रेगुलेटिंग एक्ट कब पारित हुआ, रेगुलेटिंग एक्ट के दोष


रेगुलेटिंग एक्ट के मुख्य उपबंध

1. मद्रास और बंबई को बंगाल के अधीन किया जाना - 1773 ई. के पूर्व बंगाल और मद्रास की प्रेसीडेन्सियाँ एक दूसरे से स्वतंत्र थी। इस अधिनियम के द्वारा बंबई और मद्रास प्रेसिडेन्सियों को बंगाल के अधीन कर दिया गया। बंगाल के गवर्नर को तीन प्रेसिडेन्सियों का निरीक्षण, निर्देशन और नियंत्रण का अधिकार प्रदान किया। बंगाल सरकार को अधीनस्थ प्रेसिडेन्सियों के अध्यक्षों और परिषदों की आवश्यकता पड़ने पर पदच्युत करने का अधिकार दिया गया। बंबई और मद्रास की पे्रसिडेन्सियाँ साधारणत: बंगाल सरकार या डाइरेक्टों की अनुमति से भी शांति या युद्ध की घोषणा कर सकती थी।

2. गवर्नर जनरल की परिषद की स्थापना - गवर्नर जनरल की सहायता के लिए एक परिषद की व्यवस्था की गई थी। इसमें चार सदस्य होते थे। उनका कार्यकाल पाँच वर्षों का था। उन्हें डाइरेक्टरों के अनुरोध पर सम्राट द्वारा हटाया जा सकता था। गवर्नर-जनरल की परिषद् एक सामूहिक कार्यपालिका थी। इसका निर्णय बहुमत द्वारा होता था। वह पार्षदों के बहुमत निर्णय की उपेक्षा नहीं कर सकता था। अत: पार्षद संगठित होकर गवर्नर जनरल की इच्छा के खिलाफ निर्णय ले सकते थे।

3. डाइरेक्टर -  गवर्नर जनरल और उसकी परिषद को डाइरेक्टरों की आज्ञा का पालन करना पड़ता था। उनका यह कर्तव्य था कि कंपनी के हित से संबंधित मामलों की सूचना डाइरेक्टरों को देते रहें। इसका उद्देश्य भारतीय अधिकारियों को ब्रिटिश शासकों के अधीन रखना था। इस प्रकार ईस्ट इंडिया के मामलों में, जो एक राजनीतिक संस्था बन गई थी, संसद को हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया गया।

4. कानून बनाने का अधिकार - सपरिषद गवर्नर जनरल को कंपनी के अधीन क्षेत्रों में कुशल प्रशासन के लिए नियम, आदेश तथा विनियम बनाने का अधिकार दिया गया। यह भारत सरकार को कानून बनाने के अधिकार की शुरूआत थी। सपरिषद गवर्नर जनरल द्वारा निर्मित सभी विनियमों  की स्वीकृति सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आवश्यक थीं और इसके लिए हर विनियम का न्यायालय में रजिस्ट्रेशन करना पड़ता था। इस प्रकार भारत में कार्यपालिका को न्यायालय के अधीन रखा गया।

5. सर्वोच्च न्यायालय -  बंगाल के फोर्ट विलियम में सम्राट् को एक सुप्रीम कोर्ट ऑफ जुडिकेचर का अधिकार प्रदान किया गया। यह कंपनी के अधीन क्षेत्रों का सर्वोच्च न्यायालय था। इसमें एक मुख्य न्यायाधीश तथा तीन अन्य न्यायाधीश होते थे। उनकी नियुक्ति सम्राट् द्वारा होती थी। न्यायालय को विस्तृत अधिकार प्रदान किये गये थे। इसे दीवानी, फौजदारी, न्यायिक तथा धार्मिक क्षेत्रों में अधिकार प्रदान किये गये थे। इसका क्षेत्राधिकार बंगाल, बिहार और उड़ीसा में निवास करने वाले ब्रिटिश पज्राजनों तथा कंपनी और सम्राट् के कर्मचारियों पर फैला हुआ था। इसके फौजदारी क्षेत्राधिकार से गवर्नर जनरल तथा उसकी परिषद के सदस्य बाहर थे। सर्वोच्च न्यायालय अभिलेख न्यायालय भी था।

6. उच्च अधिकारियों पर प्रतिबंध - कंपनी के भ्रष्ट शासन में सुधार लाने के उद्देश्य से कई उपबंध जोड़े गये। गवर्नर-जनरल, परिषद के सदस्य और सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से भेंट , दान या इनाम लेने से मना कर दिया गया। उन्हें निजी व्यापार करने से रोक दिया गया। सम्राट् या कंपनी के अधीन लोकसेवकों या सैनिकों को भी किसी प्रकार भेंट, दान या इनाम लेने से मना कर दिया गया। अपराधियों को कड़ा आर्थिक दण्ड देने की व्यवस्था की गई। राजस्व या न्याय के प्रशासन से संबंधित किसी भी अधिकारी को व्यापार व व्यवसाय में भाग लेने से मना कर दिया गया।

रेगुलेटिंग एक्ट अधिनियम का महत्व 

रेग्यूलेटिंग ऐक्ट के विषय में यह स्वीकार करना पड़ेगा कि किसी भी यूरोपीय शक्ति द्वारा सुदूर सभ्य लोगों के देश में प्रशासन करने का यह प्रथम प्रयत्न था। उत्तरी अमरीका की नाईं भारत ऐसा देश नहीं था यहाँ यूरोपीय लोग ही रहते थे और जहाँ यूरोपीय संस्थाओं का लागू करना तथा चलाना बहुत सरल था। इसी प्रकार ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारतीय प्रदेश दक्षिणी अमरीका की भाँति नहीं थे जो कि एक अविकसित प्रदेश हों। इस प्रकार रेग्यूलेटिंग एक्ट एक अनजान समुद्र में नाव चलाने की भाँति था। इसमें भारत के प्रशासन का ब्यौरा कम्पनी की अपनी युक्तियों पर छोड़ दिया गया था। इसके द्वारा बंगाल, मद्रास तथा बम्बई में एक ईमानदार तथा कुशल प्रभुसत्ता स्थापित करने का प्रयत्न किया गया। कम्पनी के अधिकारी अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न कर सके, इस उद्देश्य से उन्होंने कलकत्ते में एक उच्च न्यायालय भी स्थापित कर दिया। इंग्लैण्ड में कोई भी सरकारी पदाधिकारी कानून की परिधि से बाहर नहीं था और वह अपने कार्यों के लिए साधारण न्यायालय में उत्तरदायी था। अतएव थोड़े में हम यह कह सकते हैं कि यह अधिनियम अधिक अच्छा प्रशासन स्थापित करने के लिए एक प्रयत्न था परन्तु चूंकि समस्या का पूर्ण ज्ञान नहीं था तथा यह अधिनियम अज्ञान में बनाया गया अतएव पूर्णतया असफल रहा तथा इससे वारेन हेस्ंिटग्ज की स्थिति दृढ़ नहीं हुई अपितु उसकी कठिनाइयाँ बढ़ीं। 

रेग्यूलंटिंग ऐक्ट 11 वर्ष तक चलता रहा। पिफर 1784 में इसके स्थापन पर पिट का इण्डिया ऐक्ट पारित किया गया। वाॅरेन हेस्ंिटग्ज ही एक ऐास गवर्नर-जनरल था जिसने इसस अधिनियम के अनुसार भारत पर प्रशासन किया।

ब्रिटिश लोक सभा ने मामलों पर रिपोर्ट देने के लिए 1772 ई. में एक चयन समिति की नियुक्ति की। उस समय कंपनी के प्रशासन और व्यापार की जाँच-पड़ताल के लिए एक गुप्त समिति की भी बहाली की गई। इन समितियों की रिपोर्ट के आधार पर 19 जून, 1773 को ब्रिटिश संसद ने ईस्ट इंडिया कंपनी रेगुलेटिंग एक्ट पास किया। इसने भी शासन व्यवस्था के दोषों को दूर नहीं किया। फिर भी इस दिशा में यह एक महत्वपूर्ण कदम था।

रेगुलेटिंग एक्ट के दोष

1. गवर्नर जनरल की संवैधानिक स्थिति -  रेगुलेटिंग एक्ट द्वारा एक गवर्नर जनरल तथा चार सदस्यों वाली एक परिषद का प्रावधान किया गया था। सपरिषद गवर्नर जनरल का निर्णय बहुमत द्वारा होता था। तीन पार्षदों के बहुमत के समक्ष गर्वनर जनरल कुछ नहीं करता था। उसे निषाधिकार की शक्ति नहीं दी गर्इं। ऐसा देखा गया कि गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स को बराबर पार्षदों के बहुमत के समक्ष झुकना पड़ता था। वह स्वचेछा से कोई भी निर्णय नहीं ले सकता था। कुछ पार्षद भारतीय समस्याओं से आमतौर से एकदम अनभिज्ञ थे। कंपनी तथा उसके अधिकारियों के विरूद्ध इतना संकीर्ण विचार रखते थे कि हर बात में बिना सोच-समझे गवर्नर का विरोध करते थे।

2. नीति की एकता का अभाव - रेगुलेटिंग एक्ट के पूर्व सभी प्रेसिडेन्सियों को अलग-अलग नीति निर्धारण का अधिकार था। उनकी नीतियों को समन्वित तथा एकीकृत करने के लिए सर्वोपरि अधिकार नहीं था। अधिनियम की इस त्रुटि को दूर करने के लिए अन्य प्रेसिडेन्सियों को बंगाल के गवर्नर जनरल के अधीन कर दिया गया लेकिन कई अपवादों का भी प्रावधान किया जिनके आधार पर अधीनस्थ प्रेसिडेन्सियाँ बंगाल सरकार की आशाओं की अवहेलना कर सकती हैं।

3. सपरिषद् गवर्नर जनरल और सर्वोच्च न्यायालय का संबंध अस्पष्ट - सपरिषद् गवर्नर जनरल और सर्वोच्च न्यायालय के क्षेत्राधिकार स्पष्ट नहीं थे जिसके फलस्वरूप दोनों संस्थाओं में निरंतर पैदा हो गया। एक और गवर्नर जनरल ने मुगल सम्राट से शक्तियाँ प्राप्त की थीं जिसे ब्रिटिश संसद परिभाषित कर सीमित करती थी। दूसरी ओर सपरिषद गवर्नर जनरल द्वारा बनायी गयी विधियों को सर्वोच्च न्यायालय को रद्द करने का अधिकार प्रदान किया गया था। क्षेत्राधिकार के इस विरोधाभास के चलते बंगाल में अराजकता की स्थिति पैदा हो गयी थी।

4. विधि की अस्पष्टता - सर्वोच्च न्यायालय के संबंध में यह स्पष्ट नहीं था कि न्यायिक प्रशासन में वह किस विधि का उपयोग करेगी। ब्रिटिश विधि को जानने वाले अंग्रेज जज भारत की विधियों, रीति-रिवाजों तथा परंपराओं से परिचत नहीं थे। अत: भारतीयों के न्यायिक मामले में वे ब्रिटिश विधियों तथा प्रक्रियाओं का उपयोग करते थे। फलत: भारतीयों को वांछित न्याय नहीं मिलता था।

5. कंपनी के गृह सरकार के संविधान में त्रुटिपूर्ण परिवर्तन - अधिनियम द्वारा यह नियम बना दिया गया कि 1800 पौंड से कम के शेयर होल्डर, संचालकों के चुनाव में मतदान नहीं कर सकते। इससे 1246 छोटे शेयर होल्डरों को मतदान अधिकार छीन गया।

6. कंपनी पर संसद का अपर्याप्त नियंत्रण - सपरिषद गवर्नर जनरल द्वारा संचालक मण्डल को प्रेषित सभी पत्रों को दो सप्ताह के अंदर मंत्रालय के समक्ष रखा जाना चाहिए था। लेकिन इन पत्रों की पूरी छानबीन करने के लिए कोई व्यवस्था नहीं की गयी थी। अत: कंपनी पर संसद का नियंत्रण अपर्याप्त और प्रभावहीन ही रहा।

1 Comments

Previous Post Next Post