मानसिक विकास का सिद्धांत (जीन पियाजे की थ्योरी ऑफ कॉग्निटिव डेवलपमेंट)

मानसिक विकास को संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन द्वारा भली प्रकार समझा जा सकता है। तकनीकी रूप में संज्ञानात्मक विकास ही मानसिक विकास है। संप्रत्यय निर्माण, सोचना, तर्क करना, याद रखना, विश्लेषण करना, निर्णय करना यह सब संज्ञानात्मक विकास की ही प्रक्रियाये हैं। इन प्रक्रियाओं को भली प्रकार समझने हेतु मनोवैज्ञानिकों ने बहुत से अनुसंधान किए हैं। इन मनोवैज्ञानिकों में जीन पियाजे , विगोत्सकी, बर्ट तथा ब्लूम का कार्य अति महत्वपूर्ण माना गया है।

मानसिक विकास का सिद्धांत

सैद्धान्तिक दृष्टि में मानसिक विकास-मनोवैज्ञानिकों के सिद्धान्तों के आलोक में मानसिक विकास को तर्कपूर्ण ढंग से समझा जा सकता है। इस क्रम में सर्वप्रथम सिद्धांत- जीन पियाजे की थ्योरी ऑफ कॉग्निटिव डेवलपमेंट है। इसका वर्णन निम्न है।
  1. मानसिक विकास का पियाजे का सिद्धांत
  2. मानसिक विकास का विगोत्सकी द्वारा प्रतिपादित सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत
  3. बच्चों के मन का सिद्धांत

1. मानसिक विकास का पियाजे का सिद्धांत

जीन पियाजे का संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत प्रमुख रूप से बच्चों एवं किशोरों के संज्ञानात्मक विकास की अवस्थाओं पर प्रकाश डालता है। पियाजे का यह सिद्धांत अवस्था सिद्धांत कहलाता है क्योंकि इस सिद्धांत में एक अवस्था से दूसरी अवस्था तक होने वाला विकास पहली अवस्था के विकास पर निर्भर करता है। अर्थात् एक अवस्था का विकास होने पर ही दूसरी अवस्था में विकास का होना संभव है। इस सिद्धांत के अनुसार पूर्ण संज्ञानात्मक विकास के लिए प्रत्येक व्यक्ति को इन अवस्थाओं को क्रमश: उत्तरोत्तर क्रम में पार करना पड़ता है। यदि किसी कारण से किसी अवस्था में विकास अवरूद्ध होने की स्थिति में उससे ऊपर की अवस्था में संज्ञानात्मक विकास नहीं हो पाता है। पियाजे द्वारा निर्मित संज्ञानात्मक विकास की विभिन्न अवस्थाओं की सारणी है।

अवस्था (Stage)आयु(Age)मुख्य उपलब्धियॉं (major accomplishments)
संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensorimotor stage)0 से 2 वर्ष बच्चे में कारण-प्रभाव एवं वस्तु स्थिरता की समझ (The child develops basic ideas of cause and effect and object permanence)
प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (Preoperational stage)2 से 6 या 7 वर्षबच्चा संसार को संकेतो एवं प्रतीकों से समझना शुरू कर देता है। (The child begins to represent the world symbolically)
ठोस संक्रिया की अवस्था (Concrete operations stage) 7 से 11 या 12 वर्षबच्चे का संरक्षण के सिद्धान्तों को समझना प्रारम्भ करना। तार्किक विचारों की उत्पत्ति।(The child gains understanding of principles such as conservation: logical thought emerges.)
औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Formal operations stage)12 से  वयस्ककिशोर का तार्किक विचारों के विभिन्न स्वरूपों को समझने में सक्षम होना। (The adolescent becomes capable of several forms of logical thought.)

इन अवस्थाओं को समझने के लिए पियाजे के सिद्धांत की मूलकल्पनाओं को समझना आवश्यक है। इस सिद्धांत की निम्नांकित चार मूलकल्पनायें हैं।
  1. मानव शिशु जन्म से ही वातावरण में घटने वाली घटनाओं के अनिश्चितता से बचने एवं दूर करने के लिए अनुकूलन करता है। 
  2. जब बालकों के सामने कोई ऐसी घटना घटती है जिसे उसका पहले कभी अनुभव नहीं हुआ है तो इससे उसमें एक तरह संज्ञानात्मक असंतुलन (cognitive disequilibrium) उत्पन्न हो जाता है जिसे वह आत्मसात्मकरण (assimilation) तथा समायोजन (accommodation) की प्रक्रिया अपनाकर संतुलित करता है। 
  3. संतुलन की यह प्रक्रिया सिर्फ बालकों की पिछले अनुभवों पर ही निर्भर नहीं करती है बल्कि उनके शारीरिक विकास, स्नायुओं की क्षमता पर भी निर्भर करती है। 
  4. संतुलन का प्रभाव यह होता है कि बालकों की संज्ञानात्मक संरचना उन्नत हो जाती है जिसके कारण संज्ञानात्मक विकास की चारों अवस्थाओं में उनका विकास सहज होता है। 
1. संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensorimotor Stage)- यह अवस्था जन्म से दो वर्ष तक की होती है। इस अवस्था में शिशुओं में अन्य क्रियाओं के अलावा वस्तुओं को शरीर द्वारा इधर-उधर करना, वस्तुओं की पहचान करने की कोशिश करना, किसी चीज को पकड़ना और प्राय: उसे मुंह में डालकर अध्ययन करना प्रमुख है। -जन्म से 30 दिन तक की आयु में बालक अंगूठा आदि चूसने आदि की प्रतिवर्त क्रियायें (reflex activities) ही प्रमुख रूप से करता है।
  1. एक से चार महीने की आयु में शिशुओं की प्रतिवर्त क्रियाओं में उनकी अनुभूतियों के आधार पर कुछ बदलाव आता है और वे अधिक समन्वित हो जाती हैं। 
  2. चार से आठ महीने की आयु में शिशु वस्तुओं को उलटने-पलटने तथा छूने पर अधिक ध्यान देता है। 
  3. आठ से बारह महीने की आयु में बालक लक्ष्यवस्तु तथा उस तक पहुॅंचने के साधन में अन्तर करना प्रारम्भ कर देता है। जैसे यदि किसी ने खिलौना छिपा दिया है तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर उधर हटाते हुए खोज जारी रखता है। इस अवधि में शिशु वयस्कों द्वारा किये जा रहे कार्यों का अनुकरण करना भी प्रारम्भ कर देता है। 
  4. 12 से 18 महीने की आयु में बालक वस्तुओं की विशेषताओं का ज्ञान प्रयत्न एवं त्रुटि (trail and error) विधि से प्राप्त करने की कोशिश करता है। इस अवस्था में उसकी स्वयं की शारीरिक क्रियाओं में रूचि कम हो जाती है तथा वह वस्तुओं पर प्रयोग करना शुरू कर देता है। जिज्ञासा एवं उत्सुकता बढ़ जाती है। वह वस्तुओं को ऊपर से नीचे गिराकर, फेंककर उसके बारे में जानने की कोशिश करते हैं। 
  5. 18 महीने से 24 महीने की आयु में बालक वस्तुओं में बारे में चिन्तन प्रारम्भ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारम्भ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर नहीं होती है। इस गुण को वस्तु स्थायित्व (object permanence) कहा जाता है। दूसरे शब्दों में , बालक 3-4 महीने की आयु में जो यह सोचते थे कि जब कोई वस्तु उनके सामने होती है तब उसका अस्तित्व बना होता है परन्तु जब वस्तु उनके सामने से हट जाती है तब उसका अस्तित्व भी खत्म हो जाता है, को अब वे गलत समझने लगते हैं। परन्तु अब उसका चिन्तन अधिक वास्तविक हो जाता है और वह अब यह सोचता है कि जब वस्तु उसके सामने नहीं भी होती है तो भी उसका अस्तित्व बना रहता है। इसे ही वस्तु स्थायित्व का गुण कहा जाता है।
2. प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (Preoperational Stage) - संज्ञानात्मक विकास की यह अवस्था दो से सात साल की होती है। यह प्रारम्भिक बाल्यावस्था की अवस्था होती है। इसे पियाजे ने दो अवस्थाओं में बॉंटा है। 1. प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि (Preconceptual period) तथा 2. अन्तर्दश्र्ाी अवधि (Intutive period)।

1. प्राक्संप्रत्यात्मक अवधि- यह अवधि दो से चार वर्ष की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता विकसिकत कर लेते हैं। सूचकता (signifiers) से तात्पर्य यह होता है कि बालक यह समझने लगते हैं कि वस्तु, शब्द, कल्पना, तथा चिन्तन-विचार किस चीज के लिए किया जाता है। उन्होंने दो तरह की सूचकता पर बल डाला है। संकेत (symbol) तथा चिह्न (sign)। किसी दृश्य ठोस वस्तु के मानसिक रूप का दूसरा नाम भी संकेत है। संकेत तथा उस ठोस वस्तु में बहुत सादृश्यता होती है। उदाहरण के लिए जब बच्चा अपनी मॉं की आवाज सुनता है तब उसके मन में मॉं का रूप या प्रतिमा बनती है, जो संकेत का उदाहरण है। ठोस वस्तुओं के लिए प्रयुक्त शब्द अथवा भाषा उनके चिह्न कहलाते हैं। पियाजे के अनुसार अनुकरण की प्रक्रिया द्वारा बच्चे सूचकता को सीखते हैं। 

उदाहरण के लिए बच्चा जब अपने पिता को पुस्तक को पुस्तक कहने का अनुकरण करता है, तो धीरे-धीरे पुस्तक एवं उसके अर्थ को समझ जाता है। खेल के द्वारा भी बच्चे सूचकता के अर्थ को भली प्रकार समझते हैं।  इस अवधि में बच्चों के मानसिक विकास की दो प्रमुख कमियॉं भी दृष्टिगोचर होती हैं।
  1. पहली यह किइस अवधि में बच्चों में जीववाद (Animism) उत्पन्न होता हैं। जीववाद अर्थात् बच्चा निर्जीव किन्तु गतिमान वस्तुओं (पंखा, कार, हवा, बादल) को भी स्वयं के समान सजीव समझता है। 
  2. दूसरी कमी आत्मकेंद्रण (Egocentrism) के रूप में सामने आती है। इसमें बच्चा केवल अपनी सोच को ही सही मानता है। उसे कुछ इस प्रकार का विश्वास हो जाता है कि दुनिया की अधिकतर चीजें उसके इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं। जैसे वह तेजी से दौड़ता है, तो सूरज भी तेजी से चलना शुरू कर देता है। उसका गुड्डा वही देखता है जो वह देख रहा है। पियाजे ने यह भी बताया है कि जैसे-जैसे बच्चों का सम्पर्क का दायरा अन्य बच्चों के साथ बढ़ता है, आत्मकेंद्रण कम होता जाता है। 
2. अन्तर्दशीय अवधि- यह अवधि 4 साल की आयु से लेकर 7 वर्ष की अवस्था तक होती है। इस अवधि में बच्चों का चिन्तन एवं तर्कशक्ति में पहले की अपेक्षा अधिक बेहतर हो जाती है। बच्चा जोड़, घटाव, गुणा, भाग जैसी मानसिक क्रियायें आसानी से करने लगता है। परन्तु इन क्रियाओं के पीछे के सिद्धांत को वह नहीं समझ पाता है। अन्तर्दशी चिन्तन एक ऐसा चिन्तन होता है जिसमें कोई क्रमबद्ध तर्क नहीं होता है। इस उम्र के बच्चों के चिन्तन में प्रक्रियाओं को उलटकर समझने की विशेषता नहीं होती है। जैसे बच्चा यह तो समझता है कि 2x2 = 4 हुआ परन्तु 4x2 =2 कैसे हुआ, यह वह नहीं समझ पाता है।

3. ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of concrete operation) - यह अवस्था 7 वर्ष की उम्र से प्रारम्भ होकर 12 वर्ष की उम्र तक चलती है। इस अवस्था में बालक ठोस वस्तुओं को मानसिक प्रक्रिया द्वारा मन में परिचालित कर उनसे जुड़ी समस्या का समाधान खोज लेते हैं। परन्तु उन वस्तुओं को उपस्थित न कर यदि उन्हें भाषा का प्रयोग कर समस्या उपस्थित की जाती है तो वे ऐसी समस्याओं पर मानसिक संक्रिया कर किसी परिणाम पर नहीं पहुॅंच पाते हैं। उदाहरण के लिए यदि उन्हें तीन वस्तुएं ‘अ’, ‘ब’, ‘स’ दी जाए तो उन्हें देखकर वे यह आसानी से बता देंगें कि इनमें अ, ब से बड़ा है और ‘ब’, ‘स’ से बड़ा है। अत: सबसे बड़ा ‘अ’ हुआ। परन्तु यदि उनसे यह कहा जाये कि कमला, विमला से बड़ी है और विमला बड़ी है सपना से तो तीनों में सबसे बड़ी कौन है? तो वे इसका उत्तर देने में असमर्थ रहते हैं। इसका कारण यह है कि इस समस्या में ठोस संक्रिया संभव नहीं है, क्योंकि समस्या शाब्दिक कथन के रूप में उपस्थित की गई है। इस अवस्था में बालको के चिन्तन में प्रक्रियाओं के उलटकर निष्कर्ष पर पहुॅंचने की योग्यता विकसित हो जाती है। जैसे अब बच्चे यह समझने लगते हैं कि कि 2x2 = 4 हुआ तो 4x2 =2 कैसे हुआ। इस अवस्था में बच्चों में तीन महत्वपूर्ण नियमों की समझ उत्पन्न हो जाती हैं।

1- संरक्षण (conservation), 2- संबंध (relation), 3- वर्गीकरण (classification)। इस अवस्था में बच्चा द्रव, लम्बाई, भार तथा तत्व के संरक्षण को समझने लगता है वह यह समझ जाता है कि मिट्टी एवं मिट्टी से बना बर्तन दोनों तत्वत: एक ही हैं तथा समान मात्रा में गीली मिट्टी से बनाये गये घड़े को यदि खिलौने का स्वरूप् दे दिया जाय तब भी उसका भार उतना ही रहता है और वह तत्व रूप में मिट्टी ही होता है। वे क्रमिक संबंधों से संबंधित समस्याओं का भी समाधान करते पाये जाते हैं। उनमें दी गई वस्तुओं को उनकी लम्बाई या वनज के अनुसार घटते क्रम या बढ़ते क्रम में व्यवस्थित करने की क्षमता विकसित हो जाती है। इसे पंक्तिबद्धता (seriation) कहा जाता है। इसी प्रकार इस अवस्था में बच्चों में वस्तुओं की विशेषताओं के आधार पर उसे किसी एक वर्ग या उपवर्ग में बॉंटने की समझ भी विकसित हो जाती है।

4. औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of formal operation)- यह अवस्था 11 वर्ष की उम्र से प्रारम्भ होकर वयस्कावस्था तक चलती है। इस अवस्था में किशोरों के चिन्तन में अधिक लचीलापन आ जाता है। अब वे परिकल्पनाओं का निर्माण करने में सक्षम हो जाते हैं। अब वे समस्याओं के परिकल्पित समाधान खोज लेने में समर्थ हो जाते हैं। इस अवस्था में समस्या के समाधान के लिए समस्या से संबंधित वस्तुओं को ठोस रूप में उपस्थित होने की आवश्यकता नहीं होती है। किशोरों का चिन्तन अधिक वास्तविक व वस्तुनिष्ठ हो जाता है। पियाजे के अनुसार इस अवस्था में बदलाव तेजी से होते हैं एवं इसका विकास शिक्षा से सीधे रूप में प्रभावित होता है। जिन बालकों को अच्छी शिक्षा प्राप्त नहीं हो पाती है उनमें इस प्रकार की मानसिक संक्रिया काफी निम्नस्तरीय होती है। परन्तु जिस बालका का शिक्षा स्तर उच्च होता है उसकी मानसिक संक्रियाये उत्तम होती हैं।

2. मानसिक विकास का विगोत्सकी द्वारा प्रतिपादित सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत

विगोत्सकी द्वारा सन् 1987 में प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास का सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत पियाजे के मानसिक विकास के सिद्धांत की मूल विचार के विपरीत दृिष्कोण प्रस्तुत करता है। यह सिद्धांत बच्चों के मानसिक विकास की व्याख्या करने वाला एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। यह सिद्धांत पियाजे के अवस्था सिद्धांत से भिन्न है। अवस्था सिद्धांत में पियाजे ने माना है कि प्रत्येक बालक को क्रमानुसार मानसिक विकास की उच्च अवस्थाओं में पहुंचने के लिए पूर्व की अवस्थाओं से गुजरना आवश्यक होता है। हालॉंकि गोपनिक आदि अनुसंधानकर्ताओं द्वारा प्राप्त शोध परिणाम बतलाते हैं कि मानसिक विकास से संबंधित संज्ञानात्मक बदलाव काफी धीरे-धीरे होते हैं, और ऐसा बहुत ही कम होता है कि किसी एक अवस्था में अनुपस्थित विशेषता दूसरी अवस्था में प्रवेश करते ही अचानक से दिखलायी पड़ने लगती हो। वरन इन विकासात्मक बदलावों के अलग अलग दायरे होते हैं, बच्चे किसी चिन्तन के किसी एक दायरे में अधिक कुशल हो सकते हैं एवं वहीं किसी अन्य में कमजोर हो सकते हैं। जैसा कि हमने जाना कि पियाजे के अनुसार बच्चों में ‘समझ का विकास’ उनके द्वारा उनके वातावरण में उपस्थित वस्तुओं के साथ सक्रियता पूर्वक किये गये उनके प्रयास एवं परिपक्वता के विकास का परिणाम होता है। यहॉं प्रयास से तात्पर्य बच्चों द्वारा वस्तुओं के साथ किये गये व्यवहार एवं क्रियाओं से होता है।

1. विगोत्सकी के सामाजिक सांस्कृतिक सिद्धांत की विशेषता- विगोत्सकी का सिद्धांत मूलत: स्कूल जाने की आयु वाले बच्चों पर केंद्रित है। वे बच्चे जिनकी आयु 4 वर्ष से लेकर 12 वर्ष के बीच होती है, विगोत्सकी के सैद्धान्तिक अध्ययन का मुख्य विषय रहे हैं। विगोत्सकी ने अपने सिद्धांत में मानसिक विकास की व्याख्या के लिए दो कारकों पर सर्वाधिक जोर दिया है। 1. सामाजिक कारक एवं 2. भाषा विकास। सामाजिक कारक- सामाजिक कारकों को समझाते हुए लिव विगोत्सकी का कहना है कि बच्चे जब स्कूल जाने लगते हैं तब उन्हें परिवार से अतिरिक्त एक अन्य समूह से अन्त:क्रिया का अवसर मिलता है यह समूह परिवार के समूह से भिन्न होता है। इस समूह में बच्चे की कक्षा में सहपाठी के रूप में पढ़ने वाले बच्चे, अन्य कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे, शिक्षक-शिक्षिकायें एवं अन्य कर्मचारी शामिल होते हैं। ये सब मिलकर बच्चे के लिए एक सामाजिक वातावरण का निर्माण करते हैं। यह वातावरण बच्चे के मानसिक विकास को अत्यंत प्रभावित करता है।

2. भाषा विकास - विगोत्सकी के अनुसार भाषा बालकों के मानसिक विकास में एक अन्य महत्वपूर्ण कारक होता है। भाषा में भाषा के शब्दकोश का विकास महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जिस बच्चे का शब्दकोश जितना ही अधिक विस्तृत होता है वह अपने विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति करने में उतना ही अधिक समर्थ होता है। विगोत्सकी के सिद्धांत मे संज्ञानात्मक विकास के विभिन्न रूप विगोत्सकी की मान्यता है कि बालकों में संज्ञानात्मक विकास दो तरह की परिस्थितियों अथवा संदर्भ में होता है। 
  1. अन्तवर्ैयक्ति संदर्भ (interpersonal context), 
  2. सामाजिक संदर्भ (social context)। 
इन संदर्भो में बच्चे का मानसिक विकास एक स्तर से शुरू होकर दूसरे स्तर तक पहुंच जाता है। एक स्तर से दूसरे स्तर तक पहुॅंचने के बीच में एक दूरी होती है जिसकी संज्ञानात्मक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

3. विकास का वास्तविक स्तर - इस स्तर से तात्पर्य बच्चों द्वारा बिना सहायता प्राप्त परिस्थिति में उनके द्वारा किये जा सकने वाले स्वयं के मानसिक विकास से है। अर्थात् उन दशाओं में जबकि बच्चे को स्वयं के विकास के लिये केवल स्वयं के प्रयासों पर ही निर्भर रहना पड़ता हो, एवं उसे समाज के लोगों, खासतौर पर उसके परिवार एवं शिक्षकों से कोई सहायता न मिल रही हो।

4. विकास का संभावित स्तर - इस स्तर से तात्पर्य बच्चों द्वारा सहायता प्राप्ति की परिस्थिति में उनके द्वारा किये जा सकने वाले स्वयं के मानसिक विकास से है। दूसरे शब्दों में यदि बच्चों को समय समय पर उनके बड़ों यानि उनके शिक्षकों, चाचा-चाची आदि लोगों से सहायता मिलती हो तब बच्चों द्वारा स्वयं का किस सीमा तक मानसिक विकास हो सकता है, अर्थात् सहायता मिलने पर बच्चे क्या क्या कर सकते हैं।

5. सन्निकट विकास का क्षेत्र - उपरोक्त दोनों स्तरों के बीच अन्तर मानसिक विकास के जिस क्षेत्र को प्रदर्शित करता है वही सन्निकट विकास का क्षेत्र है। एक विकास के स्तर को पार कर दूसरे विकास के स्तर तक पहुॅंचने में कुछ महत्वपूर्ण सहायक प्रक्रियायें घटित होती हैं जिनमें परस्पर शिक्षण एवं स्कैफोल्डिंग महत्वपूर्ण हैं-

6. ‘परस्पर शिक्षण’ (Reciprocal teaching) - बच्चों को बड़ों से जो कि उम्र में वयस्क होते हैं से सामाजिक अंत:क्रिया के द्वारा किस प्रकार की सहायता प्राप्त होती है? इस सवाल के जवाब में विगोत्सकी ने पाया है कि प्राय: यह सहायता ‘परस्पर शिक्षण’ के रूप में प्राप्त होती है जिसमें बच्चा एवं शिक्षक बारी बारी से किसी गतिविधि में भाग लेते हैं। ये गतिविधि खेल, सम्भाषण अथवा संगीत आदि के रूप में हो सकती है। यह प्रक्रिया शिक्षक को बालक के सम्मुख एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत करती है जिससे बालक सीखता है एवं उसकी समझ विकसित होती है।

7. स्कैफोल्डिंग (Scaffolding) - बच्चों एवं उनके बड़ों अथवा शिक्षकों के बीच होने वाली अंत:क्रियाओं से बच्चों को स्कैफोल्डिंग का लाभ मिलता है। स्कैफोल्डिंग एक प्रकार की मानसिक संरचना होती है जिनका प्रयोग बच्चे नये कौशलों में महारत हासिल करने के दौरान एवं चिंतन के नये तरीकों में कर सकते हैं। विगोत्सकी के अनुसार वर्तमान में हुए बहुत से अनुसंधानों से यह प्रमाणित होता है कि बच्चों एवं शिक्षकों के बीच होने वाली उपरोक्त प्रकार की अंत:क्रियाओं से सामाजिक कौशलों के विकास के साथ संज्ञानात्मक विकास होता है जिसके अन्तर्गत बच्चे की पठन-पाठन की क्षमता, नवीन अंतर्दृष्टि, अनुमानात्मक चिंतन, निष्कर्ष तक पहुॅंचने की क्षमता में उन्नति होती है। इसके अलावा बच्चे अपने सहपाठी बच्चों के साथ अंतक्रिया से बहुत कुछ सीखते हैं जिसमें दूसरों के साथ सहानुभूति प्रदर्शित करने का कौशल, उचित व्यवहार करना, दूसरों के व्यवहार के पीछे की सोच का अनुमान लगाने की कला सीखना जैसे संज्ञानात्मक विकास सम्मिलित हैं।

3. बच्चों के मन का सिद्धांत 

बच्चों की थ्योरी ऑफ माइंड से तात्पर्य उनके चिंतन के विषय में किये जाने वाले चिंतन से है। एक वयस्क के रूप में हम सभी विचार एवं चिन्तन प्रक्रिया के सम्बन्ध में एक सुलझी हुई समझ रखते हैं। हम यह जानते हैं कि समय के साथ हमारे अपनी सोच में बदलाव आते हैं एवं हमारे विश्वास, निष्कर्ष एवं धारणायें गलत भी हो सकती हैं। इसी प्रकार हम यह भी जानते हैं कि हमारे लोगों के अपने उद्देश्य, लक्ष्य एवं इच्छायें हो सकती हैं जो कि हमारी स्वयं की इच्छाओं एवं उद्देश्यों से भिन्न हो सकती हैं, एवं दूसरे लोग हमसे अपनी इच्छाओं एवं लक्ष्यों को छिपा भी सकते हैं। इसके आगे हम इससे भी परिचित हैं कि एक समय में, एक परिस्थिति में प्राप्त समान जानकारी के बावजूद दूसरे व्यक्तियों के हमसे भिन्न निष्कर्ष हो सकते हैं। दूसरे शब्दों में, हम यह समझते हैं कि किस प्रकार हम स्वयं एवं दूसरे व्यक्ति सोचते हैं। लेकिन क्या बच्चों के साथ भी ऐसा ही होता है? किस आयु में एवं कैसे उनमें यह समझ विकसित होती है? यह थ्योरी ऑफ माइण्ड के अनुसंधानकर्ताओं का विशिष्ट विषय रहा है।

आइये इसकी शुरूआत सोच के सबसे सरल पहलू से करें, जिसका की संबंध बच्चों द्वारा स्वयं की सोच एवं दूसरों की सोच में अन्तर होने की पहचान करने की क्षमता से है। बच्चों के मानसिक विकास के अनुसंधान में सहज ही यह प्रश्न उठता है कि क्या बच्चों में यह समझने की क्षमता होती है कि दूसरों की धारणायें एवं विश्वास उनकी धारणाओं से अलग हो सकते हैं एवं गलत भी हो सकते है। यह बच्चे इस मूल तथ्य को समझते हैं? इस प्रश्न के उत्तर में पाया गया है कि चार वर्ष के अवस्था से पूर्व बच्चे इस तथ्य को समझने में असमर्थ होते हैं। 

हालॉंकि दो से तीन साल की उम्र के बच्चे दूसरों की सोच को कुछ हद तक समझने की क्षमता रखते हैं परन्तु वे सोच एवं विचार के स्वरूप की अन्तर्दृष्टि नहीं रखते हैं। उदाहरण के लिए उनके लिए यह समझ पाना मुश्किल होता है कि कम दूसरा व्यक्ति चिन्तन कर रहा है। वे यह जानते हैं कि सोचना, बातचीत करने एवं देखने से भिन्न होता है परन्तु वे इसे पूरी तरह नहीं समझ पाते कि यह एक व्यक्तिगत मानसिक घटना होती है। 

इसी प्रकार ये बच्चे तब यह जानते हैं जब वे किसी चीज के बारे में जानते ह लेकिन वे प्राय: जानकारी के स्रोत से अनभिज्ञ एवं अस्पष्ट होते हैं तथा यह नहीं समझ पाते कि यह जानकारी उन्होंने ने स्वयं प्राप्त की है या किसी और ने उन्हें इसके बारे में बताया है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि 4 वर्ष से कम उम्र के बच्चे इस बात को समझते हैं कि उन्हें जानकारी है परन्तु इस बात को नहीं समझ पाते कि कैसे उन्हे यह जानकारी मिली है।

1 Comments

  1. Second time
    https://v6health.blogspot.com/2019/04/second-time.html?m=1

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