प्राकृतिक चिकित्सा का अर्थ एवं परिभाषा || भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास

प्राकृतिक तत्वों जैसे- धूप, मिट्टी, जल, हवा आदि द्वारा रोग पर तुरन्त नियंत्रण प्राप्त करने की पद्धति को प्राकृतिक चिकित्सा कहते है। प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति रोगों को जड़ से समाप्त करने में सक्षम है।

प्राकृतिक चिकित्सा सभी चिकित्सा प्रणालियों में सर्वाधिक पुरानी चिकित्सा पद्धति है। प्राचीन काल से पंचमहाभूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश तत्व की महत्ता की है। प्राकृतिक चिकित्सा न केवल उपचार की पद्धति है यह एक जीवन पद्धति है इसे बहुधा औषधि विहीन उपचार पद्धति कहा जाता है। यह पूर्णरूप से प्रकृति के सामान्य नियमों के पालन पर आधारित है।  प्राकृतिक चिकित्सा प्रकृति पर आधारित चिकित्सा को कहते है। शरीर से संचित विजातीय द्रव्यों को प्राकृतिक साधनों द्वारा निकालना एवं जीवनी शकित को उन्नत करना तथा रोग ग्रस्त अंग को जीवनी शक्ति प्रदान करना ही प्राकृतिक चिकित्सा का उद्देश्य है।

प्राकृतिक चिकित्सा पंच तत्व पर आधारित चिकित्सा पद्धति है। प्राकृतिक चिकित्सा में पंच तत्वों को प्रयोग करके ही चिकित्सा की जाती है। पृथ्वी, वायु, जल, अग्नि, आकाश इन तत्वों से ही शरीर का निर्माण हुआ है। इन तत्वों के असंतुलन के कारण ही रोग या विकृति उत्पन्न होती है। प्राकृतिक चिकित्सा में पंच तत्वों का संतुलन बनाकर रोग दूर होते है। 

प्राकृतिक चिकित्सा में उपचार की तुलना में स्वास्थ्य वर्धन पर अधिक महत्व दिया जाता है। प्राकृतिक चिकित्सा स्वस्थ जीवन जीने की एक कला विज्ञान है। 

प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा पद्धति नहीं जीवन जीने की कला है जो हमें आहार, निद्रा, सूर्य का प्रकाश, पेयजल, विशुद्ध हवा, सकारामकता एवं योग विज्ञान का समुचित ज्ञान कराती है। 

प्राकृतिक चिकित्सा से रोग ठीक किये जाते हैं पर यदि प्रकृति के अनुसार जीवन जिया जाय तो रोग होंगे ही नहीं। प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा जीवन निरोगी बनाया जा सकता है। प्राकृतिक चिकित्सा उतनी ही पुरानी है जितनी कि प्रकृति। इसके पॉंच आधार हैं। प्राकृतिक चिकित्सा वास्तव में जीवन यापन की सही पद्धति को कहते हैं। यह ठोस सिद्धांतों पर आधारित एक औषधि रहित रोग निवारक पद्धति है। 

‘‘प्राकृतिक चिकित्सा व्यक्ति को उसके शारीरिक, मानसिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक तलों पर प्रकृति के रचनात्मक सिद्धांतों के अनुकूल निर्मित करने की एक पद्धति है। इसमें स्वास्थ्य संवर्धन रोगों से बचाव व रोगों को ठीक करने के साथ ही आरोग्य प्रदान करने की अपूर्व क्षमता है।’’

प्राकृतिक चिकित्सा की परिभाषा

प्राकृतिक चिकित्सा सम्बन्धी विभिन्न विद्वानों का मत- कुने लुईस 1967- ‘‘प्राकृतिक प्रणाली जिसका कि चिकित्सा के रूप में उपयोग करते हैं तथा जो दूसरी पद्धतियों से गुण में बहुत अच्छी है, बिना औषधि या आपरेशन के उपचार की आधार की शिक्षा है।’’ 

जुस्सावाला जे0एम0 (1966)-’’प्राकृतिक चिकित्सा एक विस्तृत शब्द है जो रोगोपचार के सभी प्रणालियों के लिये उपयोग किया जाता है जिसका उद्देश्य प्राकृतिक शक्ति एवं शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता के साथ सहयोग करना है। यह व्याधि से मुक्त कराने का एक भिन्न तरीका है जिसका जीवन स्वास्थ्य एवं रोग के संबन्ध में अपना स्वयं का एक दर्शन है।

बेनजामिन हेरी- ‘‘प्राकृतिक चिकित्सा व्याधि से मुक्त करने तथा रोग का दर्शन है।’’

प्राकृतिक चिकित्सा शरीर की स्वयं की आंतरिक सफाई एवं शुद्धिकरण की स्वीकृति देती है। इस प्रकार यह अशुद्धता एवं अनुपयोगी पदार्थ जो कि अधिक वर्षों के कारण एकत्र हो गया तथा जो सामान्य कार्य में बाधा उत्पन्न करता था उसें निकाल फेंकता है।

महात्मा गांधी-’’प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति से रोग मिट जाने के साथ ही रोगी के लिये ऐसी जीवन पद्धति का आरम्भ होता है जिसमें पुन: रोग के लिये कोई गुंजाइश ही नहीं रहती।’’

पं0 श्रीराम शर्मा आचार्य- ‘‘प्राकृतिक चिकित्सा का अर्थ है प्राकृतिक पदार्थों विशेषत: प्रकृति के पांच मूल तत्वों द्वारा स्वास्थ्य रक्षा और रोग निवारक उपाय करना।’’

विलियम ओसलर- प्रकृति जिसे आरोग्य नही कर सकती उसे कोई भी आरोग्य नहीं कर सकता है।

महात्मा गाँधी- ‘‘जिसे हवा, पानी और अन्न का परिणाम समझ में आ गया वह अपने शरीर को स्वस्थ रख सकता है उतना डाक्टर कभी भी नहीं रख सकता।’’

प्रो0 जीसेफ स्मिथ एम.डी.- दवाओं से रोग अच्छा नहीं होता बल्कि केवल दबाता है। रोग हमेशा प्रकृति अच्छा करती हैं।

हिपोक्रेटस- ‘‘प्रकृति रोग मिटाती है, डाक्टर नहीं।

अत: कहा जा सकता है कि प्राकृतिक चिकित्सा रोगों को दबाती नहीं वरन् उसकी जड़ को खत्म करने में सक्षम है।

भारत में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास

प्राकृतिक चिकित्सा उतनी ही पुरानी है जितनी की प्रकृति स्वयं है और उनके आधार भूत तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। प्रकृति के तत्व जिनसें जीवन की उत्पत्ति होती है सदैव वही तत्व रोगों को दूर करने में सहायक रहे। प्राचीन काल से ही तीर्थ स्नान पर घूमना, उपवास रखना, सादा भोजन करना, आश्रमों में रहना, पेड़ पौधों की पूजा करना, सूर्य, अग्नि, तथा जल की पूजा करना आदि कर्म के अंग माने जाते रहे है यदि किसी प्राकृतिक नियमों को तोड़ने में कोई कभी अस्वस्थ हो जाता था तो उपवास, जड़ी-बूटियों तथा अन्य प्राकृतिक साधनों का प्रयोग करके स्वस्थ हो जाता हैै। 

आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा का जन्म एवं विकास

ईसा के जन्म के 400 वर्ष पूर्व ग्रीस के हिप्पोक्रेटीज प्राकृतिक चिकित्सा के जनक कहे जाते है। उनके समय तक दौ सौ पैसठ औषधियों का अविष्कार हो चुका था ये उनकी लिखी पुस्तकों से ज्ञान होता है लेकिन ये औषधियाँ मुख्यत: कुछ नये रोगों में ही प्रयोग की जाती थी। यदपि हिप्पोक्रेटीज इन औषधियों में विश्वास रखता था , उनकी धारणा थी कि प्रकृति में रोग निवारण शक्ति है। तथा नये-नये रोग स्वयं ही शरीर में एक प्रकृति तरीके से उभार लाकर शरीर के भागों में से एक अधिक के द्वारा विकारों के बाहर कर देते है। उनका कहना था कि चिकित्सक का कर्त्तव्य है कि वह रोगी में आये बदलाव का अनुमान पहले से कर ले जिससे वह उन प्राकृतिक तरीको को सहज सफल होने में सहायता दे तथा रोगी चिकित्सक की मदद से रोग निवारण कर सके।

हिप्पोक्रेटीज को जल चिकित्सा का पूरा-पूरा ज्ञान था उन्होंने शीतल तथा उष्ण दोनों प्रकार के जल का उपयोग अल्सर, ज्वर और अन्य रोगों में किया। उन्होंने कहा कि शीतल जल का स्नान लघु कालीन होना चाहिए उसके तुरन्त बाद या घर्षण स्नान करना चाहिए। लघुकालीन शीतल स्नान से शरीर गरम रहता है इसके विपरीत उष्ण जल से स्नान से इसके विपरीत प्रभाव पड़ता है। यूनान के स्पार्टन नामक जाति में शीतल जल से स्नान करने का कानून बना था वहाँ बड़े-बड़े स्नानगार में शीतल और उष्ण वायु स्नान की व्यवस्था की। फादर नीप ने प्राकृतिक चिकित्सा का उपयोग बड़े उत्साह से किया और जड़ी बूटी व जल के प्रयोग सम्बन्धी बहुमूल्य अविष्कार किये। मध्यकाल में अरा के चिकित्सकों ने जल चिकित्सा को महत्व दिया।

रेजेज ने ज्वर के ताप को कम करने के लिए बरफीला जल थोड़ा पानी की सलाह दी।

एवी सेना कब्ज निवारण हेतु शीलत जल का स्नान तथा मिट्टी को लाभकारी बताया।

कुलेन चिकित्सक के रूप में जल के सन्दर्भ में कुछ व्यवस्थिति अवलोकन प्रस्तुत किये। उन्होंने ज्वर के उपचार के लिए जल के सम्बन्ध में कहा कि जब प्रतिक्रिया की दिशा को कम करने के लिए जल का उपयोग किया जाता है तो उसका प्रभाव शान्तिदायक होता है लेकिन जब हृदय और धमनियों के कार्यों को बढ़ाने के लिए तथा सबल देने के लिए जल का उपयोंग किया जाता है तो वह टॉनिक का कार्य करता है। जल रोग निवारण और स्वास्थ्य संवर्धन के लिए उपयुक्त माना जाता है।

प्राकृतिक चिकित्सा पद्धति भारत की प्राचीनतम चिकित्सा पद्धति है किन्तु बीच में इस चिकित्सा प्रणाली के संसार से लोप हो जाने के बाद उसके पुर्नरूथान का श्रेय पाश्चात्य देशों को दी है इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता। प्राकृतिक चिकित्सा के पुनरूथान में मदद देने वाले अनेक प्राकृतिक चिकित्सक थे और ये लोग वह थे जो औषधियों द्वारा रोगों का उपचार करते-करते अपनी आयु के एक बड़े भाग को समाप्त कर देने पर भी शान्ति नहीं पा सके। उनके स्वयं के प्राण प्राकृतिक चिकित्सा द्वारा बचे थे। इस सम्बन्ध में निम्नवत जानकारी है।

पाश्चात्य देशों में प्राकृतिक चिकित्सा का इतिहास

डाक्टर फ्लायर इग्लैण्ड के लिचफील्ड निवासी थे। लिचफील्ड के एक स्त्रोत के पानी में कुछ किसानों को नहाते देखकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त देखा और इस सम्बन्ध में उन्होंने खोज की और जल चिकित्सा आरम्भ की।
सन् 1667 में सर जान फ्लोयर ‘‘हिस्ट्री आफ कोल्ड बायिंग’’ नामक पुस्तक लिखी जिसमें इन्होंने शीतल जल के महत्व स्नान पर विस्तार से प्रकाश डाला। उन्होंने कहाँ कि शीतल जल के स्नान देने से पहले रोगी को पसीना अवश्य आना चाहिए। इसके लिए रोगी को एक गीला चादर लपेट कर कम्बल से ढक देना चाहिए। इसके बाद पसीना आ जायेगा, तब स्नान कराना चाहिए। उन्होंने इग्लैण्ड के लिचफील्ड में वाटर क्योर केन्द्र बनाया इसमें दो कमरे हुआ करते थे। एक कमरे में रोगी को उष्ण स्नान तथा शुष्क लपेट पसीना लाने के लिए दी जाती थी। दूसरे कमरे में शीतल जल की स्नान करवाया जाता था। दोनों कमरे एक दूसरे से बिल्कुल आस-पास थे।

आधुनिक प्राकृतिक चिकित्सा के प्रणेता विनसेन्ज प्रेविनज माने जाते है। जो कि फादर ऑफ वाटर थरैपी माने जाते है। इनका जन्म जर्मनी के सिलेसियन पहाड़ की तलहटी मे एक गाँव में 1752 में एक गरीब परिवार में हुआ था। बड़े होने पर चरवाहे का काम करते हुए एक लगड़ी हिरनी को बुरी तरह घायल देखा वह हिरनी झरने के नीचे आधे घण्टे पानी में खड़े होने के बाद पानी से निकलकर जिधर से आयी थी उधर ही चली गयी। दूसरे दिन भी वह हिरनी करीब उसी समय आयी और इस बार आधे घण्टे से अधिक समय तक पानी में रहने के पश्चात पुन: चली गयी। प्रिस्निज ने देखा कि तीन सप्ताह तक हिरनी इसी प्रकार आती रही। उन्होंने लगड़ी हिरनी झरने में नहाने से उसकी चोट को ठीक होता हुआ देखकर आश्चर्य चकित हुए।

प्रिस्निज जी सोलह वर्ष के थे जब एक दिन जंगल से लकड़ी काटकर लौटते समय बर्फ गिरने लगी। वह आधी तूफान में फसकर चार पसलियां टूट गयी। उन्होंने अपनी चिकित्सा हिरनी की तरह जल से की। इन्होंने गीली पट्टी बाधकर ठीक किया। सूती कपड़े की गद्दी पानी में भिगोकर अपने अंग पर रखने लगे और गद्दी सूख जाती तो फिर से उसे पानी में भिगोकर रख लेते। इस तरह कुछ समय के पश्चात वह बिल्कुल स्वस्थ हो गये।

इनका जल चिकित्सा पर गहन विश्वास हो गया। इन्होंने 1829 में जल चिकित्सा प्रणाली की स्थापना की। जिससे इनके पास दूर-दूर से रोगी आने लगे। प्रिस्निज की चिकित्सा में विशेष जल के व्यवहार और सादा भोजन था। इनका आधारभूत सिद्धान्त पसीना निकाल कर ठण्डे जल का प्रयोग था। इसके बाद रोगी की प्रतिरोधक क्षमता शक्ति को भी बढ़ाने में सहायता करने लगा। प्रिस्निज के बाद जोहान्स स्क्राथ ने शोध से कार्य को आगे बढ़ाया।

जोहान्स स्क्राथ- प्रिस्निज के काल है इन्होंने एक साधु के उत्साहित करने पर अपनी चोट को जल चिकित्सा से सही किया था बाद में जानवरों पर सिद्धस्य हो जाने पर मनुष्यों पर जल चिकित्सा का प्रयोग किया। इनकी ख्याति बढ़ने पर ऎलोपैथिक चिकित्सा में विश्वास रखने वाले लोगों ने शडयंत्र करके इन्हें जेल भिजवा दिया। जेल से बाहर आकर 1849 में जब एक घायल सिपाही को कुछ ही दिनों में ठीक कर दिया तो इनका यश बढ़ने लगा। इनकी चिकित्सा प्रणाली को ‘‘स्क्राथ चिकित्सा’’ कहते है। इमेन्युल स्क्राथ यह जोहान्स के पुत्र थे इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा के द्वारा अनेक रोगियों का उपचार किया।

फादर सेबस्टिन नीप जो देवरिया के रहने वाले थे इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा का बहुत प्रचार किया तथा जल का सफल प्रयोग किया। इन्होंने एक स्वास्थ्य ग्रह 45 वर्ष तक चलाया अनेकों संस्थायें जर्मनी में इस चिकित्सा प्रणाली से चल रही है। जल चिकित्सा पर पुस्तक भी लिखी है।

अर्नाल्ड रिचली एक व्यापारी थे। इन्होंने जब प्राकृतिक चिकित्सा के गुणों को देखा और सुना तो उससे प्रभावित होकर इस क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया और वायु चिकित्सा, जल चिकित्सा पर कार्य किया।

क्राफोर्ड ने भी 1781 में शीतल जल के शरीर पर प्रभाव का अध्ययन किया तथा उपचार हेतु उपयोग भी किया।
डॉ0 हैलरी बेन्जामिल प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योग दिया। उनके द्वारा रचित पुस्तक इवरी बडी गाइड टू नेचर क्योर एक प्रसिद्ध पुस्तक है।

डॉ0 मेकफेडन ने प्राकृतिक चिकित्सा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्होंने ‘‘फास्टिंग फार हेल्थ’’ तथा ‘‘मेकफेडन इन्साइक्लोपीडिया फार फिजिकल क्योर’’ जैसी अनेकों पुस्तक लिखी। डॉ0 लाकेट ने अपने अनुभव पर भाप स्नान द्वारा पसीना निकालने की नयी विधि अपनायी गयी। एडोल्फ जूस्ट इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा की सुप्रसिद्ध पुस्तक ‘‘रीटर्न टू नेचर’’ लिखी। इन्होंने बताया कि मिट्टी के प्रयोग द्वारा समस्त रोगों को दूर किया जा सकता है। इन्होंने अपने आप मालिश करने की क्रिया को भी जन्म दिया।

रावर्ड हावर्ड यह प्राकृतिक आहार के अच्छे ज्ञाता माने जाते है।

सेलमन आपके प्राकृतिक चिकित्सा के प्रचार में महत्वपूर्ण योगदान दिया इनकी लिखी पुस्तक स्वास्थ्य और दीर्घायु आज भी लोकप्रिय है।

डॉ0 केलाग ने रेशनल हाइड्रोथेरेपी पुस्तक लिखी और प्राकृतिक चिकित्सा में महत्वपूर्ण योगदान दिया। डॉ0 केलाग ने मालिश, धूप चिकित्सा, आहार चिकित्सा आदि अनेक विषयों पर अनेकानेक पुस्तक लिखी। सभी चिकित्सा प्रणालियाँ जैसे आहार चिकित्सा, जल चिकित्सा, शल्य चिकित्सा, विघुत चिकित्सा, द्वारा रोगों का उपचार होता है वहाँ यह भी बताया जाता है कि उत्त्ाम स्वास्थ्य तथा लम्बी आयु कैसे प्राप्त करें।आज अमेरिका में प्राकृतिक चिकित्सा एक चिकित्सा विज्ञान के रूप में कई विश्वविद्यालय में पढ़ाई जा रही है तथा उनके चिकित्सीय महत्पपूर्ण योगदान दे रहे है। डॉ0 जानबेल द्वारा रचित पुस्तक ‘‘बाथ’’ एक प्रसिद्ध कृति है।

स्टैनली लीफ का सन् 1892 ई0 में रूस के एक गाँव में जन्म हुआ। और इनका जीवन दक्षिण अफ्रीका में बीता और जब बड़े हुए तब अमेरिका जाकर मैकफेडन के प्राकृतिक शिक्षालय में भर्ती होकर प्राकृतिक चिकित्सा की शिक्षा प्राप्त की। इग्लैण्ड से निकलने वाली मासिक पत्र ‘‘हेल्थ फार आल’’ के सम्पादक तथा दो प्रसिद्ध पुस्तक भी लिखी। वेनेडिक्ट लुस्ट अमेरिका के एक जाने माने प्राकृतिक चिकित्सक रहे है उन्होंने ‘‘नीप वाटर क्योर’’ नामक एक मासिक पत्रिका निकाली तथा न्यूयार्क में नैच्यूरोपेथी स्कूल आफ कैरोप्रेिक्ट्स की भी स्थापना की।

आस्ट्रिया के फ्रंन प्रान्त के अन्र्तगत टेल्डास- नामक स्थान पर सन् 1848 ई0 में धूप और वायु का जो संसार में सर्वप्रथम अपने ढंग का प्राकृतिक चिकित्सा भवन या बाद में लगभग सभी प्राकृतिक चिकित्सकों ने इसी आधार पर चिकित्सा ग्रहों का निर्माण कराया। अपने 67 वर्ष की लम्बी आयु का उपयोग किया और मरने के समय तक स्वस्थ और स्फूर्तिवान बने रहे। लुई कुने-प्राकृतिक चिकित्सा को विकास एवं उन्नति के शिखर पर पहुँचाने का श्रेय प्रिस्निज, नीप एवं कूने तीनों को है। परन्तु कुने के विशेष योगदान की वजह से आज प्राकृतिक चिकित्सा को कुने चिकित्सा प्रणाली के नाम से भी जाना जाता है।

लूई कूने का जन्म जर्मनी के लिपजिंग नगर में एक जुलाहे के घर हुआ था। इनके माता पिता की मृत्यु एलोपैथ चिकित्सकों के उपचार के मध्य हुई 20 वर्ष की अल्पायु में ही इन्हे भी मस्तिष्क एवं फुस्फुस के भयंकर रोग के साथ-साथ आमाशय का फोड़ा हो गया जो कि किसी भी डाक्टर से ढीक नहीं हुआ जीवन से ऊबकर अंत में सन् 1864 में इन्होंने प्राकृतिक चिकित्सा की शरण ली और बहुत जल्दी स्वास्थ्य प्राप्त किया।परिणामत: ये प्राकृतिक चिकित्सा के भक्त बने और निरन्तर अध्ययन मनन के बाद 10 अक्टूबर 1883 ई0 में लिपजिंग स्थित प्लास प्लेट्ज स्थान पर एक निज का स्वास्थ्य ग्रह खोल दिया। 

कुने की जर्मन भाषा में लिखी अनेक पुस्तकों में the science of facial expression और  New science of healing जिनका हिन्दी रूपान्तर सस्ता साहित्य मंडल दिल्ली एवं आरोग्य मंदिर गोरखपुर ने क्रमश: आकृति से रोगी की पहचान एवं रोगों की नई चिकित्सा नाम से किया है ये पुस्तकें विश्व प्रसिद्ध है। फ्रेच, ग्रीक, इंग्लिश आदि कई भाषा में इन पुस्तकों के अनुवाद हो चुके है तथा अन्य भाषाओं में हो रहे है।

कुने प्राकृतिक चिकित्सा सिद्धान्तों में रोगों का कारण एक ही है, शरीर में विजातीय द्रव्य का इक्कठा होना मुख्य कारण है इनके उपचार के तरीकों में सूर्य चिकित्सा, भाप स्नान, कटिस्नान प्रमुख है।

Schweninger ऐलोपैथिक डाक्टर ने बाद में प्राकृतिक चिकित्सा बने। इन्होंने The Doctor नामक एक सुप्रसिद्ध पुस्तक लिखकर वर्तमान में प्रचलित जहरीली तथा प्राण घातक औषधियों द्वारा चिकित्सा विधि की बड़ी कटु आलोचना की।

प्राकृतिक चिकित्सा के 10 सिद्धांत

  1. सभी रोग एक, कारण एक, उनकी चिकित्सा की एक।
  2. रोग का कारण कीटाणु नहीं।
  3. तीव्र रोग शत्रु नहीं मित्र होते है।
  4. प्रकृति स्वयं चिकित्सक है।
  5. चिकित्सा रोग की नहीं अपितु रोगी के पूरे शरीर की होती है।
  6. प्राकृतिक चिकित्सा में रोग निदान की विषेश आवश्यकता नहीं है।
  7. जीर्ण रोगों के ठीक होने में समय लगता है।
  8. प्राकृतिक चिकित्सा में दबे रोग उभरते हैं।
  9. मन, शरीर तथा आत्मा तीनों की चिकित्सा एक साथ।
  10. प्राकृतिक चिकित्सा में उत्तेजक औषधियों के दिये जाने का कोई प्रश्न ही नहीं है।

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