादन में थामस कोक्रेन, मैक्स वेबर पीटर, बर्ट एफ हासीजिल, फ्रैंक डब्ल्यू एवरेट, ई हेगन, रेण्डल जी स्टोक्स आदि ने महत्वपूर्ण योगदान दिया है।

3. उद्यमिता के मनोवैज्ञानिक सिद्धांत

इस विचारधारा अथवा सिद्धांत के अनुसार उद्यमिता का विकास के लिये मनोवैज्ञानिक घटक उत्तरदायी है। जब समाज में प्र्याप्त मात्रा में मनोवैज्ञानिक लक्षणों से युक्त व्यक्तियों की पूर्ति होती हे जब उद्यमिता के विकास होने के अधिक अवसर रहते हैं। मनोवैज्ञानिक विचारधाराओं के अन्तर्गत शुम्पीटर, मैक्कीलैण्ड, एवरेट ई हेगेन, जाॅन कुनकेल, पीटर एफ ड्रकर आदि अर्थशास्त्री आते हैं।

4. उद्यमिता के एकीकृत सिद्धांत

उद्यमिता के विकास की एकीकृत विचारधाराएँ कई प्रकार के आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक तथा मनोवैज्ञानिक घटकों पर आधारित हैं। इसमें प्रमुख विचारधाराएँ निम्नलिखित हैं-
  1. टी0वी0 राव के सिद्धांत
  2. बी0एस0 वैन्कट राव के सिद्धांत

उद्यमी के कार्य

1. विचार सृजन-उद्यमी में सृजनात्मक मस्तिष्क होता है। उसमें व्ययवसायिक अवसरों की पहचान करने, उन्हे एक सफल व्यावसायिक उद्यमी में परिवर्तित करने तथा उन्हे मूर्त रूप प्रदान करने की योग्यता होती हैं।

2. प्रवर्तन-सामान्यत: यह समझा जाता है कि उद्यमी एकल स्वामित्व के रूप में एक छोटे व्यवसाय की स्थापना का ही जोखिम उठाता है। लेकिन वर्तमान में कई उद्यमी ऐसे हैं जिन्होने बडी-बडी कम्पनियो के प्रवर्तन का कार्य किया है। वास्तव में नयें व्यवसाय की स्थापना, वर्तमान व्यवसाय का छोटे अथवा बडे पैमाने पर विस्तार अथवा दो या दो से अधिक इकाइयों के समिश्रण में भी प्रवर्तन किया जा सकता है। एक पव्रतर्क के रूप में  उद्यमी सम्भावनाओ का अध्ययन करता है, सगंठन के प्रारूप के सम्बन्ध में निर्णय लेता है, आवश्यक कोष एवं मानव संसाधन जुटाता है, तथा व्यवसाय के प्रस्ताव को मूर्तरूप प्रदान करता है।

3. नवर्तन-उद्यमी को एक नवप्रवर्तक के रूप में देखा जाता है जो नई तकनीक, उत्पादों एवं बाजारों को विकसित करने की कोशिश करता है। उद्यमी अपनी सृजनात्मक योग्यताओं का प्रयोग कर कुछ नया करता है तथा बाजार में उपलब्ध अवसरों का लाभ उठाता है।

4. जोखिम एवं अनिश्चितताओं को वहन करना-नये व्यवसाय को आरम्भ करने में कुछ जोखिम और अनिश्चितताएं निहित होती है। यह उद्यमी ही होता है जो जोखिम को उठाता है तथा भविष्य की अदृश्य स्थितियों के कारण होने वाली हानियों को वहन करने के लिए तैयार रहता है।

5. आवश्यक पूजी की व्यवस्था-किसी भी उद्यम को प्रारंभ करने में सबसे बड़ी बाधा धन जुटाने में आती है। उद्यमी ही किसी व्यवसाय को प्रारंभ करने के लिए प्रारम्भिक पूंजी की व्यवस्था करता है जिसे जोखिम पूंजी अथवा मूल पूंजी भी कहते है ।

6. नियुक्तिकरण-उद्यमी को ही संगठन ढांचे की रूपरेखा तैयार करनी होती है तथा विभिन्न पदों के लिए उपयुक्त व्यक्तियों की भर्ती करनी होती है।

उद्यमियों के समक्ष आने वाली समस्याएं

1. व्यवसाय का चयन-व्यवसाय चयन के लिए सर्वप्रथम बाजार का अध्ययन करना होता है कि क्या उसके उत्पाद अथवा सेवा को बाजार में ग्राहक पसंद करेगा, कितनी मांग होगी, लागत क्या होगी, लाभप्रद होगा अथवा नहीं। इसे संभाव्यता अध्ययन कहते है तथा इसे संभाव्यता रिपोर्ट अथवा परियोजना रिपोर्ट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। इसी के आधार पर सर्वाधिक लाभ देने वाली व्यवसाय का चयन किया जाता है।

2. उद्यम के स्वरूप का चयन-इस हेतु उद्यमी के पास एकल स्वामित्व, साझेदारी अथवा संयुक्त पूंंजी कम्पनी आदि विकल्प होता है जिसमें से उपयुक्त व्यवसायिक संगठन का चयन करना अपेक्षाकृत कठिन होता है। यदि बड़े पैमाने के व्यवसायों के लिए कंपनी संगठन ही उपयुक्त रहेगा जबकि छोटे एवं मध्य पैमाने के व्यवसायों के लिए एकल स्वामित्व अथवा साझेदारी अधिक उपयुक्त रहेगा।

3. वित्तीयन-वित्त की व्यवस्था करना उद्यमी के लिए सदा ही एक समस्या रहा है। कोई भी व्यवसासय बिना पूंजी के प्रारंभ नहीं किया जा सकता। उद्यमी को पूंजी की आवश्यकता स्थायी सम्पत्ति, भूमि एवं मशीन, उपकरण आदि को खरीदने के लिए होती है। व्यवसाय के दिन प्रतिदिन के खचोर्ं के लिए भी धन की आवश्यकता होती है। कितनी पूंजी की आवश्यकता है इसका निर्धारण कर लेने के पश्चात् उद्यमी को विभिन्न स्रोतों से वित्त की व्यवस्था करनी होती है। ऐसे कई वित्तीय संस्थान है जैसे कि आई.एफ.सी.आई. आई.बी.डी.आई. आदि जो अच्छे उद्यमीय कार्यो के लिए प्रारम्भिक पूजीं अथवा उद्यम पूंजी कोष उपलब्ध करा रहे है।

4. स्थान का निर्धारण-उद्यमी के लिए एक समस्या व्यावसायिक इकाई के स्थान निर्धारण करने की है यह कई तत्वों पर निर्भर करता है जैसे कि कच्चा माल, परिवहन सुविधाएं, बिजली एवं पानी की उपलब्धता व बाजार का नजदीक होना। सरकार पिछडे़ क्षेत्र या अविकसित क्षेत्रों में स्थापित इकाई को कर अवकाश, बिजली एवं पानी के बिलों पर छूट आदि के रूप में कई प्रलोभन देती है। अत: एक व्यावसायिक इकाई को स्थापित करने से पहले उद्यमी को इन सभी बातों केा ध्यान में रखना होता है।

5. इकाई का आकार-व्यवसाय का आकार कई कारणों से प्रभावित होता है जैसे कि तकनीकी वित्तीय एंव विपणन। जब उद्यमी यह अनुभव करते है कि वह प्रस्तावित उत्पाद एवं सेवाओं को बाजार में बेच सकते है, एवं पर्याप्त पूंजी जुटा सकते हैं तब वे अपनी गतिविधियों को बडे़ पैमाने पर शुरू कर सकते है। सामान्यत: उद्यमी अपने कार्य को छोटे पैमाने पर प्रारम्भ कर धीरे-धीरे उसे बढ़ा सकते है। 

उदारहण के लिए डॉकरसन भाई पटेल निरमा लि0 के स्वामी, 1980 में साईकिल पर घूम-घूम कर कपड़े धोने का पाउडर बेचा करते थे और कार्य में वृद्धि से अब यह बढ़कर निरमा लि0 बन गया है।

6. मशीन एवं उपकरण-किसी भी नये उपक्रम को प्रारम्भ करने से पूर्व मशीनों, उपकरणों एवं प्रक्रियाओं का चयन संवेदनशील समस्या है। यह कई बातों पर निर्भर करती है जैसे कि पूंजी की उपलब्धता, उत्पादन का आकर एवं उत्पादन प्रक्रिया की प्रकृति। लेकिन उत्पादकता पर जोर दिया जाना चाहिए। उपकरण एवं मशीन विशेष का चयन करते समय मरम्मत एवं रख-रखाव की सुविधाओं की उपलब्धता, अतिरिक्त पूंजी की उपलब्धता तथा बिक्री के बाद सेवा को भी ध्यान में रखना महत्वपूर्ण है।

7. उपयुक्त श्रमशक्ति-यदि व्यवसाय का आकार बड़ा है तो उद्यमों को विभिन्न कार्यक्षेत्रों के लिए उपयुक्त योग्य व्यक्तियों की तलाश करनी होती है। उसे प्रत्येक कार्य के लिए सही व्यक्ति की पहचान करनी होती है और संगठन में कार्य करने के लिए उन्हे अभिप्रेरित करना होता है। यह सरल नहीं होता। इसमें काफी सहनशक्ति एवं प्रोत्साहन की जरूरत होती है।
इस प्रकार से एक नये व्यवसाय को प्रारंभ करने से पहले उद्यमी को अनेकों समस्याओं का समाधान ढूंढना होता है। उचित चयन एवं व्यवस्था की जाये तो सफलता सुनिश्चित है ।

उद्यमिता के महत्वपूर्ण उद्देश्य 

  1. उद्यमिता की गुणवत्ता को विकसित एवं सुदृढ़ करना; 
  2. उपयुक्त उत्पादों का चयन एवं सुसाध्य परियोजनाओं को तैयार करना; 
  3. व्यक्तियों को छोटे व्यवसायों की स्थापना एवं परिचालन में निहित प्रक्रिया एवं कार्यवाही से परिचित कराना; 
  4. रोजगार के अवसरों में वृद्धि करना; 
  5. व्यावसायिक जोखिम की चुनौतियों का सामना करने के लिए उद्यमियों को प्रशिक्षित करना एवं तैयार करना; 
  6. व्यवसाय के बारे में उद्यमी के दृष्टिकोण को व्यापक बनाना एवं कानून की सीमाओं के भीतर उसके विकास में सहायता करना।
  7. देश के प्रत्येक राज्य एवं क्षेत्र का विकास करने हेतु।

उद्यमिता की आवश्यकता एवं महत्व

उद्यमिता की आवश्यकता एवं महत्व को इन बिन्दुओं से स्पष्ट किया जा सकता है-
  1. सफल इकाई की स्थापना-सफल इकाई की स्थापना केवल सफल उद्यमी ही कर सकते हैं। सफल इकाइयों की स्थापना के लिए उद्यमिता का प्रशिक्षण एवं विकास आवश्यक है।
  2. संतुलित आर्थिक विकास-उद्यमिता देश में संतुलित आर्थिक विकास एवं पिछड़े क्षेत्रों का विकास को बढ़ावा देती है ।
  3. उपलब्ध संसाधनों का सर्वोतम उपयोग-उद्यमी ही कर सकता है। इससे बहुमूल्य धातुओं का भण्डारों का उचित विदोहन होगा व लोगों को रोजगार की प्राप्ति होगी ।
  4. आत्मनिर्भरता के लिए-उद्यमिता से उत्पादन, व्यापार, व विपणन को बढ़ावा मिलता हैं इससे व्यक्ति, समाज व राष्ट्र की आय में वृद्धि होती हैं। जिससे आत्मनिर्भरता बढ़ती है।
  5. आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं को कम करने के लिए-उद्यमिता से लोगों की आय व शिक्षा का स्तर बढ़ती है जिसमे सामाजिक अपराध एवं गरीबी में विराम लगने से सामाजिक समस्याएँ कम होती है।
  6. औद्योगिक वातावरण विकसित करने के लिए-देश में औद्योगिक वातावरण विकसित करने के लिए उद्यमिता विकास आवश्यक है ।
  7. ग्लोबल महत्व-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश का पहचान बढ़ावा के लिए देश में उद्यमिता को प्रोत्साहित किए जाने की आवश्यकता है ।
  8. अन्य- 1. उद्यमी प्रवृतियाँ विकसित करने के लिए 2. नवप्रर्वतन के लिए 3. रोजगार के अवसरो में वृद्धि के लिए

उद्यमियों के प्रकार

1. व्यवसाय के प्रकार के अनुसार -
  1. व्यापारी उद्यमी
  2. औद्योगिक उद्यमी 
  3. कृषि उद्यमी 
  4. सेवा उद्यमी
    2. तकनीकी उपयोग के अनुसार -
    1. तकनीकी उद्यमी
    2. गैर-तकनीकी उद्यमी
    3. क्षेत्र के अनुसार -
    1. शहरी उद्यमी
    2. ग्रामीण उद्यमी
    4. लिंगानुसार -
    1. पुरूष उद्यमी
    2. महिला उद्यमी

    27 Comments

    1. Aap ka bohat bohat sukriya😊😊😊😊😊

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    2. Very nice explanation..
      Thank you ...

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      And please exaplain pariyojana in your way

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    4. Very nice entroduction

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    5. Very nice entroduction

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    6. Esme prakriya nahi hee pleas add

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    7. Super isse bhut aacha explanation Mela

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