आसन का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, महत्व, उद्देश्य, विधि व लाभ

आसन का अर्थ है- यह शरीर और मन पर नियंत्रण हेतु विभिन्न शारीरिक मुद्राओं का अभ्यास। आसन शब्द कई अर्थों में प्रयुक्त होता है जैसे शरीर के द्वारा बनाये गये विशेष स्थिति, बैठने का विशेष तरीका, हाथी के शरीर का अगला भाग, घोडे़ का कन्धा आदि परन्तु हठयोग में आसन शब्द का अर्थ मन को स्थिर करने हेतु बैठने की विशेष स्थिति माना जाता है।  महर्षि पतंजलि आसन की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि -

‘‘स्थिरसुखमासनम्’’ योगसूत्र 2/46 

अर्थात् जिस स्थिति में व्यक्ति स्थिरता एवं सुखपूर्वक लम्बे समय तक बैठे उसे आसन कहते हैं।

स्थिर और सुखकर शारीरिक स्थिति मानसिक संतुलन लाती है और मन की चंचलता को रोकती है। आसनो की प्रारंभिक स्थिति में अनेक प्रकारान्तरों के द्वारा अपने शरीर को अन्तिम स्थिति के अभ्यास के लिए तैयार किया जाता है। महर्षि घेरण्ड, घेरण्ड संहिता में आसनों के सन्दर्भ में बताते हैं कि इस संसार में जितने जीव-जंतु हैं, उनके शरीर की जो सामान्य स्थिति है, उस भंगिमा का अनुसरण करना आसन कहलाता है। 

भगवान् शिव ने चौरासी लाख आसनों का वर्णन किया है। उनमें से चौरासी विशिष्ट आसन हैं ओर चौरासी आसनों में से बत्तीस आसन मृत्यु लोक के लिए आवश्यक माने गये हैं। 

महर्षि पतंजलि ने आसन शरीर को स्थिर और सुखदायी रखने की तकनीक के रूप में बताया है।

आसन शब्द का अर्थ एवं परिभाषा

आसन शब्द संस्कृत भाषा के ‘अस’ धातु से बना है जिसके दो अर्थ हैं- पहला है ‘बैठने का स्थान’ तथा दूसरा ‘शारीरिक अवस्था’।
  1. बैठने का स्थान 
  2. शारीरिक अवस्था 
बैठने का स्थान का अर्थ है जिस पर बैठते हैं जैसे-मृगछाल, कुश, चटाई, दरी आदि का आसन। आसन के दूसरे अर्थ से तात्पर्य है शरीर, मन तथा आत्मा की सुखद संयुक्त अवस्था या शरीर, मन तथा आत्मा एक साथ व स्थिर हो जाती है और उससे जो सुख की अनुभूति होती है वह स्थिति आसन कहलाती है। आसन अर्थात् जब हम किसी स्थिर आसन में बैठेंगे तभी योग साधनाएं कर सकते है। 

महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्रों में किसी विशेष आसन का वर्णन नहीं किया है केवल आसन की परिभाषा बताइ है जो इस प्रकार है-

स्थिरंसुखमासनम्।। पातंजल योग सूत्र 2/46

जो स्थिर और सुखदायी हो वह, आसन है।

हमें किसी भी प्रकार की साधना करने के लिए आसन के अभ्यास की आवश्यकता हेाती हैं । आसन मे स्थिरता व सुख होने पर ही हम प्राणायाम आदि क्रिया सम्पन्न कर सकते हैं। अत: स्वाभाविक व प्राथमिक आवश्यकता साधना के लिए ‘‘आसन’’ की होती है। 

आसन से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है-तेजबिंदु उपनिशद् में आसनों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है-
सुखनैव भवेत् यस्मिन् जस्त्रं ब्रह्मचिंतनम्।
जिस स्थिति में बैठकर सुखपूर्वक निरंतर परमब्रह्म का चिंतन किया जा सके, उसे ही आसन समझना चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने आसनों को इस प्रकार बताया है-
समं कायषिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिषष्चानवलोकयन्।। श्रीमद्भगवद्गीता 6/13

कमर से गले तक का भाग, सिर और गले को सीधे अचल धारण करके तथा दिशाओं को न देख केवल अपनी नासिका के अग्र भाग को देखते हुए स्थिर होकर बैठना आसन है। व्यास भाष्य के अनुसार- पद्मासन, वीरासन, भद्रासन, स्वस्तिकासन, दण्डासन, सोपाश्रय, पर्यड़क्, क्रौन्चनिषदन, हस्तिनिषदन, उष्ट्रनिषदन, समसंस्थान- ये सब स्थिरसुख अर्थात् यथासुख होने से आसन कहे जाते हैं।

विज्ञानभिक्षु के अनुसार - जितनी भी जीव जातियां है, उनके बैठने के जो आकार विशेष हैं, वे सब आसन कहलाते हैं।
 
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - आसन के स्थिर होने का तात्पर्य है, शरीर के अस्तित्व का बिल्कुल भान तक न होना। 

आसनों के सबंध में आचार्य श्री राम शर्मा कहते हैं कि ‘‘आसनों का गुप्त आध्यात्मिक महत्व है, इन क्रियाओं से सूर्य चक्र, मणिपुर चक्र, अनाह्त चक्र आदि सूक्ष्म ग्रंथियों का जागरण होता है और कई मानसिक शक्तियों का असाधारण रूप से विकास होने लगता है।’’

इससे स्पष्ट है कि शारीरिक लाभ तो स्वाभाविक है, लेकिन आध्यात्मिक, मानसिक लाभ भी साथ-साथ मिलते हैं।

आसन की सिद्धी

महर्षि पतंजलि ने आसन की सिद्धी के सन्दर्भ में स्पष्ट करते हुए कहा है कि -प्रयत्नषैथिल्यानन्तसमापत्तिभ्याम् ।। योग सूत्र 2/47 प्रयत्न की शिथिलता से तथा अनंत परमात्मा में मन लगाने से सिद्ध होता है। आसन की सिद्धी से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है- व्यास भाष्य के अनुसार - प्रयत्नोपरम् से आसन सिद्धि होती है।
 
स्वामी हरिहरानंद के अनुसार - आसन सिद्धि अर्थात् शरीर की सम्यक् स्थिरता तथा सुखावस्था प्रयत्नशैथिल्य और अनंत समापत्ति द्वारा होती है।
 
स्वामी विवेकानंद के अनुसार - अनंत के चिंतन द्वारा आसन स्थिर हो सकता है। स्पष्ट है कि आसन तभी सिद्ध कहलाता है जब स्थिरता व प्रयत्न की शिथिलता अर्थात् अभाव होगा क्योंकि प्रयत्न करने पर स्थिर सुख का लाभ प्राप्त नही हो सकता है न हीं स्थिरता के भाव प्राप्त हो सकते है। 

अत: जैसे-जैसे हम शरीर को स्थिर रखने का प्रयास करेंगे वैसे-वैसे हम शरीर भाव से ऊँचे उठेंगे। यह अनंत के चिंतन द्वारा ही संभव है।

आसन का परिणाम

जब आसन के अभ्यास से स्थिरता का भाव आ जाएगा वो हमें किसी भी प्रकार का दु:ख द्वन्द्व आदि हमें विचलित नही कर पायेंगे। इसे ही महर्षि पतंजलि ने आसन के फल के रूप में स्पष्ट करते हुए कहा है कि ततो द्वन्द्वानभिघात: ।। पातंतज योग सूत्र 2/48 उस आसन की सिद्धि से जाड़ा-गर्मी आदि द्वन्द्वों का आघात नहीं लगता। आसन के फल से संबंधित विभिन्न व्याख्याकारों ने जो व्याख्या की है वह इस प्रकार है- व्यास भाष्य- आसन जय के कारण शीत-उष्ण आदि द्वन्द्वों द्वारा (साधक) अभिभूत नहीं होता। 

स्वामी हरिहरानंद- ‘‘आसनस्थैर्य के कारण शरीर में शून्यता आ जाती है’’ स्पष्ट है कि जब हम आसन सिद्ध कर लेंगे तो हमें शुभ-अशुभ सुख-दुख, गर्मी-ठण्डी आदि भाव नही सतायेंगे। हम बोधशून्य हो जाते हैं। क्योंकि पीड़ा एक चंचलता ही है और आसन सिद्धि तो चंचलता की समाप्ति होने पर ही हो सकती है अत: हममें यह चंचलता रूपी पीड़ा का भान नही होता है हम कसी भी स्थिति मे सुख व शांत होते हैं।

आसन का महत्व

आसनों का मुख्य उद्देश्य शारीरिक तथा मानसिक कष्टों से मुक्ति दिलाना है। आसन से शरीर के जोड़ लचीले बनते हैं। इनसे शरीर की माँसपेशियों में खिंचाव उत्पन्न होता है जिससे वह स्वस्थ होती हैं तथा शरीर के विशाक्त पदार्थों को बाहर निकालने की क्रिया संपन्न होती है। आसन से शरीर के आंतरिक अंगों की मालिश होती है जिससे उनकी कार्यक्षमता बढ़ती है। आसन शरीर के मर्म स्थानों में रहने वाली ‘हव्य वहा’ व ‘कव्य वहा’ विद्युत शक्ति को क्रियाशील रखते हैं। आसनों का सीधा प्रभाव शरीर की नस-नाड़ियों के अतिरिक्त सुक्ष्म कशेरुकाओं पर भी पड़ता है। आसनों के अभ्यास से आकुंचन और प्रकुंचन द्वारा शरीर के विकार हट जाते हैं। आसन से शारीरिक संतुलन के साथ-साथ भावनात्मक संतुलन की प्राप्ति होती है।

आसन के लाभ

आसन के लाभ

आसन के उद्देश्य 

आसन का प्रमुख उद्देश्य व्यक्ति का शारीरिक तथा मानसिक विकास करना हैं। आसनों का नियमित अभ्यास शरीर एवं मन को सन्तुलित रखता है, शरीर को लचीला बनाता है, मांसपेशियों में खिंचाव उत्पन्न करता है, आन्तरिक अंगों की मालिश करता है, तथा अन्तःस्रावी ग्रन्थियों को सक्रिय बनाता है। इसके अभ्यास से शरीर में स्थित सभी तन्त्रों पर सकरात्मक प्रभाव पड़ता है, जिससे सभी तन्त्र सुचारू रूप से कार्य करते रहते हैं। 

आसनों के अभ्यास से शरीर निरोगी रहता है साथ ही साथ आसनों का अभ्यास शरीर को दृढ़ता भी प्रदान करता है। हठयोग के ग्रन्थों में कहा भी गया है कि ‘‘आसनेन रूजो हन्तिः’’ , ‘‘आसनेन भवेद् ढृढ़म्’’ ।आसन करने से शरीर में स्थित विषैले पदार्थ जल्दी ही बाहर निकल जाते हैं। आध्यात्मिक पक्ष सेे देखने पर हमें ज्ञात होता है कि आसनों का अभ्यास शरीर में स्थित कुण्डलिनी शक्ति जों कि मूलाधार चक्र में सोयी हुई हैं उसे भी जाग्रत करने में सहायक होता है। 

शरीर में स्थित सुषुम्ना नाड़ी (प्रमुख नाड़ी) को क्रियाशील बनाता हैं, जिससे साधक की आध्यात्मिक उन्नति होती हैं।

हठयोग प्रदीपिका में वर्णित आसन 

हठयोग प्रदीपिका के प्रथम उपदेश में ही 15 आसनों का विस्तृत वर्णन मिलता है। साधक-बाधक तत्वों के वर्णन के बाद आसनों का वर्णन करते हुए स्वामी जी कहते है कि- 

हठस्य प्रथामड्.गत्वादासनं पूर्वमुच्यते। 
कुर्यात्तदासनं स्थैर्यमारोग्यं चाड्त्रगलाघवम्।। ह0प्र0 1/17 

अर्थात् आसन हठयोग का प्रथम अंग है, इसलिए सबसे पहले आसनों का ही वर्णन करते है। आसनों का अभ्यास निरंतर करते रहने से शरीर में स्थिरता आती है। 

सम्पूर्ण शरीर को आरोग्यता प्राप्त होती है तथा शरीर हल्का हो जाता है क्योंकि शरीर में स्थित विषैले पदार्थ शरीर से बाहर निकल जाते हैं। सर्वप्रथम स्वस्तिकासन का वर्णन करते हुए कहा गया है कि- 

1. स्वस्तिकासन - सर्वप्रथम दोनों पैरों को सीधे सामने, फैलाकर दण्डासन की स्थिति में आ जाएंँ। धीरे से बाएं पैर को मोड़कर उसके तलवों को दांए पैर के घुटने और जंघा के मध्य स्थित करे तथा ठीक उसी तरह दांए पैर को मोड़कर उसके तलवों को भी बाएं पैर के घुटने और जंघा के मध्य में स्थित करें। कमर, गर्दन को सीधा रखें। यह स्वस्तिकासन है। 

लाभ- यह एक ध्यानात्मक आसन है, इसके निरंतर अभ्यास से अभ्यासी को शारीरिक तथा मानसिक स्थिरता प्राप्त होती है। मन शान्त होता हैं । घुटने, जंघा पुष्ट होते हैं। मन की चंचलता समाप्त होती है।

सावधानी-स्वस्तिकासन को घुटने में सूजन, दर्द अदि रोगों से पीडि़त रोगी न करें। साइटिका से ग्रस्त रोगी भी इसका अभ्यास न करें।

2. गोमुखासन - इस आसन को करते समय शरीर की स्थिति गाय के मुख के समान प्रतीत होती है। इसलिए इसे गोमुखासन कहते हैं। सर्वप्रथम दण्डासन में बैठै जाए। दांए पैर को मोड़कर कटि (कमर) के बांए ओर रखें तथा बाएं पैर को मोड़कर कटि (कमर) के दांई ओर रखें। दोनों घुटनों को एक के ऊपर एक रखने का प्रयास करें। यह स्थिति गाय के मुख के समान बनती हैं इसलिए इसका नाम गोमुखासन है। 

लाभ- इस आसन के नियमित अभ्यास से अण्डकोष की वृद्धि की समस्या दूर हो जाती है। पैरों, हाथों, तथा नितम्बों में जमा अतिरिक्त चर्बी कम होती है। छाती का विस्तार होता है। अस्थमा आदि श्वास सम्बन्धी रोगों के साथ-साथ प्रजनन तंत्र सम्बंधी रोगों का भी निदान होता है। इसका अभ्यास कन्धों की जकड़न को भी दूर करता है।

सावधानी- जिन व्यक्तियों को स्लिप डिस्क, साइटिका, घुटनों का दर्द हो वो इसका अभ्यास न करें।

3. वीरासन - इस आसन का नियमित अभ्यास करने से अभ्यासी के अंदर धैर्य की वृद्धि होती है। इसलिए इस आसन का नाम वीरासन है। सर्वप्रथम दण्डासन में बैठ जाएं तथा एक पैर को मोड़कर दूसरी पाँव की जँघा के ऊपर रखें तथा दूसरे पैर को मोड़कर पहली जंघा के नीचे रखें। इसे वीरासन कहते हैं। 

लाभ- इस आसन के अभ्यास से पैर तथा घुटने पुष्ट एवं लचीले बनते हैं। मन धैर्यवान तथा दृढ़ बनता है।

सावधानी- जिन व्यक्तियों को स्लिप डिस्क, साइटिका घुटनों कूल्हें का दर्द हो। वो इसका अभ्यास न करें।

4. कूर्मासन - कूर्म का अर्थ है कछुआ, जिस आसन में शरीर की स्थिति कछुए के सामान सी प्रतीत होती है उसे कूर्मासन कहते हैं। सर्वप्रथम दण्डासन में बैठे। धीरे से बाएँ पैर को मोड़कर बाएं नितम्ब के नीचे रखे तथा दाएँ पैर को भी मोड़कर दाएं नितम्ब के नीचे रखें। दोनों पैरों की एडि़या नितम्बों (गुदा) पर दबाव बनाएं। इसे कूर्मासन कहते है। 

लाभ- इस आसन से घुटने, तथा एड़ी के जोड़ मजबूत व लचीले बनते हैं। जंघाएं पुष्ट होती है। शरीर में उष्णता तथा इन्द्रिय निग्रह की स्थिति प्राप्त होती है।

सावधानी-जिन व्यक्तियों को घुटने तथा एड़ी के जोड़ो में दर्द हो अथवा साइटिका दर्द हो वो इसका अभ्यास न करें। 

5. कुक्कुटासन - इस आसन में शरीर की स्थिति मुर्गे के समान प्रतीत होती है इसलिए इसे कुक्कुटासन कहते है। सर्वप्रथम पमासन लगाएं । तत्पश्चात् धीरे से जंघाओं तथा पिण्डलियों के बीच अपने दोनों हाथों को डाले तथा दोनों हाथ की हथेलियों को भूमि पर अच्छी तरह से जमा लें (टिका दें)। धीरे से श्वास ले तथा शरीर को ऊपर उठा लें। 

लाभ- इस आसन के नियमित अभ्यास से हाथ, पैर तथा कन्धे की मांसपेशियां पुष्ट होती हैं। निचले उदर के अंग पुष्ट होते हैं।

सावधानी- जोड़ो के दर्द से ग्रस्त व्यक्ति इसका अभ्यास न करें। जिन व्यक्तियों के हाथ तथा कन्धे कमजोर हो वे इसका अभ्यास सम्भल कर करें।

6. उत्तानकूर्मासन - कूर्मासन को उठाना ही उत्तानकूर्मासन की स्थिति है। उत्तान शब्द का अर्थ उठाने से हैं। सर्वप्रथम कुक्कुटासन लगा ले तत्पश्चात् दोनों हाथों से गर्दन को अच्छी तरह/भली प्रकार से पकड़ ले तथा कछुएं के समान भूमि पर पीठ के बल लेट जाने को ही उत्तानकूर्मासन कहते हैं। 

लाभ- इस आसन के अभ्यास से हाथ, पैर पुष्ट होते हैं। जोड़ लचीले बनते हैं। मेरूदण्ड की हल्की मालिश होती है।

सावधानी- जिन व्यक्तियों को घुटने, एड़ी के जोड़ो के दर्द हो या रीड़ की हड्डी में कोई विकार हो, साइटिका हो वो इस आसन का न करें।

7. धनुरासन - इस आसन में शरीर की स्थिति धनुष के समान हो जाती है। इसलिए इसे धनुरासन कहते है। सर्वप्रथम पेट के बल भूमि पर लेट जाए। फिर दोनों पैर के अंगूठों को हाथों से पकड़े तथा पैरों को खींचकर कानों तक लेकर आएं। यहीं धनुरासन है। 

लाभ- इसके नियमित अभ्यास से हाथ, पैर एंव कन्धों के जोड़ मजबूत तथा लचीले होते हैं। पेट की मासपेशियां बलिष्ठ होती है तथा पेट के आन्तरिक अंगों की मालिश होती है। नाभी टलना तथा मेरूदण्ड के रोग दूर होते हैं। यह आसन छाती का भी विस्तार करता है।

सावधानी- कमर दर्द, साइटिका, स्लिप डिस्क, जोड़ों में दर्द वाले रोगी इसका अभ्यास न करें। इस आसन का अभ्यास किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही करें।

8. मत्सेन्द्रासन - इस आसन का नाम मत्सेन्द्रनाथ नामक प्रसिद्ध हठयोगी के नाम पर रखा गया है। इसलिए इस आसन को मत्सेन्द्रासन कहते हैं। सर्वप्रथम दाएं पैर को मोड़कर बायीं जंघा के मूल पर रखें तथा बाएं पैर को मोड़कर दाएँ पैर के घुटने के बाहर रखते हुए विपरीत हाथ से बाएं पैर को पकड़े तथा बाएं हाथ को पीछे घुमाकर पीठ पर रखें तथा बाएं ओर गर्दन व कमर मोड़कर पीछे की ओर देखें। यही मत्सेन्द्रासन है। 

लाभ- हठप्रदीपिकानुसार मत्सेन्द्रासन का नियमित अभ्यास करने से जठराग्नि प्रदीप्त होती है। इससे सभी रोगों का नाश होता है। इसके अभ्यास से कुण्डलिनी शक्ति जागृत होती है तथा चन्द्रमण्डल में स्रावित होने वाला अमृत सूर्य में भस्म नहीं होता अर्थात् अमृत का बहाव रूक जाता है। इस आसन से पेट के आंतरिक अंगों की मालिश होती है। महुमेह के रोगियों के लिए यह रामबाण है। हाथ, पैर पुष्ट होते हैं। इसका अभ्यास मेरूदण्ड को भी लोचवान बनाता है।

सावधानी- जोड़ो की समस्या से ग्रस्त, साइटिका, स्लिप डिस्क आदि से पीडि़त रोगी इस आसन का अभ्यास न करें। जिन लोगों का पेट आदि का आपरेशन हुआ हो वो भी इसका अभ्यास न करें।

9. पश्चिमोत्तानासन - पश्चिम का अर्थ पीछे और तान का अर्थ है खींचाव। इस आसन में शरीर के पृष्ठ भाग को खींचा जाता है। यहीं पश्चिमोस्तानासन है। सर्वप्रथम दोनों पैरो को फैलाकर दण्डासन में बैठ जाएं। आगे झुकते हुए दोनों हाथों से दोनों पैरों के अंगूठे पकड़ लें, तथा अपने माथे को घुटनों से लगा ले यह पश्चिमोस्तानासन कहलाता है। हठ प्रदीपिका के अनुसार इस आसन को करने से प्राण का प्रवाह सुषुम्ना नाड़ी में होता है। शरीर में स्थित जठराग्नि प्रदीप्त होती है। पेट की अतिरिक्त चर्बी कम होती है तथा शरीर के सभी रोग समाप्त हो जाते हैं। मेरुदण्ड लचीला होता है। जंघाए पुष्ठ होती है। 

सावधानी- किसी भी तरह का कमर दर्द, स्लिप डिस्क, साइटिका से ग्रस्त रोगी इसका अभ्यास बिल्कुल न करें।

10. मयूरासन - इस आसन में शरीर की स्थिति मोर के समान हो जाती है। इसलिए इसे मयूरासन कहते हैं। सर्वप्रथम दोनों हाथों की हथेलियों को भूमि पर अच्छी तरह टिका लें फिर दोनों कोहनियों को नाभि के दोनों ओर (दाएं तथा बाएं) लगाकर पूरे शरीर को ऊपर उठा लें। पूरे शरीर का संतुलन दोनों हथेलियों पर रहेगा। इसके लाभों का वर्णन करते हुए हठप्रदीपिका में कहा गया है कि इस आसन का नियमित अभ्यास करने से शीघ्र ही सारे रोगों का नाश हो जाता है। इससे गुल्म तथा उदर आदि के रोग भी दूर हो जाते हैं। यह शरीर में स्थित जठराग्नि को इतना प्रदीप्त करता है कि अधिक तथा विषाक्त भोजन भी आसानी से पच जाता है। इससे हाथ, कन्धें तथा छाती पुष्ट होती है। एंड्रिनल ग्रंथि से स्रावित होने वाले हारमोन संतुलित होते हैं। 

सावधानी- इस आसन का अभ्यास करते हुए हथेलियों पर संतुलन बनाना अति आवश्यक है अन्यथा व्यक्ति आगे की ओर गिर सकता है। हाथ या कंधे कमजोर होने पर इसका अभ्यास सावधानीपूर्वक करें।

11. शवासन - इस आसन में शरीर की स्थिति शव के समान होती है, (बिना किसी हलचल के) इसलिए इसे शवासन कहते हैं। पीठ के बल भूमि पर बिना शरीर को हिलाएं डुलाएं लेट जाएं। यही शवासन है। 

लाभ- इस आसन का अभ्यास करने से शारीरिक तथा मानसिक थकान मिट जाती है। यह उच्चरक्तचाप, अनिद्रा तथा मानसिक रोगों में अत्यंत लाभकारी आसन है।

सावधानी- निम्नरक्तचाप से पीडि़त रोगी इसका अभ्यास ज्यादा देर तक न करें, या किसी योग्य गुरु के निर्देशन में ही इसका अभ्यास करें।

12. सिद्धासन - इस आसन के नाम से ही पता चलता है कि ये सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाला है, इसलिए इसे सिद्धासन कहा जाता है। सर्वप्रथम दण्डासन में बैठे। बाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को सींवनी नाड़ी में लगाएँ तथा दूसरे पैर की ऐड़ी को शिशन के ऊपर रखे। अपनी ठुड्डी को छाती पर लगाए तथा अपनी दृष्टि के दोनो भोहो के मध्य पर लगाते हुए इन्द्रियों को संयमित कर निश्चल बैठे। यही सिद्धासन है। हठप्रदीपिका में सिद्धासन की दो विधियाँ बताई है। 

दूसरी विधि के अनुसार- सर्वप्रथम दण्डासन में बैठे तत्पश्चात् बाएँ पैर को मोड़कर उसकी एडी को शिशन के ऊपर रखे तथा दाएँ पैर को मोड़कर उसकी एड़ी को बाएँ पैर की एड़ी के ठीक ऊपर रखे। यह भी सिद्धासन कहलाता है। यह सभी आसनों में सबसे महत्वपूर्ण है यह सभी प्रकार की सिद्धियों को देने वाला एकमात्र आसन है। इस आसन के अभ्यास से मोक्ष प्राप्त हो जाता है। साधक का मन विषय वासना से विरक्त हो जाता है, प्राण का प्रवाह उर्धगामी होता है। शरीर में स्थित 72000 नाडि़यों का शोधन होता है। इसके अभ्यास से निष्पŸिा अवस्था, समाधि की अवस्था प्राप्त होती है। इसके अभ्यास से स्वतः ही तीनों बंध लग जाते है। इसके महत्व को और अधिक बताते हुए स्वामी स्वात्माराम जी कहते है कि जिस प्रकार केवल कुम्भक के समय कोई कुम्भक नहीं, खेचरी मुद्रा के समान कोई मुद्रा नहीं, नाद के समय कोई लय नहीं उसी प्रकार सिद्धासन के समान कोई दूसरा आसन नहीं है। 

सावधानी- इस आसन का अभ्यास गृहस्थ लोगों को लम्बे समय तक नहीं करना चाहिए। साइटिका, स्लिप डिस्क वाले व्यक्तियों को भी इसका अभ्यास नहीं करना चाहिए। जोड़ों आदि के दर्द से पीडि़त रोगी भी इसका अभ्यास न करें। गुदा सम्बन्धित रोगों से पीडि़त रोगी भी इसका अभ्यास न करें।

13. पदासन - इस आसन में पैरों की स्थिति कमल के फूल की पंखुडि़यों के समान होती है, इसलिए इसे पùासन कहते हैं। सर्वप्रथम दण्डासन में बैठे तत्पश्चात् बाएँ पैर को मोड़कर दाईं जंघा के ऊपर तथा दाएँ पैर को मोड़कर बाई जंघा के ऊपर रखे। फिर दोनों हाथों को कमर के पीछे ले जाते हुए बाएँ हाथ से दाहिने पैर का अंगूठा तथा दाएँ हाथ से बाएँ पैर के अंगूठे को दृढ़तापूर्वक पकड़े। अंत में ठुड्डी की हृदय प्रदेश में लगाते हुए नासग्र दृष्टि रखे। यही पदासन है। 

सर्वप्रथम दण्डासन में बैठे, बाएँ पैर को मोड़कर दाहिनी जंघा के ऊपर तथा दाएँ पैर को मोड़कर बाई जंघा के ऊपर रखें। ठुड्डी को हृदय प्रदेश में लगाएँ तथा ब्रह्माज्जली मुद्रा बनाकर जंघाओं के मध्य में रखें। धीरे-धीरे श्वास ले तथा नासाग्र दृष्टि रखते हुए जीभ को तालु के अग्र भाग में लगाएँ। पदासन एक ध्यानात्मक आसन है। यही सभी प्रकार के रोगों को दूर करने वाला है। मानसिक शान्ति प्रदान करने वाला है। इसके अभ्यास से प्राण तथा अपान का मिलन होता है। इसके अभ्यास से विचित्र ज्ञान की प्राप्ति होती है। 

सावधानी - जिस व्यक्त्यिों को जोड़ों का दर्द हो, साइटिका या स्लिप डिस्क की समस्या हो उन्हें ये अभ्यास नहीं करना चाहिए। जो लोग मोटे हो या जंघाएँ अत्यधिक चर्बीयुक्त हो उन्हें यह अभ्यास सावधानी से करना चाहिए।

14. सिंहासन - इस आसन के नियमित अभ्यास से साधक सिंह के समान बलवान, निड़र हो जाता है। उसका चेहरा सिंह के समान कान्तिवान हो जाता है इसलिए इसे सिंहासन कहते हैं। दोनों पैरो को मोड़कर अण्डकोष के नीचे सीवनी नाड़ी के दोनो ओर (बाएँ से दाएँ), पैरों की एडि़यों को लगाएँ। तत्पश्चात दोनों हथेलियों को दोनों पैरों के घुटनों पर टिकाएँ तथा सभी अंगुलियों को फैला ले। मुँह को पूरा खोले तथा जिह्य को पूरा बाहर निकालते हुए नासाग्रदृष्टि रखें। यही सिंहासन है। हठप्रदीपिका में इस आसन को श्रेष्ठ बताया गया है। इस आसन के अभ्यास से तीनों प्रकार के बंधों को करने में सरलता होती है। गले में स्थित थायराइड तथा पैराथायराइड ग्रंथि क्रियाशील होती है। चेहरे की माँसपेशियों की मसाज होती है, जिससे चेहरा सिंह के समान कान्तिवान होता है। इसके अभ्यास से जंघाएँ पुष्ट होती है। 

सावधानी- घुटने, टखने एवं पंजे में दर्द की स्थिति में, अर्थराइटिस से पीडि़त व्यक्ति सावधानी से इसका अभ्यास करें।

15. भद्रासन - इस आसन का अभ्यास महान् हठयोगियों तथा भद्र पुरुषों ने किया इसलिए इसका नाम भद्रासन पड़ा। इसी भद्रासन को कुछ लोग गोरक्षासन भी कहते हैं। सर्वप्रथम दण्डासन में बैठें। फिर धीरे-से दोनों पैरों को मोड़े तथा दोनों पैरों की एडि़यों को अण्डकोष के नीचे सीवनी नाड़ी के दोनों ओर (बाएं एवं दाएं) रखें। प्रयास करें की दोनों पैरों के अग्र भाग आपस में मिले रहें। पैरों के अग्र भाग को हाथों से दृढ़तापूर्वक पकड़े रहें। यही भद्रासन है। इस आसन के अभ्यास से सभी रोग दूर हो जाते हैं। मूत्र-प्रणाली के रोग, प्रजनन संबधी दोष, मासिक धर्म सम्बन्धी दोष दूर हो जाते हैं। जोड़ लचीले एवं मजबूत बनते हैं। जंघाएँ मजबूत होती है तथा वहाँ जमी अतिरिक्त चर्बी कम हो जाती है। 

सावधानी- जो व्यक्ति जोड़ों में दर्द की समस्या से ग्रस्त हों वे इसका अभ्यास न करें।

4 Comments

Previous Post Next Post