मोनेरा, प्रोटीस्टा, और फंजाई जगत

जगत मोनेरा

जगत मोनेरा जिसके अंतर्गत सभी बैक्टीरिया आते है और जगत प्रोटिस्टा जिसके अंतर्गत प्रोटोजोआ, डायटम और कुछ शैवाल आते हैं एक प्रकार से जीव जगत् में सबसे नीचे के वर्ग हैं। सभी बैक्टीरिया और अधिकांश प्रोटिस्टा और कई कवक-सुक्ष्मदश्री होते हैं और इसीलिए इन्हें सामान्यत: सूक्ष्मजीव कहते है।

जगत-मोनेरा

  1. जगत मोनेरा के अन्तर्गत सभी प्रोकेरियॉटिक, एककोशकीय जीव आते हैं।
  2. कोशिका में दोहरे झिल्ली वाले कोशिकांग अनुपस्थित होते है।
  3. इस जगत के जीवों में केवल अलैंगिक प्रकार का प्रजनन पाया जाता है।
  4. कोशिका के चारों ओर दृढ़ कोशिका भित्ती पायी जाती है।
  5. पोषण की स्वपोषी अथवा विषमपोषी विधि का पाया जाना।
  6. प्रतिकूल परिस्थितियों में रहने की क्षमता का पाया जाना आदि इस जगत के प्रमुख लक्षण है।

मोनेरा जगत के विभिन्न समूह एवं जीवन पद्धति

सामान्यत मोनेरा जगत को तीन समूहों में बांट सकते है-
  1. जीवाणु (Bacteria) 
  2. एक्टिनोमाइसीटिस (Actinomycetes) 
  3. साइनोबेक्टिरिया (Cyanobacteria) 
बैक्टीरिया-कोशिका की संरचना- एकल कोशिकीय बैक्टीरियम में एक कोशिका भित्ति होती है जो कि कोशिका झिल्ली को बाहर से ढके होती है और यह पेप्टाइडोगलाइकॉन यौगिक की बनी होती है। इसमें एकल गुणसूत्र होता है। कोशिका में राइबोसोम होते हैं लेकिन अंगकों में कोई झिल्ली नहीं होती।

कोशिका भिति- सभी प्रोकैरियोटों में एक दृढ़ कोशिका भिति होती है, जो कोशिका की रक्षा करती है और उसे एक आकार प्रदान करती है। कोशिका भित्ति एक रसायन, पेप्टिडोग्लाइकैन की बनी होती है जो केवल बैक्टीरिया में ही पाया जाता है।

कशाभ (फ्लैजेला)- कुछ बैक्टीरिया एक या दो फ्लैजेला (कशाभों) की सहायता से चलते हैं। प्लैजेला पाइलाई की अपेक्षा अधिक लंबे व मोटे होते हैं। इनकी संरचना यूकोरियॉटिक के कशाभों की संरचना से भिन्न होती है।

प्लाज्मा झिल्ली- प्लाज्मा झिल्ली साइटोप्लाज्म (कोशिकाद्रव्य) को घेरती हुई कोशिका भित्ति के नीचे बनी होती है। यह यूकैरियोटों की भाँति लिपिड और प्रोटीनों की बनी होती है।

अनुवांशिक पदार्थ- इसमें DNA का बना एक द्विसर्पिल अणु होता है जो साइटोप्लाज्म के न्युक्लिऑइड (केंद्रकाभ) नामक क्षेत्र में स्थित होता है। चूँकि क्रोमोसोम वास्तविक केन्द्रक के अंदर नहीं पाया जाता है, इसलिए बैक्टीरिया प्रोकेरियोट् कहलाते हैं। अत: मोनेरा जगत में प्रोकेरियोट् आते हैं। बैकटीरिया की अनेक प्रजातियों में क्रोमोसोम के अतिरिक्त भी क्छ। के वलय पाए जाते है जिन्हें प्लाज्मिड (Plasmids) कहते हैं जो बैक्टीरियाई गुणसूत्रों के साथ प्रतिकृत होते है और इनमें प्रतिजैविक प्रतिरोध के जीन व जनन कारक आदि पाए जाते हैं।

कोशिका अंगक- झिल्ली परिसीमित अगं क जैसे एण्डोप्लाज्मिक रेटिकुलम, माइटोकॉन्ड्रिया, क्लोरोप्लास्ट, गॉल्जी सम्मिश्र नहीं होते, केवल राइबोसोम ही पाए जाते हैं जो यूकैरियोट से भिन्न होते हैं।

श्वसन- बैक्टीरिया में दो प्रकार का श्वसन होता है या तो वायवीय जिसमें श्वसन के लिए ऑक्सीजन का उपयोग होता है, या अवायवीय-जिसमें ऑक्सीजन की अनुपस्थिति में श्वसन होता है। कोशिकीय श्वसन या भोजन के अपघटन से ऊर्जा का उत्सर्जन मीजोसोमों में होता है जो कोशिका झिल्ली के आंतरिक विस्तार है।

जनन-अलैंगिक जनन बैक्टीरिया अलैंगिक रूप में द्विविभाजन ( Binary Fission) द्वारा जनन करते हैं। अनुकूल परिस्थितियों में  एक बैक्टीरिया लगभग 20 मिनट में द्विविभाजन द्वारा दो बैक्टीरिया में विभाजित को हो जाता है लैंगिक जनन कुछ बैक्टीरिया में एक आदिम प्रकार का लैगिक जनन होता हैं।  यह उच्चतर जीवों के लैंगिक जनन से भिन्न होता है। यह निम्न चरणों में होता है: -
  1. दो संयुग्मनकारी बैक्टीरिया आपस में पिलाई द्वारा परस्पर जुड़कर संपर्क बनाते है। 
  2. एक बैक्टीरिया में से डी.एन.ए.सूत्र का एक खण्ड दूसरे बैक्टीरिया के भीतर पहुँचा दिया जाता है। 

लाभदायक व हानिकारक बैक्टीरिया 

बैक्टीरिया बहुत से रोग उत्पन्न करके नुकसान पहुँचाते हैं। दूसरी ओर कुछ बैक्टीरिया बहुत लाभदायक हैं।

 बैक्टीरियाा द्वारा उत्पन्न रोग 

बैक्टीरिया का नामउत्पन्न रोग
1. विब्रियो कोलेरीहैजा
2. सालमोनेला टाइफीटाइफॉइड
3. क्लोस्ट्रीडियम टिटानीटिटेनस
4.  कोरिनबैक्टीरियम डिप्थीरिआई डिप्थीरिआई
 5. माइकोबैक्टीरियम ट्युबरकुलोसिसतपेदिक (क्षय रोग)

बैक्टीरिया के लाभकारी क्रियाएं 


बैक्टीरिया का नामलाभप्रद क्रियाएँ
1. राइजोबियमफली वाले पौधों (मटर, चना, दालें आदि की
जड़ों में रहता है। वायुमण्डलीय नाइट्रोजन
को अमोनिया के रूप में स्थिर कर देता है
जो फिर आगे उपयोगी अमीनों अम्लों में
बदल जाती है।
2. एजोटोबैक्टरमिट्टी को उपजाऊ बनाता है। यह
वायुमण्डीय नाइट्रोजन को मिट्टी में स्थिर
कर देता है।
3.स्टे्रप्टोमाइसिटीजयह स्ट्रेप्टोमाइसिन नामक एंटीबायोटिक
 बनाता है। 
4. लैक्टोबैसीलसलैक्टोज़ (दुग्ध-शर्करा) का लैक्टिक अम्ल
में किण्वन करता है। इससे दूध से
दही जमने में सहायता मिलती है।
 5. मीथेनोजेनिकबैक्टीरिया मलजल के विघटन में सहायता करता है।

आर्किबैक्टीरिया - आर्किबैक्टीरिया के अंतर्गत वे बैक्टीरिया आते हैं जो कम ऑक्सीजन वाले असामान्य पर्यावरण में रहते हैं। मुख्य प्रकार के आर्किबैक्टीरिया है: -
  1. मीथेनोजेनिक बैक्टीरिरया-जो मलजल में व पा्र णियों की आंतों मे पाए जाते हैं। 
  2. थर्मोऐसिडोफिलिक बैक्टीरिया-ये गर्म स्रोतों में पाए जाते है। 
  3. हेलोफिलिक बैक्टीरिया -लवणीय परिस्थितियोंं में पाए जाते हैं अर्थात् जहा पर सूर्य की गर्मी से समुद्री जल में लवण का सांद्रण बढ़ जाता है। यूबैक्टीरिया के अंतर्गत साएनोबैक्टीरिया व अन्य सभी बैक्टीरिया आते है। 
साएनोबैक्टीरिया - पहले इन्हें नील हरित शैवाल कहा जाता था। पृथ्वी के आदि काल में यह एक बहुत सफल समूह था। जिसमें प्रकाश संश्लेषण की क्षमता थी और इस प्रक्रिया के दौरान निकली ऑक्सीजन से पृथ्वी का वातावरण धीरे-धीरे परिवर्तित हुआ तथा पृथ्वी के वातावरण में ऑक्सीजन का स्तर बढ़ा।

बैक्टीरिया व साएनोबैक्टीरिया मेंं अंतर 

बैक्टीरियासाएनोबैक्टीरिया
1. छोटी कोशिकाएँअपेक्षाकृत बड़ी कोशिकाएं
2. कशांभ हो सकते हैंकशांभ नहीं होते है
3. कुछ बैक्टीरिया (हरे
बैक्टीरिया) में प्रकाश
संश्लेषण एक अलग
प्रकार से होता है
जिसमें ऑक्सीजन
बाहर नहीं निकलती है।
हरे पौधों की भाँति प्रकाश संश्लेषण
होता है  व सामान्य तरीके से
ऑक्सीजन निकलती है।



4. लैंगिक जनन संयुग्मन द्वारासंयुग्मन नहीं देखा गया।

जगत प्रोटिस्टा

  1. प्रोटिस्टा (Protoctista) एक कोशिकीय यूकैरियोट होते हैं। इसमें प्रोटोजोआ,डायटम शैवाल आते हैं।
  2. इसमें झिल्ली परिसीमित अंगक होते हैं जैसे कि केंद्रक झिल्ली में बंद क्रोमोसोमों से युक्त केंद्रक माइटोकॉण्ड्रिया, क्लोरोप्लास्ट (केवल प्रकाश संश्लेषी में), गॉल्जी काय तथा एंडोप्लाज्मिक रेटिकुलम।
  3.  माइटोकॉण्ड्रिया श्वसन अंगक हैं। 
  4. प्रोटिस्टा या तो प्रकाश संश्लेशी होते हैं या परजीवी य मृतोपजीवी। 
  5. संचलन के लिए प्रोटिस्टों मे सिलिया या कशाभ होते हैं। जिनमें बैक्टीरीया की भॉति 9+1 प्रकार का सूक्ष्मनलिकीय विन्यास होतेा हैं। 
  6. इनमें लौंगिक व अलौंगिक दोनों पक्रार का जनन होता हैं। 
  7. प्रोटिस्टा में कुछ मनुष्यों के लिए लाभकारी तथा कछु हानिकारक होते हैं। 

जगत प्रोटिस्टा का वर्गीकरण 

1. फाइलम प्रोटोजोआ के अंतर्गतचार वर्ग आतें हैं ।
  1. राइजोपोडा : उदाहरण अमीबा 
  2. फलैजेलैटा : उदाहरण यूग्लीना 
  3. सिलिएटा : उदाहरण पैरामीशियम 
  4. स्पोरोजोआ : उदाहरण प्लाज्मोडियम 
2. फाइलमबैसीलेरियोफायटा : उदाहरण डायटम शैवाल निम्न वर्गो में आते हैं ।
3. फाइलम क्लोरो फायटा : उदाहरण क्लोरेला
4. फाइलम फियोफायटा : उदाहरण भूरा शैवाल
5. फाइलम रोडाफेायटा : उदाहरण लाल शैवाल

जगत के कुछ उदाहरण 

अमीबा - अमीबा पा्रय: एसे अलवणजलीय तालाबों व गड्ढों की कीचड़ में पाया जाता हैं जिसमें सड़ती गलती पत्तियों आदि होती हैं।
  1. इसमें संचलन के लिए कुछ पादाभ होती हैं। 
  2. इन्हीं पादाभों से आहार पकड़ कर यह आहारधानी बना लेता हैं।
  3. इसमें एक संकुंचनशील धानी होती हैं जिसके द्वारा परासरणनियमन होता हैं। 
  4. अमीबा में लैंगिक जनन नहीं होता हैं। 
  5. लैंगिक जनन द्विविभाजन के द्वारा होता हैं। 
एंटअमीबा-  इसकी एक सामान्य प्रजाति एंटअमीबा हिस्टोलटिका हैं जिसमें मनुष्यों में अमीबीय पेचिश रोग हो जाता हैं। इसकी आकृति अमीबीय होती हैं। नए परपोषी का संक्रमण सीधे सिस्ट द्वारा होता हैं जा संदूषित जल व भाजे न के सवे न से अंतड़ियों में पहुॅच जाती हैं। सिस्ट के फट जाने पर एटं अमीबा अंतड़ियों में फैल जाता हैं और इससे स्थानीय शोध पैदा हो जाते हैं। अमीबीय पेचिश के लक्षण है : पेट में दर्द, ऐठंन, उबकाई आना, तथा टट्टी में खून व श्लषेमा का आना।

प्लाज्मोडियम (मलेरिया परजीवी) -  प्लाज्मोडियम के जीवन चक्र में दो प्रावस्था होती हैं लैंगिक व लैंगिक प्रावस्था।
  1. अलैंगिक प्रावस्था मनुष्य के रक्त में संपन्न होती हैं। 
  2. लैंगिक प्रावस्था मादा ऐनाफिलीस मच्छर में सपंन्न होती हैं। 
यूग्लीना- यूग्लीना रूके पानी जैसे तालाब, गढ्ढों (नालें) आदि में जिनमें सडते गलते जैिवक पदार्थ मौजूद हों, पर्याप्त मात्रा में पाया जाता हैं। इस जीव में निम्नलिखित भाग पाए जाते हैं:
  1. पेलिकल- यह देह का लचीला आवरण है जो प्रोटीन का बना होता हैं।
  2. साइटास्टोम तथा आशय (Reservoir)- साइटोस्टोम कोशिकामुख होता हैं जिसमें से भीतर को एक नलिकाकार साइटोफैरिंक्स निकलती हैं। यह आशय नामक थैली में खुलती हैं।
  3. संकुचनशील धानी - जिसके द्वारा परासणनियमन होता हैं।
  4. कशाभ - कशाभ द्वारा जल में सचं लन होता हैं।
  5. क्लोरोप्लास्ट- में क्लोरोफिल होता है जिसके द्वारा प्रकाश संश्लेषण की क्रिया होती हैं। जनन- द्विविभाजन द्वारा होता हैं।
डायएटम (Diatom) - डायटम अलवणीय जल, लवण जल तथा गीली मिट्टी में पाए जाते हैं।
  1. डायटम की हजारों प्रजातियाँ जलीय प्राणियों का आहार बनती हैं। 
  2. डायटम या तो एककोशिकीय हो सकते हैं या कालोनी के रूप में या तंतु के रूप में विभिन्न आकृतियों में हो सकते हैं। 
  3. प्रत्येक कोशिका में एक अकेला सुस्पष्ट केन्द्रक व प्लास्टिड होते हैं। ये कवच (कोशिका भित्ति) का निर्माण करते हैं जिसमें सिलिका विद्यमान रहती हैं। 
शैवालों की उपयोगिता -
  1.  मछलियों के लिए भेजन प्रदान करते हैं। 
  2. ये विटामिन A के E भरपूर स्त्रोत हैं। 
  3. अनेक समुद्री शैवाल आयोडीन, पोटैशियम तथा अन्य खनिजों के महत्वपूर्ण स्त्रोत होते हैं। 
  4. नील हरित शैवाल वातावरण की नाइट्रोजन को स्थिर कर सकते है, इस पक्रार ये पौधों के लिए प्राकृतिक उवर्र क के स्त्रोत हैं। 
  5. शैवालों का एक वर्ग (डायटम) अपनी दीवारों में सिलिका जमाते हैं। मृत्यु के बाद ये प्राणी जीवाश्म बन जाते हैं। इनके निक्षेप बडी मात्रा मे फिल्टरों तथा भट्टियों में अस्तरों के बनाने में काम आते हैं।

जगत फंजाई

गर्म तथा आर्द्र में ब्रेड के स्लाइसों, चपातियों, चमडें की पेटियों आदि पर एक पाउडर जैसी परत बन जाया करती है। लॉन तथा फूलो की क्यारियॉ में कुकुरमूत्ते उग आते हैं, ये सब कवक या फंजाई होते हैं।

कवकों को पहले ऐसे पौधों के रूप में वर्गीकृत किया जाता था जिनमें क्लोरोफिल नहीं होता था आरै जिनमें जड़ तना तथा पत्तियों का विभेदन नहीं हुआ था, अब इन्हे एक अलग जगत फंजाई में रखा जाता हैं।

जगत फंजाई के लक्षण

  1. फंजाई बहुकोशिकीय यूकेरियोट हैं। 
  2. फंजाई बारीक सूत्रों के रूप में पाए जाते हैं, इन सूत्रों को हाइफी कहते हैं मगर यीस्ट एक कोषीय होता हैं।
  3. कोशिका भिति काइटिन की बनी होती हैं। 
  4. एक हाइफा पटों अर्थात सेप्टा नामक विभाजकों द्वारा कोशिकाओं में विभाजित हो सकता हैं। 
  5. पटें में छिद्र होते हैं जिनमें से हाकेर साइटोप्लाज्म स्वतत्रं रूप में बह सकता हैं। 
  6. हाइफो के नेटवर्क बनाने वाले समूह को माइसीलियम (mycelium) कहते हैं। 
  7. माइसीलिम अध:स्तर पर या जमीन पर फैले हो सकते है। 
  8. उनमें क्लोरोफिल नहीं होता है वे अवशोषण द्वारा पोषण प्राप्त करते हैं। 
  9. कवकों में जनन अलैंगिक (बीजाणुओं द्वारा) व लैंगिक (संयुग्मन) द्वारा होता हैं। 

जगत फंजाई के विभिन्न वर्ग

कवक जाल के आकारिकी, बीजाणु बनने तथा फलन काय बनने की विधि को आधार मानकर जगत-फंजाई को विभिन्न वर्गो में विभक्त करते हैं।

फाइकोमाइसिटीज- फाइकोमाइसिटीज जलीय आवासों, गली सड़ी, लकड़ी, नम तथा सीलन भरे स्थानों अथवा पौधों पर अविकल्पी परजीवी के रूप में पाए जाते हैं। कवक जाल अपटीय बहुकेंदक्रीय होता हैं। अलैंगिक जनन चल बीजाणु अथवा अचल बीजाणु द्वारा होता हैं। वे बीजाणु धनी में अतं जार्तीय उत्पन्न हातेे हैं। दो यगु मकों के संलयन से यग्माणु बनते हैं। इन युग्मको की आकारिकी एक जैसी अथवा भिन्न हा े सकती हैं। इसके सामान्य उदाहरण हैं म्यूकर, राइजोपस तथा एलब्यूगो (सरसों पर परजीवी फंजाई) हैं।

ऐस्कोमाइसिटीज - इसे सामान्यत: थैली फंजाई भी कते हैं। ऐस्कोमाइसिटीज एककोशिक जैसे यीस्ट (सोकैरामेाइसीज) अथवा बहुकोशिक जैसे पेनिसिलियम होती हैं। ये मृतजीवी, अपघटक, परजीवी अथवा मलरागी (पशुविष्टा पर उगनेवाली) होते हैं। कवक जालशखित तथा पटीय होता है। अलैंगिक बीजाणु कोनिडिया होते हैं जो विशिष्ट कवक जाल जिसे कोनिडिमधर कहते हैं पर बहिजति रूप से उत्पन्न होते हैं। कोनिडिया अकुरित होकर कवक जाल बनाते हैं। लौंगक बीजाणु को ऐस्कस बीजाणु कहते है। ये बीजाणु थैलीसम ऐस्कस में अंतर्जातीय रूप से उत्पन्न होते हैं। ये ऐसाइर् (एक वचन एस्ेकस) विभिन्न पक्र ार की फलनकीय में लगी रहती है। जिन्हें एस्े कोकाएं कहते हैं। 

इसके कुछ उदाहरण है एस्ेपर्जिलस, (चित्र ) का क्लेवीसप तथा न्यूरोस्पीरा हैं। न्यरोस्पारेा का उपयोग जैवरासायनिक तथा आनुवांशिक पय्रोगों में बहुत किया जाता है। इसी कारण यह पादप जगत के ड्रोसोफिला के समान प्रसिद्ध है। इस वर्ग में आने वाले मॉरिल तथा बफल खाने याग्ेय होते हैं और इन्हें ससुवादु भोजन समझा जाता है।

बेसिडियोमेमाइसिटीज -  बेसिडियोमेमाइसिटीज के ज्ञात सामान्य पक्रार मशरूम, ब्रकेटांजाइर् अथवा पफबॉल हैं। ये मिटटी मे, लट्ठे तथा वृक्ष के ठूँठों पर तथा सजीव पादपों के अंदर परजीवाें के रूप में उगत हैं जैसे किट्ट तथा कंड (स्मट)। कवकजाल शाखित तथा पटीय होता है। इसमें अलैंगिक बीजाणु प्राय: नहीं होते हैं लेकिन कायिक जनन विखंडन विधि द्वारा बहुत सामान्य है। इसमें लैंगिक अंग नहीं होते, लेकिन इसमें प्लाज्मोगैमी विभिन्न स्टे्रनो वाली दो कायिक कोशिकाओं अथवा जीन प्रारूप के संलयन से होती है। इसमें बनने वाली सरंचना द्विकेद्रकी होती है, जिससे अंतत: बेसिडियम बनते हैं। 

बेसिडियम में केन्द्रक संलयन (कैिरयोगैम) तथा मिऑसिस होता है जिसके कारण चार बेसिडियम बनते है। बेसिडियमबीजाणु बेसिडियम पर बहिर्जातीय उत्पन्न होते है। बेसिडियम फलनकाय में लगे रहते है जिसे बेसिडियम कार्प कहते हैं। इसके कुछ सामान्य उदाहरण ऐगैरिक्स (मशरूम) आस्टीलैगों (कडं ) तथा पक्सिनिया (किट्ट फंगस) है।

डयूटिरोमासिटीज - इसे प्राय: अपूर्ण कवक भी कहते है; क्योंकि इसकी केवल अलैंगिक अथवा कायिक पव्रस्था ही ज्ञात हाे पाई है। जब इस फंजाई की लैंगिक प्रवस्था की खोज हो जाती है, तब उसे उसके उचित वर्ग में रख दिया जाता है। यह भी संभव है कि अलैंगिक तथा कायिक पव्रस्थाआें काे एक नाम दे दिया गया हो (और उन्हें डयूटिरोमासिटीज में रख दिया गया हो) और लैंगिक प्रवस्था को दूसरे वर्ग में। बाद में जब उनके अनुबधों (कड़ी) का पता लगा और फंजाई को उचित पहचान हो गई। तब उन्हें डयूटिरोमासिटीज से निकाल लिया गया। एक बार जब डयूटिरोमासिटीज के सदस्यों को उचित (लैंगिक) प्रवस्था का पता लग जाए तब उन्हें एस्कामेाइसिटीज और बेसिडियोमेमाइसिटीज में सम्मिलित कर लेते हैं। डयूटिरोमाइसिटीज केवल अलैंगिक बीजाणुओं जिन्हें कोनिडिया कहते है से जनन करते हैं। इसके कवक जाल पटीय तथा शाखित होते हैं। इसके कुछ सदस्य मृतजीवी अथवा परजीवी होते हैं। लेकिन उनके अधिकांश सदस्य अपशिष्ट के अपघटक होते हैं और खनिज के चक्रण में सहायता करते हैं। इसके कुछ उदाहरण आल्टरनेरिया, कोलेटोटाइकम तथा ट्राईकोडर्मा हैं।

लाइकेन -  लाइकेन शैवाल तथा कवक के सहजीवी रूप हैं। शैवाल घटक को फाइको बियाँट तथा कवक घटक माइकोवियॉट कहते हैं जो क्रमश: स्वपोषी तथा परपोषी होते हैं। शैवाल कवक के लिए भाजे न संश्लेषित करता है और कवक शैवाल के लिए आश्रय तथा खनिज, जल का प्रबध करता हैं। लाइकने प्रदूषण के अच्छे सकेतक हैं- वे प्रदूषित क्षत्रे में नहीं उगते हैं।

फंजाई का आर्थिक महत्त्व 

हानिकारक फंजाई (कवक) -  अनेक कृषि पौधों जैसे गन्ना, मक्का, अनाज, सब्जियों आदि पर कवकों द्वारा रोग हो जाते हैं।
  1. पक्सीनिया ग्रेमिनिस - (गेहूँ का रस्टरोग,) से गेहूँ की पत्ती तथा तने पर भूरे रगं के चकते बन जाते हैं। इसमें गेहूँ की पैदावर कम हो जाती है तथा यह मानव द्वारा खाने योग्य नहीं रहता हैं। 
  2. राइजोपस (ब्रेड मोल्ड) - यह ब्रेड पर उगता हैं। 
  3. कवको से मनुष्यों में अनेक रोग हो जाते हैं जैसे दाद, एथिलीट-फुट आदि। कान के कुछ संक्रमण भी कवकों द्वारा होते हैं। 
लाभकारी कवक -
  1. कुछ मशरूम जैसे ‘‘गुच्छी’’ (एगेरिकस कैंपिस्ट्रस) खाए जाते हैं। 
  2. यीस्टों को बेड्र बीयर, सोया सॉस, चीज (पनीर) तथा मदिरा के निर्माण में प्रयो ग किया जाता हैं।
  3. माइकोराइजा कवक पौधों की जड़ों के साथ रहते हैं। इस प्रकार के साहचर्य से पौधों की जड़ों को पर्यावरण से खनिज प्राप्त होता हैं जबकि कवक को पौधे से तैयार भोजन मिलता हैं। 
  4. न्यूरोस्पोरा आनुवंशिकी के क्षेत्र में किये जाने वाले प्रयो गों में इस्तेमाल किया जाता हैं। 
  5. कवकों से अनेक एंटिबायोटिक प्राप्त होते हैं। पेनिसिलियम नाटेम से पेनिसिलियम प्राप्त होती हैं। इसके प्रतिजैविक प्रभाव की खोज सन् 1927 में अलेक्जेंडर फ्लेमिंग द्वारा संयोगवश हुई थी।

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