आहार का अर्थ, परिभाषा, महत्व, उद्देश्य, आवश्यकता

आहार का अर्थ

कोई भी खाने योग्य पदार्थ जो शरीर के लिये उपयोगी सिद्ध हो, आहार या भोजन है’’। भोजन के अन्तर्गत ठोस, अर्द्धठोस तथा तरल सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ आ सकते हैं। भोजन की दो मुख्य विशेषताएं हैं:-
  1. भोज्य पदार्थ खाने योग्य हों।
  2. भोजन पदार्थों से शरीर को पोषण मिलना चाहिए।
  3. भोजन, पोषक तत्वों तथा पोषण प्रदान करने वाले तत्वों का जटिल सम्मिश्रण है।

आहार का अर्थ 

आहार का अर्थ है भीतर लेना। मुँह से खाना, पीना, नाक से श्वांस लेना, त्वचा से वायु का- धूप का ग्रहण करना, आदि को भी आहार के अन्तर्गत ही समझना चाहिए। जन्म के पहले माँ के रक्त द्वारा बालक को पोषण होता है, जन्म के बाद माँ का स्तन-पान ही उसका आहार है।  

प्रत्येक व्यक्ति को स्वस्थ रहने के लिए यह आवश्यक है कि वह सन्तुलित आहार लें। 

1. ‘‘आहार विज्ञान कला एवं विज्ञान का वह समन्वयात्मक रूप है जिसके द्वारा व्यक्ति विशेष या व्यक्तियों के समूह को पोषण तथा व्यवस्था के सिद्धान्तों के अनुसार विभिन्न आर्थिक तथा शारीरिक स्थितियों के अनुरूप दिया जाता है। आहार को कला व विज्ञान इसलिए कहा जाता है कि आहार विज्ञान न केवल यह बताता है कि कौन-कौन से पोषक तत्व किस प्रकार लेने चाहिए या उसके क्या परिणाम हो सकते हैं। बल्कि यह भी बताता है कि उचित स्वास्थ्य के लिए कौन-कौन से पोषक तत्व कितनी मात्रा में लिये जायें। 

2. आहार को व्यक्ति के भोजन की खुराक भी कहा जाता है अर्थात् ‘‘व्यक्ति भूख लगने पर एक बार में जितना ग्रहण करता है, वह भोजन की मात्रा उस व्यक्ति का आहार (DIET) कहलाती है। 

3. आहार वह ठोस अथवा तरल पदार्थ है जो जीवित रहने, स्वास्थ्य को बनाये रखने, सामाजिक एवं पारिवारिक सम्बन्धों की एकता हेतु संवेगात्मक तृप्ति, सुरक्षा, प्रेम आदि हेतु आवश्यक होता है। व्यक्ति की शारीरिक, मानसिक, संवेगात्मक और सामाजिक क्षमता के संतुलन के लिए आहार अत्यन्त आवश्यक है।

शरीर को स्वस्थ रखने के लिये उचित भोजन का उचित मात्रा में होना बहुत आवश्यक है अर्थात् अच्छे स्वास्थ्य का सीधा सम्बन्ध हमारे खान-पान से जुड़ा है। लेकिन यह जानना आवश्यक है कि स्वस्थ रहने के लिये क्या और कितनी मात्रा में खाना चाहिए? 

आहार की परिभाषा

‘‘शब्द स्तोम’’ ग्रन्थ के अनुसार-देहधारी प्रतिक्षण अपने परिश्रम से शारीरिक उपादानों का हृास करता है और उसकी पूर्ति के लिए जिस द्रव्य की आवश्यकता पड़ती है उसी का नाम ‘‘आहार’’ है।

हैरी बेंजामिन के अनुसार- आहार उन उपादानों को पूरा करता है जो शरीर की वृद्धि, निर्माण तथा शारीरिक अवयवों के उपयुक्त संचालन के लिए आवश्यक हैं। यह सम्पूर्ण मानव शरीर के कार्यों को साम्यावस्था में रखता है जिससे शरीर रूपी यंत्र अपनी शक्तिपर्यन्त कार्य करता है। अंग्रेजी में इसे ‘फूड’ कहते हैं।

आचार्य चरक के अनुसार- द्रव्य (आहार द्रव्य) पंचभौतिक हैं। पृथ्वी तल पर सूर्य के ताप तथा जलवायु की सहायता से प्रकृति के उत्पन्न किये हुए शरीरोपयोगी द्रव्य ही आहार हैं।

आहार अथवा भोजन क्यों लिया जाता है?

सर्वप्रथम तो स्वाभाविक रूप से जब भूख लगती है, उसकी निवृत्ति के लिए और शरीर का पोषण करने तथा शक्ति प्राप्त के लिए आहार लिया जाता है। शारीरिक स्वास्थ्य के अलावा मानसिक स्वास्थ्य भी आहार पर निर्भर है। शारीरिक स्वास्थ्य का मूल आधार है- संतुलित भोजन। शारीरिक क्रिया संचालन के लिए जो तत्व अपेक्षित है उन सबका हमारे भोजन में होना आवश्यक है और यही संतुलित भोजन है। 

प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट, वसा, खनिज, विटामिन, क्षार तथा लौह आदि उचित मात्रा में लेने से शरीर स्वस्थ और क्रिया करने में सक्षम रहता है। उचित मात्रा में जल सेवन भी अति आवश्यक है।

आहार का महत्व

‘‘मनुष्य अपनी थाली पर ही बनता या बिगड़ता है’’ यह कहावत सर्वत्र प्रसिद्ध है। ‘‘अन्नो वै प्राणिनां प्राण:’’ कोई भी प्राणी आहार के बिना जीवित नहीं रह सकता।

1. रोगों का मूल कारण कुत्सित आहार- यदि मनुष्य के प्रत्येक रोग के मूल कारण को देखा जाए तो चलेगा कि मानव का कुत्सित भ्रमपूर्ण भोजन (आहार) ही उसका उत्पादक है। जो पोषक होता है वही अयथावत प्रयोग से दूषण का कार्य करता है। शरीर जिन-जिन उपादानों को मांगता है यदि उसे उपयुक्त मात्रा में उपयुक्त समय पर न दिया जाय तो वह ठीक-ठीक कार्य न कर सकेगा। और पोषण के अभाव में वह दुर्बल तथा नाना तरह की आधि-व्याधि से परिपूर्ण हो जायेगा। व्याधि शरीर के लिए काष्ठगत घुन के समान है जो अन्दर उसे निस्सार बना देते हैं, निरूपयोगी कर देते हैं। 

मानव शरीर एक ऐसा कारखाना है जो स्वयमेव सुव्यवस्थित हो जाता है, स्वयमेव नियमबद्धता को प्राप्त करता है और स्वयमेव सुधार करता है, स्वयमेव विकसित होता है। जो शक्ति उसे सृजती है वही उसकी रक्षा भी करती है। 

2. मानव वंश की उत्पत्ति में आहार का महत्व- पुरातन समय में भयंकर से भयंकर कष्ट उठाकर भी विभिन्न देशों में पर्यटन, कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि अपने तथा अपने आश्रितों के भूख शमन करने के लिए किये जाते थे। आधुनिक युग में भी इस पेट के लिए इसी प्रकार के अनेक स्थानान्तर करने पड़े हैं और पड़ रहे हैं। ‘

3. मानसिक स्वास्थ्य अन्न पर निर्भर-  छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है-‘‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: सत्त्वशुद्धौ धु्रवा स्मृति: स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्ष:।’’ अर्थात् आहार के पाचन में तीन भागों में विभक्त हो जाता है- स्थूल असार अंश से मल बनता है, मध्यम अंश से मांस बनता है और सूक्ष्म अंश से मन की पुष्टि होती है। मन अन्नमय ही है। आहारशुद्धि से सत्त्वशुद्धि (मनशुद्धि), सत्त्वशुद्धि से ध्रुवा स्मृति और स्मृतिशुद्धि से सभी ग्रन्थियों का मोचन होता है। अत: सिद्ध हुआ कि अन्न से ही मन बनता है। भारतीय दर्शन में ठीक ही कहा गया है- ‘‘अन्नो वै मन:’’।
      इस प्रकार हम देखते हैं कि शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य सभी अन्न पर निर्भर करते हैं। यह एक सर्वाधिक आवश्यक एवं महत्वपूर्ण तत्त्व है जीवन के लिए।

      शरीर की सुरक्षा, उसे गतिशील रखने और उसे पोषण प्रदान करने के लिए आहार की आवश्यकता होती है। आहार शरीर के समुचित विकास, स्वास्थ्य एवं सुख का हेतु है। अत: आहार की समुचित संतुलित मात्रा ही लाभदायक है। आहार से शरीर का पोषण होता है तथा बल, वर्ण, आयु, ओजस और तेजस की प्राप्ति होती है।

      आहार का उद्देश्य

      1. स्थूल शरीर को शक्तिमान बनाना।
      2. शरीर में बल की वृद्धि करना
      3. रोग प्रतिरोध क्षमता को बढ़ाना
      4. शरीर का पोषण करना
      5. मानसिक स्वास्थ्य (सात्विक भाव) को बढ़ाना
      6. आध्यात्मिक स्वास्थ्य का संरक्षण करना
      7. शरीर, मन एवं आत्मा को स्वस्थ रखना
      8. सत्त्व (मन) बुद्धि का विकास करना
      9. आहार शुद्धि से सत्त्व शुद्धि करना
      10. शारीरिक शक्ति क्षय को रोकना
      11. शरीर में उचित ताप को प्रदान करना
      12. सुपाच्य एवं बलकारक - पुष्टिकारक होना
      13. स्वास्थ्य के लिये हितकर एवं कल्याणकारी
      14. संतुलित आहार में 80 प्रतिशत क्षार एवं 20 प्रतिशत अम्लीय होता है।
      15. मानसिक शान्ति प्रदान कराने वाला
      16. संतृप्ति देने वाला
      17. थकान एवं भूख मिटाने वाला हो

      आहार के सामान्य गुण

      आहार शरीर को पुष्ट करने वाला, बल कारक, देह को धारण करने वाला, आयु, तेज, उत्साह, स्मृति, ओज और अग्नि को बढ़ाने वाला होता है। आहार के संबन्ध में मुख्यतः पाँच सूत्र हैं- 1 . क्या खायें, 2. कितना खायें, 3. कब खायें, 4. क्यों खायें, 5. कैसे खायें। 

      (1) क्या खायें- मनुष्य को सदैव हितकारी पदार्थों का सेवन करना चाहिए। भोज्य पदार्थों को चार भागों में विभक्त किया जा सकता है- 
      1. कुछ वस्तुएँ ऐसी होती हैं, जिन्हें विष के समान मानकर छोड़ देना चाहिए। जैसे- चरस, गाँजा, भाँग, अफीम आदि। 
      2. कुछ हानिकारक वस्तुएँ हैं, जिनका सेवन नहीं करना चाहिए, क्योंकि इनके सेवन से शरीर में विषाक्तता बढ़ती है। जैसे- शराब, चाय, काफी, पान, तम्बाकू आदि तथा अण्डे, मांस, मछली, धूम्रपान आदि मानसिक क्षमता को कम करता है। मांसाहार तामसिक पदार्थ है। 
      3. कुछ वस्तुएँ जीवनोपयोगी होती हैं, जैसे- गेहूँ, चावल, मक्का, बाजरा, दालें, क्रीम, मक्खन आदि। 
      4. इनमें दुग्ध, घी, दही, सभी प्रकार के फल, साग-पात, मूली, गाजर आदि। सदैव भोजन ताजा लेना चाहिए। शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा के लिए जो हितकर हो उसे ही खाना चाहिए। 
      (2) कितना खायें- भोजन इतना अधिक न खाया जाय कि मुँह से डकार के साथ बाहर जाने लगे और न ही इतना कम खाया जाय कि शरीर को पोषण ही न मिले। भोजन हर व्यक्ति के कार्य विभाजन के अनुसार लिया जाना चाहिए। मानसिक कार्य करने वालों का भोजन कम होने से भी शरीर को पोषण मिल जाता है। जबकि शारीरिक श्रम करने वालों की मात्रा अधिक होती है। शारीरिक श्रम करने वालों को पर्याप्त प्रोटीन, चिकनाई तथा शर्करा की मात्रा की आवश्यकता पड़ती है। मानसिक कार्य करने वालों को सुपाच्य, उबली सब्जियाँ, रोटी, दलिया, दुग्ध, मीठे फल पर्याप्त पोषण दे देते हैं। 

      आयुर्वेद के अनुसार आमाशय के तीन भाग करने चाहिए- क. भोजन, ख. पानी तथा ग. वायु तीनों के लिए स्थान रखना चाहिए। अतः सदैव भूख से कम रवाना चाहिए। अधिक भोजन करने वालों की आयु कम होती है तथा अल्प भोजन करने वाले दीर्घजीवी होते हैं। कम खाने से कभी पाचन संस्थान खराब नहीं होता। जब भी पाचन संस्थान के रोग होते हैं, अधिक खाना उनमें प्रमुख कारण है। आज स्वाद के वशीभूत होकर राजसिक और तामसिक पदार्थों का सेवन अधिक करते हैं, इसी के कारण रोगों का बाहुल्य हो रहा है। शरीर देखने में स्थूलकाय होते हुए भी अन्दर से शक्तिहीन है। 

      (३) कब खायें- भोजन अग्निहोत्र की भाँति दो ही समय करना चाहिए। प्रथम भोजन १२ बजे से पूर्व तथा सायंकाल ७ बजे तक कर लेना चाहिए। आयुर्वेद में दो बार भोजन करने का विधान है। अपने भोजन का समय निश्चित और उचित मात्रा में करने से भोजन समय से पच जाता है। भोजन भूख लगने पर ही किया जाना चाहिए। बिना भूख लगे भोजन करने से हम रोगों को निमंत्रण देते हैं। तेज जलती अग्नि में जो समिधाएँ डाली जाती हैं तत्काल भस्म हो जाती हैं। सुलगती अग्नि में जिसमें धुआँ निकल रहा हो, उसमें समिधाएँ डालने से धुआँ ही निकलता है। इसी प्रकार भोजन का पाचन न होकर अपरिपक्व रस शरीर में रोग उत्पन्न करता है। पाचन संस्थान को सक्षम बनाये रखने के लिए अपने भोजन का समय निर्धारित कर लेना चाहिए। 

      (४) क्यों खायें- भोजन करने का उद्देश्य है, अपने शरीर को स्वस्थ, निरोग और बलवान बनाना। मनुष्य का धर्म है, शरीर को निरोग रखना, ‘‘शरीर माध्यम् खलु धर्म साधनम्’’। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की प्राप्ति का माध्यम भी स्थूल शरीर ही है। पं० श्रीराम शर्मा आचार्य ने भी युग निर्माण सत्संकल्प का प्रथम सूत्र दिया है- ‘शरीर को भगवान् का मंदिर समझकर, आत्मसंयम और नियमितता द्वारा आरोग्य की रक्षा करना।’ भोजन सदैव स्वस्थ और जीवित रहने के लिए किया जाना चाहिए, न कि खाने के लिए जीना।

      (५) कैसे खाएँ- भोजन इस प्रकार खाया जाना चाहिए, जिसमें जठराग्नि को कम से कम श्रम करना पड़े। हमारे मुख में ३२ दाँत होते हैं। अतः प्रत्येक ग्रास इतनी देर तक चबाना चाहिए, जिससे पतला हो जावे, तभी उसका घूँट गले के नीचे उतारना चाहिए। अतः कहा गया है भोजन को पीना चाहिए तथा पानी को खाना चाहिए। जो भी भोजन सामने आए, उस थाली के भोजन की पूजा कर, प्रसाद की भावना से खाना चाहिए। भोजन को देखकर सदैव हर्षित-प्रसन्न होकर ग्रहण करना चाहिए। भोजन करते समय अधिक जल पीने से भोजन अच्छी तरह नहीं पचता है। इसी प्रकार बिलकुल जल न पीने से भोजन का पाक अच्छी तरह नहीं होता। भोजन करने के एक घण्टे बाद पानी पीना प्रारम्भ कर, प्रति घण्टे थोड़ा-थोड़ा जल पीते रहना चाहिए। ऐसा करने से भोजन जल्दी पच जाता है। जूठा भोजन न तो किसी को देना चाहिए और न ही खाना चाहिए।

      आहार की आवश्यकता 

      शरीर की सुरक्षा, उसे गतिशील रखने और उसे पोषण प्रदान करने के लिए आहार की आवश्यकता होती है। आहार शरीर के समुचित विकास, स्वास्थ्य एवं सुख का हेतु है। अतः आहार की समुचित संतुलित मात्रा ही लाभदायक है। आहार से शरीर का पोषण होता है तथा बल, वर्ण, आयु, ओजस और तेजस की प्राप्ति होती है। 

      इस आधार पर यह कहा जा सकता है कि आहार का प्रमुख कार्य जीवनी शक्ति प्रदान करना, शरीर का विकास, पोषण तथा उसकी रक्षा करना है। शरीर को बल, ऊर्जा आदि भोजन द्वारा प्राप्त होता है। भोजन मन का निर्माण भी करता है तभी तो कहा गया है ‘‘जैसा खाये अन्न वैसा बने मन’’  बिना समुचित आहार के स्वस्थ व्यक्ति स्वस्थ नहीं रह सकता और बिना उचित पथ्य-व्यवस्था के रोगी में चिकित्सा कर्म सफल नहीं हो सकता। 

      1. पोषण-शरीर का पोषण अन्न ग्रहण करने से होता है। खाद्य वस्तुओं को ग्रहण करने के बाद शरीर में पाचन तन्त्र द्वारा की गयी विभिन्न प्रक्रियाओं द्वारा उनके पोषक अंश शरीर सात्म्य पदार्थ में परिवर्तित किये जाते हैं, जिससे रस, रक्त एवं मांस आदि शारीरिक तत्वों का वर्धन होता है। शरीर सात्म्य पदार्थों को शरीर में जमा किया जाता है। और अन्नादि के जो त्याज्य पदार्थ होते हैं, वे मलरूप में शरीर के बाहर फेंक दिये जाते हैं; जैसे- मल, मूत्र, पसीना, उच्छ्वास आदि। इससे शरीर की क्रिया सुचारू रूप से चलती है। 

      2. स्वास्थ्य-स्वास्थ्य के लिए उपयुक्त आहार आवश्यक है। शरीर और आहार - ये दोनों पांचभौतिक है। आहार के माध्यम से ही शरीर के अवयवों की सम्पुष्टि होती है। पथ्याहार ही शारीरिक विकास का कारण बनता है, जबकि अपथ्याहार व्याधि का कारण बनता है। दोष धातु-मल एवं स्त्रोतस् ही शरीर के मूल हैं। पथ्य विशेष रूप से शरीर के दोष एवं धातुओं को सम्पुष्ट करता हुआ उन्हें सम बनाये रखता है। अपथ्य की इसकी विपरीत स्थिति होती है। 

      3. शरीर का ईंधन- प्राणधारी के शरीर के अन्दर संहार (केटाबोलिक प्रोसेस) और सृृजन (एनाबोलिक प्रोसेस) चलती रहती है। इन्हें सम्मिलित रूप में मेटाबोलिक प्रोसेस कहा जाता है। इस व्यवस्था को अक्षुण्ण रखने के लिए हम सदा उपयुक्त ईंधन (आहार) देते रहते हैं। जब ईंधन की कमी होती है तो उसकी प्रतीति हमें निम्न तीन संवेदनाओं द्वारा होती है- प्यास, क्षुधा और श्वांस। हमारा आहार भी मुख्यतः उक्त तीन प्रकार के होते हैं। 

      मेटाबोलिक प्रोसेस को अक्षुण्ण बनाये रखने के लिए तीन प्रकार के वस्तुओं की आवश्यकता होती है। यथा कुछ ठोस पदार्थों की, कुछ द्रव पदार्थों की और कुछ वायवीय पदार्थों की। अतः जब हमारे शरीर के अन्दर द्रव पदार्थ की कमी होती है, उसे प्यास कहते हैं। जब ठोस पदार्थ की कमी की संवेदना होती है तो उसे हम क्षुधा नाम देते हैं। इसी प्रकार वायवीय की संवदना को श्वांस कहते हैं। 

      4. शक्ति निर्माण के लिए आवश्यक- शक्ति निर्माण भोजन के उस अंश से होता है जिसे कार्बोहाइड्रेट तथा फैट कहते हैं। जल भोजन का तरल मिश्रण बना देता है जो परिपचन, परिशोषण, धातु निर्माण तथा मल-निःसारण के लिए आवश्यक है। लवण पाचन तथा धातु निर्माण में सहायक है। उक्त सारी क्रियाओं का नियामक विटामिन है।

      3 Comments

      1. वर्धन आहार किसे कहते है

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      2. शोधक आहार किसे कहते हैं

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