कर्नाटक युद्ध के कारण, महत्व और परिणाम

कर्नाटक अपनी धन सम्पदा के लिये प्रसिद्ध था। दिल्ली के सैयद बन्धुओं के प्रभाव से मुगल सम्राट ने मराठों को कर्नाटक से चौथ वसूल करने का अधिकार दे दिया था। जब मराठों ने कर्नाटक के नवाब दोस्त अली से चौथ की धनराशि मांगी और उसने यह धनराशि नहीं दी तो मराठों ने 1740 ई. में कर्नाटक पर आक्रमण करके नवाब दोस्तअली को परास्त कर दिया। दोस्तअली की मृत्यु के पश्चात मराठों ने दोस्तअली के पुत्र सफदरअली को कर्नाटक का नवाब मानकर उससे संधि कर ली और उसने मराठों को एक करोड़ रूपये देने का वचन दिया। किन्तु इस बीच मुर्तजाअली, सफदरअली का वध कर स्वयं नवाब बन बैठा।

तत्पश्चात मराठों ने त्रिचनापल्ली पर आक्रमण कर वहां के शासक चॉदासाहब को परास्त कर, उसे बन्दी बना लिया। हैदराबाद का निजाम इन घटनाओं से रूश्ट हो गया क्योंकि दक्षिण का मुगल सूबेदार होने के नाते कर्नाटक उसके राज्य का एक प्रान्त था। इसलिये निजाम ने सफदरअली के एक अल्पायु पुत्र सईद मुहम्मद को कर्नाटक का नबाब घोशित कर अनवरूद्दीन को उसका संरक्षक नियुक्त कर दिया। अल्प अवधि में ही अनवरूद्दीन ने बालक सईद मुहम्मद का वध कर दिया और स्वयं कर्नाटक का नवाब बन गया। निजाम ने भी उसे मान्यता दे दी। किन्तु कर्नाटक के वास्तविक नबाव दोस्त अली के वंषज, अनवरूद्दीन का घोर विरोध कर रहे थे।

इस प्रकार कर्नाटक में राजनीतिक अस्त-व्यस्तता और अस्थिरता चरम सीमा पर थी। कर्नाटक का नवाब, मराठे और निजाम राजनीतिक सत्ता प्राप्ति के लिये परस्पर प्रतिद्वन्द्वी थे। ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियों ने इस कर्नाटक की इस दुर्दशा का लाभ उठाया और कर्नाटक में हस्तक्षेप करना प्रारंभ कर दिया।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध (1744 ई. से 1748 ई.)

1740 ई. में यूरोप में ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार-युद्ध में एक और फ्रांस और दूसरी और ब्रिटेन था अत: दोनों के मध्य यूरोप में युद्ध प्रारम्भ हो गया। इस युद्ध के प्रतिक्रियास्वरूप भारत में भी ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियां परस्पर एक-दूसरे के विरुद्ध रण क्षेत्र में आ गई। फ्रांसीसियों ने जलसेना की सहायता से अंग्रेजों के मद्रास पर आक्रमण कर उस पर अधिकार कर लिया। इसी बीच अंग्रेजों ने कर्नाटक के नबाव अनवरुद्दीन से सहायता की याचना की। इस पर नवाब ने एक सेना मद्रास पर अधिकार करने के लिये भेजी, किन्तु फ्रांसीसी गर्वनर डूप्ले ने इस सेना को 1746 ई. में परास्त कर दिया। इससे डूप्ले की विजय और राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा और बढ़ गयी तथा उसने मद्रास से लगभग 20 किलोमीटर दूर अंग्रेजों के सेंट डेविड दुर्ग पर आक्रमण किया, किन्तु असफल रहा। तत्पश्चात अंग्रेजों ने 1748 ई. में पांडिचेरी पर आक्रमण कर इसे अपने अधिकार में करना चाहा, किन्तु उनको भी सफलता नहीं मिली। इसी बीच यूरोप में एक्स-ला-शापल की सन्धि हो जाने से ऑस्ट्रिया के उत्तराधिकार का युद्ध समाप्त हो गया तो भारत में भी ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियों का युद्ध समाप्त कर दिया गया और दोनों के मध्य सन्धि हो गई जिसके अनुसार अंग्रेजों को मद्रास पुन: प्राप्त हो गया।

कर्नाटक का प्रथम युद्ध का महत्व और परिणाम

  1. इस युद्ध में सैनिक अभियानों और युद्धों के कारण अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों को समुद्रतट से भीतर लगभग 175 किलोमीटर के क्षेत्र का यथेश्ट भौगोलिक ज्ञान प्राप्त हो गया जिसका लाभ उनको अगले युद्धों में मिला।
  2. इस युद्ध से यह स्पष्ट हो गया कि यूरोपियन प्रणाली से प्रशिक्षित और छोटी सी सेना भी भारतीय नरेशो की बड़ी सेना को परास्त कर सकती है।
  3. इस युद्ध से जलसेना और समुद्री शक्ति का महत्व स्पष्ट हो गया। विजय उस पक्ष की निश्चित होगी जिसका सामुद्रिक बेड़ा उन्नत और श्रेष्ठ होगा। 
  4. अंग्रेज और फ्रांसीसी दोनों ने अपने व्यापार की उपेक्षा करके अपनी सुरक्षा के लिये सैनिक शक्ति संगठित करने की ओर विशेष ध्यान देने का निर्णय किया। 
  5. फ्रांसीसी सत्ता और शक्ति का प्रभुत्व दक्षिण के भारतीय राज्यों पर जम गया और भारतीय नरेश अपनी राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए फ्रांसीसी सहायता प्राप्त करने को उत्सुक हो गये। 
  6. भारतीय राजनीतिक दुर्बलता और अस्त-व्यस्त तथा खोखलेपन का ज्ञान फ्रांसीसी और अंग्रेजों दोनों को हो गया। इसलिये दोनों में भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप कर अपना-अपना राज्य स्थापित करने की महत्वाकांक्षा अधिकाधिक बलवती हो गयी।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध (1750 ई. से 1754 ई.)

कर्नाटक के प्रथम युद्ध के परिणामस्वरूप ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियां भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहती थीं। कर्नाटक और हैदराबाद में उत्तराधिकार-युद्ध में दोनों ही कंपनियों को यह सुअवसर प्राप्त हो गया।

कर्नाटक और हैदराबाद में उत्तराधिकार-समस्या - हैदराबाद के निजाम आसफजाह की मृत्यु के पश्चात उसका दूसरे पुत्र नासिरजंग और उसके नाती मुजफ्फरजंग के मध्य उत्तराधिकार-युद्ध प्रारंभ हो गया।

कर्नाटक में नवाब दोस्तअली का दामाद चांदासाहब जो मराठों के कारावास में था, कर्नाटक का नवाब बनने का महत्वाकांक्षी था। कर्नाटक के तत्कालीन नवाब अनवरुद्दीन का अत्याधिक विरोध हो रहा था। अतएव चांदासाहब ने डूप्ले से सहायता की याचना की। फलत: डूप्ले, चांदासाहब और मुजफ्फरजंग में एक गुप्त संधि हुई जिसके अनुसार डूप्ले इन दोनों को राजसिंहासन प्राप्त करने के लिए सहायता प्रदान करेगा।

डूप्ले की योजना यह थी कि ऐसा करने से कर्नाटक का नवाब और हैदराबाद का निजाम (दक्षिण का मुगल सूबेदार) दोनों ही उसके हाथ में आ जायेंगे और दोनों ही अपने राज्याधिकार को फ्रांस की देन समझकर उसे भारत में वि’ोश सुविधाएं प्रदान करेगें। इससे फ्रांसीसी शक्ति में वृद्धि होगी और अंग्रेज शक्ति को आघात लगगे ा। डूप्ले ने इस प्रकार कर्नाटक में चांदासाहब को और हैदराबाद में मुजफ्फरजंग को राजसिंहासन प्राप्त करने के लिए सक्रिय सहयोग देकर सफलता प्राप्त की।

फ्रांसीसियों की इस सफलता से आतंकित होकर अंग्रेजों ने भी अपनी स्थिति को सुरक्षित रखने के लिए हैदराबाद में निजाम के सिंहासन के अन्य दावेदार नासिरजंग को और कर्नाटक में नवाब के सिंहासन के अन्य दावेदार मुहम्मदअली को सहायता देना प्रारम्भ किया। इस प्रकार यह संघर्ष मुजफ्फरजंग और नासिरजंग में कम किन्तु ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियों में अधिक प्रतीत होने लगा।

 कर्नाटक का द्वितीय युद्ध की घटनाएं

चांदासाहब ने अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए तंजौर पर आक्रमण किया। इसी बीच नासिरजंग ने अंग्रेजों की सहायता से कर्नाटक पर आक्रमण कर दिया। चांदासाहब तंजौर का घेरा उठाकर नासिरजंग का सामना करने के लिए लौटा। जिंजी नदी के तट पर नासिरजंग ने चांदासाहब और मुजफ्फरजंग और फ्रांसीसी सेना को परास्त कर दिया।

उपरोक्त पराजय से डूप्ले निराश नहीं हुआ। उसने अपनी सैनिक शक्ति से मछलीपट्टम, त्रिवादी और जिंजी पर अधिकार कर लिया और फिर नासिरजंग पर आक्रमण कर उसे परास्त ही नहीं किया, अपितु उसका वध भी करवा दिया। इस विजय के बाद शीघ्र ही डूप्ले ने मुजफ्फरजंग को हैदराबाद का निजाम बना दिया। इस विजय के उपलक्ष्य में नये निजाम मुजफ्फरजंग ने फ्रांसीसियों को दिवि और मछलीपट्टम के नगर व बहुत सा धन दिया। डूप्ले को दो लाख पौंड नगद और दस हजार पौंड की वार्शिक आय वाली जागीर प्रदान की गयी। डूप्ले को कृष्णा नदी से कन्याकुमारी तक के क्षेत्र का सूबेदार भी घोशित किया गया पर इस पदवी का यह अर्थ नहीं था कि डूप्ले को उस विस्तृत प्रदेश पर शासन करने का कोई विशोश अधिकार दिया गया। मुजफ्फरजंग ने फ्रांसीसियों की संरक्षता में चांदासाहब को कर्नाटक का नवाब भी मान लिया। इन घटनाओं से भारतीय नरेशो की दृश्टि में डूप्ले का यश-गौरव और मान-मर्यादा अत्याधिक बढ़ गयी।

1. फ्रांसीसियों का प्रभुत्व - 1751 ई. में फ्रांसीसी सफलता और प्रभाव अपनी चरम सीमा पर था। डुप्ले अपनी उपलब्घियों के उच्चतम शिखर पर था। दक्षिण का मुगल सूबेदार (निजाम) सलाबतजंग और कर्नाटक का नवाब चांदासाहब फ्रांसीसी गवर्नर डुप्ले के नियंत्रण में थे।

2. अंग्रेजों की नीति तथा सफलता का प्रारंभ - ब्रिटिश कम्पनी के अधिकारियों को फ्रांसीसियों की उत्तरोतर बढ़ती सफलता से आघात लगा और उन्होंने फ्रांसीसियों और चांदासाहब के विरोध में मुहम्मदअली का सक्रिय समर्थन कर उसकी सहायता के लिए अंग्रेज सेना त्रिचनापल्ली भेज दी। मुहम्मदअली को चांदासाहब ने त्रिचनापल्ली में घेर लिया था। मुहम्मदअली पर चांदासाहब का सैनिक दबाव कम करने के लिये अगस्त 1751 ई. में रॉबर्ट क्लाइव ने चांदासाहब पर सैनिक दबाव बनाते हुए उसे परास्त कर दिया। इस पराजय से घबराकर चांदासाहब ने त्रिचनापल्ली का घेरा उठा लिया और स्वयं भागकर तंजौर के राजा के यहाँ शरण ली। किन्तु वहाँ चांदासाहब को शड़यंत्र से मरवा दिया गया। अब अंग्रेजों ने मुहम्मदअली को कर्नाटक का नवाब घोशित कर दिया। अंग्रेजों की इस सफलता से फ्रांसीसियों की आशाओं पर पानी फिर गया और डुप्ले की महत्वाकांक्षा चूर-चूर हो गयी। 

कर्नाटक में तो अब फ्रांसीसी पक्ष की नीति का आधार ही समाप्त हो गया था। जब फ्रांस की सरकार के पास डुप्ले और कंपनी की इस पराजय के समाचार पहुंचे तो उन्होंने डुप्ले को फ्रांस वापस बुला लिया और उसके स्थान पर गोड्यू को गवर्नर बनाकर भारत भेजा और उसके आने पर 1754 ई. में ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियों के बीच संधि हो गयी जो पांडिचेरी की सन्धि कहलाती है। पांडिचेरी की सन्धि की शर्तें हैं -
  1. अंग्रेजों एवं फ्रांसीसियों ने मुगल सम्राट या अन्य भारतीय नरेशो द्वारा दिये गये समस्त पदों और उपाधियों को त्याग दिया और उनके पारस्परिक झगड़ों में हस्तक्षपे न करने का आश्वासन दिया। 
  2. फोर्ट सेंट जार्ज, फ़ोर्ट सेंट डेविड तथा देवी कोटा पर अंग्रेजों का आधिपत्य मान लिया गया।
  3. मछलीपट्टम तथा उसके आस-पास के क्षेत्र से फ्रांसीसियों ने अपना अधिकार वापिस ले लिया।
  4. दोनों कंपनियों के पास समान भू-भाग रहे।
  5. श्शति की स्थिति में ब्रिटिश और फ्रेचं कंपनियों द्वारा नवीन दुर्गों का निर्माण या किसी प्रदेशों की विजय नहीं की जायेगी। 
  6. युद्ध की क्षति-पूर्ति के विshय में आयोजन और समझौता होगा।
  7. जब तक इस संधि का अनुमोदन यूरोप में गृह सरकारों से न हो जाय, तब तक दोनों कम्पनियों की वर्तमान स्थिति में अंतर नहीं होगा। 
  8. दोनों कंपनियों ने मुहम्मदअली को कनार्टक का नवाब स्वीकार कर लिया।

कर्नाटक का द्वितीय युद्ध की महत्व एवं समीक्षा

प्ले ने इस संधि की आलोचना करते हुए कहा था कि ‘‘गोड्यू ने अपने देश के विनाश और असम्मान पर हस्ताक्षर किये हैं। यह भी कहा जाता है कि इस संधि के द्वारा अंग्रेजों ने वह सब कुछ प्राप्त कर लिया जिसके लिये वे फ्रांसीसियों से  युद्ध कर रहे थे। इस संधि से फ्रांसीसियों को बड़ी क्षति हुई और कर्नाटक पर उनका प्रभाव समाप्त हो गया। उनकी आर्थिक स्थिति भी दुर्बल हो गयी। डुप्ले की भारत में राज्य स्थापित करने की योजना समाप्त हो गयी किन्तु गोड्यू ने फ्रांसीसियों को जितना अधिक बचा सका बचा लिया। उसने अपने देशवासियों को क्षतिपूर्ति के लिये अवसर प्रदान किया।’’ इस युद्ध से यह स्पष्ट हो गया कि फ्रांसीसी और अंग्रेज दोनों ही अपने व्यापार की आड़ में भारत की राजनीति में अपने साम्राज्यवादी स्वार्थों की पूर्ति के लिए खुलकर खेलना चाहते थे। 

यद्यपि इस युद्ध में फ्रांसीसियों को गहरा आघात लगा, फिर भी वे निराश नहीं हुए। उनकी स्थिति फिर भी अच्छी बनी रही। पांडिचेरी की संधि से अंग्रेजों को जो भूमि प्राप्त हुई थी उसकी वार्षिक आय केवल 1,00,000 रुपये थी, जबकि फ्रांसीसियों के पास अब भी 8,00,000 रुपये वार्षिक आय वाली भूमि थी। किन्तु भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करके भारत में राज्य कानै करेगा? ये लगभग निश्चित हो गया।

कर्नाटक का तृतीय युद्ध (1756 ई. से 1763 ई.) 

ब्रिटिश और फ्रेचं कंपनियों में पांडिचेरी की जो संधि हुई थी, वह स्थायी नहीं हो सकी। दोनों ही पक्ष एक दूसरे के विरुद्ध अप्रत्यक्ष रूप से गतिविधियाँ संचालित करते रहे। इसलिए जब 1756 ई. में यूरोप में सप्तवश्र्ाीय युद्ध प्रारम्भ हुआ और इंग्लैंड और फ्रांस इसमें एक-दूसरे के विरुद्ध युद्धरत हो गये, तब भारत में भी ब्रिटिश और फ्रेंच कंपनियों में युद्ध प्रारभं हो गया। फ्रांस की सरकार ने भारत में अंग्रेजों पर आक्रमण करके उन्हें वहाँ से खदेड़ देने और भारत में फ्रांसीसी शक्ति एवं प्रतिष्ठा को फिर से स्थापित करने के लिये काउन्ट लैली के नेतृत्व में एक शक्तिशाली सेना भेजी। आरम्भ में लैली को सफलता मिली। अंग्रेजों के सेंट डेविड के दुर्ग पर उसने अधिकार कर लिया। लैली ने हैदराबाद से बुसी को भी सहायता के लिए बुला दिया। यह लैली की भयंकर भूल थी क्योंकि जैसे ही बुसी ने हैदराबाद से प्रस्थान किया, वहाँ फ्रांसीसी प्रभाव समाप्त हो गया। अंग्रेजों ने मछलीपट्टम पर अधिकार कर लिया और निजाम सलाबतजंग से संधि कर ली। इस संधि से अंग्रेजों को कुछ और प्रदेश प्राप्त हुए। फ्रेंच सेनानायक लैली ने 1758 ई. में मद्रास पर आक्रमण कर उसे जीतना चाहा, किन्तु लैली असफल रहा और पांडिचेरी लौट आया। अन्त में 1760 ई. में वांडीवाश के युद्ध में अंग्रेजों ने फ्रांसीसियों को बुरी तरह परास्त कर दिया। बुसी बन्दी बना लिया गया।

इतिहास में वाडीवाश का युद्ध निर्णायक सिद्ध हुआ। इस युद्ध में फ्रांसीसियों का वह विशाल भवन धराशायी हो गया जिसे मार्टिन, ड्यूमा और डुप्ले ने अथक परिश्रम से निर्मित किया था। इससे लैली की सम्पूर्ण आशाएं समाप्त हो गयीं। इस पराजय के बाद लैली ने पांडिचेरी में शरण ली। किन्तु अंग्रेजों ने पांडिचेरी को घेर लिया और 16 जनवरी, 1761 ई. को लैली ने आत्म समर्पण कर दिया। लैली बन्दी बना लिया गया और इसी रूप में उसे फ्रांसीोज दिया गया जहां उस पर अभियोग चलाकर मृत्यु दंड दिया गया। पांडिचेरी के पतन के पूर्व अंग्रेजों ने त्रिचनापल्ली पर आक्रमण कर उस पर अपना अधिकार कर लिया था। पांडिचेरी के पतन के बाद फ्रांसीसियों के अन्य नगर जिंजी, माही आदि भी अंग्रेजों के अधिकार में आ गये।

यूरापे में सप्तवर्शीय युद्ध पेरिस की संधि से समाप्त हुआ था, तभी भारत में भी तृतीय कर्नाटक युद्ध का अंत हुआ। इस संधि की शर्तें निम्नलिखित थीं -
  1. फ्रांसीसियों को पांडिचेरी, माही, चन्द्रनगर आदि उनके नगर उन्हें लौटा दिये, किन्तु वे वहाँ किलेबन्दी नहीं कर सकते थे। 
  2. भारत के पूर्वी तट पर फ्रांसीसी सैनिकों की संख्या सीमित कर दी गई। 
  3. बंगाल में फ्रांसीसियों को केवल व्यापार करने का अधिकार प्राप्त हुआ और इस प्रकार वहाँ से उनकी राजनीतिक शक्ति का पूर्णतया अन्त हो गया। 
  4. दक्षिण में मुहम्मदअली को कर्नाटक का नवाब और सलाबतजगं को हैदराबाद का निजाम स्वीकार कर लिया गया किन्तु वहाँ से फ्रांसीसी प्रभाव समाप्त कर दिया गया। 

कर्नाटक का तृतीय युद्ध की महत्व एवं समीक्षा 

तृतीय कर्नाटक युद्ध पूर्णत: निर्णायक था और पेरिस की संधि अत्यन्त महत्वपूर्ण थी। अब फ्रांसीसी भारत में एक स्वतंत्र शक्ति के रूप में समाप्त हो चुके थे। यद्यपि इस युद्ध के बाद कुछ फ्रांसीसियों ने समय-समय पर भारतीय नरेशो की सेनाओं को यूरोपीय पद्धति पर प्रशिक्षित किया, किन्तु इस कार्य में उन्हें कोई विशेष सफलता प्राप्त नहीं हुई। रण-क्षेत्र और राजनीति के क्षेत्र में फ्रांसीसियों के समाप्त हो जाने से अंग्रेजों के लिए साम्राज्य-विस्तार का मार्ग प्रशस्त हो गया।

4 Comments

  1. बहुत ही सरल तरीके से कर्नाटक के युद्ध को समझाया गया

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  2. लाजवाब है....
    संतोषजनक उत्तर 👍

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  3. Jo Chahiye vo nhi mila

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