जल संभर प्रबंधन क्या है जल संभर प्रबंधन कार्यक्रमों में 2 अरब डालर खर्च कर चुकी है सरकार

वह भूमि जिसका जल प्रवाहित एक ही झील या नदी में आता है, वह एक जल संभर कहलाती है। जल संभर का अभिप्राय एक ऐसे क्षेत्र से है जिसका जल एक बिन्दु की ओर प्रवाहित होता है। इस जल का योजनाबद्ध तरीके से उपयोग अच्छे परिणाम देने वाला बन सकता है। संबंधित क्षेत्र एक इकाई के रूप में एक गांव हो सकता है अथवा गाँवों का समूह भी। इस क्षेत्र में कृषि, बंजर, वन आदि सभी प्रकार की भूमियाँ शामिल हो सकती हैं। जल संभर कार्यक्रमों से भूमि का अधिकतम उपयोग संभव है। इस प्रकार किसी क्षेत्र विशेष में जल के हर संभव उपयोग को ही जल संभर प्रबंधन (Watershed management) कहते हैं।

जल संभर प्रबंधन से लाभ 

जल संभर प्रबंधन के द्वारा लाभ प्राप्त किए जा सकते हैं-
  1. पीने और सिंचाई के लिए जल की आपूर्ति,
  2. जैव विविधता में वृद्धि,
  3. जलाक्रान्त तथा लवणता का ह्रास,
  4. कृषि उत्पादन और उत्पादकता में वृद्धि,
  5. वनों के कटाव में कमी,
  6. जीवन स्तर उठना,
  7.  रोजगार में वृद्धि,
  8. स्थानीय लोगों की सहभागिता से आपसी मेल-जोल बढ़ना।

जल संभर प्रबंधन से अपेक्षित परिणाम

 जल संभर प्रबंधन परियोजना से अभी तक इच्छित परिणाम नहीं मिल सके हैं। जबकि भारत सरकार 2000 तक विभिन्न मंत्रालयों के माध्यमों से जल संभर प्रबंधन कार्यक्रमों में 2 अरब डालर खर्च कर चुकी है। इसके लिए निम्नकारक उत्तरदाई हैं-
  1. वैज्ञानिक सोच का अभाव,
  2. तकनीकी कमियाँ,
  3. स्थानीय लोगों के सहयोग की कमी,
  4. विभिन्न विभागों के बीच आपसी सहयोग का अभाव तथा
  5. पृथक मंत्रालय का न होना।

नदी संयोजन

देश के विस्तृत क्षेत्र सूखा तथा बाढ़ से पीड़ित रहते हैं। सूखा और बाढ़ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इस समस्या के हल के लिए 1982 में ‘राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण’ का गठन किया गया। इसके गठन का मुख्य उद्देश्य ‘राष्ट्रीय जल के जाल’ की पहचान करना मात्रा था। अंतत: राष्ट्रीय जल विकास अभिकरण ने 30 नदी जुड़ावों की पहचान की है। इस कार्यक्रम में बड़ी नदियों को प्रमुखता से शामिल किया गया है। अभिकरण ने 6 जुड़ाव स्थलों पर काम करने की संस्तुति की है तथा तीन चरणों में उन्हें पूरा करने की बात कही है।

प्रथम चरण में प्रमुख प्रायद्वीपीय नदियों-महानदी, गोदावरी, कृष्णा और कावेरी को शामिल किया गया है।

द्वितीय चरण के अंतर्गत प्रायद्वीपीय भारत की छोटी-छोटी नदी द्रोणियों को एक दूसरे से जोड़ने की बात रखी गई है, जिसमें केन-बेतवा तथा पार-तापी नदियाँ शामिल हैं।

तृतीय चरण में गंगा और ब्रह्मपुत्रा की सहायक नदियों को एक दूसरे से जोड़ने का प्रावधान रखा है।

नदी संयोजन से लाभ

नदी द्रोणियों को आपस में जोड़ने से बहुमुखी विकास संभव है। इस कार्यक्रम की सफलता से पृष्ठीय जल द्वारा 250 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त कृषि क्षेत्र पर सिंचाई संभव हो सकेगी। 100 लाख हेक्टेयर अतिरिक्त कृषि क्षेत्र को सिंचाई के लिए भूमिगत जल उपलब्ध हो सकेगा। अंतत: सिंचित क्षेत्र 1130 लाख हेक्टेयर से बढ़कर 1500 लाख हेक्टेयर हो जाएगा। 340 लाख कि.वा. अतिरिक्त जल विद्युत का निर्माण हो सकेगा। इन लाभों के अतिरिक्त कई और भी लाभ मिल सकेंगे जैसे बाढ़ नियंत्राण, जल परिवहन, जलापूर्ति, मत्स्यन, क्षारीयपन का दूर होना तथा जल प्रदूषण नियंत्रण शामिल हैं। परन्तु इन सभी लाभों को सहज प्राप्त नहीं किया जा सकता। ये परियोजनाएं बहुत ही व्यय साध्य एवं समय साध्य हैं। ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 560 हजार करोड़ रुपये की विशाल धन राशि की आवश्यकता होगी।

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