दर्शन का अर्थ, परिभाषा, उद्देश्य, आवश्यकता एवं विशेषताएँ

दर्शन शब्द संस्कृत की दृश् धातु से बना है- ‘‘दृश्यते यथार्थ तत्वमनेन’’ अर्थात् जिसके द्वारा यथार्थ तत्व की अनुभूति हो वही दर्शन है। अंग्रेजी के शब्द फिलॉसफी का शाब्दिक अर्थ ‘‘ज्ञान के प्रति अनुराग’’ होता है। व्यापक अर्थ में दर्शन वस्तुओं, प्रकृति तथा मनुष्य उसके उद्गम और लक्ष्य के प्रतिवीक्षण का एक तरीका है, जीवन के विषय में एक शक्तिशाली विश्वास है जो उसको धारण करने वाले अन्य से अलग करता है।

दर्शन का अर्थ

दर्शन, भारतीय शब्द है, जिसका पाश्चात्य पर्यायवाची शब्द ‘‘फिलासफी’’ कहा जाता है। शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से दर्शन शब्द संस्कृत भाषा की ‘दृश’ धातु (जिसका सामान्य अर्थ है-देखना) के कारण अर्थ में ल्युट प्रत्यय (अन्) लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाये (दृश्यते अनेन इति दर्शनम्) देखने से अर्थ आंख द्वारा देखने से लेते है, किन्तु यह देखना स्थूल नेत्रों से भी हो सकता है और सूक्ष्म नेत्रों से भी। सूक्ष्म नेत्र इसे दिव्यचक्षु भी कहा गया है। सूक्ष्म नेत्रों से आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस प्रकार दर्शन शब्द का प्रयोग स्थूल और सूक्ष्म, भौतिक और अध्यात्मिक दोनों अर्थो में किया गया है।

दर्शन की परिभाषा 

हम यह कह सकते हैं कि दर्शन का संबंध ज्ञान से है और दर्शन ज्ञान को व्यक्त करता है। हम दर्शन के अर्थ को और अधिक स्पष्ट करने हेतु कुछ  दर्शन की परिभाषा दे रहे हैं।

उपनिषद् काल में दर्शन की परिभाषा थी-जिसे देखा जाये अर्थात् सत्य के दर्शन किये जाये वही दर्शन है। (दृश्यते अनेन इति दर्शनम्- उपनिषद) डा0 सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार- दर्शन वास्तविकता के स्वरूप का तार्किक विवेचन है।

पाश्चात्य जगत में दर्शन का सर्वप्रथम विकास यूनान में हुआ। प्रारम्भ में दर्शन का क्षेत्र व्यापक था परन्तु जैसे-जैसे ज्ञान के क्षेत्र में विकास हुआ दर्शन अनुशासन के रूप में सीमित हो गया।

प्लेटो के अनुसार- जो सभी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा रखता है और सीखने के लिये आतुर रहता है कभी भी सन्तोष करके रूकता नहीं, वास्तव में वह दार्शनिक है। उनके ही शब्दों में- ‘‘पदार्थों के सनातन स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है।’’

अरस्तु के अनुसार- ‘‘दर्शन एक ऐसा विज्ञान है जो परम तत्व के यथार्थ स्वरूप की जॉच करता है।’’

कान्ट के अनुसार-’’दर्शन बोध क्रिया का विज्ञान और उसकी आलोचना है।’’ परन्तु आधुनिक युग में पश्चिमी दर्शन में भारी बदलाव आया है, अब वह मूल तत्व की खोज से ज्ञान की विभिन्न शाखाओं की तार्किक विवेचना की ओर प्रवृत्त है। अब दर्शन को विज्ञानों का विज्ञान और आलोचना का विज्ञान माना जाता है।

कामटे के शब्दों में- ‘‘दर्शन विज्ञानों का विज्ञान है।’’

हरबार्ट स्पेन्सर के शब्दो में ‘‘दर्शन विज्ञानों का समन्वय या विश्व व्यापक विज्ञान है।’’
ऊपर की गयी चर्चा से यह स्पष्ट है कि भारतीय दृष्टिकोण और पाश्चात्य दृष्टिकोण में मूलभूत अन्तर है। परन्तु दर्शन की मूलभूत सर्वसम्मत परिभाषा होनी चाहिये- दर्शन ज्ञान की वह शाखा है, जिसमें सम्पूर्ण ब्रह्म्र्राण्ड एवं मानव के वास्तविक स्वरूप सृष्टि-सृष्टा, आत्मा-परमात्मा, जीव-जगत, ज्ञान-अज्ञान, ज्ञान प्राप्त करने के साधन और मनुष्य के करणीय और अकरणीय कर्मोर्ंं का तार्किक विवेचन किया जाता है।।

बरटे्रड रसेल- ‘‘अन्य विधाओं के समान दर्शन का मुख्य उद्देश्य-ज्ञान की प्राप्ति है।’’

आर0 डब्लू सेलर्स-’’दर्शन एक व्यवस्थित विचार द्वारा विश्व और मनुष्य की प्रकृति के विषय में ज्ञान प्राप्त करने का निरन्तर प्रयत्न है।’’

जॉन डी0वी0 का कहना है- ‘‘जब कभी दर्शन पर गम्भीरतापवू के विचार किया गया है तो यही निश्चय हुआ कि दर्शन ज्ञान प्राप्ति का महत्व प्रकट करता है जो ज्ञान जीवन के आचरण को प्रभावित करता है।’’

हैन्डर्सन के अनुसार- ‘‘दर्शन कुछ अत्यन्त कठिन समस्याओ का कठारे नियंत्रित तथा सुरक्षित विश्लेषण है जिसका सामना मनुष्य करता है।

ब्राइटमैन ने दर्शन को थोडे़ विस्तृत रूप में परिभाषित किया है - कि दर्शन की परिभाषा एक ऐसे प्रयत्न के रूप में दी जाती है जिसके द्वारा सम्पूर्ण मानव अनुभूतियों के विषय में सत्यता से विचार किया जाता है अथवा जिसके द्वारा हम अपने अनुभवों द्वारा अपने अनुभवों का वास्तविक सार जानते हैं।

दर्शन की आवश्यकता

दर्शन यानी दार्शनिक चिन्तन की बुनियाद, उन बुनियादी प्रश्नों में खोजी जा सकती है, जिसमें जगत की उत्पत्ति के साथ-साथ जीने की उत्कंठा की सार्थकता के तत्वों को ढूंढने का प्रश्न छिपा है। प्रकृति के रहस्यों को ढूंढने से शुरू होकर यह चिन्तन उसके मनुष्य धारा के सामाजिक होने की इच्छा या लक्ष्य की सार्थकता को अपना केन्द्र बिन्दु बनाती है। 

मनुष्य विभिन्न प्रकार के ज्ञान अपने जीवन में प्राप्त करता है। उस ज्ञान का कुछ न कुछ लक्ष्य अवश्य हेाता है। दर्शनशास्त्र के अध्ययन शिक्षाशास्त्र के विद्यार्थियों के लिये विशेष कर आवश्यक जान पड़ता है। इसके कई कारण है-

1. जीवन को उपयोगी बनाने के दृष्टिकोण से- भारतीय एवं पाश्चात्य दोनों विचारों के अनुसार दर्शन की आवश्यकता सर्वप्रथम जीवन के लिये होती है। प्रत्येक व्यक्ति विद्वान या साधारण ज्ञान या न जानने वाला हो वह अवश्य ही विचार करता है। व्यक्ति अपने जीवन की घटनाओं को यादकर उनसे आगामी घटनाओं का लाभ उठाता है। यह अनुभव उसको जीवन में एक विशिष्ट दृष्टिकोण रखने वाला बना देते हैं। यही उसका जीवन दर्शन बन जाता है।

2. अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण- दर्शन का एक रूप हमें अर्थव्यवस्था में भी मिलता है, जिसके आर्थिक दर्शन भी कहते हैं। आर्थिक क्रियाओं पर एक प्रकार का नियंत्रण होता है। इसका प्रयोग व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय जीवन में होता है। परिणामस्वरूप दोनों को लाभ होता है। मितव्ययिता एक विचार है और इसका उदाहरण है। व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय येाजना का आधार यही दर्शन होता है। अर्थव्यवस्था शिक्षा के क्षेत्र में भी होता है। जिससे लाभों की दृष्टि में रखकर योजनायें बनती हैं।

3. राजनैतिक व्यवस्था के दृष्टिकोण से- विभिन्न राजनैतिक व्यवस्था में विभिन्न प्रकार के दर्शन होते हैं। जनतंत्र में जनतांत्रिक दर्शन होता है। जिसमें प्रत्येक व्यक्ति को समान अधिकार मिलते हैं। विभिन्न ढंग से उसे समान अवसर दिये जाते हैं और उसे पूर्ण स्वतंत्रता मिलती है। विभिन्न ढंग से एक दार्शनिक दृष्टिकोण एवं सिद्धान्त बनता है। दर्शन राष्ट्रीय मूल्यों का स्थापन कर उनका क्रमिक विकास करता है। 

4. शैक्षिक विकास की दृष्टिकोण से- संस्कृति जीने की कला है एव  तरीकों का योग हैं । दर्शन इन विधियों का परिणाम कहा जा सकता है। संस्कृति का परिचय दर्शन से मिलता है। भारतीय संस्कृति का ज्ञान उसके दर्शन से होता है। भारतीय परम्परा में सुखवाद को स्थान नहीं, त्याग एवं तपस्या का स्थान सर्वोपरि है अतएव भारतीय दर्शन में योगवादी आदर्श पाये जाते हैं और भारतीय दर्शन आदर्शवादी है। 

5. व्यक्ति को चिन्तन एवं तर्क से पूर्ण बनाने की दृष्टि से - दर्शन जीवन पर, जीवन की समस्याओं पर और इनके समाधान पर चिन्तन एवं तर्क की कला है। इससे जानने की आवश्यकता हर व्यक्ति को हो।

दर्शन का विषय क्षेत्र

भारतीय विचारधारा के अनुसार दर्शन एवं जीवन में किसी प्रकार का अन्तर नहीं है। अत: सम्पूर्ण जीवन को दर्शन का विषय क्षेत्र माना गया है। हम दर्शन को मुख्यत: दो रूप में ग्रहण करते हैं- 1. सूक्ष्म तात्विक ज्ञान के रूप में। 2. जीवन की आलोचना और जीवन की क्रियाओं की व्याख्या के रूप में। एक शास्त्र के रूप में दर्शन के अन्तर्गत  विषयों को अध्ययन किया जाता है।

1. आत्मा सम्बंधी तत्व ज्ञान- इसमें आत्मा से संबन्धित प्रश्नो पर विचार किया जाता है: यथा आत्मा क्या है? आत्मा का स्वरूप क्या है? जीव क्या है? आत्मा का शरीर से क्या सम्बंध है? इत्यादि। 

2. ईश्वर सम्बंधी तत्व ज्ञान- इसमें ईश्वर विषयक प्रश्नो के उत्तर खोजे जाते हैं : जैसे कि ईश्वर क्या है? उसका अस्तित्व है या नहीं? ईश्वर का स्वरूप कैसा है? इत्यादि। 

3. सत्ता-शास्त्र- इसमें अमूर्त सत्ता अथवा वस्तुओं के तत्व के स्वरूप का अध्ययन किया जाता है: यथा- ब्रह्माण्ड के नश्वर तत्व क्या है? ब्रह्माण्ड के अक्षर तत्व कौन-कौन से हैं ? 

4. सृष्टि-शास्त्र- इसमें सृष्टि की रचना एवं विकास से संबन्धित समस्याओं पर विचार किया जाता है : यथा- क्या सृष्टि अथवा ब्रह्माण्ड की रचना भौतिक तत्वों से हुयी है? क्या ब्रह्माण्ड का निर्माण आध्यात्मिक तत्वों से हुआ है? इत्यादि। 

5. सृष्टि उत्पत्ति का शास्त्र- इस शास्त्र में सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में विचार किया जाता है : यथा- सृष्टि अथवा विश्व की उत्पत्ति किस प्रकार हुयी है? क्या इसकी रचना की गयी है? यदि हां तो इसकी रचना किसने की है? इत्यादि। 

6. ज्ञान-शास्त्र- इस शास्त्र में सत्य ज्ञान से संबन्धित समस्याओं का हल खोजा जाता है : जैसे कि सत्य ज्ञान क्या है? इस ज्ञान को प्राप्त करने के कौन- से साधन है? क्या मानव बुद्धि इस ज्ञान को प्राप्त कर सकती है? इत्यादि। 

7. नीति-शास्त्र- इसमें व्यक्ति के शुद्ध एवं अशुद्ध आचरण से संम्बध रखने वाली बातों का अध्ययन किया जाता है। जैसे नीति क्या है? मनुष्य को कैसा आचरण करना चाहिये। मनुष्य का कौन सा आचरण नीति विरुद्ध है।

8. तर्क-शास्त्र- इसमें तार्किक चिन्तन के विषय में विचार किया जाता है- यथा : तार्किक चिन्तन कैसे किया जाता है? तर्क की विधि क्या है? तार्किक चिन्तन का स्वरूप क्या है? इत्यादि।

9. सैान्दर्य-शास्त्र- इसमें सौन्दर्य- विषयक प्रश्नो के उत्तर खोजे जाते है  : यथा- सौन्दर्य क्या होता है? सौन्दर्य का मापदण्ड क्या है? इत्यादि। 

10. दर्शन मनुष्य एवं जगत के संम्बध का अध्ययन- दर्शन जीवन की आलोचना तथा जीवन क्रियाओं की व्याख्या है वहां दर्शन मनुष्य का संबंध जगत से तथा जगत की विविध गतिविधियों से क्या है, अध्ययन करता है। जीवन का इस जगत से संबंध समाज और समाज की आर्थिक, राजनैतिक शैक्षिक आदि क्रियाओं के साथ है। 

अस्तु सामाजिक दर्शन, आर्थिक दर्शन, राजनैतिक दर्शन तथा शिक्षा दर्शन भी अध्ययन के विषय बन गये हैं। इन सभी विषयों में समस्याओं के अध्ययन के साथ उनमें आदर्श एवं मूल्यों की स्थापना होती है।

दर्शन का उद्देश्य

दर्शन चिन्तन एवं विचार है, जीवन के रहस्यों को जानने का प्रयत्न है। अतएव दर्शन के उद्देश्य कहे जा सकते हैं।

1. रहस्यात्मक आश्चर्य की सन्तुष्टि- दर्शन का आरम्भ भारत में तथा यनू ान में आश्चर्य सें हुआ है। वैदिक काल में मानव ने प्रकृति की सुन्दर वस्तुओं, घटनाओं एवं क्रियाओं को देखकर आश्चर्य किया कि सूर्य, चन्द्र, तारे, प्रकाण, आंधी, वर्षा, गर्मी और मानव की उत्पत्ति कैसे हुयी? मानव में इसे जानने की इच्छा हुयी। उसने परम सत्ता की कल्पना की। उसने अपने (आत्म) एवं ईश्वर (परम) में अन्तर किया और दोनों के पारस्परिक सम्बंध को खोजने के लिये प्रयत्नशील हुआ। मानव ने परमसत्ता को समस्त चराचर में समाविष्ट देखा और चिन्तन द्वारा अनुभूति या साक्षात्कार करने की मानव ने लगातार प्रयत्न किया और उस परमसत्ता की प्राप्ति को मोक्ष कहा यही परमसत्ता की प्राप्ति भारतीय दर्शन कहलाया। 

2. तात्विक रहस्यों पर चिन्तन- यूनान में ‘‘आश्चर्य’’ से दर्शन का जन्म माना गया है। यूनानी लोगों को भी प्रकृति की क्रियाओं पर आश्चर्य हुआ और संसार के मूलोद्गम को जानने की जिज्ञासा ने जन्म लिया। थेलीज ने जल को एनैकथीमैन्डर ने वायु और हैराक्लाइटस ने अग्नि को उद्गम का मूल माना। वास्तव में ये तीन तत्व ही जगत निर्माण के मूल माने गये। यही तत्व भारत में भी सृष्टि निर्माण के मूल तत्व माने गये हैं बस पाँचवाँ तत्व आकाश माना गया है। 

3. तर्क द्वारा संशय दूर करना- दर्शन का आरम्भी संशय से होता है। वास्तविक ज्ञान की प्राप्ति केवल किसी की बात को मान लेने से नहीं होता है जब तक कि इसे तर्क देकर सिद्ध न किया जाये। डेकार्टे ने माना- ‘‘मैं विचार करता हॅू इस लिये मेरा अस्तित्व है’’ अर्थात् डेकार्टे ने आत्मा को सन्देह रहित माना। आत्मा मनुष्य में निहीत है परन्तु ईश्वर की सत्ता असंदिग्ध हैं। दर्शन सत्य ज्ञान प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। 

4. यर्थाथ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना- भारतीय दृष्टिकोण से दर्शन का लक्ष्य सत्य की खोज करना है। यह सत्य प्रकृति सम्बंधी तथा आत्मा सम्बंधी हो सकता है। इस यूनान के दार्शनिक प्लेटो ने माना और उनके अनुसार-दर्शन, अनन्त का तथा वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना है। अरस्तु ने और अधिक स्पष्ट करते हुये लिखा कि दर्शन का लक्ष्य प्राणी के स्वरूप का अन्वेषण करना है और उनमें निहित स्वाभाविक गुणों का पता लगाता है। 

वून्ट ने स्पष्ट किया- विद्वानों द्वारा प्राप्त समग्र ज्ञान का सामंजस्यपूर्ण एकता में एकत्रीकरण ही दर्शन है। अतएव ‘‘दर्शन पूर्ण रूपेण एकत्रित ज्ञान ही है।’’ दर्शन का लक्ष्य समग्र ब्रह्माण्ड को समग्र वास्तविकता का दिग्दर्शन है। 

5. जीवन की आलोचना और व्याख्या करना- दर्शन का एक लक्ष्य आधुनिक वर्णों में जीवन की आलोचना एवं व्याख्या करना तथा निश्चित धारणाओं को प्राप्त कराना है जिससे जीवन को लाभ हो सके। दर्शन का उद्देश्य व्यापक तथा विभिन्न क्षेत्रों से सम्बंधित है। 

6. जीवन के आदर्शों का निर्माण करना- प्राचीन काल से आज तक अपने देश में तथा अन्य सभी देशों में दर्शन का लक्ष्यों जीवन के आदर्शों का निर्माण करना रहा है। दर्शन जीवन के प्रति उस निर्णय को कहते है जो मानव करता है। अत: आदर्श निर्माण दर्शन का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य होता है। 

17 Comments

  1. Very good... Mujhe yah badhkar Bahut Badhiya laga & kafhi jankari bhi hasil hue... So thank you

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  2. आपके द्वारा दी गयी जानकारी बेहद1ही उत्तम स्वरूप का है आपका सहृदय धन्यवाद

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  3. Kripya easy words ka prayog kare

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  4. Very important and helpful for me thanks

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  5. Darshan ki paribhasha according to arvind this,vivekananad,and ramanujacharya

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  6. Please Darshan ki vishestaye Sahi s dijiye mujhe bilkul bhi clear ni hua

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  7. Aapke madhayam se jo contents hm sabhi ko padhne ko mila wh behad rha

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  8. आप की जानकारी ठीक वैसी ही है जैसे हमारी गुरु जी द्वारा बताई गई है इस जानकारी को पढ़कर हमें कुछ ऐसे तथ्यों को भी पता लगा चुके हैं जिसके बारे में हमारे गुरु जी द्वारा नहीं बतलाया गया था आपके इन तथ्यों को पढ़कर उत्तम ज्ञान की प्राप्ति हुई है जो आगे होने वाली शिक्षण प्रतियोगिता के लिए उचित रूप में सही और सटीक है
    आपका बहुत-बहुत धन्यवाद 🙏

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  9. its not perfect please reading book

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  10. Features to h hi nhii

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