मृदा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार

मृदा विभिन्न प्रकार के पदार्थों का मिश्रण है। उदाहरण के लिए, कण, छोटे कंकड़, क्षय और जीवित जीव जिन्हें खाद सूक्ष्म जीव, आदि कहा जाता है। मृदा की ऊपरी सतह वह है जिसमें पौधे खाद, मिट्टी के कण और जीवित जीवन की शरण में रहते हैं। मृदा या मिट्टी चट्टानों द्वारा ही निर्मित होती हैं। 

मृदा की परिभाषा

मृदा की परिभाषा इस प्रकार है- मृदा भूमि की वह ऊपरी परत हैं जिसका निर्माण मूलरूप से चट्टानों के विखण्डित होने उनमें वनस्पति व जीवेां के सड़ने, गलने तथा जलवायु की क्रिया से निर्मित अम्लीय पदार्थों से लाखों वर्षों की प्रक्रिया के बाद मृदा का रूप लेती हैं।

मृदा के प्रकार

मृदा के कितने प्रकार है? आइए इसे विस्तार से समझते हैं-
  1. बलुई मृदा 
  2. दोमट मिट्टी
  3. मटियार मृदा 
  4. कछारी मृदा 
  5. ऊसर मृदा 
  6. लाल मृदा
  7. लैटेराइट मृदा 
  8. काली या रेगट मृदा 
  9. जलोढ़ मृदा
  10. मरूस्थलीय मृदा 
  11. तटीय मृदा 
  12. पर्वतीय मृदा -
1. बलुई मृदा - बलुई दोमट मिट्टी जिसमें बालू, सिल्ट एवं चीका की अपेक्षित मात्रा का प्रतिशत क्रमशः 65, 25 एवं 10 प्रतिशत है। इसमें नेत्रजन की मात्रा 40 से 45 प्रतिशत तक मिलती है। 

2. दोमट मिट्टी - दोमट मृदा प्रमुख रूप से बालू एवं सिल्ट का सम्श्रिण है जिसमे बालू की मात्रा 45 प्रतिशत, सिल्ट 40 प्रतिशत एवं चीक 23 प्रतिशत पाया जाता है। मध्यम उर्वरता की यह मृदा कृषि उद्यम के लिए आदर्श होती है। छोटे बालू कणों की उपस्थिति के कारण यह भुरभुरी होती है, जिसमें हल चलाना सुगम एवं जल वायु का संचालन अत्यन्त सुगम होता है। 

3. मटियार मृदा - यह सूक्ष्मदर्शी  कणों का समूहन है, जिसकी ऊपरी सतह का रंग हल्का भूरा, पीला एवं हल्का काला होता है। इसमें दोमट मिट्टी की तुलना में चीका की मात्रा अधिक पायी जाने के कारण नमी धारण करने की क्षमता अधिक होती है। इसमें बालू की मात्रा 28 प्रतिशत, सिल्ट की मात्रा 37 प्रतिशत एवं चीका की मात्रा 35 प्रतिशत होती है। नाइट्रोजन की अधिकतर 50-60 प्रतिशत होने के कारण प्रति हेक्टेयर उत्पादन अधिक होता है। 

यह अति गहरी एवं आन्तरिक अवरोधयुक्त भारी मृदा है। जिसका अम्ल अनुपात उदासीन से साधारण क्षारीय होता है, तथा इसका जल निकास खराब होता है। इसमें धान की खेती के साथ मत्स्यपालन एवं सिंघाड़ा की खेती लाभप्रद होती है। 

4. कछारी मृदा - इसमें जीवांश एवं मटियार कणों की विशेष कमी होती है। फलत: इसमें लचीलापन एवं तन्मयता बिल्कुल नहीं होती है। गंगा के बाढ़ द्वारा प्रतिवर्ष नवीन मृदा की परत जमा होती है, जिससे इसकी उर्वरता का ह्रास नहीं होता है। 

5. ऊसर मृदा - भारत के उत्तरी मैदान में कहीं-कहीं ऊसर भूमि देखी जाती है यह ऐसी भूमि है जो कृषि के लिए उपयुक्त नहीं होती। भूमि के ऊपर सफेद रंग का क्षारीय पदार्थ बिछा हुआ मिलता है। इस क्षारीय पदार्थ की अधिकता के कारण भूमि बेकार हो जाती है। ऐसी भूमि को उत्तर प्रदेश में ‘रेहू’ यो ‘ऊसर’ पंजाब में ‘राखर’ या ‘थर’ और महाराष्ट्र में ‘चोपान’ या कैल कहते हैं। 

इस मिट्टी के उत्पत्ति के प्रमुख कारणों में जल एकत्रित होना, वर्षा की न्यूनता, उच्च जल-तल, मन्द ढाल एवं शुष्कता है। कुण्डा तहसील में यह मिट्टी उन भागों में पायी जाती है जहां वर्षाकालीन जल जमाव रहता है।

6. लाल मृदा -  इसके अंतर्गत उष्ण कटिबंधीय लाल तथा पीली मृदा आती हैं। भारत में 20 लाख वर्ग कि.मी. क्षेत्रफल में यह मृदा मिलती हैं। यह मृदा सामान्यत: चूना, पोटास, फास्फोरस जीवांश तथा नाइट्रोजन की कमी से यह मृदा कम उपजाऊ हैं। बघेलखंड, छत्तीसगढ़ तथा पूर्वी तमिलनाडु मेंं यह मृदा मुख्यत: बलुई हैं। 

पूर्वांचल, झारखंड, पंबंगाल, अरावली क्षेत्र, उड़ीसा, उत्तरी आंध्रप्रदेश तथा पूर्वी कर्नाटक की लाल मृदा बलुई-दोमट हैं।

7. लैटेराइट मृदा - लैटेराइट मृदा विशेषतया भारी वर्षा, अधिक तापमान वाले ऊँचे सपाट अपरदित सतहों पर पाई जाती हैं। तीव्र निक्षालन क्रिया द्वारा पोशक तत्वों का नाश हो जाना इस मृदा का सामान्य लक्षण हैं। यह मृदा गीली होने पर गारे के समान ढ़ीली तथा सूखने पर ईट के समान कठोर हो जाती हैं। इसलिये एफ बुकनान ने 1910 में इस प्रसिद्ध मिट्टी को लैटेराइट कहा था। लेटिन भाषा में लेटर का अर्थ ईट से हैं। 

छत्तीसगढ़ में इसे ‘‘मूरम’’ तथा इस मृदा के क्षेत्र को ‘भाठा’ कहते हैं। इसमें मोटे अनाज का उत्पादन एवं पशु चारण होता हैं। भारत में यह मृदा पूर्वी पश्चिमी घाट, झारखंड, तथा मेघालय में अधिक हैं। 

8. काली या रेगट मृदा - काली मृदा दक्कन के लावा प्रदेश में पायी जाती है। इसका रंग सामान्यतया काला होता हैं। यह ऊपजाऊ मृदा है। वर्षा ऋतु में फूलकर चिपचिपी हो जाती हैं। नमी धारण करने की क्षमता अधिक होती हैं। ग्रीष्म ऋतु में इसमें से नमी निकलने से दरारे पड़ जाती हैं। 

काली मृदा के क्षेत्र महाराष्ट्र, पश्चिम मध्यप्रदेश, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश तथा तमिलनाडु हैं। छत्तीसगढ़ मे इन्हें अनेक नाम से जानते हैं। कन्हार, मटासी, डोरसा, पटपा, के नाम उल्लेखनीय हैं। 

9. जलोढ़ मृदा - उत्तर भारत के विशाल मैदान में पंजाब से असम तक 6.8 लाख वर्ग किमी. में यह मृदा मिलती हैं, विभिन्न शैल कणों से बनी ये मिट्टियां उपजाऊ हैं। 

10. मरूस्थलीय मृदा - पवन द्वारा लाकर राजस्थान में जमा की गई बालू से बनी मरूस्थलीय मिट्टी बलुई हैं। इस मृदा में चूने तथा अन्य क्षारों का जमाव हैं। इस मिट्टी का रंग धूसर हैं। यह कम उत्पादक हैं। सिंचाई से अच्छी उपज होती हैं। इसका विस्तार प. राजस्थान, सौराष्ट्र, कच्छ, हरियाणा एवं दक्षिण पंजाब में 2.2 लाख वर्ग किमी. में फैली हैं।

11.तटीय मृदा - बंगाल के तट पर तथा प्रायद्वीपीय भारत के तट पर तटीय मिट्टी की एक लंबी पट्टी हैं। ये जलोढ़ मृदा से अलग सीमा बनाती है। 

12. पर्वतीय मृदा - ये जटिल एवं अत्याधिक विविधता वाली मृदा हैं। कहीं पर घूसर श्वेत जैसा होतीहैं। यह मृदा कृषि के लिये अच्छी नहीं हैं। यह चीड़ आदि शंकुधारी वनो की मिट्टी हैं। चाय की खेती एवं फलों के बगानों तथा आलू की पैदावार के लिये विख्यात हैं। यह मिट्टी हिमालय की घाटियों , कांगड़ा देहरादून तथा दाजिर्ंलिंग में पायी जाती हैं।

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