Showing posts from April, 2018
उपनिषद् शब्द ‘उप’ एवं ‘नि’ उपसर्ग पूर्वक सद् (सदृलृ) धातु में ‘क्विप्’ प्रत्यय लगकर बनता है, जिसका अर्थ होता है ‘समीप में बैठना’ अर्थात् गुरु के समीप बैठकर ज्ञान प्राप्त करना। धातुपाठ में सद् (सद्लृ) धातु के तीन अर्थ निर्दिष्ट हैं - विशरण, (विनाश होन…
‘अथर्व’ शब्द का अर्थ है अकुटिलता तथा अंहिसा वृत्ति से मन की स्थिरता प्राप्त करने वाला व्यक्ति। इस व्युत्पत्ति की पुष्टि में योग के प्रतिपादक अनेक प्रसंग स्वयं इस वेद में मिलते है। होता वेद आदि नामों की तुलना पर ब्रह्मकर्म के प्रतिपादक होने से अथर्ववेद…
अथर्ववेद के अनेक स्थलों पर साम की विशिष्ट स्तुति ही नहीं की गई है, प्रत्युत परमात्मभूत ‘उच्छिष्ट’ (परब्रह्म) तथा ‘स्कम्भ’ से इसके आविर्भाव का भी उल्लेख किया गया मिलता है। एक ऋषि पूछ रहा है जिस स्कम्भ के साम लोभ हैं वह स्कम्भ कौन सा है? दूसरे मन्त्र म…
यजुर्वेद की शाखाएं काण्यसंहिता कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय संहिता मैत्रात्रणी संहिता 1. काण्यसंहिता- शुक्ल यजुर्वेद की प्रधान शाखायें माध्यन्दिन तथा काण्व है। काण्व शाखा का प्रचार आज कल महाराष्ट्र प्रान् तमें ही है और माध्यन्दिन शाखा का उतर भारत म…
श्रीमदभगवदगीता विश्व के सबसे बडे महाकाव्य महाभारत के “भीष्मपर्व” का एक अंश है। भगवदगीता भगवान कृष्ण द्वारा कुरुक्षेत्र युद्ध में दिया गया दिव्य उपदेश है जब अर्जुन मोहग्रस्त होकर किंकर्तव्यविमूढ़ कि स्थिति में पहुंच चुके थे। इस प्रकार अर्जुन को केन्द्र…