वाणिज्य क्या है और इसके प्रकार?

व्यवसाय के दो अंग हैं- उद्योग और वाणिज्य। उद्योगों का कार्य जहां समाप्त होता है, वहीं वाणिज्य का कार्य आरम्भ होता है। उद्योगों में वस्तुओं का उत्पादन होता है। इन वस्तुओं को उपभोक्ताओं तक पहुंचाने की क्रिया वाणिज्य है। इस प्रकार वाणिज्य के अन्तर्गत उत्पादन स्थल से निर्मित वस्तु प्राप्त करके उपभोक्ता तक पहुंचाने की समस्त क्रियाएं सम्मिलित की जाती है। इस प्रकार वाणिज्य उत्पादक और उपभोक्ता के बीच की कड़ी हैं।
 
उदाहरण के लिए कोई कम्पनी यदि साबुन बनाती है। तो इस कम्पनी का साबुन उपभोक्ता के बाथरूम मे पहुंचने तक अनेक क्रियाओं को सम्पादित करना पडता हैं। जैसे लोगों को इसकी जानकारी देना, साबुनो का संग्रहण करना, पैंकिंग करना, परिवहन करना, फुटकर विक्रय का प्रबंन्ध करना, साबुनो की बिक्री करना ये सभी क्रियाएं वाणिज्य के अन्तर्गत आती है। अत: वाणिज्य में सम्मिलित है-
  1. वस्तुओं एवं सेवाओं का क्रय एवं विक्रय तथा 
  2. उत्पादन स्थल से उपभोक्ता स्थल तक बिना रूकावट के वस्तुओं एवं सेवाओं के सुगम प्रवाह को बनाए रखने के लिए आवश्यक क्रियाएं । 
पहली क्रिया अर्थात् वस्तुओं एवं सेवाओं का क्रय-विक्रय व्यापार कहलाता है तथा दूसरी क्रिया अर्थात् उपभोक्ताओं को वस्तुओं एवं सेवाओं के सुगम प्रवाह को सुनिश्चित करना ‘व्यापार की सहायक क्रियाएं’ या व्यापार-पूरक क्रियाएं कहलाती हैं। 

वाणिज्य के प्रकार

अत: वाणिज्य को निम्न वगोर्ं मे बांटा जा सकता है-
  1. व्यापार एवं 
  2. व्यापार की सहायक क्रियाएं 

1. व्यापार - 

व्यापार वाणिज्य का एक अभिन्न अंग हैं। व्यापार में क्रेता एवं विक्रेता के पारस्परिक लाभ के लिए वस्तुओं का क्रय-विक्रय प्रमुख कार्य है। इसमें वस्तुओं एवं सेवाओं का हस्तांतरण या विनिमय होता है। बड़ी मात्रा मे वस्तुओं एवं सेवाओं का उत्पादन करने वालों के लिए सीधे इन्हे उपभोक्ताओं को बेचना कठिन होता हैं। इसमें कई प्रकार की समस्यायें आती हैं- जैसे उत्पादन स्थल से उपभोक्ता की दूरी, उपभोक्ता को कम-कम मात्रा में समय-समय पर आवश्यकता, भुगतान की समस्या आदि। अत: उत्पादक का उत्पाद थोक व्यापारी खरीद लेते हैं और इनके पास से बहुत सारे फुटकर व्यापारियों के द्वारा आवश्यकतानुसार उपभोक्ताओं तक पहुंचाया जाता हैं।

इस प्रकार थोक व्यापारी और किराने की दुकान वाले जैसे फुटकर व्यापारी दोनों ही व्यापारिक क्रियाओं में संलग्न हैं। व्यापार के लक्षणो को निम्न प्रकार से स्पष्ट किया जा सकता है -
  1. क्रय एवं विक्रय- व्यापार मे वस्तुओं का वास्तविक क्रय एवं विक्रय होता है।
  2. दो पक्ष- व्यापार में क्रेता और विक्रेता दो पक्षों का होना अति आवश्यक है। 
  3. मुद्रा का माध्यम- व्यापार का माध्यम मुद्रा होती है जैसे विक्रेता वस्तु प्रदान करता हैं और उसके बदले क्रेता से मुद्रा प्राप्त करता है।
  4. वस्तु एवं सेवाओं का क्रय-विक्रय क्रय-विक्रय मे वस्तु या सेवाओं का होना आवश्यक है। 
  5. लाभार्जन- व्यापार लाभ अर्जन के उद्देश्य से किया जाता है। 
व्यापार के प्रकार-  प्रचालन के आधार पर व्यापार को निम्न दो भागों में वर्गीकृत किया जा सकता हैं-
  1. आन्तरिक व्यापार, एवं 
  2. बाह्य व्यापार ।
1. आन्तरिक व्यापार- जब व्यापार एक देश की भौगोलिक सीमाओं के अन्दर होता है जो इसे आन्तरिक व्यापार कहते हैं। इस का अर्थ है कि क्रय एवं विक्रय दोनों एक ही देश के अन्दर हो रहे हैं। उदाहरण के लिए एक व्यापारी लुधियाना के निर्माताओं से बड़ी मात्रा मे ऊनी वस्त्र खरीदकर उन्हें दिल्ली के विक्रेताओं को थोड़ी-थोड़ी मात्रा मे बेच सकता हैं। इसी प्रकार से गांव का एक व्यापारी निर्माताओ से या शहर के बाजार से वस्तुओं का क्रय करके थोड़ी-थोड़ी मात्रा में गांव के लोगो को/उपभोक्ताओ को बेचता है। इन दो उदाहरणों से यह स्पष्ट होता है कि आन्तरिक व्यापार दो प्रकार का हो सकता है
  1. उत्पादक से बड़ी मात्रा मे क्रय करके विक्रेताओं को थोडी-थोड़ी मात्रा में बेचना (जिसे थोक व्यापार कहते हैं) अथवा 
  2. उत्पादकों/विक्रेताओं से खरीदकर सीधे उपभोक्ताओं को बेचना (जिसे फुटकर व्यापार कहते हैं)। 
बाह्य व्यापार- विभिन्न देशों के व्यापारियों के बीच होने वाला व्यापार बाह्य व्यापार कहलाता है दूसरे शब्दे में बाह्य व्यापार किसी देश की सीमाओं के बाहर वस्तुओं/सेवाओं का क्रय अथवा विक्रय करना है यह निम्न में से किसी भी रूप मे हो सकता है-
  1. ‘अ’ देश की फर्में ‘ब’ देश की फमोर्ं से अपने देश में विक्रय के लिए माल का क्रय करती हैं। इसे आयात व्यापार कहते है। 
  2. ‘अ’ देश की फर्में अपने देश मे उत्पादित वस्तुएं ‘ब’ देश की फर्मों को बेचते है इसे निर्यात व्यापार कहते हैं। 
  3. ‘अ’ देश की फर्मे ‘ब’ देश की फर्मो  स े ‘स’ देश की फमोर्ं को बेचने के लिए माल क्रय करते है। इसे पुन: निर्यात व्यापार कहते हैं। 

2.. व्यापार सहायक क्रियाएं 

व्यापार मे अनेक क्रियाओं और साधनों की सहायता ली जाती है। यदि ये साधन न उपयोग किये जाएं तो व्यापार का अस्तित्व संकट मे पड़ जायेगा। इसीलिए इन्हे व्यापार के सहायक क्रियाएं कहा जाता है। व्यापार की प्रमुख सहायक क्रियाएं निम्नांकित साधनो की सहायता से सम्पादित की जाती है :-
  1. यातायात के साधन 
  2. संचार एवं संदेश वाहन के साधन 
  3. बैंक 
  4. बीमा 
  5. भण्डारगृह 
  6. स्कन्ध एवं उपज विपणी 
  7. विज्ञापन एवं विक्रय कला 
  8. अन्य (पैंकिंग, मानकीकरण, विपणी अनुसंधान आदि) 
हम कह सकते हैं कि व्यापार की सहायक क्रियाएं वह क्रियाएं है जो व्यापार को सुगम बनाती है। न केवल व्यापारिक क्रियाओं को सुगम बनाती हैं बल्कि समस्त व्यवसाय को इसके सफल प्रचालन में आवश्यक सहयोग प्रदान करती है। अत: इन्हे व्यवसाय की पोषक क्रियाएं भी कहते है।

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