अनुक्रम
रेकी चिकित्सा प्राण उर्जा के सिद्धांत पर आधारित है। इस चिकित्सा पद्धति में रेकी चिकित्सक, पीड़ित या रोगी व्यक्ति में प्राणऊर्जा को प्रक्षेपित करता है। रेकी चिकित्सा के अनुसार भौतिक शरीर के अतिरिक्त हमारा एक ऊर्जा शरीर भी होता है। नकारात्मकता के कारण अथवा प्राण ऊर्जा में अवरोध आने के कारण पहले यह ऊर्जाशरीर रोगग्रस्त होता है और बाद में इसके लक्षण भौतिक या स्थूल शरीर में दिखायी देते है। रेकी विशेषज्ञों का मानना है कि हमारे उर्जा शरीर में ब्रह्माण्डीय ऊर्जा को ग्रहण करने के लिए कुछ केन्द्र होते हैं, इन ऊर्जा केन्द्रों को ‘‘चक्र’’ कहते हैं। इन चक्रों के माध्यम से प्राण उर्जा भौतिक शरीर में पहुँचती है, जिससे शरीर के सभी अंग ठीक प्रकार से कार्य करने लगते है, परिणामस्वरूप रोग का निवारण होता है।
ऊर्जा केन्द्र : चक्र
रेकी चिकित्सा में चक्रों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। चक्रों की जानकारी के बिना रेकी चिकित्सा की कल्पना ही नहीं की जा सकती। वैसे तो चक्र अनेक है, किन्तु रेकी चिकित्सा की दृष्टि से सात चक्र अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जिनका विवेचन हैं- 1. सहस्रार चक्र 2. आज्ञा चक्र 3. विशुद्धि चक्र 4. अनाहत चक्र 5. मणिपुर चक्र 6. स्वाधिष्ठान चक्र 7. मूलाधार चक्रसहस्रार चक्र- (पीनियल ग्लैण्ड)
चक्रों में सहस्रार चक्र सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण। यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रवेश द्वार है। इस चक्र के ध्यान से अलौकिक आनंद की प्राप्ति होती है, क्योंकि यह उच्चतम चेतना शक्ति के साथ हमारा सम्पर्क जोड़ता है। इस चक्र का रंग गहरा बैंगनी माना गया है। शारीरिक दृष्टि से देखें तो यह पीनियल ग्रन्थि का स्थान है। इसका संबंध उध्र्व मस्तिष्क एवं दांयीं आँख से है। सहस्रार चक्र में शिव और शक्ति का मिलन होता है, अर्थात साधना के माध्यम से जब मूलाधार चक्र में विद्यमान सुप्त कुण्डलिनी जागृत होती है, तब यह विभिन्न चक्रों का भेदन करती हुयी सहस्रार चक्र में शिव के साथ मिल जाती है। इसलिये इस स्थल को स्थूल एवं सूक्ष्म का मिलन बिन्दु कहा गया है।
आज्ञा चक्र (पिट्यूटरी ग्लैण्ड)
चक्रों के क्रम में यह ऊपर से दूसरा चक्र है। इस चक्र को तीसरी आँख के नाम से भी जाना जाता है। इस चक्र का रंग गहरा नीला है। शारीरिक दृष्टि से यह पिट्पूटरी ग्रन्थि का स्थान है। आज्ञा चक्र अन्तदर्शन का केन्द्र है। इस चक्र के जागृत होने पर भविष्य में होने वाली घटनाओं का पहले ही आभास हो जाता है तथा दूरदर्शन, दूरश्रवण, दिव्यदृष्टि आदि अनेक सिद्धियों की प्राप्ति होती है। आज्ञाचक्र पर ध्यान करने से क्रोध एवं आवेग शान्त होकर परम आनंद एवं असीम शांति की प्राप्ति होती है। इस चक्र के सक्रिय या निष्क्रिय होने से हमारे निर्णय प्रभावित होते है। यह चक्र वासनाओं को भी नियंत्रित करता है। आज्ञा चक्र मनसत्व का प्रतीक है।
विशुद्धि चक्र (थायराइड ग्रन्थि)
यह पंचमहाभूतों में आकाश तत्व का प्रतीक है। इसका रंग आसमानी माना गया है। विशुद्धि चक्र के जागृत होने पर साधक का जीवन के प्रति तटस्थ दृष्टिकोण विकसित हो जाता है। यह समभाव में जीने लगता है तथा सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ को चाहे वह जड़ हो या चेतन र्इश्वरीय कृति मानकर उसके प्रति प्रेमभाव रखता है। विशुद्धि चक्र थायराइड एवं पैराथायराइड ग्रन्थियों का क्षे़ है। थायराइड ग्रन्थि व्यक्ति के जीवन की ग्रति को नियं़ित करती है। इस ग्रन्थि की सक्रियता से जीवन में भी सक्रियता आ जाती है और क्षमता बढ़ जाती है। विशुद्धि चक्र, स्वाधिष्ठान एवं मूलाधार चक्र पर भी प्रभाव डालता है।
अनाहत या हृदय चक्र (थायमस ग्रन्थि)
इस चक्र का रंग हल्का हरा है। अनाहत चक्र का संबंध वायुतत्व से है। इसका संबंध थेाइमस ग्रन्थि से है। शिशु के जीवन के विकास में इस ग्रन्थि की अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। इसके साथ ही विशुद्धि चक्र, श्वसनतं़ एवं रक्तपरिसंचरण तंत्र से सम्बद्ध है।
मणिपुर चक्र (एड्रीनल ग्रन्थि)
मणि का शाब्दिक अर्थ है-रत्न, और पुर का अर्थ है-नगर। इस प्रकार मणिपुर का शाब्दिक अर्थ हुआ-’’रत्नों का नगर।’’ आप सोच रहे होंगे कि इस चक्र को मणियों या रत्नों का नगर क्यों कहा जाता है। इसका कारण यह है कि इस क्षेत्र में प्राण उर्जा प्रचण्डतम रहती है। यह चक्र अग्नि तत्व का प्रतीक है। इसका स्थान नाभि के ठीक पीछे मेरूदण्ड के मध्य में माना गया है। यह चमकीले पीले रंग का होता है। शारीरिक दृष्टि से देखें तो इसका संबंध पाचन संस्थान एवं एड्रीनल ग्रन्थि से है। इसी चक्र द्वारा सम्पूर्ण शरीर में प्राण उर्जा वितरित होती है। यह आत्मविश्वास एवं शक्ति का केन्द्र है। मान, सम्मान, प्रतिष्ठा, धन इत्यादि महत्वकांक्षाओं की अभिव्यक्ति इसी के माध्यम से होती है। किसी भी प्रकार के विकारों का प्रभाव सर्वप्रथम इस चक्रपर पड़ता है। लोभ, घृणा, द्वेष, क्रोध, भय इत्यादि वृत्तियाँ इसी चक्र द्वारा अभिव्यक्त होती है।
स्वाधिष्ठान चक्र -(गोनेडस ग्रन्थि)
स्व का अर्थ हैं ‘‘ अपना’’ और अधिष्ठान का अर्थ है-’’निवास स्थान’’। इस प्रकार स्वाधिष्ठान का अर्थ है-’’ अपने रहने का स्थान’’। इसका आशय यह है कि स्वाधिष्ठान चक्र हमारे अचेतन मन से संबंधित है। हमारे जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों का संबंध इसी चक्र से है। पूर्वजन्म के सभी संस्कार और स्मृतियाँ मस्तिष्क के उस भाग में संगृहीत रहती है, जो स्वाधिष्ठान चक्र से जुड़ा रहता है। यह सांसारिक भोग विलासों का केन्द्र है। इसी चक्र के कारण व्यक्ति आहार, निद्रा, मैथुन आदि भोगों का उपभोग करता है। यह चक्र मेरूदण्ड के आधार पर स्थित होता है। गुदा के ठीक उपर टेलबोन या कोविसक वाला क्षेत्र स्वाधिष्ठान चक्र का स्थान है। यह जल तत्व का प्रतीक है तथा इसका संबंध प्रजनन तंत्र से है। रक्त संचार का नियंत्रण इसी चक्र के द्वारा होता है। यह चक्र नारंगी रंग का होता है।
मूलाधार चक्र ( एड्रीनल एवं गोनेड्स ग्रन्थि)
मानसिक चेतना के उत्थान की आधारभूमि होने के कारण इसे ‘‘मूलाधार चक्र’’ कहा जाता है। यह गुदा एवं गुप्तांगों के बीच में स्थित होता है अर्थात्-गुदा मूल से दो अंगुल ऊपर इसका स्थान माना गया है। पंचमहाभूतों में यह पृथ्वी तत्व का प्रतीक माना जाता है तथा चमकीले लाल रंग का होता है।
मुलाधार चक्र में ही कुण्डलिनी शक्ति सुप्तावस्था में विद्यमान रहती है तथा साधना के द्वारा इसे जागृत किया जाता है। इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना इन नाड़ियों का उद्गम स्रोत यही स्थल हैं। मूलाधार चक्र, आज्ञा चक्र से जुड़ा हुआ है। आज्ञा चक्र में ये तीनों नाडित्रयाँ (इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना) पुन: मिल जाती है। हमारी जीने की इच्छा का कारण यही मूलाधार चक्र है। इसी चक्र के कारण व्यक्ति सांसारिक भोग विलासों को संगृहीत करता है। मूलाधार चक्र की हमारे समग्र स्वास्थ्य को बनाये रखने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस चक्र के जागरण से आरोग्यता एवं निर्भयता की प्राप्ति होती है।
रेकी चिकित्सा की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके द्वारा दूसरों के उपचार के साथ-साथ स्वयं का भी उपचार किया जा सकता है। रेकी चिकित्सा की प्रक्रिया का विवेचन है-
मूलाधार चक्र (Root Chakra) -
- एड्रीनल ग्रन्थि
- यौनांग
- सम्पूर्ण शरीर में उर्जा का संचार
- अस्थियाँ
- माँसपेशियाँ
- रक्त
- शरीर में ताप का नियंत्रण
स्वाधिष्ठान चक्र ( Sacral Chakra)
- प्रजनन तंत्र से संबंधित अंग
- उत्सर्जन तंत्र से संबंधित अंग
- पैर
मणिपुर चक्र (Solor Chakra)
- किडनी
- एड्रीनल ग्रन्थि
- चकृत
- आमाशय
- छोटी एवं बड़ी आँत
- रक्तचाप का नियंत्रण
- जीवन उर्जा का वितरण केन्द्र
- गर्मी एवं ठंड का नियंत्रण
अनाहत या हृदय चक्र (Heart Chakra) हृदय
- रक्त संचार
- थायमस ग्रन्थि
- फेफड़े
विशुद्धि चक्र (Throat Chakra)
- कंठ प्रदेश
- थायराइड् ग्रन्थि
- पैराथायराइड् ग्रन्थियाँ
आज्ञा चक्र ( Thirid eye or Brow Chakra)
- पीयूष ग्रन्थि
- पीनियल ग्रन्थि
- अन्य सभी अन्त:स्रावी ग्रन्थियों का नियंत्रण
सहस्रार चक्र (Crown Chakra)
- पीनियल ग्रन्थि
- मस्तिष्क
रेकी चिकित्सा द्वारा उपचार की प्रक्रिया
चक्रों के विवरण के बाद अब हम अध्ययन करते हैं, रेकी चिकित्सा की उपचार की प्रक्रिया के बारे में।रेकी चिकित्सा की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इसके द्वारा दूसरों के उपचार के साथ-साथ स्वयं का भी उपचार किया जा सकता है। रेकी चिकित्सा की प्रक्रिया का विवेचन है-
रेकी द्वारा दूसरों का उपचार-
- रेकी चिकित्सा देने से पहले सर्वप्रथम रेकी का, इससे संबंधित दैवीय शक्तियों का एवं गुरूजनों का आह्वाहन किया जाता है।
- इसके बाद रेकी चिकित्सा कक्ष को सकारात्मक बनाने के लिये कमरे की चारों दीवारों, छत एवं फर्श पर शक्ति प्रतीक बनाये जाते हैं। इन शक्ति प्रतीकों को लिखकर भी बनाया जा सकता है और अपने हाथ से हवा में बनाकर भी प्रयुक्त किया जा सकता है।\
- इसके उपरान्त रेकी कक्ष को नकारात्मक उर्जा से मुक्त करने हेतु भीनी सुगन्ध का प्रयोग किया जाता है। इसके लिये धूप, अगरबत्ती इत्यादि का प्रयोग किया जा सकता है।
- रेकी कक्ष का वातावरण शान्त एवं सकारात्मक हो, इसके लिये ऐसी व्यवस्था बनायी जाती है, ताकि किसी भी प्रकार का शोर रेकी चिकित्सा में बाधा ना पहुंचाये। जैसे की मोबाइल का स्विच बन्द कर देना, टेलीफोन के रिसीवर को उठाकर रख देना आदि।
- रेकी चिकित्सा प्रभावी हो, इस हेतु रोगी की ग्रहणशीलता को बढ़ाना अति आवश्यक है। इसलिये रेकी देने से पहले रोगी को मौजे अंगूठी, बेल्ट, घड़ी, जंजीर और ऐसी कोर्इ भी चीज जो शरीर पर दबाव डाल रही हो, उसे निकालने का निर्देश देते हैं, जिससे कि रेकी के प्रवाह में किसी प्रकार की बाधा न पहुँचे।
- रेकी चिकित्सा से पहले यदि रोगी एवं चिकित्सक दोनों तनाव शैथिल्य की प्रक्रिया से गुजर लें तो इससे रेकी चिकित्सा और भी अधिक प्रभावशाली हो जाती है। इसके लिये जीभ को मोड़कर तालु से लगाना चाहिये तथा दीर्घ श्वास-प्रश्वास का अभ्यास करना चाहिये।
- रेकी चिकित्सा के लिये उपयुक्त वातावरण बनाने में मधुर एवं मद्धिम संगीत भी अत्यन्त सहायक होता है। बाँसुरी की धुन इस हेतु अत्यन्त उपयुक्त है। तेज रॉक एवं पॉप संगीत नहीं बजाना चाहिये, क्योंकि तनाव एवं उत्तेजना पैदा करता है।
- रेकि चिकित्सा के दौरान इस बात का भी खास ध्यान रखा जाना चाहिये कि रेकी चिकित्सा कक्ष में प्रकाश मन्द हो। नीले बल्ब का प्रकाश रेकी के लिये अत्यन्त उपयुक्त है।
- रोगी के बस्त्र सूती एवं आरामदायक होने चाहिये।
- रेकी चिकित्सा कक्ष में टेबल एवं कुर्सी की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे कि रेकी के दौरान आवश्यकतानुसार रोगी को बिठाया और लिटाया जा सके।
- आधा बाल्टी (लगभग 5लीटर) पानी में 200-250 ग्राम नमक डालकर रेकी चिकित्सा कक्ष में रखते है। नमकयुक्त पानी रोगी और वातावरण के नकारात्मक उर्जा को सोख लेता है, जिससे रेकी के प्रवाह में सहायता मिलती हैं
- इसके बाद रोगी व्यक्ति की स्कैनिंग की जाती है। स्कैंनिग का अर्थ है- आन्तरिक आभा की जाँच करना अर्थात्- किस चक्र में उर्जा की कमी है और किस चक्र में उर्जा का घनत्व ज्यादा है, इसकी जाँच करके रोग का निदान करना। प्रारंभ में स्कैंनिंग ऊपर से नीचे अर्थात्- सिर से पैर तक की जाती है। इसके बाद अगल-बगल में। जिस तरफ उर्जा की कमी होती है, उधर रेकी देते हैं और जहाँ उर्जा ज्यादा होती है, वहाँ पर शुद्धिकरण के द्वारा उर्जा को संतुलित किया जाता है। प्रारंभ में हथेलियों को कप जैसी आकृति में बनाते हुये बन्द हाथों से और फिर खुली अंगुलियों से शुद्धिकरण की प्रक्रिया की जाती है। शुद्धिकरण करते हुये हाथों को नीचे लाते समय नमकयुक्त पानी में इस प्रकार छिटकना चाहिये जैसे किसी गन्दी चीज के लग जाने पर हाथों को जोर-जोर से छिड़कते है। शुद्धिकरण के दौरान यह भावना की जाती है कि नकरात्मक उर्जा बाहर निकल रही है।
- रोगग्रस्त अंग पर एवं उससे संबंधित चक्र पर रेकी ज्यादा देर तक देनी होती है। रोगयुक्त अंग पर रेकी तब तक देते रहना चाहिये जब तक की हाथों के चक्रों से रेकी का प्रवाह अनुभव होता रहे। जब ऐसा लगे की रेकी का प्रवाह कम हो गया हो या बन्द हो गया हो, तब रेकी देना बन्द कर देना चाहिये। वैसे तो रेकी की अपनी चेतना होती और यह तब तक प्रवाहित होती रहती है, जब तक कि उर्जा पूरी तरह संतुलित न हो जाये। उर्जा के संतुलित होने पर रेकी का प्रवाह स्वत: बन्द हो जाता है।
- रेकी देने के लिये विभिन्न प्रकार की हस्त स्थितियों को अपना जाता है। हथेलियों को अंजलि के आकार में रखना होता है। पाठकों रेकी विशेषज्ञों ने इस हस्त स्थितियों का एक क्रम बताया है, जो रेकी के प्राकृतिक प्रवाह के
शरीर के अग्रभाग हेतु हस्तस्थितियाँ-
- आँखे- सर्वप्रथम दोनों हाथों को दोनों आँखों पर रखा जाता है।
- कनपटी- इसके बाद दोनों हथेलियों को दोनों तरफ कनपटी पर रखते है।
- कान- तदनन्तर दोनों हथेलियाँ दोनों कानों पर रखते हैं।
- माथा एवं सिर का पीछे का भाग- अब अपनी सुविधानुसार एक हाथ माथे पर एवं दूसरा हाथ सिर के पिछले भाग पर रखते है।
- दोनों हाथ सिर के पीछे- अब एक हाथ पर दूसरा हाथ रखते हुये दोनों हाथ सिर के पीछे रखते है।
- विशुद्धि चक्र- एक हाथ कंठ प्रदेश पर और दूसरा गर्दन के पीछे
- थायमस एवं थाइराइड ग्रन्थियाँ- अब दोनों हाथ कंठमणि से 1-1/2 इंच की दूरी पर थायमस एवं थाइराइड् ग्रन्थि वाले स्थान पर रखते हैं।
- अनाहत या हृदय चक्र- दोनों हाथ छाती के बीच में अनाहत चक्र वाले स्थान पर रखते हैं।
- मणिपुर चक्र- दोनों हाथ मणिपुर चक्र वाले स्थान पर रखते हैं।
- जिगर या यकृत- अब दोनों हाथ नाभि के पास दायीं ओर जिगर पर रखते हैं।
- फेफड़े- अब दोनों हाथों को दोनों फेफड़ों की टिप पर रखते है।
- तिल्ली- इसके बाद दोनों हाथ नाभि के बायीं ओर तिल्ली (प्लीहा) पर रखते है।
- स्वाधिष्ठान चक्र- अब दोनों हथेलियों को नाभि के थोड़ा नीचे स्वाधिष्ठान चक्र के स्थान पर रखते हैं।
- मूलाधार चक्र- अब दोनों हाथों को मूलाधार चक्र वाले स्थान पर रखते हैं। पुरूष एवं महिलाओं में यह स्थिति पृथक-पृथक होती है। स्त्रियों में अंडाशय वाले स्थान पर एवं पुरूषों में शुक्राणु वाले स्थान पर हाथों को रखा जाता है।
- जंघा- अब दाँयां हाथ दाँयी जंघा पर रखते हैं।
- घुटना- इसके बाद दाँयी हथेली दाँयें घुटने पर एवं बाँयीं हथेली बाँये घुटने पर रखते हैं।
- पिंडलियाँ- अब दाँयी हथेली दाँयीं पिण्डली पर एवं बाँयी हथेली बाँयीं पिण्डली पर रखते हैं।
- ये पैर का टखना एवं तलुवा- अब एक हाथ बाँयें पैर के टखने पर एवं दूसरा हाथ बाँयें तलुए पर रखते हैं।
- दाँये पैर का टखना एवं तलुवा- अब तक हाथ दाँयें पैर के टखने पर एवं दूसरा हाथ दाँयें तलुवे पर रखते है।
शरीर के पश्चभाग हेतु हस्तस्थितियाँ-
रेकी चिकित्सा के लिये शरीर के पिछले भाग में हाथों की स्थितियाँ है-- कंघा (पिछला भाग)- बाँयी हाथ बाँयें कंघे पर एवं दाँयां हाथ दाहिने कंधे पर।
- थायमस एवं थाइराइड ग्रन्थियाँ- शरीर के पिछले वाले हिस्से में थायमस एवं थाइराइड ग्रन्थि वाले स्थानों पर दोनों हाथों को रखते हैं।
- अनाहत चक्र- पिछले भाग में हृदय या अनाहत चक्र पर दोनों हाथों को रखते हैं।
- मणिपुर चक्र- शरीर के पिछले हिस्से में मणिपुर चक्र वाले स्थान पर दोनों हाथों को रखते हैं।
- किडनी- दोनों हाथों को दोनों किडनी पर रखते हैं।
- स्वाधिष्ठान चक्र- शरीर के पिछले भाग में स्वाधिष्ठान चक्र वाले स्थान पर दोनों हथेलियों को रखते हैं।
- मूलाधार चक्र- अब दोनों हथेलियों को शरीर के पिछले भाग में मूलाधार चक्र वाले स्थान पर रखते है।
- रेकी के बाद रोगी को कम से कम 12 घण्टे तक स्नान नहीं करना चाहिये अथवा रोगग्रस्त अंग को पानी से नहीं धोना चाहिये।
- रेकी देते समय रेकी चिकित्सक को अपनी अंगुलियों के पोरों से नीले रंग की या हल्के चमकीले बैंगनी रंग के निकलने की कल्पना करनी चाहिये।
- रेकी देने के पश्चात् रोगी का आभा मण्डल जरूर सील करना चाहिये, जिससे कि प्राण उर्जा लीक न हो, आभामण्डल को सील करने के लिये रेकी देने के बाद पूरे शरीर के ऊपर 1-2 इंच की दूरी पर हाथ फेरना चाहिये और यह भावना करनी चाहिये कि हल्के नीले रंग से रोगी का आभामडल सील हो रहा है।
- रेकी देने के बाद रोगी के आभामण्डल और अपने आभामण्डल के बीच की काल्पनिक डोरी को अपनी कल्पना से काट देना चाहिये।
- इसके बाद रेकी, संबंधित दैवीय शक्तियों और गुरूजनों को धन्यवाद देना चाहिये।
- रेकी देने के बाद अपने हाथों को कोहनी तक नमक के पानी या साबुन से जरूर धोना चाहिये।
- रेकी चिकित्सा के परिणामों के प्रति रेकी विशेषज्ञ को निर्लिप्त रहना चाहिये और आशावादी दृष्टिकोण रखना चाहिये।
विभिन्न रोगों में रेकी चिकित्सा-
अब हम चर्चा करते हैं कि भिन्न-भिन्न रोगों में रेकी चिकित्सा कैसे दी जाती है। किस बीमारी में किस चक्र को रेकी देकर उर्जा को संतुलित किया जाता है, इसका विवेचन है-मुलाधार चक्र
- कैंसर
- ल्यूकिमिया
- एलर्जी
- अस्थमा
- शारीरिक कमजोरी
- यौन संबंधी रोग
- जोड़ों का दर्द
- कमर दर्द
- रक्त संबंधी बीमारियाँ
- मानसिक रोग
- बच्चों का समुचित
- विकास न होने पर
- कब्ज
- प्रसव में कठिनार्इ होने पर
- छोटी एवं बड़ी आँत से संबंधित रोग
- मधुमेह
- अल्सर
- उच्च रक्त कोलेस्ट्रोल
- हृदय रोग
- किडनी से संबंधित रोग
- उच्चरक्तचाप
- कमर दर्द इत्यादि
स्वाधिष्ठान चक्र-
- मूत्राशय से संबंधित रोग
- यौन संबंधी कमजोरी
मणिपुर चक्र-
- उच्च रक्तचाप
- कमर दर्द
- किडनी संबंधीरोग
- उर्जा की कमी
- कब्ज
- आँत संबंधी रोग
- उच्चरक्त कोलेस्ट्रोल
- मधुमेह
- अल्सर
- यकृत संबंधी रोग
- गठिया
- संवेगों का नियन्त्रण
अनाहत या हृदय चक्र-
- संवेगों का नियंत्रण
- फेफड़ों संबंधी रोग
- हृदय रोग
- रक्तसंबंधी रोग
विशुद्धि चक्र-
- गले से संबंधित रोग
- अस्थमा
- गलगण्ड इत्यादि
आज्ञा चक्र-
- कैंसर
- अस्थमा
- एलर्जी
- अन्त:स्रावी संबंधी रोग
- तंत्रिका तंत्र संबंधी रोग
सहस्रार चक्र-
- मानसिक रोग
- तंत्रिका तंत्र संबंधीरोग
- पीनियल ग्रन्थि संबंधीरोग
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