औद्योगिक नीति का अर्थ, महत्व एवं औद्योगिक नीति का विकास

औद्योगिक नीति से तात्पर्य देश के औद्योगीकरण हेतु प्रस्तुत की गयी स्पष्ट तथा सुव्यवस्थित व्यूह रचना से हैं जो देश के भावी औद्योगिक विकास के स्वरूप की रूपरेखा प्रस्तुत करता हैं तथा उस स्वरूप की स्थापना करने के लिए आवश्यक दिशा निर्देश भी प्रस्तुत किये जाते हैं। औद्योगिक नीति के मुख्यताः दो भाग होते हैं प्रथम सरकार की विचारधारा जो औद्योगिकीकरण का स्वरूप निश्चित करती है, द्वितीय इसको कार्यावित करने वाले नियम तथा सिद्धांत जो इस नीति की विचारधारा को निर्वाचित स्वरूप प्रदान करते हैं। इस प्रकार औद्योगिक नीति उद्योगो की स्थापना और उसकी कार्यप्रणाली के लिए ढाँचा तथा मार्ग दर्शन प्रदान करती है। अर्थव्यवस्था में सम्मलित आर्थिक विकास के लक्ष्यों को करने के लिए औद्योगिकीकरण जितना आवश्यक होता हैं। औद्योगिकीकरण एक उपयुक्त औद्योगिक नीति के सृजन और क्रियान्वयन पर निर्भर करता हैं। आर्थिक शक्ति का संकेन्दण न हो इसके लिए उद्योगों के नियमन एवं नियंत्रण की आवश्यकता होती हैं।

औद्योगिक नीति का अर्थ

औद्योगिक नीति से अर्थ सरकार के उस चिन्तन (Philosophy) से है जिसके अन्तर्गत़ औद्योगिक विकास का स्वरूप निश्चित किया जाता है तथा जिसको प्राप्त करने के लिए नियम व सिद्धान्तों को लागू किया जाता है। औद्योगिक नीति एक व्यापक धारणा है, जिसमें दो तत्वों का मिश्रण होता है। प्रथम, औद्योगिक विकास एवं संरचना के सम्बन्ध में सरकार का दृष्टिकोण अथवा दर्शन (Philosophy) क्या रहेगा ? दूसरे, इस दृष्टिकोण की प्राप्ति के लिये, औद्योगिक इकाइयों को नियन्त्रित एवं नियमित करने की दृष्टि से किन सिद्धान्तों, प्रक्रियाओं, नियमों और नियमनों को अपनाया जायेगा ?

औद्योगिक नीति मे उन सभी सिद्धान्तों, नियमों व रीतियों का विवरण होता है जिन्हें उद्योगों के विकास के लिये अपनाया जाना है। यह नीति विशेष रूप से भावी उद्योगों के विकास, प्रबन्ध व स्थापना से सम्बन्धित होती हैं। इस नीति को बनाते समय देश का आर्थिक ढ़ँाचा, सामाजिक व्यवस्था, उपलब्ध प्राकृतिक व तकनीकी साधन व सरकारी चिन्तन का विशेष रूप से ध्यान रखा जाता है।

औद्योगिक नीति का महत्व 

किसी भी राष्ट्र के उचित एवं तीव्र औद्योगिक विकास के लिये सुनिश्चित, सुनियोजित एवं प्रेरणादायक औद्योगिकी नीति की आवश्यकता होती है, क्योंकि पूर्व घोषित औद्योगिक नीति के आधार पर ही कोई राष्ट्र अपने उद्योगों का आवश्यक मार्गदर्शन और निर्देशन कर सकता है। प्रत्येक राष्ट्र के औद्योगिक विकास के लिए औद्योगिक नीति किस प्रकार से महत्वपूर्ण होती है :
  1. वह देश के औद्योगिक विकास को सुनियोजित कर देश व अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करती है। 
  2. राष्ट्र को मार्गदर्शन व निर्देशन देती है।
  3. सरकार को निश्चित कार्यक्रम बनाने में मदद करती है। 
  4. जनसाधारण को अपनी निश्चित जीविका का साधन बनाने में सहायता करती है।
भारत जैसे विकासशील राष्ट्र के लिए औद्योगिक नीति बहुत प्रकार से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहाँ नियोजित अर्थव्यवस्था के माध्यम से औद्योगिक विकास हो रहा है। देश में प्रकृतिक साधन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हैं लेकिन उनका उचित विदोहन नहीं हो रहा है। यहाँ प्रतिव्यक्ति आय कम होने के कारण पूँजी निर्माण की दर भी कम है तथा उपलब्ध पूँजी सीमित मात्रा में है। अत: आवश्यक है कि उसका उचित प्रयोग किया जाए। देश का सन्तुलित विकास करने कि लिए संसाधनों को उचित दिशा में प्रवाहित करने कि लिए, उत्पादन बढ़ाने के लिए, वितरण की व्यवस्था सुधारने के लिए, एकाधिकार, संयोजन और अधिकार युक्त हितों को समाप्त करने अथवा नियन्त्रित करने के लिए कुछ गिने हुए व्यक्तियों के हाथ में धन अथवा आर्थिक सत्ता के केन्द्रीकरण को रोकने के लिए, असमताएँ घटाने के लिए, बेरोजगारी की समस्या को हल करने के लिए, विदेशों पर निर्भरता समाप्त करने कि लिए तथा देश को सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत बनाने के लिए एक उपयुक्त एवं स्पष्ट औद्योगिक नीति की आवश्यकता होती है। वे क्षेत्र जहाँ व्यक्तिगत उद्यमी पहुँचने में समर्थ नहीं हैं, सार्वजनिक क्षेत्र में रखे जाएँ और सरकार उनका उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले। साथ ही यह भी आवश्यक है कि निजी क्षेत्र का उचित नियन्त्रण भी होना चाहिए जिससे कि विकास योजनाएँ ठीक प्रकार से चलती रहे।

भारत में औद्योगिक नीति का  विकास 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पहले भारत में किसी औद्योगिक नीति की घोषणा कभी नहीं की गई, क्योंकि भारत में ब्रिटिस सरकार का शासन था तथा उनकी नीति ब्रिटेन के हितों से प्रेरित थी और वह भारत में औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन नहीं देना चाहती थी। द्वितीय महायुद्ध के अनुभवों के बाद सरकार ने देश में औद्योगिक नीति की आवश्यकता महसूस की जिसके फलस्वरूप सन् 1944 में नियोजन तथा पुनर्निर्माण (Planning and Reconstruction) विभाग की स्थापना की गयी। इस विभाग के अध्यक्ष सर आर्देशीर दयाल द्वारा 21 अप्रैल 1945 को एक औद्योगिक नीति विवरण पत्र जारी किया गया लेकिन व्यवहार में उसको क्रियान्वित न किया जा सका। ब्रिटिस सरकार ने भारत के औद्योगिक विकास के प्रति उदासीनता की नीति अपनाई और उनका सदैव यह प्रयास रहा कि भारत कच्चे माल का निर्यातक (Exporter) और निर्मित माल का आयातक (Importer) बना रहे। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात देश में तीव्र आर्थिक विकास के लिए औद्योगिक नीति की घोषणा करना आवश्यक समझा गया। इसके लिए भारत सरकार ने दिसम्बर 1947 में एक ‘औद्योगिक सम्मेलन’ का अयोजन किया। इस सम्मेलन में यह निष्कर्ष निकला कि भारत सरकार को जल्दी ही एक स्पष्ट औद्योगिक नीति की घोषणा करनी चाहिए। औद्योगिक सम्मेलन की सिफारिश पर भारत सरकार द्वारा 6 अप्रैल, 1948 को तत्कालीन उद्योग एवं पूर्ति मन्त्री डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी द्वारा मिश्रित अर्थव्यवस्था के आधार पर तैयार की गयी प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा की गई।

1. औद्योगिक नीति, 1948 - 

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् 6 अप्रैल, सन् 1948 को प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा की गई इस नीति में आगामी कुछ वर्षों तक विद्यमान औद्योगिक ईकाइयों का राष्ट्रीयकरण (Nationalization) न करने और सरकारी स्वामित्व में नई औद्योगिक इकाईयां स्थापित करने का प्रावधान किया गया। इस प्रकार प्रथम औद्योगिक नीति में निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्र के साथ-साथ कार्य करने पर जोर दिया गया।

औद्योगिक नीति 1948 की विशेषताएँ - 

(i) उद्योगों का वर्गीकरण - इस नीति के अन्तर्गत उद्योगों को चार भागों में विभाजित किया गया:-
  1. पूर्णतया सरकारी क्षेत्र - इस क्षेत्र में सुरक्षात्मक एवं राष्ट्रीय हित के लिए प्रमुख तीन उद्योग शस्त्र निर्माण और युद्ध सामग्री, परमाणु शक्ति के उत्पादन और नियंत्रण तथा रेल यातायात के स्वामित्व और प्रबन्ध को रखा गया एवं इसके प्रबन्ध को पूर्णतया केन्द्रीय सरकार के एकाधिकार क्षेत्र में रखा गया। 
  2. अधिकांश सरकारी क्षेत्र - इस वर्ग में कोयला, लोहा एवं इस्पात, वायुयान निर्माण, पोत निर्माण, टेलीफोन, तार और बेतार यन्त्र निर्माण तथा खनिज तेल उद्योगों को शामिल किया गया। इन उद्योगों को आधारभूत उद्योगों की संज्ञा दी गयी। इन उद्योगों से सम्बन्धित जो औद्योगिक इकाइयाँ वर्तमान में निजी क्षेत्र में हैं उन्हें अगले दस वर्षों तक निजी क्षेत्र में रहने दिया जायेगा परन्तु इनसे सम्बन्धित नई औद्योगिक इकाइयाँ स्थापित करने का अधिकार पूर्णतया सरकारी क्षेत्र को दिया जायेगा। 
  3. सरकार द्वारा नियमित क्षेत्र - तीसरे वर्ग में राष्ट्रीय महत्व के कुछ आधारभूत उद्योगों एवं कुछ उपभोक्ता उद्योगों (जैसे सूती वस्त्र, सीमेन्ट, चीनी, कागज, रबर आदि) को शामिल किया गया। इन उद्योगों की संख्या 18 थी जिनके बारे में नियमन एवं नियंत्रण को केन्द्रीय सरकार आवश्यक समझती थी।? 
  4. पूर्णतया निजी क्षेत्र- चतुर्थ वर्ग में शेष सभी उद्योगों को रखा गया। इन उद्योगों पर निजी क्षेत्र का पूर्ण अधिकार होगा परन्तु इन पर सरकार का सामान्य नियंत्रण रहेगा। 
(ii) कुटीर एवं लघु उद्योगों का विकास - इस नीति के अन्तर्गत सरकार ने लघु एवं कुटीर उद्योगों को अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान दिया। इनके विकास का उत्तरदायित्व राज्य सरकारों को सौंपा गया और इनकी सहायता के लिए विभिन्न स्तरों पर विशेष संस्थाओं के निर्माण पर जोर दिया गया। इस नीति में यही भी बताया गया कि सरकार कुटीर एवं लघु उद्योगों व वृहत उद्योगों के बीच समन्वय स्थापित करेंगा।

(iii) विदेशी पूंजी -इस नीति में तीव्र औद्योगीकरण के लिये तथा उच्च तकनीकी ज्ञानवर्द्धन की दृष्टि से विदेशी पूँजी को आवश्यक समझा गया। इसलिए सरकार ने इस नीति के अन्तर्गत विदेशी पूँजी के प्रति उदारतापूर्वक रुख अपनाया, परन्तु सरकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि विदेशी उपक्रम में पदों का शीघ्रता से भारतीयकरण कर दिया जायेगा।

(iv) प्रशुल्क एवं कर नीति-इस नीति के अन्तर्गत सरकार की प्रशुल्क नीति अनावश्यक विदेशी स्पर्द्धा को रोकने की होगी जिससे कि उपभोक्ता पर अनुचित भार डाले बिना विदेशी साधनों का उपयोग किया जा सके। पूँजीगत विनियोग करने, बचत में वृद्धि करने एवं कुछ व्यक्तियों के हाथों में सम्पित्त का केन्द्रीयकरण रोकने के लिए कर-प्रणाली में आवश्यक सुधार किया जायेगा।

(v) श्रमिकों के हितो की सुरक्षा - इस नीति के अन्तर्गत औद्योगीकरण को गति देने तथा उत्पादकता में वृद्धि करने के लिए श्रम व प्रबन्ध के मध्य मधुर सम्बन्धों के महत्वों पर बल दिया गया जिससे कि श्रम शक्ति का पूर्ण व कुशलतम उपयोग किया जा सके। इसके लिए इस नीति के अन्तर्गत श्रमिकों के लिए अभिप्रेरणा एवं कल्याणात्मक कार्यक्रमों को चलाने तथा प्रबन्ध में श्रमिकों को भाग बातों पर भी जोर दिया गया।

2. औद्योगिक नीति, 1956 -

भारत की प्रथम औद्योगिक नीति 1948 के पश्चात् देश में अनेक महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जिनके कारण एक नयी औद्योगिक नीति की आवश्यकता महसूस होने लगी। नवीन औद्योगिक नीति की आवश्यकता के सम्बन्ध मे तत्कालीन प्रधानमन्त्री पं. जवाहर लाल नेहरू ने संसद में कहा था कि - ‘‘प्रथम औद्योगिक नीति की घोषणा के बाद इन आठ वर्षों में भारत में काफी औद्योगिक विकास तथा परिवर्तन हुए हैं। भारत का नया संविधान बना, जिसके अन्तर्गत मौलिक अक्तिाकार (Fundamental Rights) और राज्य के प्रति निर्देशक सिद्धान्त घोषित किये गये हैं। प्रथम योजना पूर्ण हो चुकी है और सामाजिक तथा आर्थिक नीति का प्रमुख उद्देश्य समाजवादी समाज की स्थापना करना मान लिया गया है, अत: आवश्यकता इस बात की है कि इन सभी बातों तथा आदर्शों के प्रति बिम्बित करते हुये एक नई औद्योगिक नीति की घोषणा की जाए। अत: भारत की नवीन औद्योगिक नीति की घोषणा 30 अप्रैल, 1956 को की गयी।

औद्योगिक नीति, 1956 के उद्देश्य - 

  1. औद्योगीकरण की गति में तीव्र वृद्धि करना। 
  2. देश की अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए बड़े उद्योगों का विकास एवं विस्तार करना, 
  3. सार्वजनिक क्षेत्र का विस्तार करना, 
  4. कुटीर एवं लघु उद्योगों का विस्तार कराना, 
  5. एकाधिकार एवं आर्थिक सत्ता के संकेन्द्रण को रोकना, 
  6. रोजगार के अधिक अवसर उपलब्ध करना, 
  7. आय तथा धन के वितरण की असमानताओं को कम करना, 
  8. श्रमिकों के कार्य करने की दशाओं में सुधार करना, 
  9. औद्योगिक सन्तुलन स्थापित करना, 
  10. श्रम, प्रबन्ध एवं पूँजी के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित करना। 

औद्योगिक नीति, 1956 की मुख्य विशेषताएँ - 

(i) उद्योगो का वर्गीकरण - इस नीति में उद्योंगों को तीन वर्गों में विभाजित किया गया: 1. वे उद्योग, जिनके निर्माण का पूर्ण उत्तरदायित्व राज्य पर होगा, 2. े उद्योग, जिनकी नवीन इाकाइयों की स्थापना साधारणत: सरकार करेगी,, लेकिन निजी क्षेत्र से यह आशा की जायेगी कि वह इस प्रकार के उद्योगों के विकास में सहयोग दे, 3.शेष सभी उद्योग जिनकी स्थापना और विकास सामान्यत: निजी क्षेत्र के अधीन होगा। इस नीति में उद्योगों का वर्गीकरण तीन अनुसूचियों में किया गया है -
  1. अनुसूची ‘क’ - इनमें 17 उद्योगों को सम्मिलित किया गया है, जिसके भावी विकास का सम्पूर्ण दायित्व सरकार पर होगा। इस अनुसूची में सम्मिलित किये गये उद्योग इस प्रकार हैं - अस्त्र-शस्त्र और सैन्य सामग्री,, अणु शक्ति, लौह एवं इस्पात, भारी ढलाई, भारी मशीनें, बिजली का सामान, कोयला, खनिज तेल, लौह धातु तथा ताँबा, मैगजीन, हीरे व सोने की खानें, सीसा एवं जस्ता आदि खनिज पदार्थ, विमान निर्माण, वायु परिवहन, रेल परिवहन, टेलीफोन, तार और रेडियो उपकरण, विद्युत शक्ति का जनन और उसका वितरण। उपरोक्त समस्त उद्योग पूर्णतया सरकार के अधिकार क्षेत्र में रहेंगे।
  2. अनुसूची ‘ख’ - इस वर्ग में वे उद्योग रखे गये हैं जिनके विकास में सरकार उत्तरोत्तर आधिक भाग लेगी। अत: सरकार इनकी नई इकाइयों की स्थापना स्वयं करेगी लेकिन निजी क्षेत्र से भी आशा की गई कि वह भी इसमें सहयोग देगा। इस वर्ग में 12 उद्योग शामिल किये - अन्य खनिज, एल्मुनियम एवं अन्य अलौह धातुएँ, मशीन औजार, लौह मिश्रित धातु, औजारी इस्पात, रसायन उद्योग, औषधियां, उर्वरक, कृतिम रबर, कोयले से बनने वाले कार्बनिक रसायन, रासायनिक घोल, सड़क परिवहन एवं समुद्री परिवहन। इस वर्ग को मिश्रित क्षेत्र की संज्ञा दी जा सकती है।
  3. अनुसूची ‘ग’ - इस वर्ग में शेष समस्त उद्योगें को रखा गया है तथा जिनके विकास व स्थापना का कार्य निजी और सहकारी क्षेत्र पर छोड़ दिया गया, परन्तु इनके सम्बन्ध में सरकारी नियन्त्रण एवं नियमन की व्यवस्था की गई इस वर्ग को निजी क्षेत्र (Private Sector) की संज्ञा दी जा सकती है।
(ii) लघु एवं कुटीर उद्योगों का विकास - लघु व कुटीर उद्योग को इस औद्योगिक नीति मे भी महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया गया। लघु एवं कुटीर उद्योग से रोजगार के अवसर बढ़ने, आर्थिक शक्ति का विकेन्द्रीकरण होने तथा राष्ट्रीय आय में वृद्धि होने की पूर्ण सम्भावना होती है इसलिए सरकार ने इस नीति मे बड़े पैमाने के उत्पादन की मात्रा सीमित करके और उनके प्रति विभेदात्मक (Discriminatory) कर प्रणाली अपनाकर तथा लघु एवं कुटीर उद्योगों को प्रत्यक्ष सहायता देकर लघु एवं कुटीर उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन दिया।

(iii) निजी तथा सार्वजनिक क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग- इस नीति के अन्तगर्त सरकार ने यह स्पष्ट किया कि निजी और सार्वजनिक क्षेत्र पूर्णत: अलग-अलग नहीं हैं बल्कि वे एक-दूसरे के सहयोगी हैं।

(iv) निजी क्षेत्र के प्रति न्यायपूर्ण एवं भेदभाव रहित व्यवहार - इस नीति के अन्तर्गत सरकार ने स्पष्ट किया कि निजी क्षेत्र के विकास में सहायता देने की दृष्टि से सरकार पंचवष्रीय योजनाओं द्वारा निर्धारित कार्यक्रमों के अनुसार विद्युत परिवहन तथा अन्य सेवाओं और राजकीय उपायों से उद्योगों के विकास को प्रोत्साहन देगी, परन्तु निजी क्षेत्र की औद्योगिक इकाइयों को सामाजिक और आर्थिक नीतियों के अनुरूप कार्य करना होगा।

(v) सन्तुलित औद्योगिक विकास - इस नीति में यह स्पष्ट किया गया कि सरकार उद्योग एवं कृषि का सन्तुलित एवं समन्वित विकास करके और प्रादेशिक विषमताओं को समाप्त करके सम्पूर्ण देश के निवासियों को उच्च जीवन स्तर उपलब्ध कराने का प्रयास करेगी।

(vi)
तकनीकी एवं प्रबन्धकीय सेवाएँ - इस नीति में इस बात को स्वीकार किया गया कि औद्योगिक विकास का कार्यक्रम चलाने लिए तकनीकी एवं प्रबन्धकीय कर्मचारियों की माँग बढ़ जायेगी जिसके लिए सरकारी एवं निजी दोनों प्रकार के उद्योगों में प्रशिक्षण सुविधाएँ देने की व्यवस्था की जायेगी तथा व्यावसायिक प्रबन्ध प्रशिक्षण सुविधाओं का विश्वविद्यालयों व अन्य संस्थाओं में विस्तार किया जायेगा। अत: देश में प्रबन्धकीय और तकनीकी कैडर (Managerial and Technical Cadre) की स्थापना की जायेगी।

(vii) औद्योगिक सम्बन्ध एवं श्रम कल्याण- इस नीति में औद्योगिक सम्बन्धों को अच्छे बनाए रखने एवं श्रमिकों को आवश्यक सुविधाएँ एवं प्रोत्साहन देने पर जोर दिया गया। कार्य-दशाओं में सुधार तथा उत्पादकता पर जोर दिया गया। इसके अतिरिक्त इस नीति में उद्योगों के संचालन में संयुक्त परामर्श को प्रोत्साहित करने को भी कहा गया और औद्योगिक शान्ति को बनाए रखने पर भी जोर दिया गया।

3. औद्योगिक नीति, 1991- 

औद्योगिक नीति, 1991 की घोषणा 24 जुलाई, 1991 में की गई।

औद्योगिक नीति, 1991 के उद्देश्य  - 

  1. सुदृढ़ नीति सरंचना (Sound Policy Framework) 
  2. लघु उद्योगों का विकास (Development of Smallscale Industies) 
  3. आत्म-निभर्रता (Self-Reliance) 
  4. एकाधिकार की समाप्ति (Abolition of Monopoly) 
  5. श्रमिको के हितो का सरं क्षण (Protection of Interest of Labourers) 
  6. विदेशी विनियोग (Foreign Investment) 
  7. सार्वजनिक क्षत्रे की भूमिका (Role of Public Sector) 

औद्योगिक नीति, 1991 के विशेष प्रावधान - 

(i) उदार औद्योगिक नीति - इस नीति के द्वारा 18 उद्योगों को छोड़कर अन्य सभी उद्योगों के लिए लाइसेंसिंग व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। इन 18 उद्योगों की दशा में लाइसेंसिंग व्यवस्था को अनिवार्य रखा गया है। इन उद्योगों में कोयला, पेट्रोलियम, चीनी, चमड़ा, मोटर कारें, बसें, कागज तथा अखबारी कागज, रक्षा उपकरण, औषधि इत्यादि शामिल हैं। जिन उद्योगों के लिए लाइसेंसिग व्यवस्था को अनिवार्य रखा गया है उनके कारणों में सुरक्षा एवं सामरिक नीति, सामाजिक कारण, वनों की सुरक्षा, पर्यावरण समस्याएँ, हानिकारक वस्तुओं का उत्पादन तथा धनी लोगों के उपयोग की वस्तुएँ मुख्य हैं।

(ii) सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका - सरकार ने लाके उपक्रमों के प्रति नवीन दृष्टिकोण अपनाने की घोषणा की है। इसके अन्तर्गत ऐसे लोक उपक्रमों को अधिक सहायता प्रदान की जायेगी, जो औद्योगिक अर्थव्यवस्था के संचालन के लिए आवश्यक है। इन उपक्रमों को अधिक से अधिक विकासोन्मुख और तकनीकी दृष्टि से गतिशील बनाया जायेगा। जो उपक्रम वर्तमान में ठीक नहीं चल पा रहे, लेकिन पर्याप्त सम्भावनाएँ हैं, उन्हें पुन: संगठित किया जायेगा। भविष्य में लोक उपक्रमों के विकास की दृष्टि से प्राथमिकता वाले क्षेत्र निम्न प्रकार होंगे- (i) आवश्यक आधारभूत संरचना से सम्बन्धित वस्तुएँ और सेवाएँ, (ii) तेल खनिज संसाधनों का निष्कर्षण, (iii) ऐसे क्षेत्र में तकनीकी विकास एवं निर्माणी क्षमता का निर्माण जो दीर्घकाल में उत्पादों का निर्माण जहाँ सामरिक घटक महत्वपूर्ण हैं, जैसे-सुरक्षा उपकरण। इस नीति के अन्तर्गत सार्वजनिक उद्योगों की संख्या घटाकर केवल 8 कर दी गई है जो कि इस प्रकार है- (i) अस्त्र एवं गोला-बारूद तथा रक्षा साज-सामान, रक्षा वायुयान और युद्धपोत से सम्बन्धित मदें, (ii) परमाणु शक्ति (iii) कोयला और लिग्नाइट, (iv) खनिज तेल, (v) लौह मैंगनीज तथा क्रोम, अयस्कों, जिप्सम, गंधक, स्वर्ण और हीरे का खनन, (vi) ताँबां, सीसा, जस्ता, टिन मोलिडिब्नम और विलफ्राम का खनन, (vii) परमाणु शक्ति के उपयोग के खनिज, तथा (viii) रेल परिवहन।

(iii) एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार व्यवहार अधिनियम में संशोधन इस नीति में यह घोषणा की गई है कि बड़ी कम्पनियों और औद्योगिक घरानों पर एकाधिकारी एवं प्रतिबन्धात्मक व्यापार अधिनियम के अन्तर्गत पूँजी सीमा समाप्त कर दी जायेगी। इसके फलस्परूप बड़े औद्योगिक घरानों और कम्पनियों को नये उपक्रम लगाने, किसी उद्योग की उत्पादन क्षमता बढ़ाने, कम्पनियों का विलीनीकरण करने, उनका स्वामित्व लेने अथवा कुछ परिस्थितियों मे संचालकों की नियुक्ति करने, उनका स्वामित्व लेने अथवा कुछ परिस्थितियों में संचालकों की नियुक्ति करने के लिए केन्द्रीय सरकार की पूर्व स्वीकृति नहीं लेनी होगी। सरकार भविष्य में इस अधिनियम के माध्यम से एकाधिकारी, प्रतिबन्धात्मक तथा अनुचित औद्योगिक एवं व्यापारिक प्रवृित्तयों को नियन्त्रित करने पर अधिक महत्व देगी। 

(iv) स्थानीयकरण नीति - इस नीति के अनुसार जिन उद्योगों के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य नहीं होगा, उन्हें छोड़कर दस लाख से कम जनसंख्या वाले नगरों में किसी भी उद्योग के लिए औद्योगिक अनुमति की जरूरत नहीं होगी। दस लाख से अधिक आबादी वाले नगरों के मामलों में इलक्ट्रानिक्स और किसी तरह के अन्य गैर-प्रदूषणकारी उद्योगों को छोड़कर सभी इकाइयाँ नगर की सीमा से 25 किलोमीटर के बाहर लगेंगी।

(v) विदेशी से पूँजीगत साज-सामान का आयात - विदेशी पूँजी के विनियोग वाली इकाइयों पर पुर्जे, कच्चे माल और तकनीकी जानकारी के आयात के मामले में सामान्य नियम लागू होंगे लेकिन रिजर्व बैंक विदेशी में भेजे गये लाभांश पर नजर रखेगा, जिससे बाहर भेजी गयी विदेशी मुद्रा और उस उपक्रम की निर्यात की आय के मध्य सन्तुलन बना रहे। नयी नीति के अन्तर्गत अनुसूची III में शामिल प्राथमिकता वाले उद्योगों को छोड़कर अन्य मामलों में विदेशी अंश पूँजी की पूर्व स्वीकृति लेनी होगी।

(vi) व्यापारिक कम्पनियों में विदेशी अंश पूँजी - इस नीति के अनुसार अन्तर्राष्ट्रीय बाजार में भारतीय माल की पहुँच बनाने की दृष्टि से निर्यात करने वाली व्यापारिक कम्पनियों में भी 50 प्रतिशत तक विदेशी पूँजी के विनियोग की अनुमति दी जायेगी लेकिन इस प्रकार की कम्पनियों पर देश की सामान्य आयात-निर्यात नीति ही लागू होगी।

(vii) विद्यमान इकाइयों का विस्तार -इस नीति में विद्यमान औद्योगिक इकाइयों को नयी विस्तृत पट्टी (Broad Banding) की सुविधा दी गई है जिसके अन्तर्गत बिना अतिरिक्त विनियोग के वे किसी भी वस्तु का उत्पादन कर सकते हैं। विद्यमान इकाइयों का पर्याप्त विस्तार भी लाइसेंसिग से मुक्त रहेगा।

(viii) लोक उपक्रमों की कार्य प्रणाली - इस नीति के अनुसार लगातार वित्तीय संकट में रहने वाले लोक उपक्रमों की जाँच औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड (Board for Industrial and Financial Reconstruction) अथवा किसी प्रकार का कोई अन्य विशेष संस्थान करेगा। छंटनी किये गये कर्मचारियों के पुनर्वास के लिए सामाजिक सुरक्षा योजना बनाई जायेगी। लोक उपक्रमों की कार्य प्रणाली सुधारने के लिए सरकार बोर्ड के साथ सहमति समझौतों (Memorandum of Understanding) पर हस्ताक्षर करेगी और दोनों पक्ष इस सहमति के प्रति उत्त्ारदायी होंगे। सरकार की तरफ से सहमति वार्ता में भाग लेने वाले लोगों का तकनीकी स्तर बढ़ाया जायेगा।

औद्योगिक नीति 1991 में किये गये परिवर्तन -

सरकार ने औद्योगिक नीति 1991 के घोषित होने के पश्चात भी औद्योगिक उपलब्धियों को मजबूत करने, अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अधिक प्रतिस्पध्री बनाने की प्रक्रिया को गति देने, घरेलू तथा विदेशी प्रतिस्पर्धा को बढ़ाने पर जोर देने आदि के लिए औद्योगिक नीति 1991 में समय-समय पर परिवर्तन एवं संशोधन किया जा रहा है। इस औद्योगिक नीति में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों या सुधारों का विवरण  है-

(i) औद्योगिक अनुज्ञापन में ढील - औद्योगिक नीति, 1991 जब घोषित हुई थी, तो उस समय 18 प्रमुख उद्योगों को अनुज्ञापन लेना आवश्यक था जिसमें 14 अप्रैल 1993 से उद्योगों (मोटरकार, खालें, चमड़ा व रेफ्रिजरेटर उद्योग) को अनुज्ञापन से मुक्त कर दिया गया। तत्पश्चात् 1997 में केन्द्र सरकार ने उदारीकरण की दिशा में कदम बढ़ाते हुए 5 अन्य उद्योगों को अनुज्ञापन से मुक्त कर दिया। इसके तीन वर्ष पश्चात पुन: 4 और उद्योगों को अनिवार्य अनुज्ञापन से मुक्त कर दिया गया। इस प्रकार औद्योगिक नीति, 1991 में घोषित 18 प्रकार के उद्योगों के अनुज्ञापन को घटाकर वर्तमान में 5 प्रकार के उद्योगों को ही अनिवार्य लेने की आवश्यकता है। वे उद्योग जिनको अब अनुज्ञापन लेना अनिवार्य है-
  1. एल्कोहलिक पेयों का अवसान व इनसे शराब बनाना, 
  2. तम्बाकू के सिगार व सिगरेट तथा विनिर्मित तम्बाकू के अन्य विकल्प, 
  3. इलेक्ट्रानिक एयरोस्पेस व सुरक्षा उपकरण, 
  4. औद्योगिक विस्फोटक-डिटोनेटिव, फ्यूज, सेफ्टीफ्यूज, गन पाउडर, नाइट्रोसूल्यूलोज तथा माचिस सहित औद्योगिक विस्फोटक सामग्री, 
  5. खतरनाक रसायन 
(ii) सरकारी क्षेत्रों के लिए आरक्षित उद्योगों में कमी - औद्योगिक नीति, 1991 में सरकारी क्षेत्र के लिए 17 आरक्षित उद्योगों को रखने का प्रावध् ाान किया गया था, परन्तु उदारीकरण के लागू होने के पश्चात इसमें कमी की गयी। वर्तमान समय में ऐसे सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या घटकर केवल 3 ही रह गयी है। ये उद्योग है- (i) परमाणु ऊर्जा (ii) रेलवे परिवहन (iii) परमाणु ऊर्जा खनिज (15 मार्च, 1995 को जारी अधिसूचना सं. 50 212(E) के परिशिष्ट में दर्शाये गये पदार्थ हाल ही के वर्षों में इन उद्योगों में भी कुछ कार्यों के सम्पादन के लिए निजी क्षेत्र को अनुमति प्रदान की गयी है।

(iii) एम. आर. टी. पी. अधिनियम, के स्थान पर प्रतिस्पर्धा अधिनियम, 2002 - भारतीय अर्थव्यवस्था में घरेलू तथा विदेशी कम्पनियों के मध्य स्वस्थ एवं सकारात्मक प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने तथा उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए एम. आर. टी. पी. अधिनियम के स्थान पर प्रतिस्पर्धा अधिनियम बनाने का निर्णय विजयराघवन समिति की सिफरिशों के आधार पर सरकार ने लिया। इस सन्दर्भ में संसद द्वारा वर्ष 2002 में प्रतिस्पर्धा विधेयक को पारित किया गया तथा 14 जनवरी 2003 को भारत के राजपत्र में प्रकाशित होने के बाद इसी तिथि से यह अधिनियम अस्तित्व में आ गया। इस अधिनियम का गठन एक नियामक आयोग के रूप में किया गया।

(iv) विदेशी निवेश नीति का उदारीकरण - सरकार ने विदेशी निवेश के सम्बन्ध में नीतिगत उपाय किये हैं-
  1. औद्योगिक नीति 1991 में देश उच्च प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के 34 उद्योगों में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा 51 प्रतिशत तक किया गया था, परन्तु बाद में इन उद्योगों की संख्या बड़ाकर 48 कर दी गयी। खनन क्रियाओं से सम्बन्ध रखने वाले तीन उद्योगों में विदेशी निवेश की सीमा 50 प्रतिशत तथा अन्य उद्योगों में विदेशी निवेश की सीमा को 74 प्रतिशत तक करने की अनुमति सरकार ने प्रदान की है। 
  2. गैर-स्वीकृत कम्पनियों में विदेशी संस्थागत निवेशक एक कम्पनी की पूँजी में अब 10 प्रतिशत तक निवेश कर सकते हैं। नयी औद्योगिक नीति में निवेश की सीमा 5 प्रतिशत ही थी।
  3. विदेशी पूँजी निवेश के लिए मशीनरी के नयी होने की शर्त को हटा दिया गया है।
  4. भारतीय मूल के विदेशी नागरिकों को अब भारतीय रिजर्व बैंक की अनुमति के बिना आवासीय सम्पित्त अधिगृहीत करने की अनुमति दी दे गयी है। 
  5. जिन कम्पनियों का कार्य कम से कम 3 वर्ष तक संतोषजनक रहा है, वे अन्तर्राष्ट्रीय पूँजी बाजार में यूरो निर्गमन के जरिये विदेशी पूँजी जुटा सकती हैं। 
  6. 20 सितम्बर 2001 को सरकार द्वारा घोषणा की गयी कि विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा पोर्टफोलियो निवेश की सामान्य 24 प्रतिशत की सीमा के स्थान पर 49 प्रतिशत तक निवेश किया जा सकता हैं। 
  7. निजी क्षेत्र में कार्यरत बैंकों में विदेशी पूँजी निवेश की सीमा 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 74 प्रतिशत कर दिया गया है। 
  8. तेल शोधन के क्षेत्र में अभी तक केवल 26 प्रतिशत तक ही विदेशी पूँजी निवेश (FDI) की अनुमति थी, जिसे सरकारी तेल कम्पनियों की रिफाइनरियों को छोड़कर शेश पर 100 प्रतिशत विदेशी पूँजी निवेश की अनुमति प्रदान कर दी गयी। 
  9. पेट्रोलियम पदार्थों के विपणन के क्षेत्र में 74 प्रतिशत की विदेशी पूँजी निवेश की सीमा को बढ़ाकर 100 प्रतिशत कर दिया गया। बशर्तें 5 साल के अन्दर इस निवेश में से 26 प्रतिशत भारतीय सहयोगी या आम निवेशकों को बेचा जाय। 
  10. तेल की खोज क्षेत्र में गैर-कम्पनी वाले संयुक्त उद्यमों में 60 प्रतिशत तथा कम्पनी बनाकर काम करने वाले संयुक्त उद्यमों में 100 प्रतिशत (पहले यह 51 प्रतिशत थी) तक विदेशी पूँजी निवेश कर दिया गया।
  11. विदेशी निवेश सम्वर्द्धन बोर्ड (Foreign Investment Promotion Board) का 18 फरवरी 2003 को पुनर्गठन करके इसे वित्त मन्त्रालय के आर्थिक कार्य विभाग को हस्तान्तरित किया गया। बोर्ड के पुर्गठन के अन्तर्गत सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश सम्बन्धी प्रक्रिया को उदार बनाया है, जिसमें निवासी द्वारा अनिवासी के अंशों का हस्तातरण ECB का इक्वटी में परिवर्तन तथा अंशों के नये निर्गमन के द्वारा विदेशी पूँजी भागीदारी में बढ़ोत्तरी आदि को सरकारी औपचारिकता के स्थान पर स्वत: मन्जूरी का प्रस्ताव के साथ-साथ कुछ शर्तों के आधार पर विदेशी निवेश तकनीकी सहयोग के नये प्रस्तावों का अब स्वत: मंजूरी के अन्तर्गत प्रस्तुत करने की अनुमति होगी। 
  12. विद्युत व्यापार एवं उसकी प्रक्रिया, काफी एवं रबड़ के भण्डारण आदि के स्वचालित मार्ग में 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति, 
  13. एकल ब्राण्ड के खुदरा व्यापार में सरकार की अनुमति लेकर 51 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति। 
  14. कृषि एवं सम्बन्धित व नियन्त्रित शर्तों एवं सेवाओं के अन्तर्गत स्वचालित मार्ग के माध्यम से सेवाओं (जैसे - पुष्प कृषि, बागवानी, बीजों का विकास, पशुपालन, मत्स्य पालन, सब्जियों एवं खुम्बी की खेती) शत प्रतिशत तक प्रत्यक्ष निवेश अनुमति। 
  15. 13 मार्च 2008 को सरकार ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ.डी.आई) के सम्बन्ध में कुछ महत्वपूर्ण दिशा-निर्देश जारी किये हैं- 
    1. क्रेडिट सूचना कम्पनियों के मामले में 49 प्रतिशत तक एफ. डी. आई.। 
    2. उपज विपणि में 26 प्रतिशत तक एफ. डी. आई. तथा 23 प्रतिशत तक एफ. आई. आई. की छूट परन्तु कोई व्यक्तिगत निवेशक 5 प्रतिशत से अधिक का हिस्सेदार नहीं हो सकता।
    3. औद्योगिक पार्कों की सीमा निर्धारण करने वाले प्रावधानों की समाप्ति।
    4. गैर-अनुसूचित एयरलाइन्स, चार्टर्ड एयरलाइन्स तथा कार्गो, उड्डयन प्रशिक्षण विद्यालयों की स्थापना एवं विकास से सम्बन्धित क्रियाओं में 100 प्रतिशत तक एफ.डी.आई.। सार्वजनिक क्षेत्र की रिफाइनरी में 49 प्रतिशत तक एफडी. आई. की अनुमति। 
  16. केन्द्र सरकार ने 13 मार्च 2008 के 1553.26 करोड़ रुपये के 18 प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के प्रस्तावों को अपनी स्वीकृति प्रदान की। 5. सरकारी खनिज उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए खोलना ;Govt. owned mines & minerals Industry open for pvt. sector)- औद्योगिक नीति 1991 में 13 खनिज उद्योगों को सरकारी क्षेत्र के लिए आरक्षित रखने का प्रावधान किया गया था। परन्तु आधुनिकीकरण एवं उदारीकरण के दौर प्रारम्भ होने के पश्चात् 26 मार्च 1993 को इन उद्योगों को निजी क्षेत्र के लिए पूर्णतया खोल दिया गया। 
(v) उत्पाद एवं आयात शुल्कों में कमी - 1991 की औद्योगिक नीति में उत्पाद एवं आयात शुल्कों को सरल एवं तार्किक बनाने का प्रयास किया गया था, परन्तु इसके पश्चात भी पूँजीगत वस्तुओं पर उत्पादक शुल्कों को और युक्तिसंगत बनाया गया है। पूँजी सम्बन्धी लागतों को कम करने के लिए तथा निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए आयात एवं उत्पाद शुल्कों में और भी कटौती की गयी है।

(vi) पूँजी लाभ पर कर में कमी-  पूँजी बाजार में विदेशी निवेश स्तरों में वृद्धि व प्रोत्साहित करने के लिए विदेशी संस्थागत निवेशकों के लिए अल्पकालीन पूँजी लाभों पर 30 प्रतिशत की रियायती कर की दर आरम्भ की गयी है।

(vii) दूरसंचार में उदार निवेश तथा नीति में परिवर्तन - नयी औद्योगिक नीति में आधार भूत दूरसंचार सेवा के क्षेत्र में 24 प्रतिशत विदेशी निवेश की व्यवस्था की गयी थी। परन्तु उदारीकरण के पश्चात् इसके विकास एवं विस्तार की आवश्यकता को देखते हुए सरकार 2000-01 के बजट में 40 प्रतिशत की विदेशी निवेश की सीमा बढ़ा दी है। इसके पश्चात 2004-05 के बजट के आधारभूत दूर संचार सेवा के क्षेत्र में 74 प्रतिशत विदेशी निवेश की अनुमति प्रदान की गयी है। केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल द्वारा 26 मार्च, 1999 को अनुमोदित नयी दूरसंचार नीति (New Telecommunication Policy-NTP-99) की घोषणा नीति का स्थान ले लिया है। नई नीति के अन्तर्गत सन 2002 तक ‘माँग पर फोन (Telephone on Demand) उपलब्ध कराने का लक्ष्य रखा गया था। देश में टेलीफोन उपलब्धता को 2005 तक 7 प्रति हजार जनसंख्या तथा 2010 तक 15 प्रति हजार जनसंख्या तक लाने का लक्ष्य रखा गया है।

सरकार ने 13 अगस्त 2000 से प्राइवेट आपरेटरों के लिए उनकी संख्या पर बिना किसी प्रतिबन्ध राष्ट्रीय लम्बी दूरी की सेवा 15 जनवरी 2002 से खोल दिया। बुनियादी फोन सेवा प्रदान करने वाली कम्पनियों की संख्या का निर्धारण दूरसंचार नियमन प्राधिकरण (TRAI) द्वारा किया जायेगा। केन्द्र सरकार ने तेज गति की इंटरनेट सेवा सम्बन्धी नीति (Broad Band Policy) की घोषणा 14 अक्टूबर 2004 को कर दी, जिसका उद्देश्य तीव्र गति से इंटरनेट प्रदान करते हुए अधिक से अधिक लोगों को इंटरनेट से जोड़ना है। 

2 नवम्बर 2000 से ‘डायरेक्ट टू होम’ (DTH) सेवा प्रदान की गयी है, जिसके माध्यम से दूर दराज गाँवो में भी सस्ते एवं छोटे से उपकरण के माध्यम से बिना मासिक शुल्क के 100 से अधिक चैनलों को देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त संचार विभाग ने टेलीफोन सेवा उपलब्ध कराने के लिए 5 मार्च 2008 को आवंटन पूरा होने के बाद कुल 126 नये लाइसेंस जारी किये हैं।

(vii) उपक्रम पूँजी निधियों को छूट - नयी औद्योगिक नीति में नये उपक्रम कम्पनी में अपनी संग्रहित राशि का 5 प्रतिशत तक निवेश कर सकते हैं, परन्तु बाद में इस सीमा में वृद्धि करके 10 प्रतिशत कर दिया गया।

(viii) बीमा व्यवसाय में निजी कम्पनियों को अनुमति - नयी औद्याेिगक नीति के बीमा व्यवसाय के सम्बन्ध में प्रावधान किया गया था कि यह व्यवसाय केवल सरकारी क्षेत्र के लिए ही आरक्षित रहेगा परन्तु अक्टूबर 2000 में इसमें परिवर्तन किया गया तथा बीमा नियामक विकास प्राधिकरण (IRDA) ने प्रारम्भ में निजी क्षेत्र की तीन कम्पनियों को बीमा व्यवसाय प्रारम्भ करने का अनुज्ञापन प्रदान कर दिया इन तीन कम्पनियों में जीवन बीमा के क्षेत्र में एच. डी. एफ. सी. स्टैण्डर्ड लाइफ इंश्योरेन्स कम्पनी लि. (HDFC Standard Life Insurance Company Ltd.) तथा साधारण बीमा के क्षेत्र में ‘रिलायंस जनरल इंश्योरेन्स कम्पनी लि- (Reliance General Insurance Co Ltd.) व रायल सुन्दरम एलायस इंश्योरेन्स कम्पनी लि- Royalsundaram Insurance company Ltd. को अनुज्ञापन प्रदान किये। जून 2008 तक निजी क्षेत्र की कुल 19 जीवन बीमा कम्पनियों तथा 13 सामान्य बीमा कम्पनियों को बीमा व्यवसाय करने हेतु लाइसेंस प्रदान किया गया है।

(ix) रक्षा सम्बन्धी उत्पादन में निजी क्षेत्र के प्रव्रेश की अनुमति - नयी औद्योगिक नीति में रक्षा सम्बन्धी उत्पादन का कार्य केवल सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा करने का प्रावधान था। परन्तु केन्द्रीय मन्त्रिमण्डल के 9 मई 2001 को लिए गये एक निर्णय के अनुसार केन्द्र सरकार ने सुरक्षा सम्बन्धी 26 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति होगी परन्तु सुरक्षा सम्बन्धी उत्पादन करने के लिए निजी क्षेत्र की कम्पनी को रक्षा मन्त्रालय से लाइसेंस लेना अनिवार्य होगा। रक्षा सम्बन्धी किन-किन उत्पादों के उत्पादन हेतु निजी क्षेत्र को अनुमति दी जानी है, इसका निर्णय रक्षा मन्त्रालय के अधीन है।

(x) लघु उद्योगों की नीति में परिवर्तन - नयी औद्योगिक नीति में लघु उद्योगों के निवेश की सीमा को एक करोड़ रु. करने का प्रावधान किया गया था परन्तु फरवरी 1997 में इसमें परिवर्तन करके 3 करोड़ रु. की सीमा निर्धारित कर दी गयी तथा लघु उद्योगों की माँग पर पुन: फरवरी 1997 में इस सीमा को घटाकर एक करोड़ रु. कर दिया गया। लघु एवं मध्यम उपक्रम विकास विधेयक 2005 के अनुसार लघु उद्योगों में निवेश की सीमा बढ़ाकर 5 करोड़ रु. कर दिया गया है। लघु उद्योग क्षेत्र के अन्तर्गत निर्मित की जाने वाली आरक्षित वस्तुओं की संख्या 836 थी, जिसमें समय समय पर कमी किया जाता रहा, जो वर्तमान में केवल 35 वस्तुएँ ही आरक्षित वर्ग में रह गयी हैं, जिनमें 5 वस्तुएँ खाद्य पदार्थ व उससे सम्बन्धित, एक वस्तु लकड़ी के उत्पाद, 5 वस्तुएँ प्लास्टिक उत्पाद, 3 वस्तुएँ आर्गेनिक रसायन, दवाएँ व दवाओं के सहायक, 7 अन्य रसायन व रासायनिक उत्पाद, एक सीसा व शीशा युक्त, 10 वस्तुएँ मैकेनिकल इन्जीनियरिंग तथा 2 वस्तुएँ बिजली की मशीनें, एप्लायंस तथा उपकरण से सम्बन्धित हैं

(xi) फिल्म एवं मनोरंजन को उद्योग का दर्जा - फिल्म व मनारे जं न क्षत्रे के विकास को सहायता करने के लिए सरकार ने अक्टूबर 2000 में फिल्मों सहित मनोरंजन क्षेत्र को भारतीय औद्योगिक विकास बैंक अधिनियम, 1954 के अन्तर्गत उद्योग बीमा कराने तथा करों में विवेकीकरण करने में सुविधा हो जायेगी।

(xii) अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन या संशोधन - नयी औद्योगिक नीति 1991 के घोषित होने के पश्चात् कुछ अन्य महत्वपूर्ण परिवर्तन, उपायों या संशोधनों का विवरण है-
  1. विदेशी निवेश संवद्र्धन को प्रोत्साहन देने के लिए विदेशी निवेश संवद्र्धन परिषद् गठन तथा विदेशी निवेश संवद्र्धन मण्डल का पुनर्गठन। 
  2. सेवाकर को बढ़ाकर 12 प्रतिशत किया गया। 
  3. कम्पनियों की रुग्णता (sickness) का पता लगाने के लिए दिसम्बर 1993 में रुग्ण औद्योगिक कम्पनी (विशेष उपबन्ध) अधिनियम, 1985 मे संशोधन।
  4. गैर-वित्तीय कम्पनियों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की 100 प्रतिशत अनुमति। 
  5. निर्यात ऋण पुनर्वित सीमाओं में वृद्धि। 
  6. वाणिज्यिक क्षेत्र को पर्याप्त साख उपलब्ध कराने के लिए नकद आरक्षित अनुपात (CRR) तथा सांविधिक नकदी अनुपात (SLR) में समय-समय पर परिवर्तन। 
  7. थोक दवाओं के लिए औद्योगिक लाइसेंस की समाप्ति। 
  8. सभी वस्तुओं वर सेनवैट 16 प्रतिशत से घटाकर 14 प्रतिशत करना। 

औद्योगिक नीति, 1991 का मूल्यांकन 

तत्कालीन प्रधनमन्त्री श्री पी. वी. नरसिंहराव ने इस नीति को उदार नीति बताते हुए अगस्त, 1991 को राज्य सभा में कहा था कि-

सरकार ने औद्योगिक नीति, 1991 को एक खुली औद्योगिक नीति की संज्ञा दी है। इसमें अनेक आधारभूत परिवर्तन किये गये हैं। औद्योगिक लाइसेंसिंग, रजिस्ट्रेशन व्यवस्था तथा एकाधिकार अधिनियम का अधिकांश भाग समाप्त कर दिया गया है। विदेशी पूँजी के पर्याप्त स्वागत की नीति अपनाई गई है, लोक उपक्रमों की भूमिका को पुन: परिभाषित किया गया तथा औद्योगिक स्थानीयकरण की नीति को पुन: तय किया गया है।

उपरोक्त विशेषताओं के बावजूद कुछ आलोचकों का विचार है कि बड़ी कम्पनियों और औद्योगिक घरानों के विस्तार, विलीनीकरण एवं अधिग्रहण की जाँच व्यवस्था को समाप्त करके सरकार ने आर्थिक शक्ति के संकेन्द्रण को रोकने के संदर्भ में उचित नहीं किया है। कुछ आलोचकों का विचार है कि विदेशी पूँजी एवं तकनीक के स्वागतपूर्ण आगमन से घरेलू उद्योगों के विकास पर विपरीत प्रभाव भी पड़ सकता है। संक्षेप में औद्योगिक नीति, 1991 के लिए यह कहा जा सकता है कि यदि विदेशी पूँजी एवं तकनीक के आगमन पर सावधानीपूर्ण निगरानी रखी जाए तो यह नीति भारतीय औद्योगिक अर्थव्यवस्था (Indian Industrial Economy) को आधुनिक, कुशल गुणवत्ता प्रधान और विश्व बाजार में प्रतियोगी बनाने में महत्वपूर्ण प्रयास सिद्ध हो सकती है।

4 Comments

  1. हाल में भारत में किस औधोगिक नीति का गठन हुवा।।

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  2. Mane hi kon tha tha tn kathu bta deva

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