सामाजिक परिवर्तन का अर्थ, परिभाषा तथा विशेषताएँ

सामाजिक परिवर्तन प्रकृति का नियम है, अथवा सामाजिक परिवर्तन भी प्राकृतिक या स्वाभाविक है। ऐसे किसी भी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती जो की पूर्णतया अपरिवर्तनशील व स्थिर हो। यदि समाज की व्यवस्था में कोई परिवर्तन या हेर फेर हो जाता है तो उस बदलाव को सामाजिक परिवर्तन कहेंगे।

परिवर्तन एक व्यापक प्रक्रिया है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, नैतिक, भौतिक आदि सभी क्षेत्रों में होने वाले किसी भी प्रकार के परिवर्तन को सामाजिक परिवर्तन कहा जा सकता है।

सामाजिक परिर्वतन की दिशा भी हमेशा समान नहीं होती समाज में होने वाले परिर्वतन तीन दिशाओं में होते हैं- 
  1. प्रथम रेखीय परिवर्तन 
  2. चक्रीय परिवर्तन 
  3. उतार चढाव का परिवर्तन 
सामाजिक परिवर्तन में तीन तत्व होते हैं ‘‘वस्तु तत्व‘‘ ‘‘समय‘‘ तथा ‘‘भिन्नता‘‘ इसी प्रकार समय के अनुसार भिन्न-भिन्न होना ही सामाजिक परिर्वतन कहलाता है।

सामाजिक परिवर्तन की परिभाषा

कुछ प्रमुख समाजशास्त्रियों द्वारा दी गई सामाजिक परिवर्तन की परिभाषाऐं इस प्रकार हैं-न होना ही सामाजिक परिर्वतन कहलाता है।

1. मकीवर एवं पेज (R.M. MacIver and C.H. Page) ने अपनी पुस्तक Society में सामाजिक परिवर्तन को स्पष्ट करते हुए बताया है कि समाजशास्त्री होने के नाते हमारा प्रत्यक्ष संबंध सामाजिक संबंधों से है और उसमें आए हुए परिवर्तन को हम सामाजिक परिवर्तन कहेंगे।

2. गिन्सबर्ग ‘‘ सामाजिक परिर्वतन से मेरा तात्पर्य सामाजिक ढांचे में परिर्वतन अर्थात समाज के आकार इसके विभिन्न अंगों अथवा इसके संगठन के प्रकार की बनावट एंव सन्तुलन में होने वाले परिर्वतन से है‘‘।

3. जाॅनसन ‘‘ अपने मूल अर्थ में सामाजिक परिर्वतन का अर्थ सामाजिक ढांचे में परिर्वतन से है‘‘।

4. बोटोमोर ‘‘ सामाजिक संरचना , सामाजिक संस्थाओं अथवा उनके पारस्परिक संबन्ध में घटित परिर्वतन सामाजिक परिर्वतन है।‘‘

5. डेविस (K. Davis) के अनुसार सामाजिक परिवर्तन का तात्पर्य सामाजिक संगठन अर्थात् समाज की संरचना एवं प्रकार्यों में परिवर्तन है।

6. एच0एम0 जॉनसन (H.M. Johnson) ने सामाजिक परिवर्तन को बहुत ही संक्षिप्त एवं अर्थपूर्ण शब्दों में स्पष्ट करते हुए बताया कि मूल अर्थों में सामाजिक परिवर्तन का अर्थ संरचनात्मक परिवर्तन है। 

7. जॉनसन की तरह गिडेन्स ने बताया है कि सामाजिक परिवर्तन का अर्थ बुनियादी संरचना (Underlying Structure) या बुनियादी संस्था (Basic Institutions) में परिवर्तन से है।

8. गिलिन तथा गिलिन ‘‘ सामाजिक परिर्वतन जीवन की स्वीकृत विधियों में होने वाले परिर्वतन को कहते हैं, चाहे ये परिर्वतन भौगोलिक दशाओं में परिर्वतन से हुऐ हों या सांस्कृतिक साधनों, जनंसख्या की रचना या विचारधारा के परिर्वतन से या प्रसार से अथवा समूह के अन्दर ही आविष्कार के फलस्वरूप हुऐ हों‘‘।

सामाजिक परिवर्तन की विशेषताएं

  1. सामाजिक परिवर्तन एक विश्वव्यापी प्रक्रिया (Universal Process) है। अर्थात् सामाजिक परिवर्तन दुनिया के हर समाज में घटित होता है। दुनिया में ऐसा कोई भी समाज नजर नहीं आता, जो लम्बे समय तक स्थिर रहा हो या स्थिर है। यह संभव है कि परिवर्तन की रफ्तार कभी धीमी और कभी तीव्र हो, लेकिन परिवर्तन समाज में चलने वाली एक अनवरत प्रक्रिया है। 
  2. सामुदायिक परिवर्तन ही वस्तुत: सामाजिक परिवर्तन है। इस कथन का मतलब यह है कि सामाजिक परिवर्तन का नाता किसी विशेष व्यक्ति या समूह के विशेष भाग तक नहीं होता है। वे ही परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन कहे जाते हैं जिनका प्रभाव समस्त समाज में अनुभव किया जाता है। 
  3. सामाजिक परिवर्तन के विविध स्वरूप होते हैं। प्रत्येक समाज में सहयोग, समायोजन, संघर्ष या प्रतियोगिता की प्रक्रियाएँ चलती रहती हैं जिनसे सामाजिक परिवर्तन विभिन्न रूपों में प्रकट होता है। परिवर्तन कभी एकरेखीय (Unilinear) तो कभी बहुरेखीय (Multilinear) होता है। उसी तरह परिवर्तन कभी समस्यामूलक होता है तो कभी कल्याणकारी। परिवर्तन कभी चक्रीय होता है तो कभी उद्विकासीय। कभी-कभी सामाजिक परिवर्तन क्रांतिकारी भी हो सकता है। परिवर्तन कभी अल्प अवधि के लिए होता है तो कभी दीर्घकालीन।
  4. सामाजिक परिवर्तन की गति असमान तथा सापेक्षिक (Irregular and Relative) होती है। समाज की विभिन्न इकाइयों के बीच परिवर्तन की गति समान नहीं होती है। 
  5. सामाजिक परिवर्तन के अनेक कारण होते हैं। समाजशास्त्री मुख्य रूप से सामाजिक परिवर्तन के जनसांख्यिकीय (Demographic), प्रौद्योगिक (Technological) सांस्कृतिक (Cultural) एवं आर्थिक (Economic) कारकों की चर्चा करते हैं। इसके अलावा सामाजिक परिवर्तन के अन्य कारक भी होते हैं, क्योंकि मानव-समूह की भौतिक (Material) एवं अभौतिक (Non-material) आवश्यकताएँ अनन्त हैं और वे बदलती रहती हैं। 
  6. सामाजिक परिवर्तन की कोई निश्चित भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है। इसका मुख्य कारण यह है कि अनेक आकस्मिक कारक भी सामाजिक परिवर्तन की स्थिति पैदा करते हैं।
विलबर्ट इ0 मोर (Wilbert E. Moore, 1974) ने आधुनिक समाज को ध्यान में रखते हुए सामाजिक परिवर्तन की विशेषताओं की चर्चा अपने ढंग से की है, वे हैं-
  1. सामाजिक परिवर्तन निश्चित रूप से घटित होते रहते हैं। सामाजिक पुनरुत्थान के समय में परिवर्तन की गति बहुत तीव्र होती है। 
  2. बीते समय की अपेक्षा वर्तमान में परिवर्तन की प्रक्रिया अत्यधिक तीव्र होती है। आज परिवर्तनों का अवलोकन हम अधिक स्पष्ट रूप में कर सकते हैं। 
  3. परिवर्तन का विस्तार सामाजिक जीवन के सभी क्षेत्रों में देख सकते हैं। भौतिक वस्तुओं के क्षेत्र में, विचारों एवं संस्थाओं की तुलना में, परिवर्तन अधिक तीव्र गति से होता है। 
  4. हमारे विचारों एवं सामाजिक संरचना पर स्वाभाविक ढंग और सामान्य गति के परिवर्तन का प्रभाव अधिक पड़ता है।
  5. सामाजिक परिवर्तन का अनुमान तो हम लगा सकते हैं, लेकिन निश्चित रूप से हम इसकी भविष्यवाणी नहीं कर सकते हैं। 
  6. सामाजिक परिवर्तन गुणात्मक (Qualitative) होता है। समाज की एक इकाई दूसरी इकाई को परिवर्तित करती है। यह प्रक्रिया तब तक चलती रहती है, जब तक पूरा समाज उसके अच्छे या बुरे प्रभावों से परिचित नहीं हो जाता। 
  7. आधुनिक समाज में सामाजिक परिवर्तन न तो मनचाहे ढंग से किया जा सकता है और न ही इसे पूर्णत: स्वतंत्र और असंगठित छोड़ दिया जा सकता है। आज हर समाज में नियोजन (Planning) के द्वारा सामाजिक परिवर्तन को नियंत्रित कर वांछित लक्ष्यों की दिशा में क्रियाशील किया जा सकता है।

सामाजिक परिवर्तन के प्रकार

सभी समाज और सभी कालों में सामाजिक परिवर्तन एक जैसा नहीं होता है। अत: हमें सामाजिक परिवर्तन के स्वरूप के सन्दर्भ में उसके प्रतिरूप (Patterns), प्रकार (Kinds) या प्रारूप (Models) पर विचार करना चाहिए। अर्थ की दृष्टि से तीनों शब्दों में काफी भेद है, पर विषय-वस्तु की दृष्टि से समानता। वे सभी एक ही किस्म की विषय-वस्तु के द्योतक हैं। निम्न विवरण से इस तथ्य की पुष्टि हो जाएगी।

सामाजिक परिवर्तन के अनेक प्रतिरूप (Patterns) देखने को मिलते हैं। कुछ विचारकों ने सर्वसम्मत, विरोध मत एवं एकीकृत प्रतिमानों की चर्चा की है। मकीवर एवं पेज ने सामाजिक प्रतिरूप के मुख्य तीन स्वरूपों की चर्चा की है, जो इस प्रकार हैं-

1. सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी क्रमबद्ध तरीके से एक ही दिशा में निरंतर चलता रहता है भले ही परिवर्तन का आरंभ एकाएक ही क्यों न हो। उदाहरण के लिए हम विभिन्न अविष्कारों के पश्चात् परिवर्तन के क्रमों की चर्चा कर सकते हैं। विज्ञान के अन्तर्गत परिवर्तन की प्रकृति एक ही दिशा में निरंतर आगे बढ़ने की होती है, इसलिए ऐसे परिवर्तन को हम रेखीय (Linear) परिवर्तन कहते हैं। अधिकांश उद्विकासीय समाजशास्त्री (Evolutionary Sociologists) एक रेखीय सामाजिक परिवर्तन में विश्वास करते हैं। 

2. कुछ सामाजिक परिवर्तनों में परिवर्तन की प्रकृति ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर जाने की होती है, इसलिए इसे उतार-चढ़ाव परिवर्तन (Fluctuating Changes) के नाम से भी हम जानते हैं। उदाहरण के लिए भारतीय सांस्कृतिक परिवर्तन की चर्चा कर सकते हैं। पहले भारत के लोग आध्यात्मवाद (Spiritualism) की ओर बढ़ रहे थे, जबकि आज वे उसके विपरीत भौतिकवाद (Materialism) की ओर बढ़ रहे हैं। पहले का सामाजिक मूल्य ‘त्याग’ पर जोर देता था, जबकि आज का सामाजिक मूल्य ‘भोग’ एवं संचय पर जोर देता है। इस प्रतिरूप के अन्तर्गत यह निश्चित नहीं होता कि परिवर्तन कब और किस दिशा की ओर उन्मुख होगा। 

3. परिवर्तन के तृतीय प्रतिरूप को तरंगीय परिवर्तन के भी नाम से जाना जाता है। इस परिवर्तन के अन्तर्गत उतार-चढ़ावदार परिवर्तन में परिवर्तन की दिशा एक सीमा के बाद विपरीत दिशा की ओर उन्मुख हो जाती है। इसमें लहरों (Waves) की भाँति एक के बाद दूसरा परिवर्तन आता है। ऐसा कहना मुश्किल होता है कि दूसरी लहर पहली लहर के विपरीत है। हम यह भी कहने की स्थिति में नहीं होते हैं कि दूसरा परिवर्तन पहले की तुलना में उन्नति या अवनति का सूचक है। इस प्रतिरूप का सटीक उदाहरण है फैशन। 

हर समाज में नये-नये फैशन की लहरें आती रहती हैं। हर फैशन में लोगों को कुछ-न-कुछ नया परिवर्तन दिखाई देता है। ऐसे परिवर्तनों में उत्थान, पतन और प्रगति की चर्चा फिजूल है।

सामाजिक परिवर्तन के कारक

सामाजिक परिवर्तन के अनगिनत कारक हैं। कारकों की प्रमुखता देश और काल से प्रभावित होती है। जिन कारणों से आज सामाजिक परिवर्तन हो रहे हैं, उनमें से बहुत कारक प्राचीन काल में मौजूद नहीं थे। परिवर्तन के जिन कारकों की महत्ता प्राचीन एवं मध्य काल में रही है, आज उसकी महत्ता उतनी नहीं रह गयी है। समय के साथ परिवर्तन का स्वरूप और कारक दोनों बदलते रहते हैं। एच0एम0 जॉनसन ने परिवर्तन के स्रोतों को ध्यान में रखकर परिवर्तन के सभी कारकों को मुख्य रूप से तीन भागों में रखा है।

1. सामाजिक परिवर्तन के आन्तरिक कारण - सामाजिक परिवर्तन कभी-कभी आन्तरिक कारणों से भी होता है। व्यवस्था का विरोध आन्तरिक विरोध (Internal Contradictions) से भी होता है। जब लोग किसी कारणवश अपनी परम्परागत व्यवस्था से खुश नहीं होते हैं तो उसमें फेरबदल करने की कोशिश करते रहते हैं। आमतौर पर एक बन्द समाज में परिवर्तन का मुख्य स्रोत अंतर्जात (Endogenous/Orthogenetic) कारक ही रहा है। धर्म सुधार आन्दोलन से जो हिन्दू समाज में परिवर्तन आया है, वह अंतर्जात कारक का एक उदाहरण है।

2. सामाजिक परिवर्तन के बाहरी कारण - जब दो प्रकार की सामाजिक व्यवस्था, प्रतिमान एवं मूल्य एक-दूसरे से मिलते हैं तो सामाजिक परिवर्तन की स्थिति का निर्माण होता है। पश्चिमीकरण या पाश्चात्य प्रौद्योगिकी के द्वारा जो भारतीय समाज में परिवर्तन आया है, उसे इसी श्रेणी में रखा जाएगा। साधारणत: युग में परिवर्तन के आन्तरिक स्रोतों की तुलना में बहिर्जात (Exogenous/Heterogenetic) कारकों की प्रधानता होती है।

3. सामाजिक परिवर्तन के गैरसामाजिक कारण - सामाजिक परिवर्तन का स्रोत हमेशा सामाजिक कारण ही नहीं होता। कभी-कभी भौगोलिक या भौतिक स्थितियों में परिवर्तन से भी सामाजिक परिवर्तन उत्पन्न होता है। आदिम एवं पुरातनकाल में जो समाज में परिवर्तन हुए हैं, उन परिवर्तनों से गैरसामाजिक कारकों की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका रही है।

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