प्राण चिकित्सा क्या है प्राण चिकित्सा की सावधानियॉ

प्राण चिकित्सा के अन्तर्गत उपचारक अपने हाथों के माध्यम से ब्रह्माण्डीय प्राणऊर्जा को ग्रहण करके हाथों द्वारा ही रोगी व्यक्ति में प्रक्षेपित करता हैं। इस प्रकार इस चिकित्सा पद्धति में चिकित्सक रोगी की प्राणशक्ति को प्रभावित करके उसे स्वास्थ्यलाभ प्रदान करता है।

प्राण चिकित्सा के द्वारा न केवल दूसरों का वरन् स्वयं का भी उपचार किया जा सकता है। इस प्रकार यह पद्धति स्वयं के लिये और दूसरों के लिये समान रूप से उपयोगी हैं। प्राण चिकित्सा को अनेक नामों से जाना जाता है। जैसे औषधि धिवगांग, अतिभौतिक उपचार, मानसिक उपचार, हाथ का स्पर्श, चिकित्सकीय छुअन, चुम्बकीय उपचार, विश्वास उपचार, चमत्कारी उपचार, ओज उपचार आदि।

अपने अनेक बार अनुभव किया होगा कि जो लोग अत्यधिक प्राणवान् होते हैं, उनके आसपास रहने वाले लोग भी उनके सान्निध्य में स्वयं को ऊर्जावान एवं अच्छा महसूस करते हैं क्योंकि जिनमें प्राणऊर्जा की कमी होती है, वे अनायास ही अधिक उर्जा वाले व्यक्ति से जीवनीशक्ति ग्रहण करते हैं। इसलिये कमजोर एवं निर्बल प्राणशक्ति वाले के ही स्वयं को अत्यधिक थका हुआ अनुभव करते हैं। इस प्रकार स्पष्ट है कि प्राणशक्ति अधिक से कम की ओर स्थान्तरित होती है और प्राण चिकित्सा में उपचारक प्रयासपूर्वक इस जीवनीशक्ति को रोगी में प्रक्षेपित करते हैं। न केवल इंसान वरन् कुछ पेड़-पौधे भी ऐसे हैं, जो अन्य पौधों की तुलना में अधिक प्राणऊर्जा छोड़ते है और इनके पीछे बैठने या लेटने पर हम स्वयं को अत्यधिक प्राणवान् अनुभव करते हैं। 

इस दृष्टि से पीपल का वृक्ष अत्यन्त उपयोगी है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ‘‘वृक्षों में मैं पीपल हूँ।’’ पीपल के पेड़ को अत्यधिक चैतन्य माना जाता है और यह एक ऐसा पेड़ है जो दिन एवं रात दोनों समय ऑक्सीजन छोड़ता है। इसलिये भारतीय संस्कृति में आध्यात्मिक दृष्टि से भी पीपल के वृक्ष का अत्यन्त महत्व है और इसकी पूजा की जाती है। प्राणियों एवं वनस्पतियों के समान कुछ स्थानविशेष भी अन्य स्थानों की अपेक्षा अधिक प्राणशक्ति से युक्त होते हैं। जैसे-मंदिर, चर्च, तीर्थस्थल में जाकर हमें अत्यधिक शांति महसूस होती है। यह सब प्राणऊर्जा का ही कमाल है।

प्राण चिकित्सा के सिद्धांत

प्राण चिकित्सा दो सिद्धान्तों पर आधारित है- 
  1. रोग से स्वमुक्ति का सिद्धांत
  2. प्राणउर्जा या जीवनीशक्ति का सिद्धांत।
1. रोग से स्वमुक्ति का सिद्धांत- प्राणचिकित्सा का पहला सिद्धान्त ‘‘रोग से स्वमुक्ति’’ का सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त का आशय यह है कि हमारे शरीर में स्व-उपचार की क्षमता होती है। शरीर में जब किसी भी प्रकार की विकृति उत्पन्न हो जाती है तो शरीर स्वयं इसे ठीक करता है।

आपने देखा होगा कि जब किसी व्यक्ति की हड्डी टूट जाती है तो कुछ समय के बाद वह स्वत: जुड़ जाती है। प्लास्टर तो उसे जुड़ने में केवल सहयोग देता है, किन्तु हड्डी को जोड़ने का कार्य शरीर स्वयं करता है। इसी प्रकार जुकाम या बुखार अथवा खाँसी होने पर चाहे हम दवा लें अथवा ना ले कुछ दिनों बाद ये स्वयं ही ठीक हो जाते हैं। ये सभी तथ्य शरीर की स्वउपचार की क्षमता को सिद्ध करते हैं।

जिस प्रकार रसायन विज्ञान में रासायनिक क्रियाओं की गति को बढ़ाने के लिये विद्युत उर्जा का उपयोग उत्प्रेरक (केटेलिस्ट) के रूप में किया जाता है, उसी प्रकार प्राण चिकित्सा में प्राण उर्जा उत्प्रेरक के रूप में उन जीव रासायनिक प्रतिक्रियाओं की गति को तीव्र कर देती है जो शरीर की स्वयं चिकित्सा से संबंधित है। प्राण चिकित्सा के द्वारा सम्पूर्ण शरीर या प्रभावित अंग विशेष को उर्जा देने पर उसके उपचार की गति अत्यन्त तीव्र हो जाती है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि विभिन्न चिकित्सा पद्धतियाँ शरीर की स्वयं उपचार की गति को बढ़ाने में सहायक बनती है, लेकिन रोग को ठीक करने की सामथ्र्य शरीर में स्वयं में है।
 
2. प्राण उर्जा या जीवनीशक्ति का सिद्धांत- यह प्राण चिकित्सा का दूसरा प्रमुख सिद्धान्त है, जिसके अनुसार जीवित रहने के लिये हमारे शरीर में प्राणशक्ति का होना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिये पाठकों, आपने सुना होगा कि जब व्यक्ति मर जाता है तो कहा जाता है कि अमुक व्यक्ति के प्राण निकल गये। इस प्रकार स्पष्ट है कि जीवन को बनाये रखने के लिये जीवनीशक्ति का होना अनिवार्य है। इस प्रकार रोग से स्वमुक्ति तथा प्राणउर्जा इन दो सिद्धान्तों पर प्राणचिकित्सा आधारित है।

प्राण चिकित्सा का स्वरूप

प्राण चिकित्सा के अर्थ एवं सिद्धान्तों का अध्ययन करने के बाद हमारे अध्ययन का अगला बिन्दु है- प्राण का स्वरूप। प्राण हमारे जीवन का सार तत्व है और हमारी प्रगति का मूल आधार है। समृद्धि का स्रोत यही प्राण तत्व है। यह प्राण तत्व हमारे अन्दर प्रचुर मात्रा में है। यदि हम अपने भीतर इस प्राण का चुम्बकत्व बढ़ा दें तो ब्रह्माण्डीय प्राण या विश्वप्राण को अभीष्ट मात्रा में धारण कर सकते हैं। मानवीकाय में निहित इस प्राणउर्जा के भण्डार को ‘‘प्राणमयकोश’’ कहा जाता है। सामान्यत: हमारी यह प्राणऊर्जा प्रसुप्त स्थिति में रहती है तथा इससे शरीर के निर्वाह भर के कार्य ही सम्पन्न हो पाते है किन्तु साधना के माध्यम से इस प्रसुप्त प्राण का जागरण संभव है।

‘‘प्राण’’ शब्द प्र उपसर्ग पूर्वक अन् धातु से बना है और अन् धातु जीवनीशक्ति का प्रतीक या चेतनावाचक है। इस प्रकार प्राण से तात्पर्य ‘‘जीवनीशक्ति’’ से है।

इस प्रकार विश्वव्यापी प्राण एक महान् तत्व है, जो संसार के समस्त जड़-चेतन पदार्थों में भिन्न-भिन्न मात्रा में पाया जाता है। हमारे शरीर में बहने वाला विद्युत प्रवाह इसी प्राण तत्व का अंश है। जो प्राणी इस प्राण तत्व को समुचित मात्रा में धारण कर लेता है, वह संकल्प बल से युक्त प्रसन्न उत्साहित रहता है और जो इस शक्ति का समुचित मात्रा में ग्रहण नहीं कर पाता है, वह उदास, निराश, निस्तेज देखा जाता है। मनुष्य ने सृष्टि के प्रारंभ में ही इस बात का पता लगा लिया था कि मानवीय प्राण में एक प्रबल रोग निवारक शक्ति होती है। पाठकों, आपने देखा होगा कि जब बच्चा रो रहा हो और उसे गोद में ले लिया जाये तो उसका रोना बंद हो जाता है, क्योंकि उसकी पीड़ा चाहे वह किसी भी प्रकार की क्यों न हो, उसको गोद में उठाने वाले व्यक्ति की प्राण उर्जा का सम्पर्क पाकर कम हो जाती है। रोगी व्यक्ति के मस्तक पर जब हाथ फेरा जाये तो उसे अच्दा अनुभव होता है। इसके पीछे यह वैज्ञानिक कारण है कि एक व्यक्ति की प्राण उर्जा दूसरे व्यक्ति में जो कमजोर या बीमार है, उसमें प्रविष्ट होकर उसे प्रसन्नता एवं आनन्द प्रदान करती है।

हमारे शरीर में यह प्राण नाड़ियों में प्रवाहित होता है, किन्तु दूसरे व्यक्ति या प्राणी तक हम इस प्राण उर्जा को नाड़ियों के बिना भी प्रेषित कर सकते हैं हमारे मस्तिष्क से प्रतिक्षण विचार निकलते रहते हैं और आकाश में निरन्तर गति करते रहते हैं। यदि इन विचारों को प्राणशक्ति का बल मिल जाये तो ये विचार उत्पन्न शक्तिशाली बनकर कार्यरूप में परिणत होने लगते हैं। अत: प्राणचिकित्सक उपचार करते समय मानसिक रूप से रोगी के स्वस्थ होने की भावना भी करता है, क्योंकि इसके बिना मार्जन एवं उत्सर्जन की क्रिया पूरी तरह सफल नहीं हो पायेगी।

विद्यार्थियों, प्राणउर्जा कोई काल्पनिक विचार नहीं है। इस सन्दर्भ में वैज्ञानिकों ने गहन अनुसंधान किये है। कोलकत्ता के सर्जन डॉक्टर एसलेड ने सन् 1842 में अपनी प्राणउर्जा से रोगियों के सम्पूर्ण मस्तिष्क अथवा स्थान विशेष को चेतना शून्य करके अनेक सपफल ऑपरेशन किये थे तथा रोगियों को इस बात का पता ही नहीं चला कि उनका ऑपरेशन कब हुआ। उस समय सुँघाकर बेहोश करने की दवा क्लोरोफोर्य का आविष्कार तक नहीं हुआ था। इसी प्रकार लन्दन में डॉक्टर ईलिट द्वारा भी अनेक ऑपरेशन किये गये।

हम अपनी इच्छाशक्ति का प्रयोग करके इस प्राणऊर्जा द्वारा अद्भुत कार्य कर सकते हैं। जिस प्रकार आतिशी शीशे द्वारा जब सूर्य की किरणों को एक जगह इकट्ठा किया जाता है, तो उर्जा के केन्द्रीकरण के कारण वहाँ अग्नि जल उठती है, इसी प्रकार प्राणचिकित्सा में, जब उपचारक द्वारा प्राणउर्जा को रोगी के अंगविशेष पर जब प्रक्षेपित किया जाता है तो इसके आश्चर्यजनक परिणाम आते हैं, और उसका रोग ठीक होने लगता है।

कुछ डॉक्टर यह मानते हैं कि प्राणउर्जा केवल मस्तिष्क में ही रहती है, किन्तु उनकी यह मान्यता ठीक नहीं है। प्राण उर्जा तो हमारे सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होती है। इस संबंध में डॉक्टर अल्बर्ट का मत है कि ‘‘मस्तिष्क केवल तर्क और बुद्धि का स्थान है। अन्य शक्तियाँ इस स्थान में नहीं रहती।’’ हमारे प्रत्येक कार्य केवल बुद्धि या तर्क के बल पर नहीं किये जा सकते है। प्रो. इनजेलो के अनुसार ‘‘निद्रावस्था में मनुष्य का दिमाग सोता रहता है और प्राण तत्त्व द्वारा शरीर की रक्षा होती रहती है।’’

वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसमें छोटे जानवरों का मस्तिष्क निकाल देने के बावजूद वे पहले की तरह ही सब कार्य करते रहते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्राणशक्ति केवल मस्तिष्क में ही नहीं वरन् सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहती है।

प्राण चिकित्सा के स्रोत

प्राण चिकित्सा के अनुसार प्राण के तीन मुख्य स्रोत बताये गये हैं- 
  1. सौर प्राणशक्ति
  2.  वायु प्राणशक्ति 
  3. भू या भूमिप्राणशक्ति
1. सौर प्राणशक्ति - सूर्य से प्राप्त होने वाली उर्जा को ‘‘सौरप्राणशक्ति’’ कहा जाता है। सूर्य प्राणउर्जा का अक्षय स्रोत है। इसे जगत् की आत्मा कहा जाता है। सूर्य के प्राणीमात्र में नवजीवन का संचार होता है। सूर्य से प्राणशक्ति प्राप्त करने के अनेक तरीके हैं। जैसे सूर्य या धूप स्नान, धूप में रखे हुये पानी या तेल का प्रयोग करके इत्यादि। धूप स्नान लेते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि प्रात: कालीन सूर्य की रोशनी ही हमारे लिये स्वास्थ्यवर्द्धक होती है। अत्यधिक तेज धूप में लम्बे समय तक खड़े रहने पर हमारे शरीर को हानि पहुँचा सकता है।

2. वायु प्राणशक्ति - वायुमंडल में पाये जाने वाली उर्जा को वायुप्राणशक्ति या प्राणवायु कहते हैं। वायुप्राण को ग्रहण करने का सर्वाधिक सशक्त माध्यम श्वसन क्रिया है। श्वसन क्रिया के द्वारा हम अधिकतम प्राण उर्जा को ग्रहण कर सकें इस हेतु हमारी श्वास-प्रश्वास दीर्घ हो, उथली नहीं। अत: प्राणायाम के द्वारा हम सहजतापूर्वक वायुप्राणशक्ति को ग्रहण कर सकते हैं। विशेष प्रकार का प्रशिक्षण प्राप्त व्यक्ति वायु पा्रण को त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों के द्वारा भी ग्रहण कर सकते हैं।

3. भू प्राणशक्ति - पृथ्वी या भूमि में पायी जाने वाली प्राणशक्ति को भू प्राणशक्ति कहते है। भूमि के माध्यम से हम निरन्तर भप्राणशक्ति को ग्रहण करते रहते हैं। यह प्रक्रिया स्वत: ही होती रहती है। भू प्राण को हम पैर के तलुवों के माध्यम से प्राप्त करते हैं। नंगे पैर भूमि पर चलने से भू प्राणउर्जा की मात्रा में वृद्धि होती है। इस प्रकार आप जान गये होंगे की सूर्य, वायुमंडल और भूमि-प्राणशक्ति के ये तीन मुख्य स्रोत हैं।

प्राण चिकित्सा की विधि

प्राणशक्ति उपचार या प्राणचिकित्सा अपने आप में कोई नयी चिकित्सा प्रणाली नहीं है, वरन् हमारे ऋषि-मुनियों, योगियों, महापुरुषों के वरदानों-ेआशीर्वादों के रूप में अत्यन्त प्राचीकाल से चली आ रही है।

प्राण चिकित्सा में सभी रोगों का मूल कारण एक ही माना जाता है और वह है-प्राणऊर्जा का असंतुलित होना। इसलिये सभी रोगों के इलाज की पद्धति भी एक ही है। प्राण चिकित्सा की सभी प्रक्रियायें मूलत: मार्जन एवं उर्जन की दो आधारभूत विधियों पर आधारित है। दूषित प्राण को शरीर से बाहर निकालना अर्थात् मार्जन या सफाई करना और स्वस्थप्राण ऊर्जा को रोगी के शरीर में प्रवेश करना अर्थात उत्र्जन।

इस प्रकार प्राणचिकित्सा में हर रोग की दवा अलग-अलग नहीं है, वरन् रोग का निदान करना अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है अर्थात रोग शरीर के किस भाग में है? रोग की स्थिति क्या है? रोग शरीर में क्या विकृति उत्पन्न कर रहा है? इन सभी बातों को ध्यान में रखकर रोग का सफल निदान करने के बाद उपचार प्रारंभ करना चाहिये। उपचारक को इलाज करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब रोग शरीर में प्रवेश करता है तो उसकी गति बाहर से भीतर की और एवं नीचे से ऊपर की ओर रहती है, लेकिन रोग जब ठीक होने की स्थिति में होता है तो उसकी गति बदल जाती है अर्थात् उसकी गति भीतर से बाहर की ओर एवं ऊपर से नीचे की ओर हो जाती है। अत: रोग की गति की दिशा के आधार पर हम यह आसानी से पता लगा सकते है कि इस समय रोग का प्रकोप हो रहा है या रोग ठीक हो रहा है।

मास्टर चोआ कोक्सुई ने प्रारंभिक प्राण चिकित्सा की सात मूल पद्धतियाँ बतायी हैं, जिनके आधार पर प्राणचिकित्सा दी जाती हैं। ये सात पद्धतियाँ हैं-
  1. हाथों को संवेदनशील बनाना 
  2. जाँच प्रक्रिया 
  3. सफाई या झाड़-बुहार : सामान्य एवं स्थानीय 
  4. रोगी की ग्रहणशीलता को बढ़ाना 
  5. प्राणशक्तिद्वारा उर्जित करना : हाथ चक्र पद्धति 
    1. प्राणशक्ति को एकत्रित करना 
    2. प्राणशक्ति का प्रक्षेपण
  6. प्रक्षेपित प्राणशक्ति को स्थिर करना। 
  7. प्रक्षेपित प्राणशक्ति को मुक्त करना।
1. हाथों को संवेदनशील बनाना- प्राण चिकित्सा की पूरी प्रक्रिया में हाथों की संवेदनशीलता का अत्यधिक महत्व है, क्योंकि इसमें उपचारक हाथों के माध्यम से ही रोग का निदान, शरीर का मार्जन एवं उर्जा का प्रक्षेपण करता है। इसलिये उपचारक के हाथों का संवेदनशीलता होना अत्यावश्यक है। मास्टर चोआ कोक् सुई ने हाथों की संवेदनशीलता को बढ़ाने के लिये अनेक व्यायाम बताये हैं, जो है-
  1. रीढ़ का व्यायाम- अपनी बांहों को सामने की ओर उठाते हुये रीढ़ की हड्डी को बाँये-दाँये मोड़ना। ऐसा लगभग 10 बार करना चाहिये।
  2. कुल्हे का व्यायाम- कूल्हे को बाँये-दाँये 10 बार घुमाना।
  3. गर्दन का व्यायाम- गर्दन का 10-10 बार बाँये और दाँये घुमाना। ध्यान दें यह अभ्यास उन व्यक्तियों को नहीं करना चाहिये, जिनकी कैरोटिड धमनियाँ अवरूद्ध हैं।
  4. कंधों का व्यायाम- अपने कंधों को 10-10 बार सामने और पीछे की ओर घुमाना।
  5. कोहनी एवं मुटठी का व्यायाम- मुट्ठी को बन्द करते हुये कोहनी को अपनी ओर मोड़ना और फिर मुट्ठी खोलते हुये कोहनी को आगे की ओर झटकना। इस अभ्यास को भी 10 बार करना चाहिये।
  6. कलाई का व्यायाम- अपनी बाँहों को बगल की ओर से ऊँचा उठाते हुये कलाइयों को 10 बार घड़ी की सुई की दिशा में और 10 बार विपरीत दिशा में घुमाना चाहिये।
इस प्रकार हाथों को संवेदनशील बनाने के लिये कुछ समय तक लगातार उपर्युक्त व्यायाम करने चाहिये।
हाथों को संवेदनशील बनाने की विधि- पाठकों, प्राण चिकित्सा में हाथों को संवेदनशील बनाने की विधि बतायी गयी है-
  1. सर्वप्रथम उपचारक को जीभ को तालू पर लगाना चाहिये।
  2. इसके उपरान्त अंगूठों द्वारा हथेलियों के मध्यभाग को दबाना चाहिये। ऐसा करने से हथेलियों के मध्यभाग के चक्र क्रियाशील होने लगते हैं और मध्यभाग में एकाग्रता बनाना आसान हो जाता है। 
  3. अब तनावमुक्त रहते हुये अपने दोनों हाथों को परस्पर सामने लगभग 3 इंच की दूरी पर रखना चाहिये।
  4. इसके बाद लगभग 5-10 मिनट तक अपना ध्यान हथेलियों के मध्यभाग पर केंद्रित करना चाहिये। लयबद्ध दीर्घ श्वास-प्रश्वास करना चाहिये। ऐसा करने पर हथेलियों के बीच वाले भाग में गर्मी, एक प्रकार की झुनझुनी, कंपन या दबाव महसूस होने लगता है। यह हाथों के संवेदनशील होने का संकेत है।
  5. हाथों की संवेदनशीलता के लिये लगभग एक महीने की अवधि तक इस प्रकार का अभ्यास करना चाहिये।
ऐसा भी संभव है कि पहले अभ्यास में किसी को अपने हाथ में कुछ भी महसूस न हों, किन्तु इससे निराश नहीं होना चाहिये और अपना अभ्यास लगातार जारी रखना चाहिये। लम्बे समय तक निरन्तर अभ्यास करने पर निश्चित रूप से हाथ संवेदनशील होने लगते हैं। हाथों के संवेदनशील होने के बाद ही जाँचने का कार्य प्रारंभ करना चाहिये।

2. जाँच प्रक्रिया- हाथों को संवेदनशील बनाने के बाद जाँचने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। रोग के ठीक निदान के लिये आन्तरिक आभा के साथ-साथ बाहरी आभा एवं स्वास्थ्य आभा की जाँच करना अत्यन्त सहायक होता है, किन्तु ऐसा करना आनिवार्य नहीं होता है। रोग का पता लगाने के लिये मुख्य रूप से आन्तरिक आभा की ही जाँच की जाती है, क्योंकि बाहरी एवं स्वास्थ्य आभा, आन्तरिक आभा की तुलना में अधिक सूक्ष्म होती है। इसलिये जब हाथ बहुत ज्यादा संवेदनशील हो जाते हैं, तभी इनकी जाँच करना संभव हो पाता है। हाथ में आभा की जाँच करने पर हमेशा अपना ध्यान हथेलियों के बीच में ही केन्द्रित करना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से हथेलियों के बीच में पाये जाने वाले चक्रों को उत्पेजित किया जा सकता है या उन्हें रोका भी जा सकता है। यहाँ तीनों प्रकार की आभा को जाँचने की विधि दी जा रही है जो है-

i. बाहरी आभा को जाँचने की विधि-
  1. उपचारक को सर्वप्रथम अपने हाथों को अपने शरीर से कुछ दूरी पर रखकर अपनी हथेलियों को रोगी की तरफ करके रोगी से लगभग चार मीटर की दूरी पर खड़े होना चाहिये। 
  2. अब उपचारक को अपने हथेलियों के मध्यभाग में ध्यान केन्द्रित करते हुये धीरे-धीरे रोगी की ओर बढ़ना चाहिये और रोगी की बाहरी आभा को महसूस करना चाहिये।
  3. ऐसा करने पर जब हाथ में गर्मी, दबाव या कंपन जैसा महसूस होने पर रूक जाना चाहिये, क्योंकि इस समय यह बाहरी आभा को अनुभव करने का संकेत है। अब बाहरी आभा के आकार-प्रकार को जाँचने का प्रयास करना चाहिये। सिर से लेकर कमर तक और कमर से पैर तक। आगे से पीछे तक उसकी चौड़ाई कितनी है इत्यादि। अधिकांशतया बाहरी आभा का आकार एक उल्टे अंडे के सामन प्रतीत होता है अर्थात ऊपरी भाग चौड़ा और निचला भाग अपेक्षाकृत कम चौड़ा। 
  4. सामान्य तौर पर बाहरी आभा का व्यास लगभग एक मीटर तक का होता है किन्तु कुछ लोगों में यह 2 मीटर से भी अधिक चौड़ा पाया जाता है। कुछ बच्चे जो अत्यधिक सक्रिय होते हैं, उनकी बाहरी आभा 3 मीटर तक होती है।
ii. स्वास्थ्य आभा को जाँचने की विधि- भौतिक शरीर की सतह से जीवद्रव्य किरणें सीधी और खड़े रूप में बाहर निकलती है, जिन्हें स्वास्थ्य किरणें कहा जाता है। ये स्वास्थ्य किरणें आन्तरिक आभा को पारकर बाहर निकलती हैं तथा सामान्य तौर पर दो मीटर चौड़ी होती हैं। स्वास्थ्य किरणें भी भौतिक शरीर के आकार में ही होती है। व्यक्ति के रोग्रस्त होने पर स्वास्थ्य किरणें भी कमजोर होकर नीचे की ओर लटक जाती हैं और उलझ जाती हैं। इसके साथ ही इसका आकार भी छोटा हो जाता है। कभी-कभी रोगावस्था में स्वास्थ्य आभा का आकार 12 इंच या उससे भी कम हो जाता है। अत्यधिक स्वस्थ एवं प्राणवान व्यक्ति की स्वास्थ्य आभा एक मीटर अथवा उससे भी अधिक बड़ी होती है। स्वास्थ्य आभा का आकार भी उल्टे अंडे के समान होता है अर्थात ऊपर की ओर चौड़ा और नीचे की ओर अपेक्षाकृत कम चौड़ा।
 
स्वास्थ्य आभा की जाँच प्रक्रिया है-
  1. स्वास्थ्य आभा को जाँचने के लिये पहले वाली स्थिति में ही रहते हुये धीरे-धीरे थोड़ा आगे की ओर बढ़ना चाहिये।
  2. अब जब हथेलियों में पुन: संवेदना महसूस होने पर रूक जाना चाहिये। ये संवेदन पहले की अपेक्षा थोड़े तीव्र हो सकते हैं। ये स्वास्थ्य आभा की निशानी हैं।
  3. अब धीरे-धीरे एकाग्रतापूर्वक बाहरी आभा के समान ही स्वास्थ्य आभा के आकार-प्रकार को महसूस करना चाहिये।
iii. आन्तरिक आभा को जाँचने की विधि-
  1. आन्तरिक आभा सामान्यत: 4-5 इंच तक फैली होती है। इसकी जाँच करने के लिये अपनी हथेलियों को धीरे-धीरे थोड़ा और आगे तक एवं पीछे लाना चाहिये तथा अपना ध्यान हथेली के मध्यभाग पर केन्द्रित रखना चाहिये। 
  2. उपचारक को रोगी की सिर से लेकर पैर तक अर्थात ऊपर से नीचे तक और आगे से पीछे तक जाँच करनी चाहिये। इस संबंध में यह ध्यान रखना चाहिये कि शरीर के दांयें और बांयें भाग की आन्तरिक आभा समान होनी चाहिये। यदि शरीर का एक हिस्सा अर्थात दाँयाँ या बाँया भाग दूसरे की अपेक्षा यदि छोटा है, तो उसमें जरूर कोई विकृति है। उदाहरण के तौर पर जब एक रोगी के कानों की आनतरिक आभा की स्कैनिंग या जाँच की गई तो उसके बाँये कान की आभा 5 इंच से भी अधिक थी और दायें कान की आभा मात्र दो इंच थी। इसके बाद पता चला कि रोगी का दाँयी कान करीब 17 वर्षों से आंशिक रूप से बहरेपन से ग्रस्त था।
  3. जाँच के दौरान बड़े चक्रों, प्रमुख अंगों एवं रीढ़ की हड्डी की आभा पर विशेष रूप से ध्यान देना चाहिये। कभी-कभी ऐसा होता है कि पीठ में दर्द की शिकायत नहीं होती किन्तु फिर भी रीढ़ की हड्डी में उर्जा या तो घनी हो जाती है या कम हो जाती है। 
  4. गले की आन्तरिक आभा की जाँच करते समय रोगी को ठुड्डी को थोड़ा उठाकर रखने के लिये कहना चाहिये, क्योंकि ठुड्डी की आन्तरिक आभा के कारण गले की वास्तविक स्थिति पता नहीं चलती है। 
  5. चक्रों में सौर जालिका चक्र की जाँच विशेष रूप से करना चाहिये, क्योंकि भावनात्मक रूप से उत्पन्न होने वाली विकृतियों का प्रभाव इस चक्र पर विशेष रूप से पड़ता है।
  6. फेफड़ों को जाँचने के लिये पूरी हथेली का प्रयोग न करके केवल दो अंगुलियों का प्रयोग करना चाहिये और ज्यादा अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिये फेफड़ों की जाँच सामने की तरफ से न करके पीछे और बगल से करना चाहिये।
iv. आन्तरिक आभा की जाँच से प्राप्त परिणामों की व्याख्या- आन्तरिक आभा की जाँच करने के बाद अब यह कैसे पता चले कि शरीर के किस भाग में या अंग में उर्जा कम है और कहाँ उर्जा का घनापन है? इसे ज्ञात करने का तरीका है-
  1. रोगी की आन्तरिक आभा की जाँच के दौरान जिन अंगों की आभा में खोखलापन प्रतीत हो तो वहाँ उर्जा कम होती है। यह प्राणशक्ति के कम होने का संकेत है। 
  2. इसी प्रकार जहाँ प्राणशक्ति का घनापन होता है, वहाँ उस अंग की आन्तरिक आभा में उभार पाया जाता है।

प्राण चिकित्सा की सावधानियॉ

  1. प्राण चिकित्सा में सभी रोगों का मूल कारण एक ही माना जाता है और वह है-प्राणउर्जा का असंतुलित होना 
  2. रोगी की आन्तरिक आभा की जाँच के दौरान जिन अंगों की आभा में खोखलापन प्रतीत हो तो वहाँ उर्जा कम होती है। यह प्राणशक्ति के कम होने का संकेत है। 
  3. स्वास्थ्य आभा को जाँचने के लिये पहले वाली स्थिति में ही रहते हुये धीरे-धीरे थोड़ा आगे की ओर बढ़ना चाहिये। 
  4. अब उपचारक को अपने हथेलियों के मध्यभाग में ध्यान केन्द्रित करते हुये धीरे-धीरे रोगी की ओर बढ़ना चाहिये और रोगी की बाहरी आभा को महसूस करना चाहिये। 
  5. हाथों की संवेदनशीलता के लिये लगभग एक महीने की अवधि तक इस प्रकार का अभ्यास करना चाहिये।
  6. सर्वप्रथम उपचारक को जीभ को तालू पर लगाना चाहिये। 
  7. उपचारक को इलाज करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि जब रोग शरीर में प्रवेश करता है तो उसकी गति बाहर से भीतर की और एवं नीचे से ऊपर की ओर रहती है, लेकिन रोग जब ठीक होने की स्थिति में होता है तो उसकी गति बदल जाती है अर्थात् उसकी गति भीतर से बाहर की ओर एवं ऊपर से नीचे की ओर हो जाती है। अत: रोग की गति की दिशा के आधार पर हम यह आसानी से पता लगा सकते है कि इस समय रोग का प्रकोप हो रहा है या रोग ठीक हो रहा है। 8. अब जब हथेलियों में पुन: संवेदना महसूस होने पर रूक जाना चाहिये। ये संवेदन पहले की अपेक्षा थोड़े तीव्र हो सकते हैं। ये स्वास्थ्य आभा की निशानी हैं। 
  8. निदान - रोग की पहचान करना तथा उसके कारणों का पता लगाना।
  9. प्रक्षेपित प्राणउर्जा - उपचारक या हीलर द्वारा रोगी को दी गई जीवनशक्ति
  10. चक्र - उर्जा केन्द्र । प्राणचिकित्सा में 11 बड़े या प्रमुख चक्र तथा अन्य छोटे चक्र माने गये है।

1 Comments

  1. BAHUT UTTAM JANKARI DI HAI MAHODAY AISE HI KARYA KARTE RAHIYE BAHUT PRABHAVIT HUWA APSE , PAHLI BAR MUJHE PRAN URJA SE SAMBANDHIT ITNI VISTRIT AUR SPAST JANKARI MILI.. APKA BAHUT BAHUT DHANYAWAD... SADAR PRANAM APKO

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