संत ऑगस्टाइन (Saint Augustin) का जीवन परिचय एवं राजनीतिक विचार

संत ऑगस्टाइन का जीवन परिचय

संत ऑगस्टाइन  (Saint Augustin) का जन्म उत्तरी अफ्रीका के रोमन प्रान्त न्यू मीडिया (अल्जीरिया) के थिगस्ते नामक स्थान पर 354 ई0 में हुआ। उसके पिता एक मूर्तिपूजक (Pagan) थे और एक बड़े जमींदार थे। उसकी माँ ईसाईधर्म में विश्वास रखने वाली महिला थी। वह बचपन से ही एक प्रतिभाशाली बालक था। उसकी प्रतिभा से प्रभावित होकर उसके पिता ने उसे अच्छी शिक्षा दिलाने का प्रबन्ध किया। 

संत ऑगस्टाइन ने अपनी प्रतिभा के बल पर शीघ्र ही वह यूनानी और रोमन साहित्य में निपुण हो गया। 370 ई0 में उसने कार्थेज विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया। वहाँ से अपनी पढ़ाई पूरी करके उसने अपनी मातृभूमि की सेवा का निश्चय किया और अपने प्रान्त में पढ़ाने लगा। कुछ समय बाद उसने कार्थेज विश्वविद्यालय में ही अलंकारशास्त्र पढ़ाना शुरू कर दिया। उसने यहाँ से नौकरी छोड़ने के बाद 384 ई0 में मीलान में अलंकारशास्त्र पढ़ाया। यहाँ पर उनका सम्पर्क सेण्ट अम्ब्रोज से हुआ। 

सेण्ट अम्ब्रोज की रोमन विरोधी विचारधारा के प्रभाव में आकर उसने उनको अपना गुरु स्वीकार कर लिया और उसने 387 ई0 में ईसाई धर्म को ग्रहण कर लिया। ईसाई धर्म के सम्पर्क में आने पर उसने एक क्रियाशील और सच्चा ईसाई बन कर ईसाई धर्म का प्रचार किया। 388 ई0 में वह अफ्रीका वापिस लौटकर हिप्पो विशप बन गया। उसने आजीवन इस पद को सुशोभित किया। 430 ई0 में वणडाल नामक बर्बर जाति द्वारा हिप्पो नगर पर आक्रमण में उसकी मृत्यु हो गई।

संत ऑगस्टाइन की महत्त्वपूर्ण रचनाएँ

संत ऑगस्टाइन ने ईसाई धर्म को संकट से उभारने के लिए अपनी रचनाओं से प्रयास शुरू किए। उसने ईसाई धर्म का दृढ़ और व्यवस्थित समर्थन किया। उसने बताया कि रोम का पतन दैवीय इच्छा का परिणाम है, न कि ईसाई धर्म के कारण इसका पतन हुआ। उसने अपने इस विचार को प्रबल बनाने के लिए ‘ईश्वर की नगरी’ (The City of God) नामक पुस्तक की रचना की। इसमें 22 खण्ड हैं। उसने इस ग्रन्थ को 413 ई0 में लिखना शुरू किया था और 426 ई0 में उसको पूरा किया। शुरू के 10 खण्डों में प्रात्यों के आपेक्षपूर्ण आक्रमणों से ईसाई धर्म की रक्षा की गई और शेष 12 खण्डों में ‘ईश्वर की नगरी’ के निर्माण की रूप-रेखा का वर्णन किया गया है। 

अपनी इस पुस्तक में संत ऑगस्टाइन ने बताया कि यद्यपि ईसाई धर्म रोम के पतन को नहीं रोक सका, परन्तु उसने ही रोम के पतन के दु:खों और परेशानियों से जनता को छुटकारा दिलाया। उसने तक्र दिया कि रोम के पुराने देवता भी रोम को संकट से नहीं बचा पाए थे। यह सिद्ध करने के लिए उसने इतिहास का क्रमबद्ध वर्णन किया। इस तरह संत ऑगस्टाइन ने अपने इस अमर ग्रन्थ की रचना करके ईसाई धर्म की रक्षा का बीड़ा उठाया। 

उसका अन्य ग्रन्थ 'Confessions' है जो राजनीतिक चिन्तन की दृष्टि से ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है।

संत ऑगस्टाइन के राजनीतिक विचार

संत ऑगस्टाइन के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक विचार उसकी प्रमुख रचना 'The City of God' में ही केन्द्रित है। उनके प्रमुख राजनीतिक विचार हैं :-
  1. संत ऑगस्टाइन के इतिहास का दर्शन 
  2. संत ऑगस्टाइन के दो नगरियों का सिद्धान्त 
  3. संत ऑगस्टाइन के राज्य का सिद्धान्त
  4. चर्च और राज्य में सम्बन्ध 
  5. संत ऑगस्टाइन के सम्पत्ति और दासता सम्बन्धी विचार 

1. संत ऑगस्टाइन के इतिहास का दर्शन 

संत ऑगस्टाइन ने अपने ग्रन्थ 'The City opf God' के प्रारम्भिक 10 खण्डों में इतिहास का क्रमबद्ध विवेचन करके ईसाई धर्म की आलोचनाओं का प्रतिवाद किया है। संत ऑगस्टाइन ने रोम के पतन का कारण दैवीय इच्छा का परिणाम मानते हुण्ए ईसाई धर्म की रक्षा का प्रयास किया है। संत ऑगस्टाइन के अनुसार- “रोम का पतन एक दैवी न्याय है जिसका प्रयोजन वास्तविक ईश नगर की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त करना था। जो ईश्वर व्यवस्था, नियमितता और प्रकृति में सौन्दर्य का नियमन करता है, वह सांसारिक घटनाओं का भी संचालन करता है और राष्ट्रों का उत्थान और पतन इसी में सम्मिलित है।”

संत ऑगस्टाइन ने बताया कि यह मानना मूर्खतापूर्ण है कि रोम के पतन के लिए ईसाई धर्म उत्तरदायी था। उसने यह सिद्ध करने की कोशिश की कि गैर-ईसाई देवताओं का तिरस्कार करने के कारण रोम का पतन नहीं हुआ था। उसने कहा कि यह तो पूर्व नियोजित ईश्वरीय इच्छा का परिणाम था ताकि पृथ्वी पर ईश्वर का साम्राज्य कायम किया जा सके। उसने बताया कि मानव का इतिहास अच्छाई और बुराई की शक्तियों के मध्य संघर्ष का इतिहास है। विभिन्न भौतिक साम्राज्यों के रूप में बुराइयों के चरम सीमा पर पहुँचने पर उनका अन्त करना आवश्यक होता है क्योंकि भौतिक साम्राज्य अस्थायी होते हैं। ये साम्राज्य मानव के अकल्याणकारी कार्यों पर आधारित होने के कारण पारस्परिक संघर्ष द्वारा नष्ट हो जाते हैं। उसका कहना है कि इन्हें नष्ट होना ही चाहिए क्योंकि यही दैवीय इच्छा है और इनके स्थान पर स्थापित ईश्वर का साम्राज्य ही वास्तविक साम्राज्य है जो कभी नष्ट नहीं हो सकता। इस प्रकार संत ऑगस्टाइन ने अपने इतिहास के दर्शन द्वारा यह सिद्ध करने की चेष्टा की। रोम का पतन ईश्वरीय चेष्टा का परिणाम है ताकि पृथ्वी पर ईश-नगरी की स्थापना की जा सके। उसने मानव इतिहास का क्रमबद्ध विवेचन प्रस्तुत करके यह सिद्ध करने की चेष्टा की कि मानव इतिहास की प्रगति पूर्व आयोजित लक्ष्य की तरफ हो रही थी और वह लक्ष्य था ईसाई राष्ट्रमण्डल की स्थापना। इसी लक्ष्य के मार्ग में रोमन साम्राज्य एक बाधा बनकर खड़ा था; इसलिए उसका नाश कर दिया गया। संत ऑगस्टाइन कहता है कि रोम के पतन में सन्तोषजनक अच्छी बात यह है कि अब यहाँ के शासक और जनता ईसाई धर्म अपनाकर राज्य के रास्ते में आने वाली किसी भी बाधा को रोक पाने में सफल होंगे। ईसाई राष्ट्रमण्डल की स्थापना से रोम आध्यात्मिक मुक्ति के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाएगा।

2. संत ऑगस्टाइन के दो नगरियों का सिद्धान्त 

संत ऑगस्टाइन ने अपनी पुस्तक 'The City of God' के खण्ड 11 से 22 तक ईश-नगरी का चित्रण किया है। इसमें वह दो नगरों का चित्रण करते हुए कहता है कि भौतिक नगर नष्ट होते रहते हैं लेकिन एक स्थायी नगर भी है, वह ईश्वर का नगर है। पृथ्वी पर इसका नवीनतम और सर्वांगपूर्ण भौतिक रूप ईसाई चर्च है। संत ऑगस्टाइन कहता है कि इन दो नगरियों में से एक तो सांसारिक नगरी (The City of Earth) है और दूसरी ईश्वर की नगरी (The City of God) है। ईश-नगर सार्वदेशिक व सार्वकालिक है लेकिन सांसारिक नगरी नश्वर व अस्थायी है। संत ऑगस्टाइन मानव स्वभाव के दो रूपों शरीर और आत्मा से अपने दो नगरों के सिद्धान्त को जोड़ते हुए कहते हैं कि ईश्वरीय नगर का सम्बन्ध आत्मा से है लेकिन सांसारिक नगर का सम्बन्ध शरीर से है। सांसारिक नगरी का सम्बन्ध मनुष्य की वासनाओं से है, इसलिए यह शैतान की नगरी है। पाप की नगरी होने के कारण इसका पतन होना निश्चित है। इस पाप की शुरूआत देवताओं की अवज्ञाओं से शुरू होती है और बाद में गैर-ईसाइयत के रूप में प्रकट होती है। रोम साम्राज्य का पतन भी इस पापमय जीवन के कारण हुआ है। ईश्वरीय नगरी अविनाशी तथा स्थायी है। इस नगरी में धर्मपरायण लोग ही रहते हैं। इस नगरी के सभी लोग ईश्वर के प्रति अपने सर्वनिष्ठ प्रेम के कारण बँधे हुए हैं।

इस नगरी की आधारशिला स्वर्गीय शान्ति और आध्यात्मिक मुक्ति है। जिस प्रकार सांसारिक नगरी बुराई का प्रतीक है, उसी प्रकार ईश्वरीय नगरी अच्छाई का प्रतीक है। ईश्वरीय नगरी का सदस्य बनने के लिए सच्ची योग्यता ईश्वर का अनुग्रह है, न कि जाति, राज्य या वर्ग है। ईश-नगरी के सदस्य प्रेम द्वारा ईश्वर से बँधे रहते हैं और सभी एक समाज के सदस्य होते है। ईश्वरीय नगरी की सदस्यता विशाल है क्योंकि इसमें सभी देवदूत, सन्त तथा सद्गुणी व्यक्ति शामिल होते हैं। संत ऑगस्टाइन का माननाहै कि ये दोनों नगरियाँ एक-दूसरे के आस-पास ही रहती हैं। ये आपस में मिलती रहती हैं और एक-दूसरे को अतिछादित (Overlap) करती रहती है। इनमें संघर्ष होने पर ईश्वरीय नगरी की ही विजय होती है। चर्च ईश्वरीय नगरी के प्रतिनिधि के रूप में सर्वोच्च व सर्वशक्तिमान है और केवल ईश्वर के प्रति उत्तरदायी है। ईश्वरीय नगरी का सदस्य बनने के लिए ईश्वर की कृपा अनिवार्य है। इस प्रकार संत ऑगस्टाइन ने स्पष्ट किया है कि सांसारिक नगरी (रोम साम्राज्य) का पतन आवश्यक था क्योंकि यह ईश्वरीय नगरी (चर्च) की विरोधी हो गई थी।

ईश्वरीय नगरी के दो सद्गुण - संत ऑगस्टाइन ने ईश्वरीय नगरी के दो सद्गुणों का भी वर्णन किया है। ये दो सद्गुण हैं - न्याय (Justice) और शान्ति (Peace)। संत ऑगस्टाइन कहता है कि व्यवस्था के अनुकूल आचरण ओर इस व्यवस्था से उत्पन्न होने वाले कर्त्तव्यों का पालन करना न्याय है। संत ऑगस्टाइन कहता है कि पूर्ण न्याय न तो परिवार की व्यवस्था में है और न ही राज्य की में। राज्य व परिवार में परस्पर संघर्ष होता रहता है, इसलिए मनुष्य केवल एक के प्रति न्यायपूर्ण हो सकता है। इसलिए राज्य व परिवार में न्याय सापेक्षिक (Relative) होता है, पूर्ण न्याय नहीं। सम्पूर्ण न्याय तो सार्वत्रिक समाज (सार्वदेशिक व्यवस्था) में पाया जाता है। समाज मनुष्य मात्र का समाज है जिसका शासक ईश्वर है। इसका संचालन सब मनुष्यों के लिए ईश्वर की इच्छा द्वारा निर्धारित एक सार्वदेशिक (राज्य से बाहर) व्यवस्था द्वारा किया जाता है। एक राज्य इस व्यवस्था का उल्लंघन कर सकता है और वह तब अन्यायपूर्ण होगा। उस स्थिति में व्यक्तियों द्वारा अपने राज्य की अवज्ञा करना और सार्वदेशिक व्यवस्था का पालन करना न्यायसंगत होगा। इस प्रकार राज्य के व्यक्ति ईश्वर के साथ प्रत्यक्ष सम्पर्क स्थापित करने में सफल सिद्ध होंगे। संत ऑगस्टाइन की यह धारणा प्लेटो से अधिक व्यापक है। यह समय और स्थान की सीमा से बँधी नहीं है। अत: यह अधिक पूर्ण धारणा है। 

संत ऑगस्टाइन का सार्वदेशिक समाज ईसाई राष्ट्रमण्डल (Christian Commonwealth) के अतिरिक्त कुछ नहीं है। इस धारणा द्वारा संत ऑगस्टाइन राज्य को गिरजाघर (चर्च) के अधीन कर देते हैं। राज्य चर्च के कार्यों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता। गैर ईसाई राज्यों में न्याय नहीं था क्योंकि वे चर्च के कार्यों में हस्तक्षेप करते थे। अत: सच्चा न्याय ईसाई धर्म के आविर्भाव से ही सम्भव हो सकता है। इस प्रकार संत ऑगस्टाइन ने इस सद्गुण के द्वारा ईश्वरीय नगरी की प्रशंसा करके ईसाई राष्ट्रमण्डल का समर्थन किया है।

संत ऑगस्टाइन ईश्वरीय नगरी का दूसरा सद्गुण शान्ति (Peace) को मानता है। वह संघर्ष की अनुपस्थिति को ही शान्ति नहीं मानता। उसकी नजर में शान्ति एक सामंजस्यपूर्ण ठोस सम्बन्ध है। भौतिक राज्य और ईश नगर दोनों का लक्ष्य शान्ति स्थापित करना है। राज्य केवल सापेक्षिक (Relative) शान्ति स्थापित करता है। ऐसी शान्ति साध्य न होकर साधन होती है। राज्य की शान्ति का अर्थ एक-दूसरे के साथ व्यवस्थाबद्ध सम्बन्धों का सामंजस्य है जबकि ईश्वरीय नगरी की दृष्टि में सर्वाधिक व्यवस्थित और सामंजस्यपूर्ण तरीके से ईश्वर की प्राप्ति और ईश्वर में लीन होने में एक-दूसरे का हाथ बँटाना ही शान्ति है। भौतिक राज्य (सांसारिक नगरी) द्वारा स्थापित शान्ति नकारात्मक शान्ति है और वह पूर्ण शान्ति नहीं है। यह कानूनों पर आधारित शान्ति है जो बदलते रहते हैं। पूर्ण और सार्वदेशिक शान्ति ईश्वर में लीन होन पर ही प्राप्त हो सकती है।

इस प्रकार संत ऑगस्टाइन ईश्वरीय नगरी के दो सद्गुणों की व्याख्या करके ईश्वरीय नगरी के महत्त्व को सिद्ध करता है। उसके विचारानुसार ईश्वरीय नगरी में ही न्याय व शान्ति जो मनुष्य व राज्य के ध्येय हैं, प्राप्त किए जा सकते हैं।

3. संत ऑगस्टाइन के राज्य का सिद्धान्त

संत ऑगस्टाइन का कहना है कि न्याय राज्य का आधार नहीं होता। राज्य तो ऐसे भी हो सकते हैं जो ईसाई धर्म को न मानते हों किन्तु न्याय तो केवल ईसाई राज्य में ही हो सकता है। इसलिए न्याय चर्च का लक्षण है, न कि राज्य का। चर्च का अधिकार राज्य के अधिकार से बड़ा होता है। संत ऑगस्टाइन ने कहा है कि समूह में रहने की मनुष्य की प्रवृत्ति ओर मूल पाप से उत्पन्न मनुष्य के पाप के कारण ही राज्य की उत्पत्ति हुई। उसके मतानुसार राज्य की स्थापना ईश्वर द्वारा मनुष्य को पापमय जीवन से मुक्ति दिलाने के लिए की गई है। यद्यपि राज्य की उत्पत्ति मनुष्य को पापमुक्त करने के लक्ष्य को लेकर हुई है, फिर भी राज्य पाप का प्रतीक नहीं है। राज्य की उत्पत्ति स्वयं ईश्वर ने की है। राज्य स्वयं ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसलिए उसकी आज्ञा का पालन करना प्रत्येक व्यक्ति के लिए अनिवार्य है। संत ऑगस्टाइन का मानना है कि मनुष्य सामाजिक सहज प्रवृत्ति के कारण शान्ति प्राप्त करना चाहता है। राज्य कम सांसारिक शान्ति व व्यवस्था प्रदान करता है। परन्तु सांसारिक शान्ति अपने आप में साध्य नहीं है। वह तो सार्वत्रिक (Universal) शान्ति की उपलब्धि के लिए एक आधार है। सार्वत्रिक शान्ति तो ईश्वरीय नगरी में ही सम्भव है। इस प्रकार वह दैवीय सिद्धान्त का प्रतिपादन करता है अर्थात् वह राज्य की उत्पत्ति का दैवीय सिद्धान्त पेश करता है। राज्य ईश्वरीय नगरी के लिए न्याय प्रदान करता है। चर्च को सम्पत्ति और इमारत राज्य ही प्रदान कर सकता है। राज्य ही चर्च को इसका अधिकार दे सकता है। राज्य को दैवी मान्यता होती है इसलिए उसके आदेशों का पालन करना चाहिए। यदि राज्य धर्म और नैतिकता का पालन न करे तो उसकी अवज्ञा करनी चाहिए। संत ऑगस्टाइन ने लौकिक राज्य की अपेक्षा ईश्वरीय राज्य को सम्पूर्ण शान्ति व न्याय पर आधारित राज्य मानकर उसके पालन पर बल दिया है। वह कहता है कि गैर-ईसाई राज्य लौकिक राज्य है तथा उसका ईसाई राज्य ईश्वरीय राज्य है जो अन्य से सर्वोत्तम है। उसने अपने इस सिद्धान्त द्वारा रोम के पतन पर हर्ष व्यक्त करते हुए कहा कि रोम का राज्य लौकिक राज्य था। उसके पतन से ईश्वरीय राज्य (ईसाई राज्य) का मार्ग प्रशस्त हो गया है। संत ऑगस्टाइन ने अप्रत्यक्ष रूप से चर्च को राज्य से श्रेष्ठ घोषित कर दिया है।

4. चर्च और राज्य में सम्बन्ध 

राज्य की उत्पत्ति के बाद संत ऑगस्टाइन ने चर्च और राज्य के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट किया है। उनका मानना है कि चर्च ईश्वर का प्रतिनिधि है। ईश्वर की अधिक ऊँची सत्ता होने के नाते चर्च के आदेशों का पालन करना आवश्यक है। उनका मानना है कि राज्य के कानूनों का पालन और उसमें सत्ता का सम्मान तभी न्यायसंगत है जब तक वे ईश्वर के प्रति अपने कर्त्तव्य से विपरीत न जाएँ। राज्य को सार्वभौम रोमन कैथोलिक चर्च के अधीन करते हुए भी वे राज्य के कानूनों का पालन करने का प्रचार करते हैं। परन्तु यह कानून निरपेक्ष नहीं है। यदि यह कानून व्यक्ति को सच्ची शान्ति व न्याय प्रदान करने में सक्षम नहीं है तो उसका विरोध किया जा सकता है। वह कहता है कि राज्य की गिरजाघर के धर्मनिरपेक्ष (Secular) अंग के रूप में राज्याधिकार सम्भालना चाहिए। परन्तु संत ऑगस्टाइन ऐहिक व आध्यात्मिक मामलों में स्पष्ट विभाजन रेखा खींचकर नागरिकों को ऐहिक मामलों में ही राज्य के आदेश का पालन करने की बात कहते हैं। यदि राज्य धर्म या आध्यात्मिक मामलों में हस्तक्षेप करे तो नागरिकों को उस राज्य के आदेशों से मुँह मोड़ लेना चाहिए। चर्च और राज्य एक दूसरे पर आश्रित होते हुए भी चर्च सर्वोच्च संस्था है जो ईश्वर के प्रतिनिधि के रूप में पृथ्वी पर विराजमान है। संत ऑगस्टाइन का कहना है कि चर्च और राज्य में परस्पर सहायता व सहयोग का सम्बन्ध होना चाहिए। ईसाई सम्राट का चर्च के आध्यात्मिक मार्गदर्शन की जरूरत होती है तथा र्चा को विधि व व्यवस्था के लिए राज्य की आवश्यकता होती है। अत: दोनों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से कार्य करना चाहिए तभी ईश-नगर की स्थापना सम्भव है। इस प्रकार संत ऑगस्टाइन चर्च को आध्यात्मिक क्षेत्र में सर्वोच्च बनाने के साथ-साथ उसे ऐहिक मामलों में भी राज्य को चर्च के अधीन कर देते हैं।

5. संत ऑगस्टाइन के सम्पत्ति और दासता सम्बन्धी विचार 

संत ऑगस्टाइन ने भी अन्य ईसाई विचारकों की तरह सम्पत्ति रखना वैध माना है। उसका मत है कि सम्पत्ति रखना कोई प्राकृतिक अधिकार न होकर परम्परागत परिपाटी है और यह अधिकार राज्य प्रदान करता है। उसका विचार है कि सम्पत्ति के अभाव में मनुष्य अपने लौकिक और आध्यात्मिक जीवन के उत्तरदायित्वों को पूरा नहीं कर सकता। परन्तु उसका कहना है कि प्रत्येक व्यक्ति को उतनी ही सम्पत्ति रखने का अधिकार है जितनी इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक सम्पत्ति का प्रयोग जनहित के लिए करना चाहिए।

संत ऑगस्टाइन दास-प्रथा को उचित ठहराता है क्योंकि उसका विचार है कि मूल पाप से उत्पन्न मनुष्य के पाप का दण्ड दासता है। संत ऑगस्टाइन इस बात से इन्कार करता है कि मनुष्य जन्म से दास होता है। उसका मानना है कि यदि ईश्वर का अनुग्रह प्राप्त हो जाए तो मनुष्य का उत्कर्ष हो सकता है। 

संत ऑगस्टाइन का कहना है कि- “दासता एक प्रकार का आदि-मानव के पतन के कारण होने वाले मनुष्यता के पतन के लिए मानव जाति को दिया गया सामूहिक दण्ड है।” उसका मानना है मालिक दास से अच्छा नहीं होता। मालिक पर ईश्वर की कृपा होती है। यदि दास भी ईश्वर की कृपा का पात्र बन जाए तो वह भी दासता से मुक्त हो सकता है। लेकिन संत ऑगस्टाइन दासता का औचित्य सिद्ध करने में असफल रहे हैं। उन्होंने यह बताया कि यदि कोई मनुष्य पाप करता है तो उसके पाप के बदले में उसे दास बनाया जाना तो उचित है, लेकिन यदि सम्पूर्ण मानवता पाप करे तो उसे ही दास क्यों बनाया जाए जबकि अन्य कोई दास नहीं बनाया जाता। अत: दासता का सिद्धान्त असन्तोषजनक है।

सेंट ऑगस्टाइन का योगदान एवं प्रभाव

संत ऑगस्टाइन ने धर्मसत्ता तथा राजसत्ता को अलग-अलग मानते हुए धर्मसत्ता (चर्च) को सर्वोच्च माना है। राजसत्ता के औचित्य तथा अधिकार क्षेत्र को उसने ईश्वरीय इच्छा पर प्रतिष्ठित करके इसके प्रति समुचित दृष्टिकोण अपनाया है। उसने ‘ईश्वरीय नगर’ के विचार का प्रतिपादन कर ईसाई जगत् के सामने एक आदर्श प्रस्तुत कर उसकी प्राप्ति के एकमात्र साधन के रूप में चर्च को प्रतिष्ठित कर एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्रदान किया है। उसकी पुस्तक  कैथोलिक तथा प्रोटेस्टेण्ट धर्मावलम्बियों के लिए एक प्रेरणा-स्रोत बन गई और परवर्ती ईसाई चिन्तन को प्रभावित किया। उसकी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण धारणा इतिहास के दर्शन पर आधारित ईसाई प्रजाधिपत्य (Christian Commonwealth) की स्थापना थी जो मानव के आध् यात्मिक विकास के चरमोत्कर्ष का प्रतीक है। उसके महत्त्वपूर्ण योगदान हैं :-
  1. पवित्र रोमन साम्राज्य का निर्माण संत ऑगस्टाइन की पुस्तक ‘ईश्वर की नगरी’ (The City of God) पर भी आधारित किया है। वास्तव में संत ऑगस्टाइन ही ईसाई राष्ट्रमण्डल के पिता हैं। यह अवधारणा मध्ययुग में एक विवाद का विषय रही।
  2. संत ऑगस्टाइन का चर्च को सर्वोच्चता का सिद्धान्त मध्ययुग में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा रहा। उसने राज्य से चर्च को श्रेष्ठ बताकर चर्च को ईश्वर का प्रतिनिधि कहा। इससे चर्च के प्रति लोगों की रुचि बढ़ने लगी और चर्च मध्ययुग में सर्वोच्च शिखर पर पहुँच गया। संत ऑगस्टाइन का चर्च व राज्य की सर्वोच्चता का द्वैधवादी सिद्धान्त मध्ययुगीन विचारधारा का आधार बन गया। यह संत ऑगस्टाइन की मौलिक देन है।
  3. संत ऑगस्टाइन ने सार्वभौमवाद (Universalism) की अवधारणा का प्रतिपादन किया। उसने सार्वदेशिक समाज की स्थापना के रास्ते में राज्य, जाति, भाषा आदि के अवरोध उत्पन्न नहीं हो सकते। यह अवधारणा मध्ययुगीन चिन्तन का आधार बन गई।
  4. संत ऑगस्टाइन ने दैवीय सिद्धान्त को ठोस आधार प्रदान किया। उसने बताया कि राज्य ‘ईश्वर की इच्छा का परिणाम’ है। उसने बताया कि चर्च ईश्वर का प्रतिनिधि है। चर्च ही व्यक्ति को आध्यात्मिक मुक्ति प्रदान कर सकता है। इससे मध्ययुग में नए चिन्तन का सूत्रपात हुआ।
  5. उसका द्वैधवाद (राजसत्ता और धर्मसत्ता) का सिद्धान्त मध्ययुग में गेलासियस के दो तलवारों के सिद्धान्त का आधार बना। मध्ययुग का समान्तरवाद (Parallelism) भी संत ऑगस्टाइन की विचारधारा पर ही आधारित है। इसलिए मध्ययुग में संत ऑगस्टाइन की सबसे महत्त्वपूर्ण देन उसका द्वैधवादी सिद्धान्त है।
इस प्रकार हम कह सकते हैं कि संत ऑगस्टाइन मध्ययुगीन चिन्तन के एक प्रभावशाली विचारक रहे हैं। उसकी ईश्वरीय नगर (The City of God) की अवधारणा ने अनेक शताब्दियों तक मध्ययुगीन तथा परवर्ती विचारकों को प्रभावित किया। उसने चर्च की सर्वोच्चता के सिद्धान्त का बीजारोपरण करके ईसाई विचारकों के चिन्तन को प्रभावित किया। उनके धार्मिक मन्तव्यों, बाइबल के प्रमाणवाद, चर्च की प्रभुता, आदिम पाप आदि ने सैंकड़ों वर्षों तक मध्ययुगीन विचारकों का प्रतिनिधितत्व किया। सुप्रसिद्ध पोप, ग्रगरी सप्तम, वोनीफेस अष्टम, थॉमस एकवीनास, दाँते, ग्रोशियस आदि के विचारों को संत ऑगस्टाइन के दर्शन ने अत्यधिक प्रभावित किया। 

सेबाइन का मत है- “उसकी रचनाएँ विचारों की खान हैं। परवर्ती रोमन कैथोलिक और प्रोटेस्टैण्ट इसे खोदकर नए विचार निकालते रहे।” 

फोक्स जैक्सन ने भी कहा कि- “सेण्ट पॉल के बाद संत ऑगस्टाइन चर्च के इतिहास में सबसे महत्त्वपूर्ण हस्ती रहे हैं।” सम्पूर्ण मध्ययुगीन चिन्तन राज्य और चर्च के बीच के वाद-विवाद के चारों ओर ही केन्द्रित रहा। 

अत: कहा जा सकता है कि संत ऑगस्टाइन मध्ययुगीन ईसाइत विचारधारा के सबसे अधिक प्रभावशाली विचारक रहे हैं जिन्होंने परवर्ती चिन्तन को अत्यधिक प्रभावित किया है।

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