मुद्रास्फीति क्या है इसके कारण

अर्थव्यवस्था में जब मुद्रा की मात्रा बढ़ जाती है और उसका मूल्य कम हो जाता है और साथ ही साथ मूल्य स्तर भी बढ़ता है तो मुद्रा स्फीति की स्थिति पैदा हो जाती है। कीमत स्तर में होने वाली लगातार वृद्धि को मुद्रा स्फीति कहते है। ऐसे में सरकारी बजट में लगातार घाटा रहता है। बहुत अधिक भाग होने पर वस्तुओं एवं सेवाओं की पूर्ति उसे पूरा नहीं कर पाती तो कीमतों पर इसका प्रभाव पड़ने लगता है। कीमतों में इस लगातार वृद्धि को मुद्रास्फीति कहा जाता है।

संक्षेप में कहा जा सकता है कि मुद्रास्फीति कीमत स्तर के निरन्तर बढ़ने की प्रक्रिया है।

मुद्रास्फीति की परिभाषा

विभिन्न अर्थशास्त्रियों ने विभिन्न परिभाषाएँ इस संदर्भ में प्रस्तुत की है -

सेम्यूलसन के शब्दों में, ‘‘मुद्रा स्फीति का अभिप्राय उस समय से है जिससे कीमते बढ़ी रही होती है।

गार्डनर एक्ले - ‘‘हम मुद्रा स्फीति की परिभाषा बढ़ी हुयी कीमतों के रूप में देते है न कि ऊँची कीमतो के रूप में।

शीपीरो के अनुसार, ‘‘मुद्रा स्फीति कीमत स्तर में होने वाली निरन्तर और अत्यधिक वृद्धि है।

कोलबोर्न के अनुसार, ‘‘मुद्रास्फीति वह अवस्था है जिसमें बहुत अधिक मुद्रा बहुत कम वस्तुओं का पीछा करती है।

मुद्रास्फीति के प्रकार

  1. खुली मुद्रास्फीति
  2. दबी मुद्रास्फीति 
  3. युद्धकालीन मुद्रास्फीति
  4. युद्धोत्तर मुद्रास्फीति
  5. शांतिकालीन मुद्रास्फीति
  6. रेंगती मुद्रास्फीति
  7. चलती मुद्रास्फीति
  8. दौड़ती मुद्रास्फीति
  9. सरपट दौड़ती मुद्रास्फीति या अति मुद्रास्फीति
  10. क्षेत्रीय या विकीर्ण मुद्रास्फीति
  11. व्यापक मुद्रास्फीति
  12. मजदूरी प्रेरित मुद्रास्फीति
  13. लाभ प्रेरित या ‘मार्क अप’ मुद्रास्फीति
  14. अवरोध गति मुद्रास्फीति
  15. अवरोध गति मुद्रास्फीति
1. खुली मुद्रास्फीति - खुली मुद्रास्फीति वह स्थिति है जिसमें कीमतों में होने वाली वृद्धि को नियन्त्रित करने के लिये कोई उपाय नहीं अपनाए जाते। मिल्टन फ्रीडमैन के अनुसार, ‘‘खुली मुद्रास्फीति वह प्रक्रिया है जिसमें कीमतों को बिना सरकारी नियन्त्रणों के या इसी प्रकार की तकनीकों के, बढ़ने दिया जाता है।’’ खुली मुद्रास्फीति में कीमत संयंत्रा वस्तुओं के वितरण का कार्य करता है। जर्मनी में प्रथम महायुद्ध के पश्चात होने वाली, मुद्रास्फीति, खुली मुद्रास्फीति का महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।

2. दबी मुद्रास्फीति - जब बढ़ती हुई कीमतों को प्रशासनिक उपायों जैसे-राशनिंग, कीमत नियन्त्रण इत्यादि द्वारा सरकार दबा देती है अर्थात् कीमतों को नहीं बढ़ने देती तो इसे दबी मुद्रास्फीति कहते हैं। अतएव दबी हुई मुद्रास्फीति वह स्फीति है जिसमें वर्तमान समय में कीमतों में होने वाली वृद्धि को सरकार ने दबा दिया है। परन्तु भविष्य में जैसे ही सरकारी नियंत्रण समाप्त हो जाते हैं कीमतें तेजी से बढ़ने लगती हैं। 

दबी मुद्रास्फीति में, मूल्य नियंत्रण व राशनिंग प्रशासकों के भ्रष्ट तथा अनुभवहीन होने के कारण काले बाजार को प्रोत्साहन मिलता है। दबी स्फीति में कीमत संयंत्रा अपना कार्य नहीं कर पाती। 

इसका कारण यह है कि दबी मुद्रास्फीति में राशनिंग और कीमत नियंत्रण के फलस्वरूप चोर बाजारी, भ्रष्टाचार तथा रिश्वत में वृद्धि होती है और साधनों का अनुचित बंटवारा होता है।

3. युद्धकालीन मुद्रास्फीति - युद्ध के खर्चों को पूरा करने के लिए सरकार मुद्रा की पूर्ति में बहुत अधिक वृद्धि कर देती है। इस प्रकार आम जनता के उपभोग के लिये बहुत कम वस्तुयें उपलब्ध होती हैं। इसके कारण कीमतें बढ़ जाती हैं। इस कारण युद्ध के समय जो मुद्रास्फीति होती है उसे युद्धकालीन मुद्रास्फीति कहते हैं।

4. युद्धोत्तर मुद्रास्फीति - युद्ध के पश्चात भी मुख्य रूप से दो कारणों से मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति जारी रह सकती है। युठ्ठ के दौरान लगाए गए कर इत्यादि युद्ध के पश्चात हटाए जाने के कारण तथा सरकारी ऋणों की वापसी के फलस्वरूप लोगोंं के पास भी मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है। परंतु वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन इसकी तुलना में कम बढ़ता है। 

5. शांतिकालीन मुद्रास्फीति - अविकसित देशों को आर्थिक नियोजन तथा विकास कार्यक्रमों के लिये अत्याधिक साधनों की आवश्यकता होती है। इसके लिए सरकार को घाटे की वित्त व्यवस्था अपनानी पड़ती है। इसके फलस्वरूप कीमतों में जो वृद्धि होती है, उसे शांतिकालीन स्फीति कहा जाता है।

6. रेंगती मुद्रास्फीति - रेंगती मुद्रास्फीति उस समय होती है जबकि कीमतों में वृद्धि धीरे-धीरे हो। इस प्रकार की स्फीति आर्थिक विकास के लिये उपयुक्त तथा किसी सीमा तक आवश्यक समझी जाती है। कुछ अर्थशािस्त्रायों के अनुसार कीमत स्तर में तीन प्रतिशत वृद्धि तक को रेंगती हुई मुद्रास्फीति कहा जाता है। इसके विपरीत कई अर्थशािस्त्रायों के अनुसार रेंगती मुद्रास्फीति भी हानिकारक हो सकती है। क्योंकि यह मुद्रास्फीति धीरे-धीरे भयंकर रूप धारण कर सकती है।

7. चलती मुद्रास्फीति - जब कीमतों में वृद्धि की गति बढ़ने लगती है और मुद्रास्फीति की मात्रा में कुछ तेजी आ जाती है तो इसे चलती मुद्रास्फीति कहा जाता है। जब किसी दशक में कीमतों में होने वाली वृद्धि 30 : से 40: हो जाती है तो उसे चलती मुद्रास्फीति कहते हैं।

8. दौड़ती मुद्रास्फीति - जब कीमतों में वृद्धि की गति अत्याधिक तीव्र हो जाती है और थोड़े ही समय में कीमतों में पर्याप्त मात्रा में वृद्धि हो जाती है तो उसे दौड़ती हुई मुद्रास्फीति कहा जाता है। इस अवस्था में मुद्रास्फीति 80 से 100 प्रतिशत हो सकती है। यह स्थिति बचत को भी हतोत्साहित करती है।

9. सरपट दौड़ती मुद्रास्फीति या अति मुद्रास्फीति - मुद्रास्फीति की यह एक ऐसी अवस्था है जिसमें कीमतों में अप्रत्याशित तीव्र गति से वृद्धि होती है। इस अवस्था को मुद्रास्फीति का ‘भयंकर राक्षस’ कहते हैं। जर्मनी में 1923 के पश्चात इसी प्रकार की मुद्रास्फीति ने लोगों का जर्मनी की करेन्सी में विश्वास बिल्कुल समाप्त कर दिया था। जर्मनी में तो कीमतें एक दफा एक साल की अवधि में दस लाख गुणा अधिक हो गई थीं। समाज का निश्चित आय वाला वर्ग तथा निर्धन वर्ग बिल्कुल तबाह हो जाता हैं।

10. क्षेत्रीय या विकीर्ण मुद्रास्फीति - जब मुद्रास्फीति का चुनाव देश के किसी एक भाग में या किन्हीं एक या दो प्रकार की वस्तुओं जैसे - दालें, पैट्रोल इत्यादि पर हो तो इसे विकीर्ण मुद्रास्फीति कहा जाता है।

11. व्यापक मुद्रास्फीति - मुद्रास्फीति का प्रभाव जब केवल एक क्षेत्र में तथा वस्तुओं पर न रहकर सारे देश में तथा सभी वस्तुओं पर दिखाई देता है तो उसे व्यापक मुद्रास्फीति कहते हैं।

12. मजदूरी प्रेरित मुद्रास्फीति - श्रमिकों के संगठन शक्तिशाली होने के कारण उनकी सौदा करने की शक्ति बढ़ जाती है और श्रमिक अधिक मजदूरी की मांग करते हैं।

13. लाभ प्रेरित या ‘मार्क अप’ मुद्रास्फीति - विकसित देशों में बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपनी वस्तुओं की कीमत निर्धारित करते समय उनकी लागत के ऊपर एक निश्चित प्रतिशत लाभ के रूप में बढ़ा देती है। ये कम्पनियाँ ‘मार्क अप’ को काफी ऊंचा रखती है। इस प्रकार की मुद्रास्फीति को ‘मार्क अप’ स्फीति कहा जाता है।

14. घाटा प्रेरित मुद्रास्फीति - सरकार की धाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप जो मुद्रास्फीति होती है, उसे घाटा जवित मुद्रास्फीति कहते हैं। यह स्थिति उस समय होती है, जब घाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप मुद्रा की पूर्ति बढ़ जाती है परन्तु वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति उस अनुपात में नहीं बढ़ती।

15. अवरोध गति मुद्रास्फीति - सन् 1970 के पश्चात संसार के विकसित देशों में एक नई प्रकार की स्थिति उत्पन्न हो गई थी। साधारणतया मुद्रास्फीति की स्थिति में एक ओर कीमतें बढ़ती हैं तो दूसरी ओर उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि होती है परन्तु इस नई स्थिति में एक ओर कीमतें तो बढ़ रही थीं परंतु दूसरी ओर उत्पादन तथा रोजगार में वृद्धि नहीं हो पा रही थी। 

प्रो. सैम्यूअलसन के अनुसार, ‘‘गतिरोध स्फीति एक ऐसी स्फीति है, जहां कीमतों तथा मजदूरी में वृद्धि होने पर भी अधिकतर व्यक्ति रोजगार पाने में असमर्थ होते हैं तथा फर्मे अपने कारखानों में उत्पन्न माल को बेचने में असमर्थ होती हैं।’’

मुद्रास्फीति के कारण

1. मांग पक्ष 

मांग से अभिप्राय वस्तुओं के लिए मुद्रा की मांग से है। मुद्रा की मांग में इन कारणों से वृद्धि होती है।

1. सार्वजनिक व्यय में वृद्धि - जब भी देश में सार्वजनिक व्यय में वृद्धि होती है तो उससे देश में क्रय शक्ति बढ़ जाती है। क्रय शक्ति के बढ़ने से वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग भी बढ़ जाती है। यह स्थिति पूर्ण रोजगार बिंदु के पूर्व भी हो सकती है। जबकि अर्थव्यवस्था में कई अवरोधों के कारण उत्पादन बढ़ने की गति धीमी हो जाती है।

2. घाटे की वित्त व्यवस्था - सरकार अपनी आय तथा खर्च के घाटे को पूरा करने के लिए घाटे की वित्त व्यवस्था की नीति भी अपनाती है। घाटे की वित्त व्यवस्था के फलस्वरूप लोगोंं की मौद्रिक आय बढ़ जाती है। परंतु उत्पादन उस सीमा तक नहीं बढ़ने पाता। इस कारण कीमत स्तर बढ़ जाता है। इसलिए आजकल भारत जैसे देशों में मुद्रास्फीति का मुख्य कारण घाटे की वित्त व्यवस्था है।

3. सस्ती मौद्रिक नीति - सरकार की सस्ती मौद्रिक तथा साख नीति के कारण मुद्रा की पूर्ति में वृद्धि हो जाती है जिससे वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है परन्तु उनकी पूर्ति उस अनुपात में नहीं बढ़ने पाती इसलिए उनकी कीमतों में वृद्धि हो जाती है। जिससे मौद्रिक आय बढ़ती है और इसके फलस्वरूप भी कीमतों में वृद्धि हो होती है।

4. व्यय योग्य आय में वृद्धि - मुद्रास्फीति का दूसरा कारण उपभोक्ता की व्यय योग्य आय में होने वाली वृद्धि है। जब कुछ लोग अधिक वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोग करके जीवन स्तर अपेक्षाकृत ऊंचा कर लेते हैं तो इसका प्रदर्शन प्रभाव पड़ता है, दूसरे लोग भी उसका अनुसरण करते हैं इससे मांग बढ़ती है परंतु पूर्ति में मांग की तुलना में वृद्धि कम होती है इसलिए कीमतें बढ़ जाती हैं।

5. काला धन - काला धन वह आय है जिसका सरकार को कोई हिसाब नहीं दिया जाता ताकि आय पर लगाए जाने वाले कर को बचाया जा सके। काले धन के स्वामी उस धन को विलासिता की वस्तुओं तथा दिखावे की वस्तुओं पर खर्च करते हैं। इससे मांग में वृद्धि होती है तथा कीमतें बढ़ती हैं।

6. करों में कमी - कई बार सरकार जब करों में कमी कर देती है तो उससे लोगों की वास्तविक तथा मौद्रिक आय में वृद्धि होने के कारण प्रभावपूर्ण मांग में वृद्धि होती है। इस अतिरिक्त क्रय शक्ति के द्वारा लोग अधिक वस्तुओं की मांग करते हैं। फलस्वरूप कीमतें बढ़ने लगती हैं। सट्टेबाजी की क्रियाएं बढ़ने के कारण मांग बढ़ जाती है और वस्तुओं तथा सेवाओं की कीमतों में वृद्धि हो जाती है।

7. सार्वजनिक ऋण में कमी - जब सरकार जनता से कम ऋण लेती या जनता के ऋण को वापस कर देती है तो ऐसी दशा में जनता के पास अधिक क्रय शक्ति बनी रहती है इससे भी वस्तुओं और सेवाओं की मांग बढ़ती है। इसके फलस्वरूप कीमतें बढ़ने लगती हैं।

8. जनसंख्या में वृद्धि - किसी भी देश में जब जनसंख्या के बढ़ने की दर उत्पादन की दर से अधिक होती है तो वस्तुओं तथा सेवाओं की मांग अधिक होने के कारण कीमतों में वृद्धि हो जाती है।

9. निर्यात में वृद्धि - जब देश के निर्यात में वृद्धि होती है तो इसके फलस्वरूप भी दो कारणों से कीमतों में वृद्धि हो सकती है एक तो निर्यात में वृद्धि होने के कारण आय में वृद्धि होती है। दूसरे उपभोक्ता वस्तुओं का अधिक निर्यात होने के कारण देश में उनकी पूर्ति कम हो जाती है जिससे कीमतों में वृद्धि हो जाती है।

2. पूर्ति पक्ष

पूर्ति पक्ष से अभिप्राय वस्तुओं की वह उपलबध मात्रा है जिस पर लोग अपनी आय व्यय कर सकते हैं। इसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में असंतुलन आ जाता है। पूर्ति पक्ष पर मुख्य रूप से इन तत्वों का प्रभाव पड़ता हैं

1. उत्पादन में कमी - पूर्ति में होने वाली कमी का सबसे मुख्य कारण उत्पादन में होने वाली कमी है। उत्पादन में कमी के कई कारण हो सकते है। जैसे - मजदूरी तथा मालिकों के झगड़े, प्राकृति विपत्तियां आदि।

2. कृत्रिम अभाव - मुद्रास्फीति का एक कारण यह भी है कि देश में जमाखोर और मुनाफाखोर लोग वस्तुओं को अपने पास जमा करके रख लेते हैं। उनकी खुले बाजार में पूर्ति कम हो जाती है तथा वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाती हैं।

3. सरकार की कर नीति - सरकार की कर नीति भी पूर्ति को निरुत्साहित करने के लिए जिम्मेदार हो सकती हैं। जब सरकार इस प्रकार के कर लगाती है जैसे ऊंची दर पर बिक्री कर, उत्पादन कर, निगम कर, ब्याज कर आदि जिससे उत्पादन निरुत्साहित हो, तो उत्पादन की मांग स्थिर रहने पर भी वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि हो जाती है। इस प्रकार उत्पादन कम हो जाने से मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।

4. खाद्यान्न में कमी - जब देश में अनाज, दालों, खाने के तेल का उत्पादन कम होता है तो कीमतों में बहुत अधिक वृद्धि होती है। खाद्यान्न में कमी कई कारणों से हो सकती है। जैसे - वर्षा की कमी, खाद्यान्न फसलों के स्थान पर व्यापारिक फसलों का अधिक उत्पादन आदि।

5. औद्योगिक झगड़े़ - कई बार उद्योगोंं में श्रमिकों तथा मालिकों में झगड़ा होने के कारण कारखानों में हड़ताल या तालाबंदी हो जाती है। इससे उत्पादन में कमी हो जाती है और कीमतों में वृद्धि।

6. तकनीकी परिवर्तन - विज्ञान के इस परिवर्तनशील युग में नए-नए अविष्कार होते रहते हैं। तकनीकी परिवर्तन में समय लगने के कारण कई बार उत्पादन कम हो जाता है। परंतु काम पर लगे हुए श्रमिकों तथा तकनीकी विशेषज्ञों को वेतन देना ही पड़ता है। इसके फलस्वरूप उत्पादन लागत बढ़ती है तथा पूर्ति कम होती है।

7. कच्चे माल की कमी - जब उत्पादन को बढ़ाने के लिए देश में कच्चा माल उपलब्ध न हो और न ही विदेशों से आयात करने की संभावना हो तो उत्पादन कम हो जाता है। इसके फलस्वरूप कीमतें बढ़ती हैं और मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा होती है।

8. प्राकृतिक विपत्तियां - समय-समय पर देश में प्राकृतिक विपत्तियां जैसे - भूकम्प, बाढ़, सूखा आदि आती रहती हैं जिसके कारण विशेष रूप से कृषि उत्पादन में काफी कमी हो जाती हैं।

9. उत्पादन का ढांचा - कई बार देश में उत्पादन का ढांचा इस प्रकार का बन जाता है कि उत्पादक साधारण उपभोग की वस्तुओं के स्थान पर विलासितापूर्ण वस्तुओं या भारी तथा आधारभूत वस्तुएं अधिक बनाने लगते हैं क्योंकि उनमें उन्हें अधिक लाभ मिलता है। उनकी पूर्ति कम हो जाने से कीमतें बढ़ जाती हैं।

10.युद्ध - युद्ध के समय में भी उपयोग वस्तुओं के उत्पादन में कमी हो जाती है क्योंकि साधनों का प्रयोग युद्ध साम्रग्री के उत्पादन में होने लगता है। इससे कीमतों में वृद्धि होने लगती है।

11. अन्तर्राष्ट्रीय कारण - आजकल विभिन्न देशों में एक दूसरे के साथ व्यापारिक सम्बन्ध होते हैं। इनमें से किसी एक देश में कीमतों में वृद्धि होने के कारण इसका सहानुभूतिपूर्ण प्रभाव अन्य देशों की कीमतों पर भी पड़ता है और दूसरे देशों में भी कीमतें बढ़ने लगती हैं। इससे संसार के लगभग सभी देशों में कीमत स्तर बढ़ गये हैं।

12. सरकार की औद्योगिक नीति - सरकार की औद्योगिक नीति का भी मुद्रास्फीति पर प्रभाव पड़ता है। यदि औद्योगिक नीति प्रतिबंधात्मक है तो इसका पूर्ति पर विपरीत प्रभाव पडे़गा। यदि सरकार का नए उद्योगों की स्थापना पर कड़ा नियंत्रण हो या नए उद्योगों की स्थापना को हतोत्साहित किया जाए तो इसके कारण उत्पादन में मांग के अनुसार वृद्धि नहीं हो पाएगी तथा वस्तुओं की कीमतें बढ़ जाएंगी।

13. उत्पादन में गतिरोध - जब किसी देश में बिजली, कोयले आदि की पूर्ति कम हो जाती है। यातायात के साधनों की उपलब्धि में कमी आ जाती है तो उत्पादन में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। इससे पूर्ति कम तथा कीमतें बढ़ जाती हैं।

मुद्रास्फीति के प्रभाव 

अर्थशािस्त्रयों का यह विचार है कि रेंगती हुई मुद्रास्फीति तो उत्पादन, रोजगार तथा आर्थिक विकास के लिए लाभदायक हो सकती है, परंतु जब मुद्रास्फीति की दर बढ़ जाती है तो इसका उत्पादन तथा वितरण पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इससे देश में निर्धनता फैलती है। मुद्रास्फीति के प्रभाव हैं -

1. ऋणी और ऋणदाताओं पर प्रभाव - मुद्रास्फीति में ऋणदाताओं को हानि और ऋणी वर्ग को लाभ हाता है। माना एक व्यक्ति ने 2000 रु. की राशि एक साल के लिए उधार पर ली। एक साल बीतने पर मुद्रास्फीति की स्थिति उत्पन्न हो गई। अब ऋण जो 2000 रु. राशि ऋणदाता को वापस करेगा, उसका वास्तविक मूल्य पहले से कम होगा। मान लिया इस उधार को लेते समय इस राशि से 40 क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता था, परंतु मुद्रास्फीति के पश्चात गेहूं की कीमत दोगुनी हो गई और अब केवल 80 क्विंटल गेहूं खरीदा जा सकता है। इस प्रकार ऋणदाता को इससे हानि और ऋणी को लाभ होगा।

2. निवेशकर्ता पर प्रभाव - निवेशकर्ता प्रभाव को दो भागा प्रभाव में बाटा जा सकता है ;(i) एक वे जिन्हानें सरकारी प्रतिभूतियां, डिबचें जर्, बॉण्डस आदि में जिससे कि एक निश्चित आय होती है, पूँजी लगा रखी होती है और दूसरे वे जिन्होंने संयुक्त पूंजी कम्पनियों के हिस्से खरीदे होते हैं इन दोनों वर्गों में से मुद्रास्फीति के कारण पहले वर्ग को हानि और दूसरे वर्ग को लाभ होता है।

3. निश्चित आय के वर्ग पर प्रभाव - निश्चित आय के वर्ग में श्रमिकों, कर्मचारियों, अध्यापकों तथा अन्य सभी नौकरी पेशा लोगों को शामिल किया जाता है। इन्हें मुद्रास्फीति के कारण सबसे अधिक हानि उठानी पड़ती है। मुद्रास्फीति के कारण मुद्रा का मूल्य कम हो जाता है। इसलिए यदि आय में थोड़ी वृद्धि हो भी जाती है तो भी कीमतों के बढ़ने के कारण वे पहले की तुलना में कम वस्तुएं और सेवाएं खरीद पाते हैं।

4. उत्पादकों प्रभाव या उद्यामियों प्रभाव पर प्रभाव - उत्पादक वर्ग एक ऐसा वर्ग है जिसे मुद्रास्फीति से लाभ होता है। इस वर्ग को होने वाले लाभ के निम्न कारण हैं। (i) वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है। इससे वे वस्तुएं ऊंची कीमत पर बेचते हैं। (ii) कच्चा माल उन्होंने मुद्रास्फीति से पहले ही खरीदा होता है, (iii) जो उद्यमी अथवा व्यापारी ऋण लेते हैं उन्हें भी मुद्रास्फीति से लाभ होता है। 

5. कृषकों प्रभाव पर प्रभाव - कृषक वर्ग पर मुद्रास्फीति का प्रभाव अनुकूल है क्योंकि वे उत्पादक वर्ग में आते हैं।

6. मध्यम वर्ग पर प्रभाव - मुद्रास्फीति के कारण सबसे अधिक हानि मध्यम वर्ग को होती है। यह एक ऐसा वर्ग है कि जिसे रहन सहन का अपना एक विशेष स्तर रखना पड़ता है, परन्तु इसकी आय के साधन निश्चित होते हैं। इसलिए वे अपनी वर्तमान आय से अपने जीवन स्तर को कायम नहीं रख पाते। उन्हें कर्ज लेकर या पिछली बचत खर्च करके जीवन स्तर को बनाए रखना पड़ता है।

7. बचत पर प्रभाव - मुद्रास्फीति का बचत पर भी बुरा प्रभाव पड़ता है। एक तो वस्तुओं की कीमतें अधिक होने के कारण लोगोंं को व्यय अधिक करना पड़ता है, इसलिए बचत की सम्भावना कम हो जाती है। दूसरे मुद्रा का मूल्य कम होने के कारण लोगों का मुद्रा पर विश्वास कम हो जाता है। इसलिए वे मुद्रा को बचाकर नहीं रखना चाहते।

8. रोजगार पर प्रभाव - मुद्रास्फीति की प्रारम्भिक स्थितियों में रोजगार पर अनुकूल प्रभाव पड़ता है। कीमतें अधिक होने से उत्पादक उत्पादन भी अधिक करता है। परंतु पूर्ण रोजगार की अवस्था के पश्चात कीमतें तेजी से बढ़ने लगती है और सरपट दौड़ने वाली मुद्रास्फीति की अवस्था आ जाती है। इससे लोग वस्तुएं खरीदना कम कर देते हैं। जिससे मांग कम हो जाती है और परिणामस्वरूप बेरोजगारी फैल जाती है।

9. भुगतान संतुलन पर प्रभाव - मुद्रास्फीति के समय में वस्तु प्रभाव की कीमत प्रभाव बढ़ जाती है इसलिए आयात में वृद्धि आरै नियार्त में कमी आने से भुगतान संतुलन प्रतिकूल हो जाता है।

10. सार्वजनिक ऋणों प्रभाव पर प्रभाव - कीमतों में वृद्धि होने के कारण सरकार द्वारा प्रारंभ की गई योजनाओं पर किए जाने वाला व्यय बढ़ जाता है। इसी कारण सरकार को जनता से ऋण लेना पड़ता है जिससे सार्वजनिक ऋणों में वृद्धि हो जाती है।

11. बैंकों नियंत्रण तथा बीमा कंपनियों नियंत्रण पर प्रभाव - मुद्रास्फीति के कारण व्यापारियों, उद्यमियों तथा कृषकों की आय में वृद्धि होती है इसलिए वे लोग अधिक पैसा बैंक में जमा करते हैं इससे बैंकिंग संस्थाओं का विकास होता है। नए उद्योग स्थापित होने से जोखिम में भी वृद्धि होती है जिससे बीमा कम्पनियों का विकास होता है।

12. करों नियंत्रण पर प्रभाव - कीमतों में वृद्धि होने के कारण सरकार का व्यय काफी बढ़ जाता है। सरकार उस बढ़े हुए व्यय को पूरा करने के लिए कर बढ़ा देती है।

13. नियंत्रण तथा राशनिंग - साधारण उपयोग की वस्तुएं महंगी होने के कारण गरीब लोगों के लिए खरीदना कठिन हो जाता है। इसलिए सरकार कीमत नियंत्रण, उचित मूल्य की दुकानें एवं राशनिंग पद्धति अपना कर साधारण उपभोग की वस्तुएं गरीबों को उपलब्ध कराती हैं।

14. साधनों नियंत्रण के बंटवारे पर प्रभाव - मुद्रास्फीति का साधनों के बंटवारे पर भी प्रभाव पड़ता है। जब किसी वस्तु का मूल्य अपेक्षाकृत अधिक हो जाता है तो उसकी मांग कम हो जाती है तथा उससे संबंधित वस्तुओं की मांग बढ़ जाती है। इससे महंगी वस्तुओं का उत्पादन कम किया जाएगा तथा सस्ती वस्तुओं का उत्पादन अधिक किया जाएगा। इस प्रकार मुद्रा स्फीति का साधनों के बंटवारे पर प्रभाव पड़ता है।

15. नैतिक प्रभाव - मुद्रास्फीति के कारण नैतिकता पर बुरा प्रभाव पड़ता है। व्यापारी वगर् अधिक धन सचं य के लालच में अन्धा होकर मुनाफाखोरी, जमाखोरी तथा मिलावट इत्यादि जैसी बुरी आदतों का सहारा लेते हैं। एन्ड्रयु डी व्हाइट ने अपनी पुस्तक “Fiat Money Inflation in France” में लिखा है कि, ‘‘फ्रांसीसी क्रान्ति काल में मुद्रा प्रसार के कारण फ्रांस के प्रमुख शहरों में विलासिता तथा दुराचार, जो लूटने की अपेक्षा गम्भीर दोष थे, चारो ओर फैल गए थे।’’ देश में रिश्वतखोर तथा नैतिक मूल्यों का पतन हो जाता है।

16. सामाजिक एवं राजनैतिक प्रभाव - मुद्रास्फीति के सामाजिक तथा राजनैतिक प्रभाव आर्थिक प्रभावों से भी अधिक खतरनाक हैं। सन् 1923.1933 के बीच जर्मनी में हिटलर तथा उसकी नाजी पार्टी के सत्ता हथियाने का एक प्रमुख कारण उस समय विद्यमान मुद्रास्फीति की भयानक बाढ़ थी। डा. डी. बी. टूरोनी (Turroni) के अनुसार, ‘‘हिटलर मुद्रास्फीति की दत्तक संतान था।’’ 

प्रो.. गेलब्रेथ के अनुसार, ‘‘मौद्रिक आय की दृष्टि से यदि विचार किया जाए तो जिस समाज में निरंतर मुद्रास्फीति रहती है उसमें नि:संदेह शिक्षक, धर्मगुरु या पुलिस का कार्य करने की अपेक्षा सट्टे बाजी या वेश्यावृत्ति करना अधिक लाभदायक है।

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