अहिंसा का अर्थ, परिभाषा, प्रकार, आवश्यकता

शाब्दिक रूप से अहिंसा शब्द अ+हिंसा के योग से बना है। अत: अहिंसा का शाब्दिक या सामान्य अर्थ है- जो हिंसा न हो। इस प्रकार किसी की हत्या न करना या किसी प्राणी को कष्ट न पहुंचाना अहिंसा है, जबकि हिंसा का अर्थ इसके ठीक विपरीत यानी किसी की हत्या करना या किसी प्राणी को कष्ट पहुंचाना है। हिंसा में ‘अ’ उपसर्ग के जोड़ देने से इसका अर्थ बिल्कुल बदल जाता है। सामान्य अर्थ में हिंसा किसी भी जीव के प्राण हरण या उसे किसी प्रकार का कष्ट देना है। किन्तु, इस अर्थ में पूर्ण अहिंसा प्राय: असंभव ही है, क्योंकि हमारा जीवन ही किसी न किसी रूप में हिंसा पर आधारित है। 

व्यापक अर्थ में अहिंसा को किसी भी प्राणी को तन, मन, कर्म, वचन और वाणी से नुकसान नहीं पहुंचाने के अर्थ में देखा जाता है। मन में किसी का अहित न सोचना, किसी को कटुवाणी से नुकसान न पहुंचाना तथा कर्म से भी किसी भी प्राणी की हिंसा न करना, यह अहिंसा है।

अहिंसा के प्रकार

मुख्य रूप से अहिंसा के दो प्रकार होते है-
  1. निषेधात्मक तथा 
  2. विधेयात्मक। 
निषेध का अर्थ होता है किसी चीज को रोकना, न होने देना। अत: निषेधात्मक अहिंसा का अर्थ होता है किसी भी प्राणी के प्राणघात का न होना या किसी भी प्राणी को किसी प्रकार का कष्ट न देना। अहिंसा का निषेधात्मक रूप ही अक्तिाक लोगों के ध्यान में आता है किन्तु अहिंसा केवल कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं को न करने में ही नहीं होती है, अपितु कुछ विशेष प्रकार की क्रियाओं के करने में भी होती है, जैसे-दया, करुणा, मैत्री, सहायता, सेवा, क्षमा करना आदि। यही सब क्रिया विधेयात्मक अहिंसा कहलाती है।

अहिंसा के रूप

अहिंसा के दो रूप मुख्यत: स्वीकार किये गये है-भाव अहिंसा यानि मन में हिंसा न करने की भावना का जाग्रत होना। द्रव्य अहिंसा यानि मन में आये हुए अहिंसा के भाव को क्रियारूप देना अर्थात् उसका वचन और काय से पालन करना, जैसे-हिंसा न करने का संकल्प करने वाला वास्तव में जिस दिन से संकल्प करता है, उस दिन से किसी भी प्राणी की हिंसा न करता है, न कराता है और न करने वाले का अनुमोदन ही करता है। 

अहिंसा की आवश्यकता

अहिंसा तो सदैव आवश्यक है, पर जब हिंसा का वातावरण हो तो वह और अधिक आवश्यक हो जाती है। हिंसा जितनी अधिक होगी, अहिंसा की आवश्यकता भी उतनी अधिक होगी। जब मानव जाति हिंसा की चरम सीमा तक पहुँच चुकी है, ऐसे समय में अहिंसा ही उसकी सुरक्षा का एकमात्र उपाय है। यदि मानव को महाविनाश में विलीन नहीं होना है तो अहिंसा के चिन्तन और व्यवहार का उसे पुन: व्यवहार करना होगा। आज अत्यन्त आवश्यक है मानव के कल्याण में आस्था और अहिंसा के प्रयत्नों के विकास की। 

गाँधीजी ने कहा है, ‘सारा समाज अहिंसा पर उसी प्रकार कायम है, जिस प्रकार कि गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी अपनी स्थिति में बनी हुई है।’ समाज में पग-पग पर अहिंसा की आवश्यकता है। यह एक ऐसा साधन है जो बड़े से बड़े साध्य को सिद्ध कर सकता है। अहिंसा ही एक ऐसा शस्त्र है, जिसके द्वारा बिना बूंद रक्त बहाये वर्गहीन समाज का आदर्श प्रस्तुत किया जा सकता है क्योंकि अहिंसा का लक्ष्य यही है कि वर्गभेद या जाति भेद के ऊपर उठकर समाज का प्रत्येक सदस्य अन्य के साथ शिष्टता और मानवता का व्यवहार करे। 

अहिंसा में ऐसी अद्भुत शक्ति है, जिसके द्वारा आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक समस्याओं को सरलता पूर्वक समाहित किया जा सकता है। अहिंसा के आधार पर सहयोग और सहभागिता की भावना स्थापित करने से समाज को बल मिलता है। मानव हृदय की आंतरिक संवेदना की व्यापक प्रगति ही परिवार, समाज और राष्ट्र के उद्भव एवं विकास का मूल है।

जिस बुद्धि ने अणु की सूक्ष्म शक्ति का विघटन किया है, वही बुद्धि अहिंसा की जीवन शक्ति का मार्ग समझने की शक्ति रखती है। मानव के कल्याण में आस्था रखनी चाहिए और उन्मुक्त हृदय से अहिंसा के प्रयत्नों का हृदय से स्वागत करना चाहिए। हिंसा में सर्वत्र मृत्यु है। अहिंसा में जीवन का वेग जन्म लेता है। हिंसा भय का मूल है। अहिंसा अभय का मुख्य द्वार उद्घाटित करती है। हिंसा निर्बल का क्षोभ है और अहिंसा बली की धीर वृत्ति है, जिसके आदि, अन्त और मध्य में शान्ति, प्रेम और कैवल्य का अमृत भरा है। बिना अहिंसा के समाज (तथा प्राणी मात्र) रह ही नहीं सकता। यहाँ तक कि सेना आदि हिंसक संगठनों को भी अहिंसा का आसरा लेना पड़ता है। अस्तु, समाज को जीवित रहने, विकास करने और विनाश से बचने के लिए अहिंसा की आवश्यकता है।

आदमी को जीवन के लिए ही अहिंसा की आवश्यकता है। वह सुख-शांति चाहता है और इसके वास्ते उत्पादन और निर्माण-कार्य करना होता है, यह कार्य भी अहिंसा बिना नहीं हो सकता, इसलिए भी अहिंसा आवश्यक है। ‘मानवता का मूलभूत आधार अहिंसा है-प्राणी मात्र की स्वाभाविक प्रवृत्ति अहिंसामय है। अतएव दैनिक जीवन में अहिंसा की व्यावहारिक आवश्यकता स्वत: सिद्ध है। किन्तु व्यावहारिक जीवन में शक्ति का भी अपना स्थान है। शक्ति के बिना जीवन पंगु है। परन्तु वह शक्ति पशुबल की नहीं होनी चाहिए क्योंकि पशु-बल संहारक और घातक है। इसके विपरीत अहिंसा की शक्ति महान है। 

अहिंसा-शक्ति से संहार और विनाश नहीं होता, बल्कि उससे निर्माण होता है और उत्पादन बढ़ता है, जिसके परिणाम-स्वरूप लोक में सुख-शांति बढ़ती है। मानव की जो शक्ति विनाश के उपायों में खर्च होती है, वही मानवता के जागृत होने पर निर्माण के कार्यों में व्यय होती है। अहिंसा-संस्कृति की यही सबसे बड़ी सफलता है।

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