ग्रामीण विकास का अर्थ, परिभाषा, ग्रामीण विकास से सम्बन्धी मुद्दे

ग्रामीण विकास

ग्रामीण विकास एवं बहुआयामी अवधारणा है जिसका विश्लेषण दो दृष्टिकोण के आधार पर किया गया है: संकुचित एवं व्यापक दृष्टिकोण। संकुचित दृष्टि से ग्रामीण विकास का अभिप्राय है विविध कार्यक्रमों, जैसे- कृषि, पशुपालन, ग्रामीण हस्तकला एवं उद्योग, ग्रामीण मूल संरचना में बदलाव के द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों का विकास करना। 

वृहद दृष्टि से ग्रामीण विकास का अर्थ है ग्रामीण जनों के जीवन में गुणात्मक उन्नति हेतु सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक, प्रोद्योगिक एवं संरचनात्मक परिवर्तन करना।

ग्रामीण विकास का अर्थ

इसमें ग्रामीण का तात्पर्य अनगरीय क्षेत्र अर्थात् गाँव से है जबकि विकास का अभिप्राय कालानुक्रमिक सम्वर्द्धन से है। इस प्रकार विकास एक व्यावहारिक एवं गत्यात्मक संकल्पना है जिसका अभिप्राय समृद्धि, प्रगति, उन्नति, उत्थान एवं सभी क्षेत्रों में धनात्मक परिवर्तन से है। ग्रामीण समाज के परिप्रेक्ष्य में विकास का अर्थ मानव कल्याण के लिए ग्रामीण क्षेत्र के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में परिवर्तन से है। यही परिवर्तन ही विकास का मुख्य लक्ष्य है कि ग्रामीण समाज प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में आवश्यक परिवर्तनों को अपने में समाहित कर आर्थिक और सामाजिक विकास की गतिविधियों को उत्प्रेरित करे जिससे एक स्वस्थ सुदृढ़ भयमुक्त समतापरक और परस्पर सहयोगात्मक ग्रामीण समाज का निर्माण हो सके।

'ग्रामीण' और 'विकास' शब्दों के आशय से स्पष्ट है कि 'ग्रामीण विकास' अनगरीय क्षेत्रों के समग्र विकास की योजना है जिसमें ग्रामीण क्षेत्र में जीवन- यापन करने वाली जनसंख्या की अर्थव्यवस्था, कृषि एवं उससे सम्बन्धित क्षेत्रों में समुचित प्रगति द्वारा उनके जीवन स्तर में सुधार करना है। ग्रामीण विकास को विभिन्न विद्वानों ने भिन्न-भिन्न ढंग से परिभाषित किया है जो निम्नवत हैं—

कॉप महोदय (1972) के मतानुसार “ग्रामीण विकास एक प्रक्रिया है जिसका लक्ष्य नगरीय क्षेत्रों से बाहर रहने वाले लोगों का सम्मिलित प्रयास से विकास करना है।"

एल0बी0 मुरे (1973) के अनुसार “ग्रामीण विकास सम्पूर्ण जनसंख्या, जो स्पष्टतः नगरीय क्षेत्रों से बाहर रहती है, के लिए सामाजिक कल्याण एवं भौतिक पदार्थों में सुधार की एक प्रक्रिया है। यह क्रियान्वयन की दृष्टि से बहुखण्डीय है जिसको अनेकानेक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु लागू किया जाता है।"

उमा लाले (1974) के अनुसार “ग्रामीण विकास से आशय ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले निम्न आय वर्ग के लोगों को जीवन स्तर में सुधार लाने और आत्म निर्भर बनाने से हैं। "

विश्व बैंक (1975) के अनुसार ‘‘ग्रामीण विकास एक विशिष्ट समूह- ग्रामीण निर्धनों के आर्थिक एवं सामाजिक जीवन को उन्नत करने की एक रणनीति है।’’

बसन्त देसाई (1988) ने भी इसी रुप में ग्रामीण विकास को परिभाषित करते हुए कहा कि, ‘‘ग्रामीण विकास एक अभिगम है जिसके द्वारा ग्रामीण जनसंख्या के जीवन की गुणवत्ता में उन्नयन हेतु क्षेत्रीय स्रोतों के बेहतर उपयोग एवं संरचनात्मक सुविधाओं के निर्माण के आधार पर उनका सामाजिक आर्थिक विकास किया जाता है एवं उनके नियोजन एवं आय के अवसरों को बढ़ाने के प्रयास किये जाते हैं।‘‘

जान हैरिस (1986) ने यह बताया कि ग्रामीण विकास एक नीति एवं प्रक्रिया है जिसका आविर्भाव विश्वबैंक एवं संयुक्त राष्ट्र संस्थाओं की नियोजित विकास की नयी रणनीति के विशेष परिप्रेक्ष्य में हुआ है।

ग्रामीण विकास से सम्बन्धी मुद्दे 

भारत में ग्रामीण विकास के अबतक के प्रयास के बावजूद कुछ समस्यायें बनी हुई हैं, जैसे- पर्यावरण का क्षरण, अशिक्षा/ निरक्षरता, निर्धनता, ऋणग्रस्तता, उभरती असमानता, इत्यादि।

1. पर्यावरण का क्षरण

विकास के भौतिकवादी प्रारूप ने भूमि, वनों, प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध उपभोग एवं दोहन को बढ़ाया है जिसके परिणाम स्वरुप पर्यावरण का संतुलन बिगड़ा है। मानव एवं अन्य प्राणियों-पशु, पक्षी आदि के समक्ष पर्यावरण के क्षरण के परिणामस्वरूप कई समस्यायें उभरी हैं एवं पर्यावरण को संरक्षित करने हेतु वैश्विक एवं राष्ट्रीय प्रयास किये जा रहे हैं। 

मानव द्वारा पर्यावरण के दोहन ने ये  समस्यायें उत्पन्न की हैं: वैश्विक गर्मी, ओजोन परत में छिद्र होना, ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन, समुद्र के स्तरों में उभार, जल प्रदूषण, उर्जा संकट, वायु प्रदूषण से जुड़ी ब्याधियाँ जैसे अस्थमा में वृद्धि, लीड का विषाणुपन, जेनेटिक इंजीनियरिंग द्वारा संशोधित खाद्यानों के उत्पादन सम्बन्धी विवाद, प्लास्टिक एवं पोलीथिन के प्रयोग, गहन खेती, रासायनिक उर्वरकों के अधिकाधिक प्रयोग के परिणामस्वरूप भूमि का प्रदूषण एवं बंजर होना, नाभिकीय अस्त्र एवं नाभिकीय प्रकाश से जुड़ी दुर्घटनाएँ, अति जनसंख्या की त्रासदी, ध्वनि प्रदूषण, बड़े-बड़े बांध के निर्माण से उत्पन्न पर्यावरणीय प्रभाव, अति उपभोग की पूँजीवादी संस्कृति, वनों का कटाव, विशैली धातुओं के प्रयोग, क्षरण न होनेवाले कूड़े करकट का निस्तारण, इत्यादि। 

2. अशिक्षा/निरक्षरता

अशिक्षा सामाजिक-आर्थिक विकास से सम्बन्धित सभी मुद्दों की जननी है जिसके परिणामस्वरूप निर्धनता, बेकारी, बाल श्रम, बालिका भ्रूण हत्या, अति जनसंख्या, जैसी अनेक समस्यायें गहरी हुई हैं। भारत में हाल के दशकों में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन, सर्वशिक्षा अभियान, नि:शुल्क प्राथमिक शिक्षा का अधिकार अधिनियम, अपरान्ह भोजन, दुर्बल समूहों को स्कालरशीप, वित्तीय सहायता, दाखिला में आरक्षण, जैसे अनेक सरकारी प्रयास किये गये हैं। 

3. ग्रामीण निर्धनता

सन् 2005 के विश्व बैंक के आकलन के अनुसार भारत में 41.6 प्रतिशत अर्थात 456 मिलियन व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय गरीबी रेखा से नीचे (प्रतिदिन 1.25 डालर से कम आय वाले) हैं। 1981 में भारत में निर्धन व्यक्तियों की संख्या अन्तर्राष्ट्रीय मानकों के अनुसार 60 प्रतिशत थी जो 2005 तक घटकर 41 प्रतिशत हुई है। भारत सरकार के योजना आयोग के आंकड़े यह दर्शाते हैं कि भारत में निर्धनों की आबादी 1977-78 में 51.3 प्रतिशत थी जो 1993-94 में घटकर 36 प्रतिशत हुई तथा 2004-05 में 27.5 प्रतिशत आबादी ही निर्धन है। 

नेशनल काउंसिल फार एप्लायड इकोनोमिक रिसर्च के आकलन के अनुसार सन् 2009 में यह पाया गया कि भारत के कुल 222 मिलियन परिवारों में से पूर्णरूपेण निर्धन (जिनकी वार्षिक आय 45000 रूपये से कम थी) 35 मिलियन परिवार हैं, जिनमें लगभग 200 मिलियन व्यक्ति सम्मिलित हैं। इसके अतिरिक्त 80 मिलियन परिवारों की वार्षिक आय 45000 से 90000 रूपये के बीच है। हाल ही में जारी की गई विश्व बैंक की रिपोर्ट में यह अनुमान लगाया गया है कि भारत में निर्धनता उन्मूलन के प्रयासों के बावजूद सन् 2015 तक 53 मिलियन व्यक्ति (23.6 प्रतिशत आबादी) पूर्णरूपेण निर्धन बने रहेंगे जिनकी आय 1.25 मिलियन डालर प्रतिदिन से कम होगी।

भारत में निर्धनता के तथ्य यह भी प्रदर्शित करते हैं कि निर्धनता की आवृत्ति जनजातियों, अनुसूचित जातियों में सर्वाधिक हैं। यद्यपि इस निष्कर्ष पर आम सहमति है कि भारत में हाल के दशकों में निर्धनों की सख्ंया घटी है किन्तु यह तथ्य अभी भी विवादस्पद बना हुआ है कि निर्धनता कहाँ तक कम हुई है। इस विवाद का मूल कारण विभिन्न अभिकरणों के द्वारा आकलन की पृथक-पृथक रणनीति अपनाया जाना है। न्यूयार्क टाइम्स ने अपने अध्ययन में यह दर्शाया है कि भारत में 42.5 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आकलन के आधार पर विश्व बैंक ने यह निष्कर्ष दिया कि विश्व के सामान्य से कम भार वाले शिशुओं का 49 प्रतिशत तथा अवरूद्ध विकास वाले शिशुओं का 34 प्रतिशत भारत में रहता है।

इन तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत में ग्रामीण विकास के तमाम प्रयासों के बावजूद ग्रामीण निर्धनता की समस्या का उन्मूलन नहीं हो पाया है। ग्रामीण विकास की भावी रणनीति में निर्धनता की समस्या को प्राथमिकता प्रदान करते हुए विकास कार्यक्रमों का क्रियान्वयन करना होगा।

4. स्वास्थ्य समस्यायें 

ग्रामीण विकास के तमाम प्रयास के बावजूद ग्रामीण जनों हेतु स्वास्थ्य एवं चिकित्सा की पर्याप्त सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है। ग्रामीण दूर दराज के क्षेत्रों में न सिर्फ विशेषज्ञ चिकित्सकों बल्कि सामान्य चिकित्सकों का भी अभाव है।ग्रामीण जनों की स्वास्थ्य की दशाएं दयनीय हैं। लगभग 75 % स्वास्थ्य संरचना, चिकित्सक एवं अन्य स्वास्थ्य सम्बन्धी स्रोत नगरों में उपलब्ध हैं जहाँ 27 प्रतिशत आबादी निवास कर रही है। ग्रामीण एवं नगरीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य दशाओं के अन्तराल के कई अन्य सूचक हैं, जिन्हें तालिका में देखा जा सकता है-

सूचकग्रामीण नगरीय संदर्भ वर्ष
जन्म दर 30.022.61995
मृत्यु दर 9.76.5 1997
शिशु मृत्यु दर 80.0 42.0 1998
मातृ मृत्यु दर (प्रति एक लाख पर) 438 378 1997
अप्रशिक्षित दाइयों द्वारा प्रसव कराये जाने का प्रतिशत 71.0 27.0 1995
अप्रशिक्षित चिकित्सकों के कारण मृत्यु का प्रतिशत60.022.0 1995
कुल प्रजनन दर3.82.81993
12-13 माह की अवधि के बच्चे/बच्चियों का प्रतिशत
जिन्हें सम्पूर्ण टीकाकरण सुविध प्राप्त हुई
31.051.01993
अस्पताल 3968
(31%)
7286
(69%)
1993
डिस्पेन्सरी 12284 (40%)15710
(60%)
1993
डाक्टर4400006600001994
स्रोत- सेम्पल रजिस्टे्रशन सिस्टम, भारत सरकार, 1997-98 एवं दुग्गल आर. (1997) हेल्थ केयर बजट्स इन ए चैन्जिंग पोलिटिकल इकोनोमी, इकोनोमिक एण्ड पोलिटिकल विकली, मई 1997, 17-24

5. ग्रामीण ऋणग्रस्तता 

भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ग्रामीण ऋणग्रस्तता एक गम्भीर समस्या है। ऋणग्रस्तता का आशय है ऋण से ग्रस्त व्यक्ति के लिए ऋण चुकाने की बाध्यता का होना। ग्रामीण भारत में निर्धन किसानों एवं मजदूरों द्वारा अपनी आवश्यकताओं के कारण लिया जाने वाला कर्ज जब बढ़ जाता है एवं वे अपनी कर्ज अदायगी में असमर्थ हो जाते हैं तो यह स्थिति ग्रामीण ऋणग्रस्तता की समस्या उत्पन्न करती है।

6. उभरती असमानताएँ 

बर्लिन की दीवार के ध्वस्तीकरण (1989) एंव वैश्वीकरण (1991) के दौर में विश्व भर में लगभग 3 बिलियन पूँजीपति वैश्विक अर्थव्यवस्था में शामिल हुए हैं। पूँजी के वर्चस्व ने भारत समेत विश्व के स्तर पर असमानता की खाई को बढ़ाया है। भारत के आम जन निर्धन हैं किन्तु भारत को उभरती आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति के रूप मे पहचान मिली है। कम आय के बावजूद भारत के दक्ष तकनीकी समूह ने विकसित एवं पूँजीपति देशों के समक्ष एक विकट चुनौती उत्पन्न किया है।

विश्व की कुल आबादी में भारत लगभग 16.9 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करता है। भारत में लगभग 35 प्रतिशत आबादी अन्तर्राष्ट्रीय मानक प्रतिदिन 1 डालर से कम आय के अनुसार निर्धन हैं। 2001 के आंकड़ों के अनुसार यदि अन्तर्राष्ट्रीय निर्धनता रेखा को प्रतिदिन 2 डालर से कम आय पर निर्धारित कर दिया जाय तो भारत की 86.2 प्रतिशत आबादी निर्धनता रेखा के नीचे आ जायेगी। भारत में उभरती हुई असमानता के कई कारक हैं: सर्वप्रथम, भारत के कुल राष्ट्रीय उत्पाद में औद्योगिक एवं सेवा क्षेत्र तीव्रता से बढ़ा है किन्तु श्रमिकों की हिस्सेदारी अपेक्षित रूप में नहीं बढ़ी है। द्वितीय उच्च विकास दर के बावजूद संगठित उद्योगों में रोजगार के नये अवसर स्थिर हो गए हैं, असंगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर अवश्य बढ़े हैं किन्तु असंगठित क्षेत्रों से अर्जित की गई आय इतनी अल्प है कि निर्धनता रेखा से ऊपर लाने में असमर्थ है।

4 Comments

  1. बहुत ही अच्छा आर्टिकल है। मुझे इससे बहुत मदद मिली है। धन्यवाद।

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  2. Sir,mujhe es article ne bahut help kiya..for assignment macking.Esase achha article kahi aur mil hi nhi sakta..thankuu soooooo much 🤗

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  3. thank you so much 🤗 es article se meri exam ki tyrri krne me bahut help hui h 🤗🤗🤗

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  4. Mere exam ke poin view se ye article bhut hi important hai

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