मनुष्य के वृक्क की संरचना तथा कार्यों का वर्णन करें।

मानव शरीर की उदरीय गुहा के पश्च भाग में रीढ के दोनों ओर दो वृृक्क स्थित होते हैं। ये बैगंनी रंग की रचनायें होती है जो आकार में बहुत बडी नहीं होती है। इन वृृृक्कों के पर टोपी के समान अधिवृक्क ग्रन्थियां नामक रचना पायी जाती हैं। ये वृक्क शरीर में रक्त को छानकर, रक्त की अशुद्वियों को मूत्र के रुप में शरीर से उत्सर्र्जित करने का कार्य करती हैं। वृक्कों का कार्य मात्र रक्त को छानकर मूत्र निमार्ण ही नही होता अपितु इनका कार्य शरीर में जल, शर्करा तथा खनिज लवणों आदि शरीरोपयोगी तत्वों का शरीर में समअनुपात बनाये रखना होता है। वृक्क शरीर में स्थित अनावश्यक तत्वों को बाहर निकालकर शरीर में समस्थिति (Homeostsis) बनाने का महत्वपूर्ण कार्य करते हैं।

वृक्क प्रतिक्षण क्रियाशील रहते हुए रक्त को छानने की क्रिया में लगे रहते हैं। ये वृक्क चयापचय क्रिया में उत्पन्न हुए उत्सर्जी पदार्थो को छानकर मूत्र का निमार्ण करते हैं। इसके साथ साथ वृक्क रक्त में उपस्थित अन्य हानिकारक पदार्थो को भी मूत्र के साथ शरीर से उत्सर्जित करते हैं। इन वृक्कों की कार्यकुशलता एवं कार्यक्षमता पर आहार विहार सीधा प्रभाव रखता है। आहार में उत्तेजक पदार्थ, मिर्च मसाले एवं मांसाहारी पदार्थो का प्रयोग करने से इन वृक्कों पर नकारात्मक प्रभाव पडता है। 

धूम्रपान, एल्कोहल तथा दवाईयों का अधिक सेवन के दुष्प्रभावों से शरीर को बचाने में वृक्काणुओं को अधिक कार्य करना पडता है इस कार्य में ये वृक्काणु नष्ट हो जाते हैं, जिससे वृक्कों की कार्य क्षमता कम हो जाती है। यदि इसके उपरान्त भी इन हानिकारक पदार्थो का प्रयोग बन्द नही किया जाता तब ये वृक्काणु अक्रियाशील होकर अपना कार्य बन्द कर देते हैं। यह अवस्था किडनी (Renalfailure) कहलाती है। जिसमें वृक्कों में रक्त निस्यन्दन की क्रिया बन्द हो जाती है।

वृक्क की संरचना

वृक्क की संरचना को हम दो भागों में बांट सकते है -
  1. वृक्क की बाह्य संरचना 
  2. वृक्क की आन्तरिक संरचना

1. वृक्क की बाह्य संरचना

मानव शरीर में उदरीय गुहा के पश्च भाग में रीढ के दोनों ओर एक जोडी वृक्क जायी जाती हैं। एक वयस्क मनुष्य में वृक्क का भार 140 से 150 ग्राम के मध्य होता है। प्रत्येक वृक्क की लम्बाई 10 से 12 सेमी0 के मध्य एवं चौडाई 5 से 6 सेमी0 के मध्य होती है। ये वृक्क देखने में सेम के बीज के समान आकृति वाले होते हैं। इन दोनों वृक्कों में बाएं वृक्क की तुलना में दाहिना वृक्क अपेक्षाकृत आकार में छोटा एवं अधिक फैला हुआ अर्थात मोटा होता है। यह दाहिना वृक्क कुछ नीचे की ओर एवं बाया वृक्क पर की ओर फैला होता है। 

इन वृक्कों का भीतरी किनारा अवतल एवं बाहरी किनारा उत्तल होता है एवं इनका मध्य भाग गहरा होता है। वृक्कों का मध्य भाग हायलम कहलाता है, इस मध्य भाग से ही रक्त वाहिकाएं वृक्कों में प्रवेश करती है एवं मूत्रवाहिकाएं बाहर निकलती हैं। 

वृक्क का ऊपरी सिरा उध्र्व ध्रुव एवं निचला सिरा निम्न ध्रुव कहलाता है। प्रत्येक वृक्क के ऊपरी धु्रव पर एकएक अधिवृक्क ग्रन्थि (Adrenal Gland) उपस्थित होती है। प्रत्येक वृक्क कैप्सूल के एक आवरण में लिपटा रहता है। यह कैप्सूल तन्तु उतक से बना होता है, जिसे वृक्कीय सम्पुट ( Renal capsule) कहा जाता है इस कैप्सूल में वसा संचित रहती है जिससे यह गद्दी की तरह कार्य करता हुआ वृक्कों को बाह्य आधातों एवं चोटों से सुरक्षित रखने का कार्य करता है। 
वृक्क की बाह्य संरचना

2. वृक्क की आन्तरिक संरचना

वृक्क की आन्तरिक संरचना तीन भागों में बटी होती है - 
  1. वृक्कीय श्रोणि (Renal pelvis) 
  2. वृक्कीय अतस्था (Renal medulla) 
  3. वृक्कीय प्रान्तस्था (Renal cortex)
1. वृक्कीय श्रोणि :- यह वृक्क का सबसे आन्तरिक भाग होता है यहीं से मूत्रनली बाहर की ओर निकलती है। इस स्थान पर संचायक स्थान (Collecting space) होता है। 

2. वृक्कीय अन्तस्था :- यह वृक्क का मध्यभाग होता है जिसे 8 से 18 तक की संख्या में वृक्कीय पिरामिड्स पाये जाते हैं। ये पिरामिड्स शंकु के आकार के होते हैं तथा वृक्कीय श्रोणि में आकर खुलते हैं। इन पिरामिड्स में स्थित नलिकाएं मूत्र के पुन: अवशोषण की क्रिया में भाग लेती हैं।

3. वृक्कीय प्रान्तास्था :- यह वृक्क का सवसे बाहरी भाग होता है जो वृक्कीय सम्पुट के साथ जुडा होता है अर्थात यह भाग वृक्क के बाहरी आवरण से जुडा होता है। वृक्क के इस भाग में नलिकाएं गुच्छों के रुप में अथवा जाल के रुप में फैली होती हैं।
वृक्क की आन्तरिक संरचना


वृक्क का निर्माण करने वाली कोशिकाएं वृक्काणु अथवा नेफ्रान (Nephrons) कहलाती है अर्थात वृक्काणु वृक्कों की मूल रचनात्मक एवं क्रियात्मक इकाई होती है तथा प्रत्येक वृक्काणु स्वतंत्र रूप से कार्य करने वाली इकाई होती है। वृक्काणुओं की रचना इतनी अधिक छोटी होती है कि इन्हें ऑखों से नहीं देखा जा सकता बल्कि इन्हें सूक्ष्मदश्र्ाी की सहायता से ही देखा जा सकता है, इसलिए इन्हें सूक्ष्मदश्र्ाी इकाई (Microscopic unit) कहा जाता है। प्रत्येक वृक्क का निर्माण 10 से 13 लाख वृक्काणुओं के मिलने से होता है। 

वृक्क की कार्य क्षमता एवं कार्यकुशलता इन वृक्काणुओं की क्रियाशीलता पर निर्भर करती है तथा 45 से 50 वर्ष की आयु के उपरान्त इन वृक्काणुओं की संख्या लगभग एक प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से घटने लगती है इसका प्रभाव वृक्कों की कार्यक्षमता पर पडता है तथा इसके परिणाम स्वरूप रक्त छानने (Filtration) एवं मूत्र निर्माण (Urine formation) की क्रिया धीमी पडती है। यही कारण होता है कि 50 वर्ष से अधिक उम्र होने पर आहार एवं विहार में अधिक नियम सयंम की आवश्यक्ता पडती है। इस अवस्था में विकृत आहार लेने से रक्त में विकृति उत्पन होने पर वृक्क रक्त को पुन: शुद्ध बनाने में सक्ष्म नही हो पाते तथा शरीर रोगों से ग्रस्त हो जाता है।

अब आपके मन में इन वृक्काणुओं को जानने की जिज्ञासा निश्चित ही बढ गयी होगी। वृक्क में दो प्रकार के वृक्काणु उपस्थित होते हैं। वृक्क में वृक्काणुओं का वह वर्ग जो प्रतिक्षण क्रियाशील रहता है एवं संख्या में बहुत अधिक वृक्क के लगभग दो तिहाई भाग में फैले होता है कोर्टिकल नेफ्रान कहलाता है जबकि वृक्क में उपस्थित वृक्काणुओं का वह वर्ग जो केवल विशेष परिस्थिति अर्थात तनाव व दबाव मे ही क्रियाशील होता है, जक्स्टामेड्यूलरी नेफ्रान कहलाता है। इन जक्स्टामेड्यूलरी नेफ्रान की संख्या अपेक्षाकृत कम होती है। प्रत्येक वृक्काणु की रचना को दो भागों में बांटा जाता है-
  1. केशिका गुच्छीय (Glomerular) 
  2. वृक्कीय नलिका (Renal tubule)
1. केशिका गुच्छीय - इसे मालपीजी का पिण्ड (Malpighian body) भी कहा जाता हैै। यह वृक्काणु का आरम्भिक भाग है जो गुच्छे के रूप में होता है। यह कप (प्याले) के समान रचना बनाकर रक्त निस्यन्दन (Filteration) की क्रिया में भाग लेता है। वृक्काणुओं का यह भाग चाय की छलनी के समान एक जालनुमा रचना का निमार्ण करता है। इस छलनीनुमा रचना से जब रक्त छनता है तब रक्त में उपस्थित जल एवं घुलनशील लवण (ग्लूकोज, यूरिया, एमनो अम्ल आदि) तो इनमें से छन जाते हैं जबकि बडे प्रोटीन के अणु इनमें से नहीें गुजर पाते है यह क्रिया केशिका गुच्छीय निस्यन्दन (Glomerular Filtration) कहलाती है। यह रक्त छानने का प्रथम चरण है, जिसमे रक्त से उपयोगी शर्करा एवं लवण आदि छन जाते है। इन छने हुए पदार्थो का वृक्क में पुन: अवशोषण किया जाता है।

2. वृक्कीय नलिका - यह वृक्काणु का ऐंठा हुआ कुण्डलाकार भाग होता है। यह भाग अग्रेंजी भाषा के अक्षर यू के आकार की रचना बनाता है। इस रचना को हेनले का लूप (loop of Henle) कहा जाता है। यहां वृक्काणु की एक भुजा पहले नीचे की ओर आती है तथा फिर उपर की ओर जाती है। वृक्कीय नलिका के इस भाग में गुच्छीय निस्यन्दन से छनकर आये द्रव से पुन: अवशोषण की क्रिया होती है, इस क्रिया के अन्तर्गत जल, ग्लूकोज, अमीनो अम्ल एवं शरीर के लिये उपयोगी खनिज लवणों का पुन: अवशोषण कर लिया जाता है। पुन: अवशोषण के उपरान्त ये उपयोगी पदार्थ पुन: रक्त में मिला दिये जाते हैं जबकि निस्यन्दन के परिणामस्वरुप उत्पन्न अंश को वृक्कीय श्रोणि में भेज दिया जाता है। यहां से यह मूत्र की संज्ञा ग्रहण कर लेता है। यह मूत्र वृक्कीय श्रोणि से मूत्रनलिका में एवं मूत्रनलिका से मूत्राशय में चला जाता है।

वृक्क की क्रियाविधि

वृक्कों में महाधमनी (Aorta) रक्त लेकर आती है तथा अनेकों शाखाओं मे विभाजित हो जाती है। ये शाखाएं पहले केशिका गुच्छीय के छलनीनुमा भाग से होकर गुजरती है। यहां पर रक्त को छानकर उससे अशुद्धिया अलग कर दी जाती है यह क्रिया गुच्छीय निस्यन्दन (Glomerular Filtration) कहलाती है। आगे पुन: वृक्क नलिका हेनले लूप से होकर निकलती है तथा यहां पर एक बार पुन: पूर्व में छने पदार्थो को छाना जाता है, यह क्रिया पुन: अवशोषण कहलाती है अर्थात वृक्कों में रक्त दो बार छनता है। इस प्रकार दो बार छानने के उपरान्त रक्त में स्थित यूरिया, अमोनिया, क्रिएटीन, सल्फेट, फास्फेट तथा अतिरिक्त शर्करा आदि पदार्थ अलग कर दिये जाते हैं। ये पदार्थ जल के साथ घुले हुये अर्थात द्रव अवस्था में होते है एवं वृक्क के वृक्कीय श्रोणि नामक भाग में इकठ्ठा कर दिये जाते है। यहाँ से ये पदार्थ मूत्र के रुप में मूत्र नली के द्वारा वृक्कों से बाहर निकलते हैं एवं मूत्राश्य नामक अंग में जाकर भर जाते है। इस प्रकार ये वृक्क प्रतिक्षण रक्त को छानने के कार्य में लगे रहते हैं। 

सामान्य परिस्थितियों में एक स्वस्थ मनुष्य के वृक्क प्रतिमिनट 125 उस की दर से छानते रहते हैं। रक्त छानने की इस दर पर देश, काल एवं परिस्थितियां अपना प्रभाव रखती है तथा यह दर घटती एवं बढती रहती है।

वृक्क के कार्य

वृक्क मानव शरीर के विशिष्ट आन्तरिक अंग होते हैं जो महत्वपूर्ण कार्य करते है।

1. रक्त को छानकर मूत्र निमार्ण करना -  वृक्क का सबसे मुख्य कार्य रक्त को छानकर रक्त में उपस्थित उत्सर्जित पदार्थों को अलग करना होता है। वृक्क इन वज्र्य पदार्थो को रक्त से छानकर जल में घोलकर मूत्र का निमार्ण करता हैै।मनुष्य के दोनों वृक्क प्रतिदिन ( 24 घन्टे ) 150 से 180 लीटर रक्त को छानकर रक्त में उपस्थित शरीर के लिये अनुपयोगी पदार्थो को मूत्र के रुप में अलग करने का कार्य करते हैं।

इस प्रकार एक मनुष्य प्रतिदिन 1 से 1.8 लीटर स्वच्छ , पारदश्र्ाी, हल्के पीले रंग के द्रव मूत्र का उत्सर्जन करता है। इस मूत्र का हल्का पीला रंग यूरेबिलिन नामक रंजक पदार्थ के कारण होता है। मूत्र में अपनी एक विशेष एरोमेटिक गन्ध होती है। मूत्र की पी0 एच0 5.0 से 8.0 के बीच होती है, यह पी0 एच0 ग्रहण किये आहार के अनुसार परिवर्तित होती रहती है। शाकाहारी एवं सात्विक आहार लेने वाले मनुष्यों का मूत्र उदासीन अथवा हल्का क्षारीय प्रकृति का जबकि मांसाहारी एवं मिर्च मसाले युक्त अम्लीय प्रकृति का आहार लेने वाले व्यक्तियों में मूत्र अम्लीय प्रकृति का होता है।

मूत्र में सबसे अधिक मात्रा में जल होता है जबकि शेश पदार्थो में कार्बनिक एवं अकार्बनिक पदार्थ होते हैं। मूत्र में उत्र्सजित होने वाले पदार्थों में सबसे प्रमुख घटक कार्बनिक पदार्थ यूरिया होता है। एक मनुष्य सामान्य अवस्था में प्रतिदिन शरीर से 300 से 400 मिग्राम यूरिया मूत्र के साथ उत्र्सजित करता है। शरीर से कम मात्रा में मूत्र का उत्सर्जन ओलाइगूरिया (Oliguria) कहलाता है जबकि शरीर से मूत्र का उत्सर्जन बिल्कुल बंद होना एनूरिया (Anuria )अथवा किडनी फैल(Renal Failure ) कहलता है। शरीर में बहुत अधिक मात्रा में मूत्र का स्रावण पोलीयूरिया (Polyuria) कहलाता है।

शरीर से साफ स्वच्छ, दुर्गन्धहीन एवं यथोचित मात्रा में मूत्र का स्रावण शारीरिक स्वास्थ्य को दर्शाता है जबकि इसके विपरित मूत्र के साथ शरीरोपयोगी शर्करा, लवणों, धातुओं एवं रक्त आदि का आना शरीर में रोग की ओर सकेंत करता है। शरीर से उत्सर्जित मूत्र परिक्षण के आधार पर शरीर की विभिन्न अवस्थाओं एवं रोगों की पहचान की जा सकती है। इनमें से कुछ अवस्थाओं का वर्णन इस प्रकार है -
  1. मूत्र के साथ अधिक मात्रा में रक्त शर्करा (ग्लूकोज) का आना मधुमेह रोग का सूचक है।
  2. मूत्र के साथ अधिक मात्रा में प्रोटीन का आना धातुक्षय अथवा एल्बूमिनेरिया रोग का सूचक है। 
  3. मूत्र के साथ अधिक मात्रा में पित्त का आना पीलिया रोग का सूचक है। 
  4. मूत्र में अधिक मात्रा में रक्त कणों (श्वेत रक्त कणों व लाल रक्त कणों ) की उपस्थिति शरीर में संक्रमण रोग की सूचना देती है। 
  5. मूत्र में अधिक मात्रा में एसीटोन का आना अधिक समय तक भोजन नही करने का सूचक है। 
  6. मूत्र के साथ जीवाणुओं का आना शरीर में संक्रामक रोगों को दर्शाता है। 
  7. जब शरीर में स्थित जीवाणु वृक्कों को संक्रमित कर देते हैं तब वृक्कों में भयंकर वेदना एवं जलन होती है। वृक्कों की यह अवस्था वृक्क प्रदाह नामक रोग के नाम से जानी जाती है, इस अवस्था में वृक्कों में शोथ उत्पन्न हो जाता है। 
  8. जब वृक्क कैल्सियम के सल्फेट, क्लोराइड एवं फास्फेटों को रक्त से छानकर अलग तो कर देते हैं किन्तु उन्हे मूत्र के साथ उत्सर्जित नही कर पाते तब ये अकार्बनिक पर्दाथ वृक्क में ही इकठ्ठा होकर एक पथरी के समान रचना बना लेते हैं, इसे वृक्क की पथरी कहा जाता है। 
  9. जब वृक्क भलि-भांति रक्त में उपस्थित यूरिया को उत्सर्जित नही कर पाते तब रक्त में यूिरेक एसिड की मात्रा बढनें लगती है। यह यूरिक एसिड शरीर के जोडों में एकत्र होकर जोडों का दर्द एवं सूजन गठिया रोग कहलाता है। 
  10. अत्यधिक तनाव की अवस्था में वृक्कों का पूर्णतया निश्क्रिय हो जाना किडनी फैल कहलाता है। 
2. जल सन्तुलन करना  - वृृृक्कों का दूसरा प्रमुख कार्य शरीर में जल की मात्रा को सन्तुलित करना होता है। इसी कारण अधिक जल का सेवन करने पर मूत्र की मात्रा बढ जाती हैं एवं मूत्र का आयतन भी बढ जाता है। इसके विपरीत कम मात्रा में जल का सेवन करने पर अथवा पसीना अधिक निकलने पर मूत्र की मात्रा घट जाती है, तात्पर्य यह कि वृक्क शरीर में जल की मात्रा को सन्तुलित करने का कार्य करते हैं।

3. अम्ल क्षार सन्तुलन बनाए रखना - वृक्क शरीर में अम्ल क्षार सन्तुलन बनाने का कार्य करते हैं। अधिक मात्रा में अम्लीय पदार्थो को ग्रहण करने पर अनावश्यक तत्वों को वृक्क मूत्र के रुप में शरीर से उत्सर्जित कर देते हैं जबकि क्षारीय शरीर तत्वों की अधिकता होने पर इन तत्वों को रक्त से छानकर वृक्क मूत्र के साथ उत्सर्जित कर देते हैं।

4. रक्त शर्करा का नियन्त्रण - रक्त शर्करा (ग्लूकोज) का नियन्त्रण करने में वृृक्क महत्वपूर्णता से भाग लेते हैं। रक्त में 80-120 मिलीग्राम प्रति 100उस रक्त शर्करा उपस्थित होती है। वृक्क से जब रक्त निस्यन्दन (filtration) की क्रिया होती है तब इस शर्करा को छानकर पुन: अवशोशित कर लिया जाता है तथा रक्त में यह मात्रा स्थिर रखी जाती है। रक्त में शर्करा की यह मात्रा अधिक बढने पर वृक्क अतिरिक्त मात्रा की शर्करा को मूत्र के साथ उत्सर्जित करते हुए रक्त में शर्करा की मात्रा को नियन्त्रित करने का कार्य करते हैं।

5. यूरिया का नियन्त्रण - एक स्वस्थ मनुष्य के 100उस रक्त में 20-40 मिलीग्राम यूरिया पाया जाता है। यूरिया की यह मात्रा वृक्कों द्वारा नियन्त्रित की जाती है। इसी कारण वृक्कों की क्रियाशीलता कम होने पर रक्त में यूरिया (यूरिक एसिड) की मात्रा बढ जाती है, इसके परिणाम स्वरुप जोडों में दर्द एवं सूजन आदि लक्षण प्रकट होते हैं।

6. सोडियम एवं कैल्सियम का नियन्त्रण - वृक्क रक्त में सोडियम एवं कैल्सियम आदि शरीरोपयोगी खनिज लवणों के स्तर को नियन्त्रित करने का कार्य करते हैं। वृक्क इन लवणों की अतिरिक्त मात्रा को मूत्र के साथ उत्सर्जित करते हुए रक्त में इनकी मात्रा स्थिर रखते हैं। छ-रक्त दाब नियन्त्रण: एक स्वस्थ मनुष्य का रक्त रक्तवाहिनियों में 80-120mm of Hg के दबाव से बहता है जिसे रक्त दाब कहा जाता है। इस रक्त दाब को नियन्त्रित करने में भी वृक्क भाग लेते हैं।

वृक्कों को प्रभावित करने वाले कारक

वृक्क प्रतिक्षण क्रियाशील बने रहते हुए मूत्र निमार्ण की क्रिया में लगे रहते है। इन वृक्कों की कार्य क्षमता एवं क्रियाशीलता पर कुछ  कारक सीधा प्रभाव डालते हैं-

1. जल की मात्रा - शरीर मे ग्रहण की गई जल की मात्रा वृक्कों में मूत्र निमार्ण की क्रिया को प्रभावित करती है। अधिक मात्रा में जल सेवन करने पर मूत्र निमार्ण की क्रिया बढ जाती है जबकि कम मात्रा में जल का सेवन करने पर मूत्र की मात्रा कम हो जाती है। इसी कारण शरीर में अशुद्वियों की मात्रा बढने पर अधिक मात्रा में जल का सेवन करना चाहियें। इससे वृक्क अधिक क्रियाशील होकर मूत्र के रुप में इन अशुद्वियों को बाहर निकाल देते हैं। 

2. वातावरण - गर्मी के दिनों में अधिक मा़त्रा में पसीने के उत्पन होने के कारण ातारक्त में उपस्थित अशुद्विया पसीने के रुप में बाहर निकल जाती है तथा वृक्कों का कम हो जाता है। इससे मू़त्र की मात्रा कम हो जाती है जबकि सर्दी के दिनों में पसीने की मात्रा कम होने पर मूत्र की मात्रा बढ जाती है ।

2. उत्तेजक पदार्थ - उत्तेजक पदार्थ जैसे चाय, काफी, एल्कोहल व दवाइयो के सेवन करने से वृक्क में स्थित वृक्काणु उत्तेजित हो जाते हैं जिससे मूत्र निमार्ण की क्रिया ती्रव हो जाती है तथा अधिक मात्रा में मूत्र का उत्पादन एवं उत्र्सजन होता है ।

4. शामक पदार्थ - निकोटिन युक्त पदार्थ जैसे तम्बाकू, गुटका ,धुम्रपान आदि का सेवन वृक्कों में स्थित वृक्काणुओं की क्रिया शीलता को कम कर देता है जिससे मूत्र की कम मात्रा उत्सर्जित होती है ।

5. अन्त:स्रावी हार्मोन्स - वृक्कों पर पिटयूटरी ग्रन्थि एवं अधिवृृक्क ग्रथियों से उत्पन होने वाले हार्मोन्स का प्रभाव पडता है । अधिवृक्क ग्रन्थि से उत्पन्न रैनिन नामक हार्मोन वृक्कों की क्रियाशीलता को बढाकर मूत्र उत्पादन की क्रिया को त्रीव करता है।

6. मनोस्थिति :मन की दशाओं जैसे क्रोध ,भय, तनाव एवं हिंसक वृत्ति आदि का प्रभाव वृक्कों की क्रिया शीलता पर पडता है। इन अवस्थाओं में मूत्र निर्माण की क्रिया त्रीव हो जाती है तथा अधिक मात्रा में मूत्र उत्सर्जित होता है।

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