प्रबंध का अर्थ, परिभाषा, विशेषता, महत्व, उद्देश्य, कार्य

अन्य लोगों से कार्य कराने की कला को प्रबंध कहा जाता है। यह निर्धारित उद्देश्यों को प्रभावी ढंग से एवं दक्षतापूर्ण प्राप्त करने के लिए किये गए कार्यों की प्रक्रिया है। अत: प्रबंध को प्रभावशीलता एवं कार्यक्षमता से लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु कार्य कराने की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। 

प्रबंध की विशेषताएं

  1. प्रबंध लक्ष्य प्रधान प्रक्रिया है जो संगठनात्मक उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता करती है।
  2. प्रबंध सर्वव्यापक है जो सभी प्रकारों के संगठनों जैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक आदि के लिए आवश्यक है।
  3. प्रबंध बहुआयामी गतिविधि है जो कार्य, व्यक्तियों तथा परिचालनों के प्रबंध से सम्बन्धित होती है।]
  4. प्रबंध एक निरन्तर चलने वाली प्रक्रिया है जो तब तक चलती रहती है जब तक कि एक संगठन कुछ निर्धारित उद्देश्यों को पाने के लिए विद्यमान रहता है।
  5. संगठनात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कार्य करते हैं। कोई भी प्रबंधकीय निर्णय अकेले में नहीं लिये जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, विपणन प्रबंधक, वित्तीय प्रबंधक से परामर्श करके ही साख सुविधा को बढ़ा सकता है। माल की आपूर्ति देने से पहले उत्पादन प्रबंधक से परामर्श करना पड़ता है।
  6. प्रबंध एक गत्यात्मक कार्य है जिसे परिवर्तन वातावरण के
  7. अनुरूप कार्य करना पड़ता है। प्रबंध की आवश्यकता, समय एवं परिस्थिति के
  8. अनुसार बदलाव करना पड़ता है। 
  9. प्रबंध एक अदृश्य शक्ति है जिसे देखा नहीं जा सकता है। जैसे कि क्या कार्यब सन्तुष्ट एवं उत्साहित है? या नहीं।

प्रबंध के उद्देश्य

1. संगठनात्मक उद्देश्य 

  1. जीवति रहना जिसके लिए पर्याप्त अर्जित करना अनिवार्य है।
  2. लाभ अर्जित करना ताकि लागतों एवं जोखिमों को सहन किया जा सके।
  3. विकास करना ताकि भविष्य में संगठन और अच्छे प्रकार के कार्य कर सकें।

2. सामाजिक उद्देश्य

सामाजिक उद्देश्य संगठन के समाज के प्रति समर्पण से सम्बन्धित होते हैं। एक व्यावसायिक संगठन के सामाजिक उद्देश्य हैं:-
  1. उचित कीमत पर गुणवत्तापूर्ण वस्तुओं की आपूर्ति करना।
  2. करों का ईमानदारी से भुगतान करना।
  3. उत्पादन की पर्यावरण मित्र विधियों को अपनाना

3. वैयक्तिक उद्देश्य

ये उद्देश्य संगठन के कर्मचारियों से सम्बन्धित होते हैं। प्रबंध को कर्मचारियों की भिन्न-भिन्न आवश्यकताओं को पूर्ण करना पड़ता है जैसे उचित पारिश्रमिक, सामाजिक आवश्यकताएँ, व्यक्तिगत वृद्धि एवं विकास सम्बन्धी आवश्यकताएँ। प्रबंध को वैयक्तिक एवं संगठनात्मक उद्देश्यों में समन्वय रखना चाहिए।

प्रबंध का महत्व

  1. सामूहिक लक्ष्यों की प्राप्ति: प्रबंध समूह के कर्मचारियों में टीम भावना एवं समन्वय का निर्माण करता है, जिससे संस्थागत लक्ष्यों की प्राप्ति की जा सके।
  2. कार्यक्षमता में वृद्धि: प्रबंध कार्यक्षमता बढ़ाता है। इसके माध्यम से संसाधनों का उचित उपयोग सम्भव हो पाता है, जिससे लागतें कम होती हैं तथा उत्पादकता बढ़ती है।
  3. गतिशील संगठन का निर्माण: प्रबंधक, परिवर्तन से होने वाले लाभों से कर्मचारियों को अवगत कराकर विरोध को समाप्त करते हैं। इस प्रकार संगठन पर्यावरण की चुनौतियों का सामना आसानी से कर सकता है।
  4. व्यक्तिगत उद्देश्यों की प्राप्ति: प्रबंध वैयक्तिक उद्देश्यों को पाने में सहायता करता है। यह अभिप्रेरणा एवं नेतृत्व के माध्यम से कर्मचारियों में समूह भावना का विकास करता है तथा व्यक्तिगत लक्ष्यों एवं संगठनात्मक लक्ष्यों में तालमेल बैठाता है।
  5. समाज के विकास में सहायक: प्रबंध समाज के विकास में सहायता करता है। यह गुणात्मक माल एवं सेवाओं को प्रदान करके, रोजगार के अवसर सृजित करके उत्पादन की नई तकनीकें बनाकर समाज के विकास के लिए कार्य करता है।

प्रबंध के स्तर एवं कार्य

प्राय: प्रबंध के स्तर अथवा प्रबंधकीय क्रम व्यवस्था को तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है।
  1. उच्च प्रबंध 
  2. मध्य प्रबंध, एवं 
  3. निम्न स्तरीय प्रबंध, 
1. उच्चस्तरीय प्रबंध के प्रमुख कार्य - उद्देश्य निर्धारित करना, योजनाओं और नीतियों का ढांचा तैयार करना, एवं दूसरे लोगों के प्रयासों को निर्देशन और नेतृत्वप्रदान करना, वित्त एकत्रित करना आदि।

2. मध्य स्तरीय प्रबंध के प्रमुख कार्य - उच्च स्तर द्वारा बनाई गई योजनाओं और नीतियों का निष्पादन करना। उच्च एवं निम्न स्तरीय प्रबंध के बीच कड़ी का कार्य करना। यह संसाधनों को एकत्रित एवं संगठित करते हैं। कर्मचारियों को प्रेरित करना, सम्बन्धित विभागों को विस्तृत निर्देशन देना।

3. निम्न स्तरीय प्रबंध के प्रमुख कार्य: इस समूह के प्रबंधक वास्तव में उच्च और मध्य स्तरीय प्रबंध की योजनाओं के अनुसार क्रियाओं का निष्पादन करते हैं। य उपकरणों की व्यवस्था, श्रमिकों का चयन, प्रशिक्षण श्रमिकों के बीच अनुशासन बनाना, उनका मनोबल बढ़ाने तथा उन्हें उचित कार्यदशाएं उपलब्ध करने का कार्य करते हैं।

प्रबंध के स्तर एवं कार्य
 प्रबंधकीय स्तर

प्रबंध के कार्य

  1. नियोजन : जाएगा, इसके बारे में पहले से निर्णय करना।
  2. संगठन : क्रियाओं को संगठित करना और योजनाओं के निष्पादन के लिए संगठन के ढाँचे को स्थापित करना।
  3. नियुक्तिकरण : इसका अभिप्राय भर्ती करने, प्रवर्तन, वृद्धि इत्यादि का निर्णय करने, कार्य का निष्पादन, मूल्यांकन एवं कर्मचारियों का व्यक्तिगत रिकार्ड बनाए रखने से है।
  4. निर्देशन : नियुक्ति के पश्चात कर्मचारियों को सूचना, मार्गदर्शन देना, प्रेरित करना, पर्यवेक्षण करना तथा उनके साथ सम्प्रेषण करना। नियन्त्रण : वास्तविक कार्य निष्पादन को नियोजित कार्य निष्पादन के साथ मेल करना तथा अन्तर (यदि है तो) के कारणों का पता लगाकर शोधक मापों का सुझाव देना।

प्रबंध की प्रकृति : 

प्रबंध विज्ञान है या कला अथवा पेशा। कुछ विद्वान प्रबन्ध को कला बताते हैं, क्योंकि प्रबन्धक ज्ञान एवं कौशल के व्यावहारिक प्रयोग से सम्बन्ध रखता है जबकि कुछ विद्वान इसे विज्ञान मानते हैं क्योंकि यह उचित रूप से जाँचे गये सिद्धान्तों का प्रतिनिधित्व करता है। कुछ इसे पेशा भी मानते हैं।

(1) प्रबन्ध एक कला के रूप में: कला की कुछ विशेषताएँ होती हैं जो कि निम्नलिखित हैं:-
  1. सैद्धान्तिक ज्ञान : जिसके लिए क्रमबद्ध एवं संगठित अध्ययन सामग्री उपलब्ध होनी आवश्यक है।
  2. वैयक्तिक प्रयोग : एक व्यक्ति दूसरे से भिन्न प्रकार से कार्य करता है क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की कार्य करने की शैली भिन्न होती है।
  3. अभ्यास एवं सृजनशीलता पर आधारित : कला में विद्यमान सैद्धान्तिक ज्ञान का सृजनशीलता अभ्यास समाहित होता है। एक कलाकार की क्षमता इस बात पर निर्भर करती है कि उसने कितना अभ्यास किया है तथा वह कितना सृजनशील है।
प्रबन्ध के भी विभिन्न क्षेत्रों से संबंधित बहुत साहित्य उपलब्ध है। सभी प्रबन्धक अपने ज्ञान के स्तर के आधार पर अलग-अलग ढंग से व्यवसाय को चलाते हैं तथा हर प्रबन्धक अभ्यास, सृजनशीलता, नवकरण के संयोग आदि के माध्यम से आगे बढ़ता है।

प्रबन्ध में कला सभी विशेषताएँ समाहित होती हैं अत: इसे कला कहा जा सकता है।

2) प्रबन्ध एक विज्ञान के रूप में : विज्ञान किसी विषय का क्रमबद्ध ज्ञान होता है जो सही निष्कर्ष निकालने वाले निश्चित सिद्धान्तों पर आधारित होता है, जिसकी जाँचकी जा सकती है। विज्ञान की निम्नलिखित विशेषताएँ होती हैं:-
  1. ज्ञान का क्रमबद्ध रूप जो सिद्धान्तों, अभ्यासों एवं प्रयोगों पर आधारित होता है।
  2. प्रयोग एवं अवलोकन पर आधारित सिद्धान्त
  3. सार्वभौमिक रूप से स्वीकृत सिद्धान्त जिन्हें कहीं भी तथा कभी भी सिद्ध किया जा सकता है।
  4. कारण एवं प्रभाव सम्बन्ध। विज्ञान में सभी चरों का कारण एवं प्रभाव संबन्ध होता है। 
प्रबन्ध में भी सिद्धान्तों एवं नियमों का क्रमबद्ध रूप विद्यमान होता है जो संगठनात्मक अभ्यासों को समझने में सहायक होते हैं। प्रबन्ध के अपने सिद्धान्त जो कारण एवं प्रभाव में सम्बन्ध स्थापित करते हैं, परन्तु विज्ञान की तरह ये सिद्धान्त सटीक नहीं होते, इनमें परिस्थिति के अनुसार सुधार किया जा सकता है। मनुष्य की प्रकृति परिवर्तनशील है, इसलिए मानव तत्व के विद्यमान होने की वजह स प्रबन्ध विशुद्ध विज्ञान न होकर सामाजिक विज्ञान है।

(3) पेशें के रूप में प्रबन्ध: पेशा वह जीविका का साधन है जो विशिष्ट ज्ञान और प्रशिक्षण द्वारा संपोषित होता है, जसमें प्रवेश प्रतिबन्धित होता है। इसकी मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:-
  1. ज्ञान का सुंभाषित निकाय: सभी पेशे परिभाषित ज्ञान के समूह पर आधारित होते है जिसे शिक्षा से अर्जित किया जाता है।
  2. प्रतिबंधित प्रवेश : प्रत्येक पेशे में परीक्षा अथवा शैक्षणिक योग्यता के आधार पर प्रवेश होता है।
  3. सेवा उद्देश्य : प्रत्येक पेशे का मुख्य उद्देश्य अपने ग्राहकों की सेवा करना होता है।
  4. नैतिक आचार संहिता : सभी पेशे आचार संहिता से बंधे होते हैं जो उनके सदस्यों के व्यवहार को दिशा देते हैं।
  5. पेशागत परिषद् : सभी पेशे किसी न किसी पेशेवर संघ से जुड़े होते हैं जो इनमें प्रवेश का नियमन करते हैं। प्रबन्धक के लिए किसी विशिष्ट डिग्री या लाइसेंस का होना अनिवार्य नहीं है और न ही किसी आचार संहिता का पालन करना पड़ता है। प्रबन्ध पेशे की सभी विशेषताओं को सन्तुष्ट नहीं करता, अत: इसे एक पूर्ण पेशा नहीं कहा जा सकता।

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