सतत विकास क्या है - परिभाषा, सिद्धांत

सतत विकास

सतत विकास  एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें यह सुनिश्चित किया जाता है, कि वर्तमान पीढी की आवश्यकताओं को पूरा करनें के साथ- साथ भावी सन्तति की आकांक्षाओं और आवश्यकताओं की पूर्ति में कठिनाई न हो। आज सतत विकास अति आधुनिक और महत्वपूर्ण मुद्दा है। इस मुद्दे से सम्बन्धित आज विश्व में अनेक कार्यक्रम कार्यान्वित किये गये हैं। 

अगर आप यह जानना चाहते हैं, कि अमुक परियोजना सतत विकास के सिद्धान्त पर आधारित है या नहीं तो हमें इन मुख्य तथ्यों पर गहनता एवं गम्भीरता से ध्यान देने की आवश्यकता है।
  1. क्या इससे जैव विविधता को कोई खतरा तो नहीं है।
  2. इससे मिटटी का कटाव तो नहीं होगा। 
  3. क्या यह जनसंख्या वृद्धि को कम करने में सहायक है। 
  4. क्या इससे वन क्षेत्रों को बढानें में प्रोत्साहन मिलेगा। 
  5. क्या यह हानिकारक गैसों के निकास को कम करेगी। 
  6. क्या इससे अपशिष्ट उत्पादन की कमी होगी।
  7. क्या इससे सभी को लाभ पहुंचेगा अर्थात सभी के लिए लाभप्रद है।
ये सभी तथ्य या घटक सतत विकास के परिचालक हैं और इनको अनदेखा नहीं किया जा सकता। अब हमने जो देखा है, कि विकास मनुष्य पर केन्द्रित रहा है और वह भी गिने चुने राष्ट्रों में अर्थात विकसित राष्ट्रों में। परन्तु इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता, कि किस कीमत पर वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति के आधार पर अभूतपूर्व प्रगति की है। इस 5 प्रगति से हवा पानी और भोजन तीनों प्रदूषित हुए हैं और हमारे प्राकृतिक संसाधनों का निर्दयता से शोषण हुआ है। 

अगर इस प्रकार से यह प्रक्रिया जारी रही तो फिर एक दिन ऐसा आयेगा जब हम मीडोस की विश्व प्रसिद्ध रिपोर्ट ‘विकास की सीमाएं’ में वर्णित, साक्षात रूप से प्रलय की गोद में होंगे। यह नियन्त्रण रहित विकास का ही परिणाम होगा, कि इस पृथ्वी और इससे सम्बन्धित सभी तत्वों का सन्तुलन बुरी तरह टूट जाएगा या फिर बिगड जाएगा।

मनुष्य का ध्यान इस नियन्त्रण रहित विकास की ओर 70 के दशक में चला था परन्तु यह अन्तराष्ट्रीय स्तर पर परिचर्या रियो-डि-जनेरियो ब्राजील में 1992 की संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण एवं विकास संगोष्ठी में हुई जिसे पृथ्वी सम्मेलन के नाम से जाना जाता है। रियो घोषणा का मुख्य लक्ष्य अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी राष्ट्रों मे सहयोग था। 

इसकी एक प्रमुख घोषणा ‘एजैंडा 21 में सामाजिक आर्थिक व राजनैतिक परिदृश्य सन्दर्भ’ में इक्कीसवी सदी में सतत विकास के लिए अन्तर्राष्ट्रीय कार्यक्रम की रूपा रेखा प्रस्तुत की गई। संयुक्त राष्ट्र द्वारा यह निर्णय लिया गया है, कि सम्मेलन में सभी देशों में पर्यावरण सम्बन्धी ह्रास को रोकने और इस प्रक्रिया को बदलने के लिए पर्यावरण के सम्बन्ध में ठोस और सतत विकास के लिए कार्य से सम्बन्धित कार्य नीतियों और उपायों पर विचार किया जाएगा। 

सितम्बर 2003 में जोहान्सबर्ग दक्षिण अफ्रीका में आयोजित ‘अर्थ सम्मिट’ की विषय वस्तु सतत विकास  थी। ब्रंट कमीशन 1987 के अनुसार सतत विकास से तात्पर्य भावी पीढी द्वारा उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने की अपनी क्षमता को प्रभावित किये बिना वर्तमान समय की आवश्यकताओं को पूरा करना है। इसलिए सतत विकास  से अभिप्राय उस विचारधारा से है जहां मानव की क्रियाओं के परिणामस्वरूप प्रकृति की पुन: उत्पादक शक्तियां एवं क्षमताएं सन्तुलन में बनी रहती हैं।

सतत विकास की परिभाषा

ब्रन्टलैंड प्रतिवेदन, के अनुसार “सतत विकास वह विकास है जो वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति आगे की पीढ़ियों की आवश्यकताओं की बलि दिये बिना पूरी करता हो।” विकास के विभिन्न अर्थ व परिभाषाओं का यही सार निकलता है कि वास्तव में विकास एक ऐसी प्रक्रिया है जो निरन्तर चलती रहती है। 

यह प्रक्रिया तभी सार्थक होती है जब इसमें मानव विकास, आर्थिक वृद्धि एवं पर्यावरण सुरक्षा के बीच एक उचित संतुलन हो। सतत विकास का अर्थ एक ऐसे विकास से है जो वर्तमान की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ भविष्य की आवश्यकताओं का भी ध्यान रखे। विकास ऐसा हो जो केवल ढांचा खड़ा करने में ही विश्वास न रखता हो बल्कि अन्य पहलुओं जैसे मानव संसाधन के विकास, पर्यावरण सन्तुलन, संसाधनों का उचित रख-रखाव व संरक्षण, लाभों के समान वितरण हेतु उचित व्यवस्था आदि को भी ध्यान में रखता हो। 

जो किसी विभाग/संस्था या व्यक्ति पर निर्भर न रह कर स्वावलम्बी हो तथा स्थानीय निवासियों द्वारा संचालित हो। सतत् विकास में जनसहभागिता की बड़ी अहम् भूमिका है।

सतत विकास के सिद्धांत

सतत विकास को गहराई से समझने के लिए उसके सिद्धान्तों को जानना आवश्यक है। सतत विकास के मुख्य सिद्धांत है।

1. स्थानीय समुदाय का सशक्तिकरण - सतत विकास प्रक्रिया का पहला सिद्धान्त है जन समुदाय का सशक्तिकरण। विकास के साथ पैदा होने वाले सबसे बड़े अवरोधों में स्थानीय समुदाय की संस्कृति, पारम्परिक अधिकारों, संसाधनों तक पहुंच एवं आत्म-सम्मान आदि की अवहेलना मुख्य  है। इससे स्थानीय समुदाय का विकास कार्यक्रमों के प्रति जुड़ाव के स्थान पर अलगाव तथा रोष पैदा होता है। अत: विकास को चिरन्तर या सत्त बनाने के लिए स्थानीय निवासियों के अधिकारों को पहचानना तथा उनके मुद्दों को समर्थन प्रदान करना आवश्यक है। 

साथ ही सतत विकास की प्रक्रिया समुदाय को जोड़ती है व उनके सशक्तिकरण को बढ़ावा देती है।

2. स्थानीय ज्ञान एवं अनुभवों को महत्व - स्थानीय समुदाय पारम्परिक ज्ञान, अनुभव व कौशल का धनी है। विकास के नाम पर नये विचार एवं ज्ञान थोपने के स्थान पर सतत विकास स्थानीय निवासियों के ज्ञान एवं अनुभवों को महत्व देता है तथा उपलब्ध ज्ञान एवं अनुभवों को आधार मानकर विकास कार्यक्रम तैयार किये जाते है।

3. स्थानीय समुदाय की आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं की पहचान - सतत विकास का अगला सिद्धान्त है विकास प्रक्रिया का समुदाय की आवश्यकताओं व प्राथमिकताओं पर आधारित होना। जमीनी वास्तविकताओं को नजर अन्दाज कर ऊपर से थोपा गया विकास कभी भी समाज में सकारात्मक बदलाव नहीं ला सकता। 

अत: आवश्यकताओं एवं प्राथमिकताओं की पहचान स्थानीय निवासियों के साथ मिल-बैठ कर उनके दृष्टिकोण एवं नजरिये को समझ कर करने से ही सतत विकास की ओर बढ़ा जा सकता है।

4. स्थानीय निवासियों की सहभागिता - कार्यक्रम नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तथा प्रबन्धन में ग्रामवासियों की सहभागिता को सतत विकास की प्रक्रिया में आवश्यक माना गया है। सहभागिता का अर्थ भी स्पष्ट होना चाहिए तथा स्थानीय समुदाय द्वारा विभिन्न स्तरों पर लिये गये निर्णयों को स्वीकारना ही उनकी सच्ची सहभागिता प्राप्त करना है।

5. लैंगिक समानता - पिछले अनुभवों से यह स्पष्ट है कि विकास की जिन गतिविधियों को महिला एवं पुरुषों दोनों की आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर तैयार नहीं किया जाता है तथा जिनमें महिलाओं की बराबर भागीदारी नहीं होती, वह न केवल अनुचित होती है बल्कि उनके सफल एवं चिरन्तर होने में संदेह रहता है। 

चिरन्तर बनाने के लिए विकास को महिलाओं तथा पुरुषों की भूमिकाओं, प्राथमिकताओं तथा आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर तैयार किया जाना पहली शर्त है।

6. कमजोर वर्गों को पूर्ण अधिकार - सतत विकास का सिद्धान्त है समाज के सभी वर्गों को विकास के नियोजन में शामिल करना व विकास का लाभ पहुँचाना। सदियों से विकास प्रक्रिया से अछूते व उपेक्षित रहे समाज के कमजोर वर्गो जैसे भूमिहीन, अनुसूचित जाति एवं जनजाति व महिलाओं को आधुनिक विकास प्रक्रिया में शामिल करने पर सतत विकास बल देता है। अत: चिरन्तरता के लिए समाज के कमजोर एवं उपेक्षित वर्ग के अधिकारों का समर्थन किया जाना आवश्यक है तथा उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ा जाना आवश्यक है।

7. जैविक विविधता तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण  - आर्थिक वृद्धि, पर्यावरण संरक्षण व सामाजिक जुड़ाव सतत विकास के मजबूत सतम्भ हैं। विकास की जिस प्रक्रिया में इन तीनों को साथ लेकर नियोजन किया जाता है वही सतत विकास कहलाता है। पर्यावरण को खतरे में डालकर व सामाजिक मूल्यों की परवाह किये बिना अगर आर्थिक विकास की प्रक्रिया को बल दिया जाता है तो वह सतत विकास नहीं है। 

पारिस्थितिकीय तन्त्र के विभिन्न घटकों का सन्तुलन खराब हो जाने से बहुत सी पर्यावरणीय समस्याएं पैदा होने लगी हैं। अत: विकास को चिरन्तर बनाने के लिए आर्थिक विकास के साथ-साथ जैविक विविधता तथा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण आवश्यक है।

8. स्थानीय तकनीकों, निवेश तथा बाजार को बढ़ावा - बाहरी सहयोग पर आधारित विकास कार्यों की लम्बे समय तक चलने की कोई गारन्टी नहीं होती है। साथ ही साथ बाहरी तकनीक की समाज में स्वीकार्यता पर भी शंकाएं होती है। अत: विकास की चिरन्तरता हेतु स्थानीय तकनीकों को सुधार कर उनके उपयोग को बढ़ावा देना, स्थानीय स्तर पर संसाधनों को जुटाना तथा स्थानीय बाजार व्यवस्था को मजबूत बनाना आवश्यक है।

8 Comments

Previous Post Next Post