प्रयोगात्मक अनुसंधान क्या है प्रयोगात्मक अनुसन्धान की चार प्रमुख विशेषताएं

प्रयोगात्मक अनुसन्धान, अनुसन्धान की एक प्रमुख विधि है। प्रयोगात्मक अनुसन्धान में कार्य कारण सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित करने के लिये दो स्थितियों को संतुष्ट करना होता है। पहले तो यह सिद्ध करना होता है कि यदि कारण है तो उसका प्रभाव होगा। यह स्थिति आवश्यक है लेकिन पर्याप्त नहीं है। दूसरा हमें यह भी सिद्ध करना होता हैकि यदि कारण नहीं है तो प्रभाव भी नहीं होगा। यदि वही कारण न हो फिर भी प्रभाव हो तो इसका अर्थ यह हुआ कि प्रभाव का वह कारण नहीं है जो हम अपेक्षा कर रहे थे। प्रयोगात्मक अनुसन्धान में कारण की उपस्थिति प्रभाव केा दिखाती है तथा कारण की अनुपस्थिति प्रभाव केा नहीं दिखाती है। इन्ही दो स्थितियों केा सन्तुष्ट करने के बाद हम सही कार्य-कारण सम्बन्ध स्थापित कर सकते हैं ।

प्रयोगात्मक अनुसन्धान, जान स्टुआर्ट के ‘‘एकल चर के नियम’’ (Law of Single Variable) पर आधारित है। प्रयोगात्मक अनुसन्धान का आधार ‘‘अन्तर की विधि (Method of Difference ) है। इस विधि के अनुसार - ‘‘ यदि दो परिस्थितियां सभी दृष्टियों से समान है तथा यदि किसी चर को एक परिस्थिति में जोड़ दिया जाए तथा दूसरी स्थिति में नहीं जोड़ा जाए और यदि पहली परिस्थिति में केाई परिवर्तन दिखाई पड़े तो वह परिवर्तन उस चर के जोड़ने के कारण होगा। यदि किसी एक परिस्थिति में एक चर हटा लिया तथा दूसरी परिस्थिति में उस चर को न हटाए तब यदि पहली परिस्थिति में केाई परिवर्तन होगा तो वह उस चर के हटा लेने के कारण होगा।’’ चर - प्रयोगात्मक अनुसन्धान में चरों का वणर्न किया जाता है-

1. स्वतन्त्र चर – जिस चर में प्रयोगकर्ता परिवर्तन या जोड़-तोड़ करता है, उसे स्वतन्त्र चर कहा जाता है। स्वतन्त्र चर को ‘कारण चर’ (cause variable) भी कहा जाता है। इसे ‘प्रभावित करने वाला चर’ (Influencing variable) कहा जाता है क्येांकि यह किसी दूसरे चर को प्रभावित करता है। उदाहरण - पढ़ाने का तरीका, बुद्धि, अभिवृत्ति, व्यक्तित्व, प्रेरणा, आयु । स्वतन्त्र चर दो प्रकार के होते हैं -
  1. संचालित चर (Treatment variable)
  2. जैविक चर (organismic variable)
जिन चरों में शोधकर्ता द्वारा जोड़-तोड़ करना सम्भव होता है उसे संचालित चर कहते हैं, जैसे - पढ़ाने का तरीका, दण्ड, पुरस्कार आदि। जिन चरों में शोधकर्ता द्वारा परिवर्तन सम्भव नहीं होता है उन्हें जैविक चर कहते हैं जैसे -बुद्धि, प्रजाति, आयु आदि।

2. आश्रित चर - स्वतन्त्र चर में जोड़-तोड़ के बाद उसका प्रभाव जिस चर पर देखा जाता है उसे आश्रित चर कहा जाता है। इसी कारण आश्रित चर को ‘प्रभाव चर’ (Effect Variable) कहा जाता है। आश्रित चर के अवलोकन के बाद उसकी रिकार्डिग शोधकर्ता द्वारा की जाती है।यदि पढ़ाने की विधि के प्रभाव का अध्ययन हम शैक्षिक उपस्थित पर करना चाहते हैं तथा दो या तीन भिन्न-भिन्न विधियों से बच्चों को पढ़ाया जाए तथा इसका प्रभाव उनकी शैक्षिक उपलब्धि पर देखा जाए तो इस अध्ययन में ‘पढ़ाने की विधि’ एक स्वतन्त्र चर है तथा ‘शैक्षिक उपलब्धि’ एक आश्रित चर है।

3. समाकलित चर – किसी भी अध्ययन में स्वतऩ् चर के अतिरिक्त ऐसे कुछ चर होते हैं तो आश्रित चर केा प्रभावित करते हैं। स्वतन्त्र चर का प्रभाव हमें आश्रित चर पर देखना होता है। चयनित स्वतन्त्र चर के अतिरिक्त सभी चर भी आश्रित चर केा प्रभावित कर सकते हैं। इन चरों केा समाकलित चर कहा जाता है। समाकलित चर दो प्रकार के होते हैं -
  1. हस्तक्षेपी चर (Intervening Variable) - कुछ चर ऐसे होते हैं जिन्हें हम सीधे नियंत्रित नहीं कर सकते और न ही उनका मापन कर सकते हैं लेकिन उनकी उपस्थिति का आश्रित चर पर प्रभाव पड़ता है। इस प्रकार के चरों का उदाहरण -दुश्चिन्ता, प्रेरणा तथा थकान आदि है। इन चरों का अवलोकन तथा संक्रियात्मक परिभाषीकरण करना भी मुष्किल होता है लेकिन इनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। उपयुक्त शोध-डिजाइन के प्रयोग द्वारा इन्हें हम नियन्त्रित कर सकते हैं।
  2. वाह्य चर (Extraneous Variable) - स्वतन्त्र चर का पभ््र ााव हम आश्रित चर पर देखते हैं। ऐसे चर जिनका अध्ययन हमे नहीं करना होता या “ाोध् ाकर्ता जिनमें केाई जोड़-तोड़ नहीं करना उनका प्रभाव भी आश्रित चर पर पड़ता है। इसलिये ऐसे चरों केा नियन्त्रित करना आवश्यक होता है। इन्हे ही वाह्य चर कहते हैं। वाह्य चरों पर नियन्त्रण कई विधियों से किया जाता है। वाहय चर अध् ययन के परिणाम को प्रभावित करते हैं तथा यह स्वतन्त्र चर तथा आश्रित चर दोनो से सहसम्बन्धित होते हैं।
स्वतन्त्र चर - अध्यापक
आश्रित चर - परीक्षा परिणाम
वाहय चर - विद्यालय का वातावरण

4. प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह -
कार्य-कारण सम्बन्धों केा स्थापित करने के लिये हमें दो पारिस्थितियों केा संतुष्ट करना होता है। पहली परिस्थिति मे में यह देखना होता है यदि कारण है तो प्रभाव होगा तथा दूसरी परिस्थिति में हमें यह देखना हेाता है कि यदि कारण नहीं है तो प्रभाव भी नहीं हेागा। इसी कारण प्रयोगात्मक अनुसन्धान में दो समूह होते हैं - एक प्रयोगात्मक समूह तथा दूसरा नियन्त्रित समूह।
  1. प्रयोगात्मक समूह - इस समहू में शोधकर्ता द्वारा स्वतन्त्ऱ चर में जोड - तोड  किया जाता है। यह सिद्ध किया जाता है कि यदि कारण है तो इसका प्रभाव होगा। जोड़-तोड़ का प्रभाव आश्रित चर पर देखा जाता है।
  2. नियन्त्रित समूह - इस समहू में शोधकतार् द्वारा स्वतन्त्ऱ चर में कोई जोड - तोड  नहीं किया जाता है। यह सिद्ध किया जाता है कि यदि कारण नहीं है तो इसका प्रभाव भी नहीं है।

प्रयोगात्मक अनुसन्धान की विशेषताएं

प्रयोगात्मक अनुसन्धान की चार प्रमुख विशेषताएं होती है ।

1. नियन्त्रण - नियन्त्रण प्रयोगात्मक अनुसन्धान की एक प्रमुख विशेषता है। प्रयोगात्मक अनुसन्धान में हमें स्वतन्त्र चर का प्रभाव आश्रित चर पर देखना होता है। विष्वसनीय परिणाम पाने के लिये वाहय चरों का नियन्त्रण अतिआवश्यक होता है। नियन्त्रण कई विधियो से किया जा सकता है।
  1. विलोपन (Elimination) :- वाहय चरों को नियन्त्रित करने का सबसे आसान तरीका है कि इन चरो को अध्ययन से निष्कासित कर दिया जाए ताकि आश्रित चर पर उसके प्रभाव को विलोपित किया जा सके। यदि बुद्धि वाहय चर है तो दोनों समूहों में समान बुद्धिलब्धि (IQ) के प्रयोज्यों को रखकर इस चर केा नियन्त्रित किया जा सकता है। यदि आयु वाहय चर है तो एक समान आयु के प्रयोज्यों पर अध्ययन करके आयु को नियन्त्रित किया जा सकता है। परन्तु इस विधि से नियन्त्रण करने के बाद अध्ययन का सामान्यीकरण केवल उन प्रयोज्यों पर ही किया जा सकता है जिनकेा अध्ययन में शामिल किया गया है। अध्ययन के परिणाम में हम उसी आयु वर्ग में सामान्यीकृत किया जा सकेगा।
  2. यादृच्छिकीकरण (Randomization) :- यादृच्छिकीकरण केवल एक ऐसी विधि है जिसके द्वारा सभी वाहय चरों समूह तथा नियन्त्रित समूह असमतुल्य हो सकते है लेकिन फिर भी उनके समान होने की प्रायिकता बहुत अधिक होती है। जहां तक सम्भव हो प्रयोगात्मक समूह में यादृच्छिक ढ़ंग से प्रयोज्यों केा आबंटित किया जाना चाहिए तथा यादृच्छिक ढ़ंग से आबंटित स्थितियों को प्रयोगात्मक समूह केा दिया जाना चाहिए।
  3. वाह्यय चर को स्वतन्त्र चर के रूप में बदलना (To convert the Extraneous variable into a independent variable) :- वाह्य चरों केा नियन्त्रित करने का एक तरीका यह भी है कि जिस वाहय चर को हमें नियन्त्रित करना है उसका हम अपने अध्ययन में शामिल कर लें। यदि आयु या बुद्धि हमारे अध्ययन में वाहय चर है तो हम इन चरों को भी अपने अध्ययन में शामिल कर लें। इन चरों (बुद्धि और आयु ) का प्रभाव आश्रित चर पर देंखे्रेगे तथा इन चरों की आपस में अन्तक्रिया का प्रभाव क्या होगा ? यह भी अध्ययन किया जाएगा।
  4. प्रयोज्यों को सुमेलित करना (Matching Cases) :- इस विधि में वाह्य चरों को नियन्त्रित करने में ऐसे प्रयोज्यों को लिया जाता है जो एक समान विशेषताएं रखते हैं तथा इनमें से कुछ को प्रयोगात्मक समूह में तथा कुछ को नियन्त्रित समूह में रखा जाता है।इस विधि की अपनी कुछ सीमाएं है जैसे एक से अधिक चरों के आधार पर प्रयोज्यों केा सुमेलित करना एक कठिन कार्य है। बहुत से प्रयोज्यों केा अध्ययन से अलग करना पड़ता है क्येांकि वह सुमेलित नहीं हो पाते ।
  5. समूहों को सुमेलित करना (Group Matching) :- इस विधि से वाह्य चरों केा नियन्त्रित करने में प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह में प्रयोज्यों को इस प्रकार आबंटित किया जाता है कि जहां तक सम्भव होता है दोनों समूहों का मध्यमान तथा प्रसरण लगभगसमान हो।
  6. सह प्रसरण विष्लेशण (Analysis of covariance ) :- वाहय चरों के आधार पर प्रयोगात्मक समूह तथा नियन्त्रित समूह में होने वाले प्रारम्भिक अन्तर केा सांख्यिकीय विधि से दूर किया जाता है।
2. जोड़़-तोड -प्रयोगात्मक अनुसन्धान की प्रमुख विशेषता है - स्वतंत्र चर में जोड़-तोड़ करना। स्वतन्त्र चर में जेाड़-तोड़ करके उसके प्रभाव केा आश्रित चर पर देखा जाता है। स्वतन्त्र चर के उदाहरण है-आयु, सामाजिक-आर्थिक स्तर, कक्षा का वातावरण, व्यक्तित्व की विशेषता आदि। इनमें से कुछ चरों में शोधकर्ता के द्वारा परिवर्तन किया जा सकता है। जैसे-शिक्षण विधि तथा पढ़ाने का विषय आदि। कुछ चरों में सीधे परिवर्तन न करके चयन द्वारा परिवर्तन किया जाता है जैसे- आयु, बुद्धि, आदि। शोधकर्ता एक समय में एक या एक से अधिक स्वतन्त्र चरों में जोड़-तोड़ कर सकता है।

3. अवलोकन - प्रयोगात्मक अनुसन्धान में स्वतन्त्र चर मे जोड़-तोड़ करके उसके प्रभाव केा आश्रित चर पर देखा जाता है। आश्रित चर पर पड़ने वाले प्रभाव को सीधे नहीं देखा जा सकता। शैक्षिक उपलब्धि तथा अधिगम यदि आश्रित चर है तो इनकेा सीधे नहीं देखा जा सकता है। शैक्षिक उपलब्धि को परीक्षा में प्राप्त अंकों के अवलोकन के आधार पर देखा जाएगा।

4. पुनरावृत्ति - 
प्रयोगात्मक अनुसन्धान में यदि सभी वाहय चरों को नियन्त्रित करने का प्रयास किया गया तथा प्रयोज्यों को आबंटन यादृच्छिक विधि से किया जाए तब भी ऐसे बहुत से कारक हो सकते हैं जो अध्ययन के परिणामों केा प्रभावित कर सकते हैं। पुनरावृत्ति के द्वारा इस तरह के समस्या का समाधान किया जा सकता है । यदि किसी प्रयोग में 15-15 प्रयोज्य प्रयोगात्मक तथा नियन्त्रित समूह में है तथा उनका आबंटन यादृच्छिक विधि से किया गया है तो यह एक प्रयोग न होकर 15 समानान्तर प्रयोग होते हैं। प्रत्येक जोड़े को अपने आप में एक प्रयोग माना जाता है।

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