जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय एवं प्रमुख रचनाएं

जयशंकर प्रसाद का जीवन परिचय

जयशंकर प्रसाद (सन् 1890-1937 ई.) का जन्म माघ शुक्ल दशमी, संवत् 1946 वि. को वाराणसी के प्रसिद्ध तंबाकू के भारी व्यापारी सुंघनी साहू के पुत्र रूप में हुआ। जयशंकर प्रसाद के पिता शिवरतन साहू काशी के अति प्रतिष्ठित नागरिक थे। अवधि में सुंघनी सूंघने वाली तंबाकू को कहते हैं। यह परिवार अति उत्तम कोटि की तम्बाकू का निर्माण करता था इसीलिए नाम ही सुंघनी साहू पड़ गया। भरा-पूरा परिवार था। कोई भी धार्मिक अथवा विद्वान काशी में आता तो साहू जी उसकी अत्यधिक सेवा करते थे। दानी परिवार था। कवियों, गायकों तथा कलाकारों की गोष्ठियां उनके घर पर चलती रहती थीं। महादेव नाम से प्रसिद्ध थे।

शैशवावस्था में ही खेलने की अनेक वस्तुओं में से लेखनी का चयन किया था। नौ वर्ष की अवस्था में कलाधर उपनाम से कविता रचकर अपने गुरू रसमय सिद्ध को दिखलाई। इनका परिवार शैव था। घर पर ही संस्कृत, हिंदी, अंग्रेजी तथा फारसी आदि भाषाओं के पढ़ने की व्यवस्था थी।

बारह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। अग्रज शंभुरतन का ध्यान व्यवसाय की ओर अधिक न था। देवी प्रसाद की मृत्यु के बाद गृहकलह ने जन्म लिया। मकान बिक गया। कॉलेज की पढ़ाई छूट गई। आठवीं कक्षा तक ही पढ़ सके। उपनिषद्, पुराण, वेद एवं भारतीय दर्शन का अध्ययन घर पर चलता रहा। जयशंकर प्रसाद जी कसरत किया करते थे। दुकान बही पर बैठे-बैठे कविता लिखा करते थे। 

माता की मृत्यु के दो वर्ष बाद अनुज भी चल बसे। सत्रह वर्ष की अवस्था में उत्तरदायित्व का भार आ गया। स्वयं विवाह करना पड़ा। तीन विवाह किए। साहित्य साधना रात्रि में होती थी। जयशंकर प्रसाद की कविता का आरंभ ब्रजभाषा से हुआ।

जयशंकर प्रसाद जी ने तीन विवाह किए थे। प्रथम पत्नी का क्षय रोग से तथा द्वितीय का प्रसूति के समय देहावसान हो गया था। तीसरी पत्नी से इन्हें रत्न शंकर नामक पुत्रा की प्राप्ति हुई। जीवन के अन्तिम दिनों में जयशंकर प्रसाद जी उदर रोग से ग्रस्त हो गए थे तथा इसी रोग ने कार्तिक शुक्ला देवोत्थान एकादशी, विक्रम संवत् 1994 को इस बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति का देहावसान हो गया।

हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में जयशंकर प्रसाद जी की बहुमुखी देन है। उन्होंने उपन्यास, काव्य, नाटक, कहानी, निबंध, चम्पू आदि सभी विधाओं पर सशक्त रूप से लेख्नी चलाई है। लेकिन फिर भी उनकी अमर कीर्ति का आधार स्तंभ काव्य और नाटक ही हैं। इनके उज्ज्वल व्यक्तित्व के अनुसार इनका रचना संसार अत्यंत विस्तृत और बहुआयामी है। इन्होंने नौ वर्ष की अल्पायु में ही कलाधार उपनाम से ब्रजभाषा में रचना प्रारम्भ कर दी थी।

जयशंकर प्रसाद का व्यक्तित्व 

जयशंकर प्रसाद का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। वे मंझोले कद के थे। उनका वर्ण और गौर और मुख गोल था। उनकी हँसी बड़ी स्वाभाविक और मधुर थी। जवानी में वे ढाका की मलमल का कुरता और बढ़िया धाते ी पहनते थे। परन्तु बाद में खद्दर का उपयोग करने लगे थे। श्री रामनाथ ‘सुमन’ प्रसाद जी के निकट सम्पर्क में रहे। उन्होंने ‘प्रसाद’ जी के व्यक्तित्व के सम्बंध में लिखा है- ‘‘व्यक्ति की दृष्टि से जयशंकर प्रसाद एक उच्चकोटि के महापुरुष थे। वे कवि होने के कारण उदार व्यापारी होने के कारण व्यवहारशील, पुराण शास्त्र, संस्कृत.काव्य आदि के विशेष अध्ययन के कारण प्राचीनता की ओर झुके हुए, भारतीय आचारों एवं भारतीय सभ्यता के प्रति ममता रखने वाले तथा एक सीमा तक पाश्चात्य सभ्यता के गुणों के प्रशसंक थे।

भारत में प्राचीन इतिहास का अध्ययन जयशंकर प्रसाद का प्रिय विषय था। वे केवल ऐतिहासिक घटनाओं के बाह्य या तथ्यात्मक रूप से ही सन्तुष्ट होने वाले प्राणी नहीं थे, अपितु उन घटनाओं के भीतर प्रविष्ट होकर तत्त्व चिन्तन से उनके मर्म का उद्घाटन करने में लगे रहते थे। यही कारण है कि उनके ऐतिहासिक नाटक अन्तर्द्वन्द्व प्रधान है। उनके कथानकों का आधार सांस्कृतिक संघर्ष है। वे संस्कृति, सभ्यता, धर्म दर्शन और नीति के माध्यम से इतिहास का मूल्यांकन करते थे। उनका ऐतिहासिक और शास्त्रीय .ज्ञान असाधारण था। यह एक आश्चर्य की बात थी कि वे दार्शनिक चिन्तन और ऐतिहासिक अध्ययन मनन के लिए कम अवकाश निकाल पाते थे। 

उनकी दिनचर्या में अध्ययन और साहित्य.साधना का प्रथम और प्रमुख स्थान प्राप्त था। ब्रह्म मुहूर्त में उठकर साहित्य सर्जन में लीन हो जाना उनका अभ्यास ही हो गया था। जब अध्ययन और साहित्य सृजन हो जाता था, तब वे बेनिया बाग में टहलने के लिए निकल पड़ते थे। वहाँ भी साहित्यिक मित्रों के साथ वार्तालाप किया करते थे।

जयशंकर प्रसाद अन्तर्मुखी व्यक्ति थे। आत्म विज्ञापन करना वे अच्छा नहीं समझते थे। समारोह में जाना, सभापति बनना और भाषण देना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। प्रात: काल के भ्रमण के बाद वे दो घण्टे तक अपने व्यवसाय की देखभाल करते, दोपहर को 12 बजे भोजन करके दो घण्टे नित्य विश्राम करते और तीन बजे पुन: अपने कारोबार की देख रेख करते तथा व्यावसायिक पत्रों का उत्तर लिखते थे। रात्रि के नौ बजे तक वे अपनी दूकान पर बैठे रहते और साहित्यक बन्धुओं के साथ विविध विषयों पर चर्चा करते थे। 

जयशंकर प्रसाद की प्रमुख रचनाएं

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1. काव्य -जयशंकर प्रसाद जी काव्य और कविता-संग्रह हैं:- 
  1. कामायनी 
  2. आँसू 
  3. झरना 
  4. लहर 
  5. महाराणा का महत्त्व 
  6. प्रेम पथिक 
  7. कानन कुसुम 
  8. चित्राधार 
  9. करुणालय।
2. नाटक -जयशंकर प्रसाद के नाटक हैं- 
  1. राज्यश्री 
  2. विशाख 
  3. अजातशत्रु 
  4. जनमेजय का नाग यज्ञ 
  5. कामना 
  6. स्कन्दगुप्त 
  7. एक घूंट 
  8. चन्द्रगुप्त 
  9. ध्रुवस्वामिनी 
  10. कल्याणी-परिणय 
  11. सज्जन।
3. उपन्यास -जयशंकर प्रसाद जी के उपन्यास - 
  1. कंकाल
  2. तितली 
  3. इरावती (इसे वे पूरा नहीं कर पाए, क्योंकि इसके प्रणयन में संलग्न रहते हुए वे अकाल काल-कवलित हो गए।)
4.कहानी - जयशंकर प्रसाद जी के कहानी संग्रहों के नाम हैं-
  1. आकाशदीप 
  2. इन्द्रजाल
  3. प्रतिध्वनि 
  4. आँधी 
  5. छाया।
5. निबन्ध और आलोचना -जयशंकर प्रसाद ने यद्यपि किसी विशाल आलोचनात्मक granth की रचना नहीं की, तथापि उनके आलोचनात्मक निबन्ध ही उनकी गवेषणात्मक, प्रज्ञा, विश्लेषण, मनीषा और विचाराभिव्यक्ति के परिवाचक हैं। काव्य कला तथा अन्य निबन्ध में इनके आलोचनात्मक निबन्ध संग्रहीत हैं।

6. चम्पू -जयशंकर प्रसाद ने चम्पू काव्य की भी रचना की है। इनकी इस प्रकार की रचना का नाम है- उर्वशी। इसके साथ ही इन्होंनें एक काव्य कहानी भी लिखी है जो प्रेम राज्य के नाम से प्रसिद्ध है। 

जयशंकर प्रसाद जी की रचनाओं के उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि उन्होंने तत्कालीन युग में प्रचलित गद्य एवं पद्य साहित्य की समस्त विद्याओं में लिखा तथा साहित्य के सर्वांगीण विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 

जयशंकर प्रसाद की साहित्यिक विशेषताएं 

‘प्रेम पथिक’ की रचना पहले ब्रजभाषा में की गई थी बाद में उसे खड़ी बोली में रूपांतरित कर दिया गया। ‘झरना’ के पूर्व की सभी रचनाएं द्विवेदी युग में लिखी गई थीं। जयशंकर प्रसाद की आरंभिक शैली संस्कृत गर्भित है। ‘झरना’ में कवि ने आंतरिक कल्पना द्वारा सूक्ष्म भावनाओं को व्यक्त किया है। बाह्य सौंदर्य का चित्रण करते समय भी उन्होंने सूक्ष्म और मानसिक पक्ष को व्यक्त करने की ओर ध्यान दिया है। ‘आंसू’ का आरंभ कवि की विरह-वेदना से हुआ है। अंत में ‘आंसू’ को विश्व-कल्याण की भावना से संबंधित कर दिया है। अंत तक आते-आते कवि अपने व्यक्तिगत जीवन की निराशा और विषाद से ऊपर उठकर अपनी पीड़ा को करुणा का रूप देकर विश्व प्रेम में बदल देता है। ‘लहर’ गीत कला का सुंदर उदाहरण है। कल्पना की मनोरमता, भावुकता तथा भाषा शैली की प्रौढ़ता सर्वत्र दृष्टिगोचर होती है। ‘कामायनी’ अंतिम कृति है। इसके द्वारा मानव सभ्यता दिखलाई गई है। 

संक्षिप्त कथानक में मानव जीवन के अनेक पक्षों को समन्वित करके मानव जीवन हेतु व्यापक आदर्श व्यवस्था का प्रयत्न किया है। पात्रों के चरित्रांकन में मनुष्य की अनुभूतियों, कामनाओं और आकांक्षाओं की अनेक रूपता वर्णित है। यह कामायनी की चेतना का मनोवैज्ञानिक पक्ष है। मनु श्रद्धा, इड़ा एवं मानव के द्वारा मानव मात्रा के मनोजगत के विविध पक्षों का चित्राण चिंता, आशा, वासना, ईर्ष्या, संघर्ष एवं आनंद आदि सर्गों में किया गया है। 

इतिहास में रूपक का भी अद्भुत सम्मिश्रण हो गया है। पात्रों के ऐतिहासिक महत्व के साथ-साथ सांकेतिक अर्थ भी है। मनु-मन, श्रद्धा-हृदय तथा इड़ा-मस्तिष्क का प्रतीक है। बुद्धिवाद के विरोध में हृदय पक्ष की प्रधानता दिखलाई गई है। शैव दर्शन के आनंदवाद को जीवन के पूर्ण उत्कर्ष का साधन स्वीकारा गया है। ‘कामायनी’ गौरवशाली उपलब्धि है।

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