जाति का अर्थ, परिभाषा, विशेषताएं, कार्य या लाभ, कुप्रभाव, दोष

समाज में अनेक प्रकार की जातियाँ होती है। जाति या वर्ण के चार प्रकार होते है (1) ब्राह्मण (2) क्षत्रिय (3) वैश्य (4) शूद्र। यह समाज चार वर्णो में बटा हुआ है सभी वर्ग के लोग अपनी जाति के अनुसार कार्य करते है।

जाति शब्द की उत्पत्ति

जाति शब्द 'Spanish word 'Casta' से लिया गया है । जिसका अर्थ है वंशानुक्रम योग्यता अर्थात् यह वंश परम्परा से संबंधित है । भारत में इसे जाति शब्द से जाना जाता है ।

जाति का अर्थ

शब्दोप्पति के विचार से जाति शब्द स्पेद भाषा के कास्टा शब्द से बना है जिसका अर्थ नस्ल कुल या वंश शोधना अथवा वंश परम्परा से प्राप्त गुणों की जटिलता है। पुर्तगालियों ने इस शब्द का प्रयोग भारत में रहने वाले ‘जाति’ नाम से प्रसिद्ध लोगों के वर्गों के लिए किया थ्ज्ञा। अंग्रेजी का ‘कास्ट’ शब्द मौलिक शब्द का सुधरा रूप ही है।
जाति या कास्ट शब्द की अनेक व्याख्याएँ दी गई हैं। 

जाति का अर्थ उस समूह से है जो जन्म के आधार पर निर्धारित होती है अर्थात् बच्चा जिस परिवार में जन्म लेता है वह उसी जाति से संबंधित होता है ।

जाति की परिभाषा

रिज्ले ने ‘जाति’ की व्याख्या करते हुए इसे एक समान नाम वाले परिवारों का संग्रह या समूह बताया है जो अपने आपको किसी मानव या दैवी कल्पित पूर्वज की संतान मानते हैं, जो अपना परम्परागत काम करते हैं और जो विद्धानों के मतानुसार एक ही सजातीय समूह का रूप धारण करते हैं। 

ई.ए.एच. ब्लण्ट ने जाति को सामान्य नाम वाले, सजातीय विवाहित समूहों का संग्रह बताया है, जिसकी सदस्यता परम्परागत होती है, जिसके अन्र्तगत सदस्यों पर सामाजिक मेलजोल सम्बन्धी कुछ पाबन्दियां लगती है, जो या तो अपना परम्परागत काम धंधा करते हैं अथवा एक ही मूल वंश से अपनी उत्पति होने का दावा करते है और आम तौर पर एक ही सजातीय समुदाय का रूप धारण करते है। 

सी.एच.कूले कहता है कि शब्दों में जब व्यक्ति की प्रतिष्ठा पूर्णरूपेण पूर्वनिश्चित हो, और जन्म लेने के बाद व्यक्ति के जीवन में किसी प्रकार के सुधार या परिवर्तन की आशा न हो, तब वह वर्गजाति बन जाता है। 

मार्टिनडोल और मोनाकंसी जाति की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि यह उन लोगों का समूह है जिनके कर्तव्य और विशेषाधिकार जन्म से ही निश्चित हैं और धर्म के जादू द्वारा स्वीकृत और मान्य है। 

जाति की विशेषताएं

जाति में निम्नलिखित विशेषताएं है।
  1. जाति के सदस्य जाति के बाहर विवाह नहीं कर सकते है
  2. इनकी सदस्यता केवल उन व्यक्तियों तक सीमित है जिनका उनकी तरह जन्म सामान्य जाति में हुआ है।
  3. किस जाति के व्यक्ति कौन सा व्यवसाय करेंगे यह पहले से ही निधार्रित रहता है उन्हें अपनी इच्छा के अनुसार व्यापार प्रारंभ करने की स्वतंत्रता नहीं होती है।
  4. खान-पान में भी जाति भेद की प्रमुखता रहती है उच्च जाति का व्यक्ति निम्न जाति के व्यक्ति के यहाँ का खाना तो क्या पानी भी नहीं पीता है।
  5. धार्मिक नियम में भी जाति भेद पर ध्यान दिया जाता है। उच्च वर्ग के और निम्न वर्ग के अलग-अलग मंदिर होते है निम्न वर्ग को उच्च वर्ग के लोगों के मंदिर में जाने की अनुमति नहीं होती है। इनके अपने अलग धार्मिक अनुष्ठान होते है और अलग अलग मंदिर होते है।
  6. जाति का निर्णय जन्म से हो जाता है और कोई इसकी सदस्यता कोई और तरीके से प्राप्त नहीं कर सकता है जो जिस जाति में जन्म लेता है वह उस जाति का कहलाता है।
  7. जाति भेद भाव हमारे पूर्वजों से चला आ रहा है और आज भी विद्यमान है। उच्च जाति के लोग अपने को सर्वोंतम मानते है और निम्न वर्ग का शोषण करते है।

जाति प्रथा के कार्य या लाभ

  1. सामाजिक सुरक्षा 
  2. संस्कृति की रक्षा 
  3. श्रम विभाजन व्याख्या
  4. मानसिक सुरक्षा 
  5. सामाजिक उन्नति
  6. व्यवहारों पर नियंत्रण 
  7. धर्म की रक्षा 
  8. व्यवसाय का निर्धारण 
  9. जीवन साथी का चुनाव राजनैतिक स्थिरता

जाति भेद का कुप्रभाव

जाति भेद हमारे समाज के सामने धीरे-धीरे अभिशाप बनकर सामने आया है यह गाँव से शुरू होकर आज षहर तक पहुँच गया है। जाति भेद भाव ने लोगों की निश्चित समूह में बांधकर रख दिया है। व्यक्ति अपने से निम्न जाति के व्यक्ति का तिरस्कार करने में जरा भी संकोच नहीं करते है। चाहे उस व्यक्ति की आयु उनके पिता या दादा की आयु के समान क्यों न हो। कुछ क्षेत्र में जाति लाभकारी क्यों न हो उसके कुप्रभाव को नजर अंदाज नहीं किया जा सकता है।

राजा राममोहन राय, स्वामी विवेकानंद, रामकृष्ण परमहंस, डाॅ. भीमराव अम्बेडकर आदि ने आंदोलन किए जिनमें से कुछ ने तो जाति भेद को नष्ट कर देने के लिए प्रयत्न किया, कुछ ने यह मत प्रतिपादित किया कि वर्ण जाति केवल कार्य और गुण पर आधारित होनी चाहिए, जन्म पर नहीं।

    जाति प्रथा के दोष

    1. श्रम की गतिशीलता का गुण समाप्त कर देती है : जाति-प्रथा ने काम या व्यवसाय को स्थायी रूप दे दिया है। व्यक्ति काम-धंधे को अपनी इच्छा और अपनी पसन्द के अनुसार छोड़ या अपना नहीं सकता और उसे अपनी जाति के निश्चित व्यवसाय को ही करना पड़ता है, भूले ही वह उसे पसन्द हो अथवा नापसन्द हो। इससे समाज की गतिशीलता ही समाप्त हो जाती है। 

    2. अस्पृश्यता : जाति या प्रथा से अस्पृश्ता फैलती है। महात्मा गांधी के मतानुसार यह जाति-पाति की सर्वाधिक घृणित अभिव्यक्ति है। इससे देश का अधिकांश भाग पूर्ण दासता के लिए मजबूर हो जाता है 

    3. एकता की ठेस पहुंचती है : इसने कठोरात पूर्वक एक वर्ग को दूसरे वर्ग से अलग करके और उनमें परस्पर किसी भी प्रकार के मेल-जोल को रोककर हिन्दू समाज की एकता और भा्रत्-भावना को बहुत हानि पहुंचाई है। 

    4. व्यक्ति और उसके काम में परस्पर सामंजस्य नहीं : जाति प्रथा का परिणाम बहुधा यह होता है कि व्यक्ति अपने लिये अपनी सुविधा एवं इच्छानुसार व्यवसाय नहीं चुन सकता और उसे गलत काम ही अपनाना पड़ जाता है। यह जरूरी नहीं है कि पुरोहित का पुत्र निश्चित रूप से पुरोहित ही होगा अथवा वह पुरोहित का कार्य करना चाहे अथवा उसमें एक सफल पुरोहित या धार्मिक नेता के सभी गुण विद्यमान होंगे। परन्तु जाति-पाति प्रथा के अन्र्तगत वह किसी अन्य कार्य के लिये आवश्यक योग्यता और इच्छा होते हुए भी कोई दूसरा काम नहीं कर सकता।

    5. राष्ट्रीयता में रूकावट : देश की एकता के लिये यह बाधा सिद्ध हुई है। निचले वर्ग के लोगों के साथ समाज में जो अपमानजनक व्यवहार होता है उसके कारण वे असंतुष्ठ रहते है। जैसा कि जी.एस.गुर्रे ने कहा है कि जाति-भक्ति की भावना ही दूसरी जातियों के प्रति विरोध भाव को उत्पन्न करके समाज में असव्स्थ और हानिकारक वातावरण पैदा कर देती है और राष्ट्रीयता चेतना के प्रसार के मार्ग को अवरूद्ध करती है।

    6. सामाजिक प्रगति में रूकावट है : यह राष्ट्र की सामाजिक और आर्थिक प्रगति में बड़ी भारी रूकावट है। लोग धर्म सिद्धांत में विश्वास करने के कारण रूढ़िवादी बन जाते है। राष्ट्र की तथा भिन्न-भिन्न समूहों और वर्गो की आर्थिक स्थिति ज्यों ही रहती है इससे उनमें निराशा और आलस्य पैदा होकर उनकी आगे बढ़ने और कार्य करने की वृति ही नष्ट हो जाती है।

    7. अप्रजातान्त्रिक : अन्त में, क्योंकि जाति-प्रथा के अन्तर्गत जाति, रूप, रंग और वंश का विचार किये बिना सब लोगों को उनके समान अधिकार प्राप्त नहीं होते इसलिये यह अप्रजातान्त्रिक है। निम्न वर्गो के लोगों के मार्ग में विशेष रूप में रूकावटे डाली जाती है उन्हे बौद्विक, मानसिक और शारीरिक विकास की पूर्ण स्वतंत्रता नहीं दी जाती और न ही उसके लिये अवसर ही प्रदान किये जाते है। जाति-प्रथा के गुण दोषा पर भी भली-भांति विचार करने से पता चलता है कि इसमें गुणों की अपेक्षा दोष अधिक होते है। जैसा कि जेम्स ब्राइस कहता है कि सामाजिक रचना एक महत्वपूर्ण तत्व है। 

    जहां के लोगों को भाषा के आधार पर या धर्म के आधार पर जातीय भेदों के आधार पर अथवा वंश या व्यवसाय के अनुसार समूहीकृत जाति-भेदों के आधार पर बांट दिया जाता है वहां पर लोगों में परस्पर अविश्वास और विरोध पैदा हो जाता है और उनमें परस्पर मिलकर काम करना अथवा विभाग के लिये दूसरों के समान अधिकारों को स्वीकार करना अंसभव हो जाता है। 

    यद्यपि सजातीयता वर्ग-संघर्षो को रोक नहीं सकती और फिर भी समुदाय के प्रत्येक वर्ग को दूसरों के मन को समझने में सहायता करती और राष्ट्र के समान मत पैदा करती है।

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