मांग का अर्थ, प्रकृति, निर्धारक, आवश्यक तत्व, प्रकार, नियम

मानवीय आवश्यकताओं की संपूर्ति सभी उत्पादक आर्थिक गतिविधियों का मूल ध्येय और लक्ष्य होता है। इच्छा तो उपभोक्ता की किसी वस्तु को पाने की कामना मात्र है। यदि उस कामना के साथ-साथ उपभोक्ता की क्रय क्षमता और उसकी खरीदने की तत्परता का भी संयोग हो जाए तभी वह इच्छा एक ’’आवश्यकता’’ का रूप धारण करती है। इससे आगे चलकर जब उपभोक्ता किसी वस्तु की निश्चित मात्रा बाज़ार कीमत पर खरीदने को तत्पर होता है तो वह उसकी मांग कहलाती है। यहाँ भी पर्याप्त क्रय शक्ति का होना आवश्यक है।

मांग का अर्थ

मांग का अर्थ किसी वस्तु को प्राप्त करने से है। किंतु अर्थशास्त्र में वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा मात्र को मांग नहीं कहते बल्कि अर्थशास्त्र का संबंध एक निश्चित मूल्य व निश्चित समय से होता है। मांग के, साथ निश्चित मूल्य व निश्चित समय होता है। 

मांग की प्रकृति 

माँग की गई मात्रा के विषय में तीन बातों पर सदा ध्यान रखना चाहिए। प्रथम, मांग की मात्रा वह मात्रा है जिसे उपभोक्ता खरीदना चाहता है- यह आवश्यक नहीं कि वह इस मात्रा को खरीद पाने में सफल भी हो। अतः मांगी गई मात्रा खरीदारी की इच्छा है और खरीदी गई मात्रा को वास्तविक खरीदारी कहते हैं। 

दूसरे, मांगी गई मात्रा एक प्रवाह चर है- यह प्रति इकाई समय के अनुसार, किसी अवधि के लिए मापी जाती है। यदि हम कहें कि संतरों की मांग 10 इकाई है तो हमारा अभिप्रायः 10 संतरे प्रतिदिन या प्रति सप्ताह से ही होगा। तीसरे, मांगी गई मात्रा तभी आर्थिक दृष्टि से सार्थक होती है जब उससे जुड़ी कीमत भी बताई गई हो। 

दूसरे शब्दों में, 10 इकाई संतरे प्रति सप्ताह की मांग को सार्थक होने के लिए उनकी प्रति इकाई कीमत स्पष्ट करना भी आवश्यक है। अधिक स्पष्ट शब्दों में, रु.100/- प्रति दर्जन कीमत पर 10 संतरे प्रति सप्ताह की मांग एक सार्थक आर्थिक कथन होगा। व्यष्टि अर्थशास्त्र में हम इसी रूप में मांग का विचार प्रस्तुत करते हैं। 

मांग के निर्धारक 

किसी भी वस्तु की मांग अनेक कारकों द्वारा निर्धारित होती है। आइए, उन पर कुछ विस्तार से चर्चा करें। 

1. उपभोक्ता की मांग के निर्धारक 

एक उपभोक्ता द्वारा किसी वस्तु की मांग की मात्रा कई कारकों पर निर्भर करती है। ये इस प्रकार हैं - 
  1. संबद्ध वस्तु की कीमत; 
  2. अन्य संबंधित वस्तुओं की कीमतें; 
  3. उपभोक्ता की आय; और 
  4. उपभोक्ता की अभिरुचियाँ 
माँग फलन यह दर्शाता है कि वस्तु की मांगी गई मात्रा इन कारकों पर किस प्रकार से निर्भर करती है। हम एक मांग फलन इस प्रकार लिख सकते हैं: 

Dx = f (Px, Py, Pz, M, T) जहाँ Dx द्वारा वस्तु X की मांगी जा रही मात्रा, Px द्वारा उसकी कीमत, Py द्वारा उसके प्रतिस्थापक की कीमत, Pz द्वारा उसके किसी संपूरक की कीमत, M द्वारा उपभोक्ता की आय तथा T द्वारा उसकी अभिरुचियाँ दर्शाई गई हैं। 

यदि किसी वस्तु की मांग को प्रभावित करने वाले सभी कारकों में एक साथ परिवर्तन हों तो उनके प्रभाव का स्पष्ट पृथक्पृ-थक् आकलन-निरूपण बहुत ही जटिल कार्य बन परिचय 26 जाता है। इस समस्या का निपटान करने के लिए हम एक बार में केवल एक कारक में परिवर्तन की कल्पना करते हैं और यह मान्यता बनाते हैं कि इस समय शेष सभी कारक अपरिवर्तित रहेंगे। यही अर्थशास्त्रियों की जानी-मानी ’’अन्य बातें स्थिर या पूर्ववत्’’ रहने की मान्यता है। 

माँग संबंध: किसी वस्तु की मांग की मात्रा के उसके विभिन्न निर्धारकों के साथ संबंध इस प्रकार हैं: 

1) वस्तु की अपनी कीमत: वस्तु की कीमत का उपभोक्ता द्वारा उसकी मांग गई मात्रा पर बहुत गहरा प्रभाव रहता है। सामान्यतः यदि कीमत अधिक हो तो मांगी गई मात्रा कम रहती है। हम ’’मांग का नियम’’ नामक इस संकल्पना पर आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। मांग का नियम सदैव इस मान्यता के आधार पर वर्णित होता है कि मांग को प्रभावित करने वाले शेष सभी कारकों का मान अपरिवर्तित रहता है। 

2) उपभोक्ता की आय का आकार: उपभोक्ता की आय का भी उसकी मांग पर प्रभाव रहता है। जब उपभोक्ता की आय में वृद्धि होने से किसी वस्तु की मांग में वृद्धि होती है तो हम उस वस्तु को ही ’सामान्य वस्तु’ की संज्ञा दे देते हैं। इसके विपरीत स्थिति भी उत्पन्न हो सकती है- आय में वृद्धि के कारण मांग में कमी होने पर हम उस वस्तु को ही ’निकृष्ट वस्तु’ कह देते हैं। 

3) अन्य वस्तुओं की कीमतें: किसी वस्तु की मांग की मात्रा पर अन्य वस्तुओं की कीमतों का भी गहरा प्रभाव रहता है। कुछ मामलों में अन्य वस्तुओं की कीमत में वृद्धि होने पर किसी वस्तु की मांग में वृद्धि होती है तो किसी वस्तु की मांग में कमी। यह पहली प्रकार की वस्तु एक प्रतिस्थापक है और दूसरी प्रकार की वस्तु संपूरक है। चाय और काॅफी प्रतिस्थापक होते हैं तो कार और पैट्रोल या पैन और स्याही को संपूरक कहा जा सकता है। 

4) उपभोक्ता की अभिरुचियां भी उसकी मांग को प्रभावित करती हैं। यदि उसे कोई वस्तु रुचिकर लगने लगे तो वह उस वस्तु का अधिक उपभोग करने लगता है। इसी प्रकार, यदि उसे किसी वस्तु से अरुचि होने लगती है तो वह उसका उपभोग भी कम कर देगा। उदाहरण, मान लें कि उपभोक्ता को रंगीन टेलीविज़न अच्छा लगने लगा है। फिर तो वह इसकी कीमत बढ़ने पर भी अपनी खरीदारी कम नहीं करेगा, बढ़ाएगा ही। यह रंगीन टेलीविज़न की मांग वस्तुतः श्याम श्वेत टेलीविज़न की मांग को विस्थापित करते हुए उत्पन्न हुई है। 

2. बाज़ार की मांग के निर्धारक 

वैसे तो एक व्यक्ति की मांग के निर्धारक बाज़ार मांग के निर्धारक भी होते हैं, किंतु बाज़ार के संदर्भ में कुछ अन्य कारकों को भी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इनमें से ये दो प्रमुख हैं: संपूरक वस्तुएँ उन्हें कहते हैं जिनकी उपयोगिता दोनों वस्तुओं की एक साथ सुलभता पर निर्भर करती है। अतः वस्तु की माँग का संपूरक की कीमत के साथ विलोम संबंध होता है। प्रतिस्थापक वस्तुएँ उन्हें कहते हैं जिनका प्रयोग किसी वस्तु के स्थान पर आसानी से हो सकता है। इसीलिए किसी वस्तु की माँग का उसके प्रतिस्थापक की कीमत से प्रत्यक्ष संबंध होगा। 

1) जनसंख्या का आकार: अन्य कारक अपरिवर्तित रहते हुए यदि जनसंख्या अधिक होगी तो मांग की मात्रा भी अधिक होगी। यह जनसंख्या का आकार स्वयं अनेक कारकों पर निर्भर होता है। 

2) आय का वितरण/आवंटन: यह जरा कठिन संकल्पना है। सीधे शब्दों में, यह राष्ट्रीय आय (देश के घटकों की वर्षभर की साधन आय का योग) के धनिकों एवं निर्धन वर्गों के बीच विभाजन का मामला है। 

इस आय के विभाजन में जितनी अधिक विषमताएं होंगी उतनी ही अधिक धनिकों को प्रिय वस्तुओं की बाज़ार मांग भी होगी। ये वस्तुएं कार, रेफ्रीजरेटर, एयर कंडीशनर आदि हो सकती हैं। यदि आय के वितरण में विषमताएं कम हों तो वहां अपेक्षाकृत कम धनियों की आवश्यक वस्तुओं की मांग अधिक होती है। इनके उदाहरण हैं, गेहँू, चावल, पंखे, बाईसाइकिल आदि। 

एक और बात का ध्यान रहे, यदि मांग को प्रभावित करने वाले कुछ कारकों को मांग फलन में शामिल ही नहीं किया जाए या प्राचलों के आकलन में कुछ त्रुटियां रह जाएं तो मांग फलन मांग का सटीक पूर्वाकलन नहीं कर पाएगा, विक्रय के पूर्वानुमान त्रुटिपूर्ण रहेंगे और उत्पादन वृद्धि, संयंत्र संचालन आदि स्तर के निर्णय भी गलत हो जाएंगे।

मांग के आवश्यक तत्व 

मांग कहलाने के लिए निम्न तत्वों का होना आवश्यक है-

1. इच्छा - मांग कहलाने के लिये उपभोक्ता की इच्छा का होना आवश्यक है। अन्य इच्छा की उपस्थिति के बावजूद यदि उपभोक्ता उस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा नहीं करता तो उसे मांग नहीं कहते।

2. साधन- मांग कहलाने के लिए मनुष्य की इच्छा के साथ पर्याप्त धन (साधन) का होना आवश्यक है। एक भिखारी कार खरीदने की इच्छा रख सकता है, परंतु साधन के अभाव में इस इच्छा को मांग संज्ञा नहीं दी जा सकती। 

3. खर्च करने की तत्परता - मांग कहलाने के लिये मनुष्य के मन में इच्छा व उस इच्छा की पूर्ति के लिये पयार्प्त साधन के साथ-साथ उस धन को उस इच्छा की पूर्ति के लिए व्यय करने की तत्परता भी होनी चाहिए। जैसे- यदि एक कंजूस व्यक्ति कार खरीदने की इच्छा रखता है और उसके पास उसकी पूर्ति के लिए धन की कमी नहीं है, परंतु वह धन खर्च करने के लिए तैयार नहीं है तो इसे मांग नहीं कहेंगे।

4. निश्चित मूल्य - मांग का एक महत्वपूर्ण तत्व निश्चित कीमत का होना है अर्थात् किसी उपभोक्ता के द्वारा मांगी जाने वाली वस्तु का संबंध यदि कीमत से नहीं किया गया तो उस स्थिति में माँग का आशय पूर्ण नहीं होगा। उदाहरण के लिए, यदि यह कहा जाये कि 500 किलो गेहूँ की मांग है, तो यह अपूर्ण हो। उसे 500 किलो गेहूँ की मांग 3 रू. प्रति किलो की कीमत पर कहना उचित होगा।

5. निश्चित समय - प्रभावपूर्ण इच्छा, जिसके लिए मनुष्य के पास धन हो और वह उसे उसकी पूर्ति के लिए व्यय करने इच्छुक भी है और किसी निश्चित मूल्य से संबंधित है, लेकिन यदि वह किसी निश्चित समय से संबंधित नहीं है तो मांग का अर्थ पूर्ण नहीं होगा। इस प्रकार, किसी वस्तु की मांग, वह मात्रा है जो किसी निश्चित कीमत पर, निश्चित समय के लिए मांगी जाती है। 

मांग के प्रकार

मांग दो प्रकार की होती है-
  1. व्यक्तिगत मांग
  2. बाजार मांग
1. व्यक्तिगत मांग - व्यक्तिगत मांग तालिका में एक व्यक्ति के द्वारा एक निश्चित समय-अवधि में वस्तु की विभिन्न कीमतों पर वस्तु की खरीदी जाने वाली मात्राओं को दिखाया जाता है। तालिका से यह स्पष्ट है-

 व्यक्तिगत मांग सन्तरे का मूल्य
(प्रति इकाई रू. में)
सन्तरे की मांग
(इकाईयों में)
1
2
3
4
1000
700
400
200
100

उपर्युक्त तालिका से यह स्पष्ट है कि जैसे- जैसे सन्तरे की कीमत में वृद्धि होती है। वैसे-वैंसे सन्तरे की मागँ में कमी होती है। जब सन्तरे की कीमत प्रति इकाई 1 रू. थी तब सन्तरे की मांग 1000 इकाई की थी, किन्तु सन्तरे के मूल्य में वृद्धि 5 रू. प्रति इकाई हो जाने पर सन्तरे की मांग घटकर 100 इकाइयाँ हो गयी है। 

इस प्रकार मांग तालिका वस्तु के मूल्य एवं मांगी गयी मात्रा के बीच विपरीत संबंध को स्पष्ट कर रही है।

2. बाजार मांग - बाजार मांग तालिका एक निश्चित समय अवधि में वस्तु की विभिन्न कीमतों पर उनके सभी खरीददारों द्वारा वस्तु की मांगी गयी मात्राओं के कुल यागे को बताती है। उदाहरणार्थ, मान लीजिए बाजार में वस्तु के A,B एवं C तीन खरीददार है। अत: वस्तु की विभिन्न कीमतों पर इन लोगों के द्वारा अलग-अलग खरीदी जाने वाली वस्तु की मात्राओं का योग बाजार मांग तालिका होगी। तालिका से यह स्पष्ट है-
मांग का नियम

उपर्युक्त तालिका के प्रथम खाने जिसमें सन्तरे की कीमत प्रति इकाई रू. को दिखाया गया है, तथा अन्तिम खाने में जिसमें बाजार में सन्तरे के विभिन्न खरीददारों द्वारा मांगी गयी कुल मात्रा को दिखाया गया है। ये दोनों खाने मिलकर बाजार मांग तालिका का निर्माण करते है।

इस प्रकार मांग तालिका से स्पष्ट है कि वस्तु के मूल्य में कमी हाने पर वस्तु की मांग बढ  जाती है तथा मूल्य में वृद्धि होने पर वस्तु की मांगी गयी मात्रा में कमी हो जाती है।

व्यक्तिगत तथा बाजार मांग तालिका में प्रमुख अंतर हैं-
  1. बाजार माँग तालिका व्यक्तिगत माँग तालिका की अपेक्षा अधिक समतल तथा सतत् होती है। इसका कारण यह है कि, व्यक्ति का व्यवहार असामान्य हो सकता है। जबकि व्यक्तियों के समुदाय का व्यवहार सामान्य हुआ करता है।
  2. व्यक्तिगत मांग तालिका का व्यावहारिक महत्व अधिक नहीं है, जबकि बाजार मांग तालिका का मूल्य नीति, करारोपण नीति तथा अथिर्क नीति के निधार्रण पर अत्यधिक प्रभाव पडत़ा है।
  3. व्यक्तिगत मांग तालिका बनाना सरल है। जबकि बाजार मांग तालिका बनाना एक कठिन कार्य है। इसके दो कारण हैं- 
    1. धन की असमानताओं का होना, तथा 
    2. व्यक्तियों के दृष्टि कोणों में अंतर पाया जाना। 

मांग का नियम

वस्तु का मूल्य कम होता है तो मांग बढत़ी है और मूल्य बढ़ने पर मांग कम होती है। संभव है कि शेष परिस्थितियों में ऐसा न हो युद्ध व असमान्य परिस्थितियों में ऐसा हो सकता है। अन्य बातें समान रहने पर किसी वस्तु या सेवा के मूल्य में वृद्धि होने पर उसकी मांग कम हाती है और मूल्य घटने पर उसकी मांग बढत़ी है। यह माँग का नियम कहलाता है। ‘‘मांग का नियम के अनुसार मूल्य व मांगा गई मात्रा में विपरीत संबंध होता है।’’

मार्शल के अनुसार मांग का नियम -‘‘विक्रय के लिए वस्तु की मात्रा जितनी अधिक होगी, ग्राहकों आकर्षित करने के लिए मूल्य भी उतना ही कम होना चाहिये ताकि पर्याप्त ग्राहक उपलब्ध हो सकें। अन्य शब्दों में मूल्य के गिरने से मांग बढत़ी है और मूल्य वृद्धि के साथ घटती है।’’

1. मांग अनुसूची - यहां हम कुछ काल्पनिक आंकड़ों का प्रयोग कर मांग के नियम को स्पष्ट कर रहे हैं। तालिका मांग के नियम का एक अनुप्रयोग दिखा रही है, इसी को मांग अनुसूची कहते हैं।
 
तालिका: उपभोक्ता की सेब की मांग अनुसूची
सेब की कीमत, प्रति किलोग्राम
(रुपयों में)
सेब की मांगी गई मात्रा
(प्रति सप्ताह किलोग्राम में)
100  15
200 12
300 8
400 3

इस तालिका (2.1) में हमने चार ही कीमत.मात्रा संयोजन दिखाए हैं। यदि इस तालिका पर ध्यान दें तो सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि कीमत में वृद्धि होने पर उपभोक्ता द्वारा सेब की मांगी गई मात्रा में कमी आ रही है। अतः हमारे चुने हुए आंकड़े मांग के नियम के लागू होने का संकेत प्रदान करते हैं।
मांग का नियम का चित्र
उपरोक्त चित्र में DD मांग वक्र है जो यह दशार्ता है कि मूल्य बढऩे पर मागं कम हो जाती है। और मूल्यकम होने पर मांग बढ जाती है। जैसा चित्र में दर्शाया गया है कि वस्तु का मूल्य 1रुपये होने पर मांग 5 है एवं मूल्य 5रुपये होने पर मांग घटकर कम हो जाती है। इसमें मूल्य एवं मांग के ABCDE बिन्दु प्राप्त होते है। तो मिलाकर मागं वक्र O दर्शाते है।

2. मांग वक्र - “जब मांग की तालिका को रेखाचित्र के रूप में प्रस्तुत किया जाता है तब हमें मांग वक्र प्राप्त होता है इस प्रकार “मांग तालिका का रेखीय चित्रण ही मांग वक्र कहलाता है।”

मांग का नियम

उपर्युक्त रेखाचित्र में OX आधार पर सन्तरे की इकाइयाँ और OY लम्ब रेखा पर सन्तरे की प्रति इकाई कीमत को दिखाया गया है। DD मागँ वक्र है जो कि A,B,C,D एवं E बिन्दुओं को जोडत़े हुए खीचा गया है। DD मांग वक्र में स्थित प्रत्यके बिन्दु विभिन्न कीमतों पर वस्तु की खरीदी जाने वाली मात्रा को बताता है। उदाहरण के लिए, । बिन्दु पर सन्तरे की प्रति इकाई कीमत 5 रू. होने पर उपभोक्ता सन्तरे की 1 इकाइयाँ खरीदता है, जबकि E बिन्दु पर वह सन्तरे की कीमत प्रति इकाई 1 रू. होने पर 5 इकाइयाँ खरीदता है।

इससे स्पष्ट है कि जब सन्तरे की कीमत घट जाती है तब उसकी मांग बढ़ जाती है। इसलिए मांग वक्र का ढाल ऋणात्मक है।

3. मांग वक्र दाहिनी ओर ढलवां क्यों होता है? मांग के नियमानुसार किसी वस्तु की कीमत और उसकी मांग की मात्रा में विलोम संबंध होता है। परंपरागत रूप से इस संबंध को गणना या परिमाणवाची उपयोगिता विश्लेषण के माध्यम से समझाया जाता है। आधुनिक मांग का सिद्धांत इन तीन संकल्पनाओं का प्रयोग करता है: 

1) प्रतिस्थापन प्रभाव - प्रतिस्थापन की संभावना वस्तुओं की सापेक्ष कीमतों में परिवर्तनों के कारण उत्पन्न होती है। मान लें कि पेप्सी और कोक, दोनों के टिन कैन रु. 20/- प्रति इकाई बिक रहे हैं। यदि कोक की कीमत बढ़ाकर रु. 25/- कर दी जाए तो पेप्सी अपेक्षाकृत सस्ता प्रतीत होगा। यहां पेप्सी की कीमत में कमी नहीं आयी है किंतु कोक के महंगे होने के कारण यह सस्ता प्रतीत होने लगा है। यह सापेक्ष कीमत परिवर्तन ही प्रतिस्थापन प्रभाव को जन्म देता है।

यदि अन्य फलों की कीमतें स्थिर रहें और आम सस्ते हो जाएं तो उपभोक्ता आम की ही अधिक मात्रा खरीदने लगता है। इसका कारण यही है कि उसे अब आम सस्ते मिल रहे हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि अब उपभोक्ता अन्य फलों के स्थान पर आम का उपभोग करने लगा है। यही ’प्रतिस्थापन प्रभाव’ है। यही आम की कीमत कम होने पर आम की अधिक खरीदारी का मुख्य कारण है- शर्त यही है कि अन्य फलों की कीमतें स्थिर रहें। 

2) आय प्रभाव - हम मान चुके हैं कि उपभोक्ता की मौद्रिक आय का स्तर स्थिर है। अतः आम की कीमत कम होने के फलस्वरूप उसकी वास्तविक आय में वृद्धि हो जाएगी। वह अपनी पूर्ववत् आय की राशि में अधिक आम खरीद पाने में समर्थ हो जाएगा। इस कारण भी आम की मांग में वृद्धि होने लगेगी। 

कीमत में कमी के फलस्वरूप वास्तविक आय में इस वृद्धि के कारण वस्तु की मांग की वृद्धि को आय प्रभाव कहते हैं। यदि हमारे उपभोक्ता की मौद्रिक आय में वृद्धि होती तो उसका भी वस्तु की मांगी गई मात्रा पर वास्तविक आय में वृद्धि जैसा ही प्रभाव होता। मौद्रिक या वास्तविक आय की वृद्धि पर जिन वस्तुओं की मांग की मात्रा में वृद्धि होती है उन्हें हम ’सामान्य पदार्थ’ कहते हैं। ऐसा आय प्रभाव भी धनात्मक आय प्रभाव कहलाता है। यह धनात्मक इसलिए है कि हमें आय की वृद्धि और मांग की मात्रा के बीच एक प्रत्यक्ष संबंध दिखाई दे रहा है। यदि मौद्रिक या वास्तविक आय की वृद्धि के कारण मांग की मात्रा कम हो जाती हो तो हम उसे ’ऋणात्मक आय प्रभाव’ कहेंगे। इस ऋणात्मक आय प्रभाव का संबंध निकृष्ट पदार्थों’ से रहता है। हम एक नामचीनता रहित कार्डीगन को किसी नामचीन कार्डीगन की अपेक्षा निकृष्ट कह सकते हैं।

3) कीमत प्रभाव - कीमत प्रभाव को हम प्रतिस्थापन प्रभाव और आय प्रभाव का मिला-जुला स्वरूप मानते हैं। 
    PE = SE + IE 
        जहाँ, PE = कीमत प्रभाव, 
                SE = प्रतिस्थापन प्रभाव, और 
                IE = आय प्रभाव

यह प्रतिस्थापन और आय प्रभाव का सम्मिलित स्वरूप कीमत प्रभाव ही किसी वस्तु की मांग की मात्रा को उसकी कीमत के साथ संबंधित करता है। यह ध्यान रहे कि प्रतिस्थापन और आय प्रभाव एक के बाद दूसरे क्रम पर कार्य नहीं करते। वास्तव में, जब कीमत में परिवर्तन होता है तो ये दोनों प्रभाव एक साथ ही क्रियाशील होकर हमें कीमत प्रभाव प्रदान करते हैं। हम तीन परिदृश्यों की कल्पना कर सकते हैं: 

1) प्रतिस्थापन प्रभाव सदैव इस प्रकार कार्य करता है कि किसी वस्तु की कीमत में कमी होने पर उसकी मांग की मात्रा में वृद्धि होती है। यदि हम इसी के साथ आय प्रभाव का भी आकलन करें तथा वह धनात्मक हो तो मांग का नियम निश्चित रूप से व्यावहारिक होगा। 

2) किंतु यदि उक्त प्रतिस्थापन प्रभाव के साथ मिलने वाला आय प्रभाव ऋणात्मक हो (वस्तु एक निकृष्ट पदार्थ हो) तो मांग का नियम लागू होने के लिए यह अनिवार्य हो जाएगा कि प्रतिस्थापन प्रभाव ऋणात्मक आय प्रभाव से अधिक प्रबल हो। 

3) किंतु यदि उक्त प्रतिस्थापन प्रभाव ऋणात्मक आय प्रभाव की अपेक्षा क्षीण हो तो मांग का नियम लागू नहीं हो पाएगा। 

गिफ्फन पदार्थ - जहां ऋणात्मक आय प्रभाव प्रतिस्थापन प्रभाव पर भारी पड़ता है उन वस्तुओं को हम इस विरोधाभास को स्पष्ट करने वाले राॅबर्ट गिफ्फन के नाम पर ही ’गिफ्फन पदार्थ’ कहते हैं। ऐसे पदार्थों की कीमत कम होने पर उनकी मांग में वृद्धि अनिवार्य नहीं होती। वास्तव में, कीमत में कमी के कारण वस्तु की मांग की मात्रा कम भी हो सकती है।

मांग को प्रभावित करने वाले तत्व 

1. वस्तु की कीमत - किसी वस्तु की मांग को प्रभावित करने वाले सबसे प्रमुख तत्व उसकी कीमत है। वस्तु की कीमत में परिवर्तन के परिणामस्वरूप उसकी मांग भी परिवर्तित हो जाती है। प्राय: वस्तु की कीमत के घटने पर मांग बढ़ती है तथा कीमत के बढ़ने पर मांग घटती है।

2. उपभोक्ता की आय - उपभोक्ता की आय किसी भी वस्तु की मांग का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण निधार्रक तत्व है। यदि वस्तु की कीमत में कोई परिवर्तन हो तो आय बढ़ने पर वस्तु की मांग बढ़ जाती है तथा आय कम होने पर वस्तु की मांग भी कम हो जाती है। गिफिन वस्तुओं (निकृष्ट वस्तुओ) के संबंध में उपभोक्ता का व्यवहार इसके विपरीत होता है।

3. धन का वितरण- समाज में धन का वितरण भी वस्तुओं की मांग को प्रभावित करता है। यदि धन का वितरण असमान है, अर्थात ् धन कुछ व्यक्तियों के हाथों में ही केन्द्रित है तो विलासितापूर्ण वस्तुओं की मांग बढेग़ी। इसके विपरीत, धन का समान वितरण है, अर्थात् अमीरी-गरीबी के बीच की दूरी अधिक नहीं है, तो आवश्यक तथा आरामदायक वस्तुओं की मांग अधिक की जायेगी। 

4. उपभोक्ताओं की रुचि - उपभोक्ताओं की रुचि, फैशन, आदत, रीति-रिवाज के कारण भी वस्तु की मांग प्रभावित हो जाती है। जिस वस्तु के प्रति उपभोक्ता की रूचि बढ़ती है, उस वस्तु की मांग भी बढ़ जाती है जैसे - यदि लोग कॉफी को चाय की अपेक्षा अधिक पसंद करने लगते है। तो काफी की मांग बढ  जायेगी तथा चाय की मांग कम हो जायेगी।

5. सम्बन्धित वस्तुुओं की कीमत- किसी वस्तु की मांग पर उस वस्तु की संबंधित वस्तु की कीमत का भी प्रभाव पडत़ा है। संबधित वस्तुएँ दो प्रकार की हाती हैं- 
  1. प्रतिस्थापन वस्तुएँ वे हैं जो एक-दसूरे के बदले में प्रयागे की जाती है जैसे- चाय व कॉफी। यदि चाय की कीमत बढत़ी है और कॉफी की कीमत पूर्वत् रहती है। तो चाय की अपेक्षा कॉफी की मांग बढेग़ ी। 
  2. पूरक वस्तुएँ वे है। जिनका उपयागे एक साथ किया जाता है; जसै - डबलरोटी व मक्खन। अब यदि रोटी की कीमत बढ़ जाये तो उसकी मांग घटेगी, फलस्वरूप मक्खन की मांगीाी घटेगी।
    6. मौसम एवं जलवायु- वस्तु की मांग पर मासै म एवं जलवायु आदि का भी प्रभाव पड़ता है जैसे- पंखा, कूलर, फ्रीज, ठण्डा पेय आदि की मांग गर्मियों में बढ जाती है। इसी प्रकार ऊनी कपडे, हीटर आदि की मांग सर्दियों में बढ़ जाती है। इसी प्रकार छाते बरसाती कोट आदि की माँग बरसात के दिनों में बढ जाती है। 

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