प्लासी का युद्ध के कारण, घटनाएं और परिणाम

ज्योंही कलकत्ता के पतन का समाचार मद्रास पहुंचा, वहां के अधिकारियों ने एक सेना जो उन्होंने फ्रांसीसियों के विरुद्ध युद्ध के लिए गठित की थी, क्लाइव के नेतृत्व में कलकत्ते भेज दी। क्लाइव को अपना कार्य शीघ्रातिशीघ्र पूर्ण करने को कहा गया क्योंकि यह सेना फ्रांसीसियों के विरुद्ध युद्ध के लिए मद्रास में चाहिए थी। यह सेना 16 अक्टूबर को मद्रास से चली और 14 दिसम्बर को बंगाल पहुंची। नवाब के प्रभारी अधिकारी मानिकचन्द ने घूस लेकर, कलकत्ता अंग्रेजों को सौंप दिया। 

फरवरी 1757 में नवाब ने क्लाइव से अलीनगर (नवाब द्वारा दिया कलकत्ता का नया नाम) की संधि पर हस्ताक्षर किए। इसके अनुसार, अंग्रेजों की व्यापार के पुराने अधिकार मिल गए जिसमें कलकत्ता की किलाबन्दी करने की अनुमति भी प्राप्त हो गई। उनकी क्षतिपूर्ति का भी प्रण किया गया। अब अंग्रेज आक्रान्ता की भूमिका में थे। नवाब के प्रमुख अधिकारी उससे असन्तुष् थे। क्लाइव ने इसका लाभ उठाकर एक षड्यन्त्रा रचा जिसमें नवाब का प्रधान सेनापति मीर जाफर, बंगाल का एक प्रभावशाली साहूकार जगत सेठ, रायदुर्लभ तथा अमीनचन्द एक बिचैलिए के रूप में सम्मिलित हुए। निश्चय हुआ कि मीर जाफर को नवाब बना दिया जाए और वह इसके लिए कम्पनी को कृतार्थ करेगा तथा उसकी हानि की क्षतिपूर्ति भी करेगा।

अंगे्रजों ने मार्च 1757 में फ्रासीसी बस्ती चन्द्रनगर को जीत लिया। एक ऐसे समय जब नवाब को उत्तर-पश्चिम की ओर से अफगानों तथा पश्चिम की ओर से मराठों का भय था, ठीक उसी समय क्लाइव ने सेना सहित नवाब के विरु( मुर्शिदाबाद की ओर प्रस्थान किया। 23 जून, 1757 को प्रतिद्वन्दी सेनाएँ मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील की दूरी पर स्थित प्लासी गांव में आमों के निकुंज में टकराईं। अंगे्रजी सेना में 950 यूरोपीय पदाति, 100 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2100 भारतीय सैनिक थे। नवाब की 50,000 सेना का नेतृत्व विश्वासघाती मीर जाफर कर रहा था। नवाब की एक अग्रगामी टुकड़ी जिसके नेता मीर मदान तथा मोहन लाल थे, अंगे्रजों से बाजी ले ली गई और उसने क्लाइव को वृक्षों के पीछे शरण लेने पर बाध्य कर दिया। सहसा एक गोली से मीर मदान मारा गया। नवाब सिराजुद्दौला ने अपने प्रमुख अध्किारियों से मन्त्रणा की। मीर जाफर ने उसे पीछे हटने को कहा तथा यह भी कहा गया कि सिराज को सेना का नेतृत्व जरनलों के हाथों में छोड़, युद्धक्षेत्र से चला जाना चाहिए। चाल चल गई। सिराज 2000 घुड़सवारों सहित मुर्शिदाबाद लौट गया। फ़्रांसीसी टुकड़ी जो अभी तक जमी हुई थी, शीघ्र हार गई। 

मीर जाफर 25 जून को मुर्शिदाबाद लौट गया तथा उसने अपने आपको नवाब घोषित कर दिया। सिराज को बन्दी बना लिया गया तथा उसकी हत्या कर दी गई। मीर जाफर ने अंगे्रजों को उनकी सेवाओं के लिए 24 परगनों की जमींदारी से पुरस्कृत किया और क्लाइव को 2,34,000 पाउंफड की निजी भेंट दी। 50 लाख सेना तथा नाविकों को पुरस्कार के रूप में दिए। बंगाल की समस्त फ्रासीसी बस्तियां अंग्रेजों को दी दीं। यह भी निश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी नहीं देनी होगी। इस प्रकार 1756 में हुई हानि के लिए अंग्रेजों की पर्याप्त क्षतिपूर्ति की गई।

प्लासी का युद्ध के कारण

प्लासी युद्ध का क्या कारण था? प्लासी का युद्ध के कारण हैं -
  1. सिराजुद्दौला की अलोकप्रियता 
  2. अंग्रेजों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा
  3. फ्रांसीसियों के विषय में अंग्रेजों का भय
  4. सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्र
  5. सिराजुद्दौला का दोषारोपण
1. सिराजुद्दौला की अलोकप्रियता - सिराजुद्दौला का चारित्रिक बुराईयों से परिपूर्ण था। वह क्रूर, अत्याचारी, चंचल प्रकृति, हठी और अति विलासी व्यक्ति था। उसने अपने स्वभाव से अपने ही संबंधियों और दरबारियों को अपना शत्रु बना लिया था। उसने अपनी धार्मिक कट्टरता और अनुदारता से भी अनेक हिन्दू व्यापारियों को अपना शत्रु बना लिया था। जब उसने निम्न पद वाले मोहनलाल को अपना मंत्री और मीर मदीन को अपने निजी सैनिकों का सेनापति नियुक्त किया और मीरजाफर को ऊँचे पद से हटाया तो उसके वरिष्ठ दीवान राय दुर्लभ और तथा सेनापति मीरजाफर उससे रुष्ट हो गये। नीति और कार्यों को लेकर मीरजाफर और सिराजुद्दौला में तीव्र मतभदे और अत्यधिक तनाव बढ़ गया था। 

सिराजुद्दौला ने अनेक बार मीरजाफर के निवास भवन को तोपों से उड़ाकर नष्ट करना चाहा जिससे मीरजाफर उससे रुष्ट होकर उसके विरुद्ध शड़यंत्र करने लगा। प्रभावशाली सम्पन्न जगत सेठ मेहताबराय के मुंह पर भरे दरबार में नवाब ने चांटा मारकर उसे अपमानित किया था। इससे वह भी रुष्ट हो गया और नवाब के विरुद्ध शड़यंत्रकारी गतिविधियों में सम्मिलित हो गया। जगत सेठ और मीरजाफर दोनों ने ही सिराजुद्दौला को सिंहासन से पृथक करने के शड़यंत्र रचने प्रारंभ कर दिये और सिराजुद्दौला को सिंहासनाच्युत करने का निर्णय किया।

2. अंग्रेजों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा - दक्षिण में कर्नाटक और हैदराबाद में जिस राजनीतिक हस्तक्षपे से अंग्रेजों ने प्रभुत्व और भ-ू भाग प्राप्त किये थे उससे उनमें साम्राज्य विस्तार की महत्वाकांक्षा बढ़ गयी थी। वे बंगाल में भी अपने साम्राज्य के विस्तार के लिये किसी दुर्बल उम्मीदवार का पक्ष लेकर उसे शासक बनाकर अपना स्थायी प्रभुत्व स्थापित करना चाहते थे। वे ऐसा नवाब चाहते थे जो फ्रांसीसियों के विरोध में हो एवं उनके पक्ष में हो और अंग्रेजों को सभी राजनीतिक और व्यापारिक सुविधाएं प्रदान करे। 

मीरजाफर नवाब सिराजुद्दौला के विरोध में था और वह स्वयं नवाब बनने का महत्वाकाक्ष्ं ाी हो गया था। अतएव अंगे्रजों ने उससे मिलकर नवाब के विरुद्ध शड़यंत्र रचा।

3. फ्रांसीसियों के विषय में अंग्रेजों का भय - इस समय बंगाल में अंग्रेजों की तुलना में फ्रांसीसियों की स्थिति दृढ़ थी। उनका व्यापार भी ठीक चल रहा था और चन्द्रनगर तथा हुगली में उनकी कोठियाँ और व्यापारिक केन्द्र थे। अलीनगर की अपमानजनक सन्धि के प’चात् सिराजुद्दौला अंग्रेजों से रुष्ट हो गया था और जब अंग्रेजों ने चन्द्रनगर पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार में कर लिया, तो सिराजुद्दौला की सहानुभूति फ्रांसीसियों के प्रति हो गयी और उसने फ्रांसीसियों को शरण अैर संरक्षण दिया। इससे अंग्रेजों की यह धारणा दृढ़ हो गयी कि नवाब सिराजुद्दौला फ्रांसीसियों की सहायता से शीघ्र ही उन पर आक्रमण कर देगा। पांडिचेरी और हैदराबाद से फ्रांसीसी सेना बंगाल में नवाब के पक्ष में सरलता से आ सकेगी।

यूरोप में सप्तवश्र्ाीय युद्ध प्रारम्भ हो चुका था और फ्रांसीसी तथा अंग्रेज यूरोप में युद्ध कर ही रहे थे। ऐसे समय में नवाब की सहायता से फ्रांसीसी सेनाए बंगाल में अंग्रेजों पर आक्रमण कर उनके अस्तित्व को नष्ट कर देगी, इसलिये ऐसा कोई गठबंधन होने के पूर्व ही शीघ्रातिशीघ्र सिराजुद्दौला को परास्त कर पदच्युत कर दिया जाय। अतएव अंग्रेजों ने अपने हित में नवाब सिराजुद्दौला का अन्त करना श्रेयस्कर समझा।

4. सिराजुद्दौला के विरुद्ध षड्यंत्र - उल्लेखनीय है कि मीरजाफर नवाब बनने का महत्वाकांक्षी था। उसे नवाब बनाने के लिये अप्रैल 1757 में गुप्त रूप से अंग्रेज अधिकारी वाटसन, क्लाइव और मीरजाफर के बीच प्रसिद्ध धनाढ़य व्यापारी अमीरचन्द के द्वारा एक गुप्त समझौता हुआ। जिसके अनुसार अंग्रेज मीरजाफर को नवाब बनावेंगे और नवाब बनने के बाद वह अंग्रेजों को वे सभी सुविधाएं व अधिकार प्रदान करेगा जो उनको पहिले के नवाब के समय प्राप्त थीं। वह अंग्रेज कम्पनी को क्षतिपूर्ति के लिये एक करोड़ रुपये देगा। वह फ्रांसीसियों की कोठियों को अंग्रेजों को दे देगा और उनको पुन: बंगाल में बसने नहीं देगा। 

अंग्रेजों को ढाका, कासिम बाजार, हुगली, कलकत्ता आदि स्थानों की किलेबन्दी करने का अधिकार होगा। नवाब कलकत्ते की खाई के चारों और 600 गज भूमि जमींदारी के रूप में तथा चौबीस परगनों की जमींदारी कम्पनी को प्रदान करेगा। यदि नवाब अंग्रेजी सेना की सहायता प्राप्त करेगा तो उसे इस सेना का व्यय भी वहन करना पड़ेगा। इस प्रकार मीरजाफर ने विश्वसघात करके सिराजुद्दौला को राजसिंहासन से उतारने का शड़यंत्र किया।

5. सिराजुद्दौला का दोषारोपण - क्लाइव ने अन्त में नवाब सिराजुद्दौला को पत्र लिखकर उस पर यह आरोप लगाया कि उसने अलीनगर की सन्धि की शर्तें भंग की हैं और वह इस मामले को नवाब के कुछ अधिकारियों के निर्णय पर छोड़ देने के लिए तैयार है और इसके लिए वह स्वयं नवाब की राजधानी मुरीदादाबाद आ रहा है। पत्र लिखने के बाद क्लाइव ने 800 अंग्रेज तथा 2200 भारतीय सैनिकों के साथ नवाब पर आक्रमण करने के लिए कलकत्ता से प्रस्थान किया। 

22 जून 1757 को वह प्लासी गाँव के समीप पहुँचा और वहां अपना सैनिक शिविर डाल दिया।

प्लासी का युद्ध की घटनाएं

क्वाइव के प्लासी पहुँचने के पूर्व ही सिराजुद्दौला अपने पचास सहस्र सैनिकों के साथ वहाँ विद्यमान था। जब युद्ध प्रारंभ हुआ तब सिराजुद्दौला की ओर से केवल मोहनलाल, मीरमर्दान और एक फ्रांसीसी अधिकारी थोड़ी सी सेना से अंग्रेजों से युद्ध कर रहे थे। नवाब की मुख्य सेना ने जो राय दुर्लभ और मीरजाफर के अधिकार में थी, युद्ध में भाग नहीं लिया। इन दोनों ने नवाब के साथ रण-क्षेत्र में भी धोखा किया। मीरमर्दान रण-क्षेत्र में वीरगति को प्राप्त हुआ। 

अन्त में अंग्रेज विजयी हुए। उनकी विजय वीरता और रणकुशलता पर आधारित न होकर शड़यत्रं ो, धोखाधड़ी और विवासघात से परिपूर्ण थी। ‘‘प्लासी एक एसे ा व्यापार था जिसमें बंगाल के धनवान सेठों और मीरजाफर ने नवाब को अंग्रेजों के हाथ बेच दिया था।’’ 

प्लासी के युद्ध में सिराजुद्दौला की पराजय का कारण उसकी सैनिक दुर्बलता नहीं थी, अपितु क्लाइव की धोखेबाजी, कूटनीति और शड़यंत्र था। प्लासी में वास्तविक युद्ध हुआ ही नहीं था। अपनी प्राण-रक्षा के लिए सिराजुद्दौला रण-क्षेत्र से भागा। किन्तु मीरजाफर के पुत्र मीरन ने उसे पकड़कर उसका वध कर दिया। सिराजुद्दौला में कितने भी दोष क्यों न रहे हों, किन्तु उसने अंगे्रेजों और अपने राज्य के साथ विश्वासघात नहीं किया।

प्लासी का युद्ध का परिणाम

अंग्रेज इतिहासकारों ने प्लासी के युद्ध को निर्णायक युद्ध कहा है और इस युद्ध में विजयी होने के कारण उन्होंने क्लाइव की गणना विश्व के महान सेनापतियों में की है और क्वाइव को जन्मजात सेना नायक माना है। किन्तु यह कथन अतिरंजित और एकपक्षीय है।

प्लासी के युद्ध का कोई सैनिक महत्व नहीं है। वास्तव में युद्ध हुआ ही नहीं। युद्ध में किसी प्रकार का रण-कौशल, वीरता या साहस नहीं दिखाया गया था। इसमें थोड़े से सैनिकों की मृत्यु हुई। कुछ गोले-बारूद की बौछार अवश्य हुई। ‘‘प्लासी की घटना एक हुल्लड़ और भगदड़ थी, युद्ध नहीं।’’ वास्तव में प्लासी के युद्ध में विशाल गहरे शड़यंत्र औार कुचक्र का प्रदश्रन था जिसमें एक ओर कुटिल नीति निपुण बाघ था और दूसरी ओर एक भोला शिकार।

इस युद्ध का राजनैतिक महत्व सर्वाधिक है। इस युद्ध से अलीवर्दीखां के राजवंश का अन्त हो गया और मीरजाफर बंगाल का नवाब बना। इस युद्ध के परिणामस्वरूप भारत की राज्यश्री अंग्रेजों के हाथों में चली गयी। भारत में अंगे्रजी साम्राज्य की नींव पड़ी। इस युद्ध ने अंग्रेजों को व्यापारियों के स्तर से उठाकर भारत का शासक बना दिया। ब्रिटिश कम्पनी ने कलकत्ता में अपनी टकसाल स्थापित की और अपने सिक्के भी ढाले और प्रसारित किये। अंग्रेजों की शक्ति और प्रभुत्व इतना अधिक बढ़ गया कि वे बंगाल में नवाब निर्माता बन गये। 

यद्यपि युद्ध के बाद मीरजाफर नवाब तो बन गया, पर वह पूर्ण रूप से अंग्रेजों के अधिकार में था। वह अंग्रेजों की कठपुतली मात्र था। अप्रत्यक्ष रूप से अंग्रेज बंगाल के वास्तविक स्वामी बन चुके थे। इसीलिए प्लासी का युद्ध भारत के इतिहास में युगान्तरकारी घटना है। इसके बाद भारतीय राजनीति में एक नया मोड़ आया।

बंगाल में अंग्रेजों का प्रभुत्व और आधिपत्य स्थापित हो जाने से अंग्रेजों के लिये उत्तर भारत की विजय का मार्ग प्रशस्त हो गया। बंगाल भारत की अन्य उदीयमान शक्तियों से बहुत दूर था। इसीलिए इन शक्तियों के आक्रमणों और प्रहारों से बंगाल मुक्त था। बंगाल मुगल साम्राज्य के अत्यन्त समीप था। इससे अंग्रेज उस पर सफलता से आक्रमण और प्रहार कर सकते थे। बंगाल का अपना समुद्र तट था इसलिए अंग्रेज समुद्री मागर् से सरलता से अपनी सेनाए बंगाल ला सके और बंगाल से नदियों के मार्ग के द्वारा वे उत्तर भारत में आगरा और दिल्ली तक सरलता से पहुँच सके। बंगाल में उनकी सामुद्रिक शक्ति का बहुत प्रसार हुआ। बंगाल से ही अंग्रेज आगामी सौ वर्षों में आगे बढ़े और सम्पूर्ण भारत पर अपना अधिकार जमा लिया।

प्लासी के युद्ध में विजय के परिणामस्वरूप अंग्रेजों की प्रतिष्ठा और यश-गौरव में भी अत्यधिक वृद्धि हो गयी और उनके प्रतिद्वन्द्वी फ्रांसीसियों की शक्ति और प्रभुत्व को गहरा आघात लगा। अंग्रेजों के अधिकार में बंगाल जैसा धन सम्पन्न और उर्वर प्रांत आ जाने से उनकी आय में खूब वृद्धि हुई और वे फ्रांसीसियों को कर्नाटक के तृतीय युद्ध में सरलता से परास्त कर सके।

इस युद्ध के कारणों ने भारत के राजनीतिक खोखलेपन तथा सैनिक दोषों और व्यक्तिगत दुर्बलताओं को स्पष्ट कर दिया। यह भी स्पष्ट हो गया कि राजनीतिक शड़यंत्र, कुचक्र, कूटनीति और युद्ध में अंग्रेज भारतीयों की अपेक्षा अधिक प्रवीण थे। अब वे अपनी कूटनीति का प्रयागे भारत के अन्य प्रदशो में कर सकते थे।

प्लासी के युद्ध का आर्थिक परिणाम अंग्रेजों के लिये अत्यधिक महत्व का रहा। मीरजाफर ने नवाब बनने के बाद कम्पनी को 10 लाख रुपये वार्शिक आय की चौबीस परगने की भूमि जागीर के रूप में प्रदान की। क्लाइव और अन्य अंग्रेज अधिकारियों को पुरस्कार में अपार धन, भंटे और जागीर दी गयी। क्लाइव को 234 लाख पौंड और कलकत्ता की कौंसिल के सदस्यों में से प्रत्येक को सत्तर-अस्सी हजार पांडै की सम्पत्ति प्राप्त हुई। सिराजुद्दौला की कलकत्ता विजय के समय जिनकी क्षति हुई थी उन्हें क्षतिपूर्ति के 18 लाख रुपये बाटें गये। इस प्रकार कुछ ही समय में नवाब मीरजाफर के राजकोश से लगभग पौने दो करोड़ रुपया निकल गया और राजकोश रिक्त हो गया। 1757 ई. - 1760 ई. की अवधि में मीरजाफर ने लगभग तीन करोड़ रुपये घूस में कम्पनी को और उसके अधिकारियों में वितरित किये। 

इस युद्ध के बाद अंगे्रेजों को बंगाल, बिहार और उड़ीसा में चुंंगी से मुक्त व्यापार कने की सुविधाएं प्राप्त हो गयी। इससे कम्पनी के कर्मचारियों ने इस सुविधा का दुरुपयागे करके अगले आठ वर्शों में 15 करोड़ से भी अधिक का व्यापारिक लाभ उठाया। शासक के रूप में कम्पनी को टकसाल बनाकर अपने सिक्के ढालने और उनका प्रसार करने का भी अधिकार हो गया। इसीलिये कहा जाता है कि प्लासी के युद्ध के पश्चात् भारत में वह युग प्रारम्भ हुआ जिससे अंग्रेजों का साम्राज्य विस्तार व्यापार से जुड़ गया था। प्लासी के बाद के युग में अंग्रेजों द्वारा बंगाल की वह लूट प्रारम्भ हुई जिससे बंगाल निर्धन बन गया।

मीरकासिम का नवाब बनना

उपरोक्त समझौते के बाद मीरकासिम और अंग्रेज मु’िरदाबाद गये और वहाँ मीरजाफर का राजमहल घेर कर उस पर यह दबाव डाला कि वह मीरकासिम को अपना नायब नियुक्त कर दे। मीरजाफर को यह भय था कि उसका दामाद मीरकासिम नायब बनने के बाद उसकी हत्या कर देगा। इसलिये मीरजाफर ने राजसिंहासन छोड़ना श्रेयस्कर समझा। फलत: मीरजाफर को गद्दी से उतारकर 15,000 रुपये मासिक पेशन देकर कलकत्ता भेज दिया और 20 अक्टूबर 1760 को ब्रिटिश कंपनी द्वारा मीरकासिम को नवाब बना दिया गया।

मीरकासिम बंगाल के नवाबों में योग्य, बुद्धिमान, प्रतिभासम्पन्न और सच्चरित्र शासक था। नवाब बनने पर उसने अंग्रेजों को अपने वचन और समझौते के अनुसार बर्दवान, मिदनापुर और चटगाँव के जिले दिये। कलकत्ता कौंसिल के विभिन्न अंग्रेज सदस्यों तथा अन्य अंग्रेज अधिकारियों को उसने बहुत-सा धन भी भेटं तथा उपहार में दिया। दक्षिण भारत के युद्धों के संचालन के लिये उसने अंग्रेजों को पांच लाख रुपया देकर उसने अपना वचन पूरा किया।

मीरकासिम के नवाब बनने पर उसके समक्ष अनेक समस्याएं थीं। अंग्रेजों को निरन्तर धन देते रहने से, अंग्रेजों को अनेक व्यापारिक सुविधाएँ देने से, कर्मचारियों के गबन से और अत्यधिक अपव्यय से राजकोष रिक्त हो गया था। प्रशासन अस्त-व्यस्त था। राजनीति व प्रशासन से अंग्रेजों का प्रभुत्व था। कंपनी के कर्मचारी और अधिकारी भ्रष्ट और बेईमान थे। उन्होंने शासकीय धन का गबन किया था। रााज्य में भूमि-कर वसूल नहीं हो रहा था। जमींदारों में विद्रोही भावना बलवती हो रही थी। सेना अव्यवस्थित और अनुशासनहीन थी। मीरकासिम ने इन समस्याओं का दृढ़ता से सामना किया तथा अनके सुधार भी किये।

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