मानव संचार क्या है?
लोग संचार करते हैं, क्योंकि उन्हें संचार करना पडता है। वाक्य काफी भ्रामक लगा, लेकिन यह सत्य है कि संचार मनुष्य की एक मूल लालसा है। हमारे लिए संचार करना काफी आवश्यक है। मनुष्यों के बीच संचार सिर्फ सूचनाओं की सहभागिता भी हो सकता है। यह भावनाओं व विचारों की सहभागिता भी हो सकती है। हम अपनी जानकारी व अनुभवों की सहभागिता करने के लिए भी संचार कर सकते हैं। सवाल पूछने, उत्तर प्राप्त करने, लोगों को निर्देश या सलाह देने जैसे कितने ही काम हैं, जिनके लिए हमें संचार करना पडता है।
शारीरिक मुद्राएं (अशाब्दिक संचार, सांकेतिक भाषा, शारीरिक भाषा), लेखन, भाषण इत्यादि न जाने कितने स्वरूपों में मानव संचार संभव है।
आइए अब मनुष्यों की भाषा के बारे में बात करते हैं। भाषा एक ऐसी प्रणाली है जो संकेतों जैसे कि आवाज, ध्वनि, स्वरों का उतार-चढाव आदि की सहायता से हमें दूसरों के साथ संचार करने में मदद करती है। मनुष्यों द्वारा लिखित व बोली जाने वाली भाषा को एक चिह्नों व व्याकरण की प्रणाली के रूप में दर्शाया जा सकता है, जिसके माध्यम से हम अर्थों को लोगों के सामने जाहिर करते हैं। इन संकेतों का अर्थ एक समाज विशेष में परिभाषित होता है, यानी लोग इनका मतलब समझते हैं। भाषा सीखने की प्रक्रिया मनुष्य में बाल्यकाल से ही शुरू हो जाती है। विश्व में हजारों भाषाएं हैं, जिनका मानव प्रयोग करते हैं, लेकिन कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जो लगभग हर भाषा में पाई जाती हैं।
हम संचार में भाषा का प्रयोग किस तरह से करते हैं? बोलना भी संचार का एक स्वरूप है। बोलने के दौरान प्रस्तुतिकरण काफी महत्वपूर्ण चीज होती है। संचार का अन्य और शायद सबसे महत्वपूर्ण प्रारूप है संवाद। संवाद संचार की वह प्रक्रिया है, जहां संचार के दोनों ही प्रतिभागी सूचनाओं की सहभागिता के कार्य में सम्मिलित होते हैं। यह संचार का सर्वोत्तम स्वरूप है, क्योंकि इसमें संदेश की स्पष्टता सुनिश्चित होती है। यह स्पष्टता त्वरित प्रतिपुष्टि के चलते मिलती है। प्रतिपुष्टि भी एक संकेतीकृत संदेश होता है, जो कि प्रापक द्वारा प्रेषक को भेजा जाता है। प्रतिपुष्टि प्रेषक द्वारा भेजे गए संदेश का एक तरह से जवाब होता है।
संचार के कई सिद्धांत दर्शाते हैं कि संचार की प्रक्रिया में कम से कम दो प्रतिभागी तो होने ही चाहिएं। इसलिए यह एक आम अवधारणा बन गई है कि संचार किसी व्यक्ति की तरफ इंगित करके ही किया जाता है। लेकिन इसमें अन्त:व्यैक्तिक संचार की अवधारणा को भुला दिया गया है। अन्त:व्यैक्तिक संचार को कई बार स्व: संचार भी कहते हैं। मानव संचार के कई पहलू हैं, लेकिन उनमें सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण हैं:
- शाब्दिक संचार
- अशाब्दिक संचार
जब हम मौखिक या शब्दों की सहायता से दूसरों तक संदेश पहुंचाते हैं तो वह शाब्दिक संचार कहलाता है। इसमें संदेश मौखिक, लिखित या मुद्रित भी हो सकता है। समय के साथ इस क्षेत्र में भी काफी क्रांतिकारी परिवर्तन आए हैं। किताबों से लेकर समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं व सिनेमा से लेकर रेडियो, टीवी, वीडियो, टेप रिकार्डर, इंटरनेट इत्यादि के साथ हमारा संचार करने का तरीका ही बदल गया है। अब डिजीटल उपकरण संचार के क्षेत्र में और भी परिवर्तन लाने जा रहे हैं।
इन नए माध्यमों ने संदेश की पहुंच के अलावा भी कई चीजों को प्रभावित किया है। संदेश की विषय-वस्तु और अर्थों को भी इन्होंने प्रभावित किया है। आधुनिक जनमाध्यमों ने काफी दूरी तक फैले लोगों के बीच सूचना की सहभागिता को संभव बना दिया है। वहीं दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी जनमाध्यम हैं जो कि एकतरफा संचार को प्रोत्साहित करते हैं।
जनमाध्यमों को विशेष रूप से इसी चीज के लिए तैयार किया जाता है कि वे एक बडे जनसमूह तक आसानी से पहुंच सकें। 1920 में राष्ट्रव्यापी रेडियो नेटवर्क आने और काफी बडे पैमाने पर समाचार-पत्रों व पत्रिकाओं का प्रसार होने के दौरान सबसे पहले ‘जनमाध्यम’ शब्द का प्रयोग किया गया। कुछ विशेषज्ञ जनमाध्यमों के आडियंस को एक मास सोसायटी के तौर पर देखते हैं, जिसमें सामाजिक संबंधों का अभाव जैसे कुछ सांझे गुणधर्म होते हैं। यही कारण है कि आज
जनसंचार के आधुनिक हथियार जैसे कि विज्ञापन व दुष्प्रचार इत्यादि उसे आसानी से झुकने का मजबूर कर देते हैं।
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मानव संचार |
संचार एवं समाजीकरण
बच्चा जब पैदा होता है तो उसे कुछ भी पता नहीं होता। सामाजीकरण की प्रक्रिया के दौरान ही हम जीने के लिए आवश्यक मौलिक गुणों को सीख जाते हैं। नवजात बच्चे को पहले पहल काफी देखभाल की आवश्यकता होती है। धीरे-धीरे वह अपने चारों तरफ होने वाली चीजें व परिवेश को देखकर सीखने लगता है। इसके बाद अगला कदम रिश्तों की शुरुआत है। वह अपनी व अपने आसपास के लोगों की भूमिकाओं को समझता है।इसके बाद कुछ रिश्तों विशेष व्यवहार आदि को सीखने की प्रक्रिया शुरू होती है। वह सीखता है कि किस परिस्थिति में दूसरों से किस प्रकार के व्यवहार की आशा की जानी चाहिए। फिर वह अपनी सामाजिक स्थिति को पहचानता है।
भाषा सीखने की प्रक्रिया बच्चे को समाज का एक सक्षम व अभिन्न सदस्य बनाने में सहायता करती है। भाषा में दक्षता सूचना, विचार एवं अनुभवों के दोतरफा आदान-प्रदान को शुरू करवाती है। यही प्रक्रिया है, जो कि उसे तीव्र गति से सामाजीकरण में सहायक सिद्ध होती है।
जैसे-जैसे बच्चा बडा होता जाता है, उसकी काफी लोगों से मुलाकात होती है और वह अनेक स्रातों से सीखने लगता है। यह बात ध्यान देने लायक है कि सामाजीकरण की प्रक्रिया सिर्फ दूसरों से सीखना ही नहीं, बल्कि दूसरों को कुछ सिखाना भी है।
दूसरों को सिखाने की प्रक्रिया काफी देर बाद शुरू होती है। कुछ ऐसी चीजें भी होती हैं जो एक मां अपने बच्चे से सीख सकती है। धीरे-धीरे समाज का यह नया सदस्य न केवल एक प्रशिक्षु रह जाता है, बल्कि वह दूसरों को भी सिखाने लग जाता है। और जिन्दगी भर यह सिलसिला चलता रहता है।
सामाजीकरण कई कार्य करता है। इसका सबसे बडा कार्य तो यही है कि यह सिर्फ एक जैविक प्राणी को सामाजिक प्राणी बनने में सहायता करता है। यह सामाजिक नियमों से भी अवगत करवाता है। सामाजीकरण की यही प्रक्रिया ज्ञान को एक पीढी से दूसरी पीढी तक पहुंचाने में मदद करती है। इस प्रक्रिया के दौरान ही मनुष्य संयम में रहना सीखता है। यह मनुष्य को भद्रता एवं शांति से रहने की सीख देता है।
यह प्रक्रिया समाज के हर सदस्य को अपनी एक अलग पहचान उपलब्ध करवाती है। लिंग, रिश्ते, जाति, वर्ग, धर्म, आयु इत्यादि चरित्रों के आधार पर हर आदमी की अलग पहचान होती है। लोगों को पहचान उपलब्ध करवाने की प्रक्रिया काफी धीमी एवं सुस्त है। जिन्दगी के शुरुआती दिनों में तो यह प्रक्रिया काफी धीमी होती है, लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता है व्यक्ति की पहचान स्थापित होने लगती है। लिंग, जाति जैसी कुछ पहचान तो जन्म से ही निर्धारित होती हैं। व्यवसाय, जीवन स्तर इत्यादि को कोई भी व्यक्ति अपने प्रयासों से प्राप्त करता है।
हम चर्चा कर चुके हैं कि सामाजीकरण एक जीवन पर्यन्त चलने वाली प्रक्रिया है। यह बच्चे के जन्म के साथ शुरू होती है और प्रारम्भिक सामाजीकरण परिवार के भीतर ही होता है। स्कूलों व कालेजों में ली जाने वाली शिक्षा के दौरान औपचारिक रूप से सामाजीकरण की शुरुआत होती है। शादी के बाद भी मनुष्य की पति, पत्नी, पिता, माता, दादा, दादी के रूप में भूमिकाएं बदलती रहती हैं। सामाजीकरण की प्रक्रिया में कई संस्थाएं मनुष्य की सहायता करती हैं। परिवार, स्कूल, कालेज, मित्र, रिश्तेदार आदि इन संस्थाओं में प्रमुख हैं। सामाजीकरण के मुख्य अभिकर्ता इस प्रकार हैं:
- परिवार,
- शैक्षणिक संस्थान,
- समान वर्ग, पद या योग्यता के समूह,
- धार्मिक संस्थान,
- जनसंचार के विभिन्न माध्यम।
संचार एवं संस्कृति
मोटे तौर पर कहा जाए तो आधुनिक संस्कृति का महत्व संचार के बिना कुछ नहीं है। संचार के कारण ही संस्कृति विकसित होती है और उसके सहारे ही फलती-फूलती है। संचार के कारण ही संस्कृति बडे क्षेत्र तक फैल कर लोगों की जीवन शैली का हिस्सा बन जाती है। और संचार ही संस्कृति संस्कृतियों के पार ले जाने में सहायता करता है।संस्कृति भी कुछ संचारित करती है। यह कुछ प्रचलनों व परम्पराओं के बारे मे संचार करती है। यह हमें भूतकाल के बारे में बताती है। यदि संचार की क्षमता प्रदान न की जाए तो कोई भी संस्कृति अपना अस्तित्व नहीं बचा सकती। संचार हमें अपने और दूसरों की संस्कृति के बारे में प्रत्यक्षबोध बढाने में मदद करता है। संस्कृति के संदर्भ में संचार में समझ की भावना होना कोई आवश्यक नहीं है। यह तो संदेश, छवियों और संकेतों के प्रति प्रत्यक्षबोध पर आधारित है। बौद्धिक रूप से यह कोई मांग नहीं करता है। ऐसा इसलिए है कि संस्कृति में भावों के प्राथमिक प्रारूपों का प्रयोग किया जाता है। संदेश की गुणवत्ता उसका मजबूत पक्ष नहीं है, बल्कि यह उसकी प्रतिध्वनि, बाद के प्रभावों और संदेश के प्रसारण की व्यापकता पर निर्भर करता है।
संचार के माध्यम से संस्कृति का प्रसार बहुत दूर-दूर तक हुआ है। (नि:संदेह संचार किसी भी चीज को फैलाने के लिए उपयुक्त तरीका है।) संचार को भी विभिन्न संस्कृतियों से बहुत कुछ मिला है। संस्कृति से संचार ने मुहावरे, बनावट आदि को प्राप्त किया है।
उपर्युक्त अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि संचार व संस्कृति एक दूसरे के पूरक हैं।
जन संचार की प्रणालियों के विकास के चलते हमारे सांस्कृतिक अनुभव काफी प्रभावित हुए हैं। उदाहरण के लिए हाल ही में हुए शोधों से पता चला है कि हम सप्ताह भर में 18 से 35 घंटे केवल टीवी देखने में ही गुजार देते हैं। मतलब रोजाना तीन से चार घंटे टीवी देखना एक सामान्य बात हो गई है। जन माध्यमों के साथ हम अपना काफी समय खर्च करते हैं। यह अलग-अलग व्यक्ति पर निर्भर करता है कि उसने इस समय को खराब किया या उसका सही इस्तेमाल किया।
संस्कृति से क्या अभिप्राय है
हम सब परिवेश, परिवार, स्कूल, कार्य स्थल इत्यादि कई विशेष परिस्थितियों में दिनभर में रहते हैं। यह सभी चीजें हमारी व्यक्तिगत पहचान को स्वरूप प्रदान करती हैं। इसको पारिस्थितिक संस्कृति कहा जाता है। यह हमारी सामान्य जिन्दगी के हर दिन की बात है, जिसमें हम रोजाना उन्हीं व्यक्तियों से मिलते हैं, और उन्हीं जगहों पर घूमते हैं। यह एक छोटे स्तर पर होने वाला संचार है, जो ज्यादातर मौखिक ही होता है।लेकिन 19वीं शताब्दी के मध्य के बाद से हम केवल पारिस्थितिक संस्कृति में नहीं, बल्कि एक मध्यस्थ संस्कृति में रहते हैं। समाचार-पत्र, पत्रिकाएं, सिनेमा, रेडियो, टीवी और अब इंटरनेट संस्कृतियों के तीव्र प्रसार के नए माध्यम बन गए हैं। अब हमारी मध्यस्थ संस्कृति चारों तरफ से मध्यस्थ संस्कृति से घिरी हुई है। 1960 में सामने आया शब्द ‘वैश्विक गांव’ यह दिखाता है कि किस प्रकार जनसंचार की प्रणालियों के विकास से हमारा संसार बिल्कुल परिवर्तित हो गया है।
संस्कृति व जनसंचार में क्या संबंध हैं?
विश्वास, मूल्य और वे सभी तथ्य जो कि हमारों अनुभवों का निर्माण करते हैं, संस्कृति के रूप में परिभाषित किए जा सकते हैं। इन मूल्यों व विचारों को हम दूसरों तक किस प्रकार पहुंचाएं इसके बारे में संस्कृति हमें बताती है।जनसंचार हर प्रकार के सांस्कृतिक पहलुओं को आगे बढाने व प्रसारित करने में हमारी मदद करता है। यह आधुनिक संस्कृतियों के निर्माण कार्य में भी शामिल रहता है। जनमाध्यमों के उत्पाद व जनमाध्यम ग्राहयता आदि आपस में गुंथे हुए हैं। जो कुछ भी उत्पादित किया जा रहा है, वह सांस्कृतिक मूल्यों द्वारा निर्धारित किया जाता है। जनमाध्यमों के संदेश की संरचना क्या होगी व प्रस्तुतिकरण क्या रहेगा, यह सब सांस्कृतिक मूल्यों पर ही निर्भर करता है। और इस संदेश के प्रति हमारा बोध भी कुछ सांस्कृतिक दृष्टिकोणों से प्रभावित होता है।