अनुक्रम
माओ त्से-तुंग
का जन्म मध्य चीन के दक्षिण स्थित हुनान प्रान्त के शाओ शान गांव में एक निर्धन किसान
के घर 26 दिसम्बर 1893 को हुआ। उनके पिता का स्वभाव कठोर था, किन्तु उनकी माता
दया की एक साक्षात मूर्ति थी। माओ बचपन से ही धुन के पक्के थे। वे हर कार्य लगन से
करते थे। उन्होंने चीन की राष्ट्रीय परिस्थितियों से अपने को बचपन में ही अवगत करा लिया
था। उन्होंने अपने पिता के साथ 7 वर्ष की आयु में ही कृषि कार्यों में हाथ बंटाना और सामंतवादी
व्यवस्था को अच्छी तरह समझना शुरू किया। उनके पिता ने उन्हें कुछ पढ़ाई लिखाई का
ज्ञान दिलाने हेतु एक निजी शिक्षक के पास भेजना शुरू किया। माओ का मन पुस्तकों में लग
गया। उन पर बाल्यकाल में ही ‘दा रोमांस ऑफ दॉ मंकी वॉटर मार्जिन’ तथा ‘दॉ रोमांस ऑफ
दॉ थ्री किंगडम्स’ दो उपन्यासों का प्रभाव पड़ गया। लेकिन उनके पिता ने 12 वर्ष की आयु
में ही उन्हें शिक्षा से दूर करके खेती-बाड़ी के काम में लगा लिया। लेकिन माओ चैन से बैठने
वाले नहीं थे। उन्हें 14 वर्ष की आयु में दोबार पढ़ना शुरू कर दिया। 1907 में उनका विवाह
हुआ लेकिन जल्दी ही विवाह-विच्छेद हो गया।
माओ को राष्ट्रीय परिस्थितियों का आभास होना शुरू हुआ तो वे राजनीतिक व सामाजिक आन्दोलनों का इतिहास पढ़ने लगे। 1911 में उन्हें वुहान से शुरू होने वाली प्रथम क्रान्ति देखी। उस समय उनकी आयु 18 वर्ष थी। इस क्रान्ति का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनमें उग्र-राष्ट्रवाद की भावना का संचार हुआ। उन्होंने इस क्रान्ति का व्यापक विश्लेषण किया। वह 1911 में यागंशा में सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए फौज में भर्ती हो गया। 1912 में फौजी प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उसने फौज छोड़ दी। इसके बाद उसका रूझान चीनी समाजवाद की तरफ हो गया। 1912 में उसने च्यांग कांग हू की ‘चीनी सोशलिस्ट पार्टी’ की नीतियों की प्रशंसा की। इसके बाद माओ ने हुनान पुस्तकालय में एडम स्मिथ, मांटेस्क्यू, मिल, डार्विन, रुसो आदि के विचारों को पढ़ा। उसने रुस, अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस के इतिहास का भी अध्ययन किया। 1918 में वे उच्च माध्यमिक शिक्षा समाप्त करके पीकींग चला गया और वहां पुस्तालयाध्यक्ष की नौकरी की। 1920 में माओ पर रुसी माक्र्सवाद का प्रभाव पड़ने लगा और वह रुसी समाजवाद का महान समर्थक बन गया। 1921 में उसने कम्युनिस्ट पार्टी के संधाई सम्मेलन में भाग लिया और वहां उसे पार्टी की हुनान शाखा का सचिव चुना गया। 1925 में च्यांग काई शेक ने सुनयात सेन के निधन पर कोमिनतांग पार्टी की बागडोर संभाली। च्यांग काई शेक ने कम्युनिस्टों पर प्रहार शुरू कर दिए और माओ को जान बचाकर भागना पड़ा। माओ दुर्गम देहाती इलाकों में चले गए और वहां पर किसानों की सोवियतें बनाकर क्रान्तिकारी संगठन को मजबूत बनाया। 1927 में उसने च्यांगशा में विफल किसान क्रान्ति का भी नेतृत्व किया। 1946 तक माओ ने स्वयं को क्रान्ति के लिए संगठित कर लिया था। इस दौरान उसे कदम-कदम पर कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। उसकी दूसरी पत्नी व उसके अनेक साथियों को कोमिनतांग सरकार ने मृत्यु के घाट उतार दिया, लेकिन माओ के इरादे अटल रहे।
1946 में ऐसा समय आया जब माओ को अपनी क्रान्ति को सफल बनाने का समय मिल गया। इस समय चीन में गृह-युद्ध छिड़ गया और माओ ने स्थिति का पूरा लाभ उठाया। उसने छापामार युद्ध द्वारा च्यांग की विशाल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। 1 जनवरी 1949 में कम्युनिस्टों का पीकिंग पर अधिकार हो गया। अक्टूबर, 1949 में माओ ने चीनी जनवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की और वह उसके बाद मास्को चला गया। वापिस आकर माओ ने साम्यवादी दल तथा देश के शासन की बागडोर सम्भाली। 1958 में उसने राष्ट्राध्यक्ष का पद ल्यू शाओ ची के लिए छोड़ दिया। 1966 में उसने सांस्कृतिक क्रान्ति का सफल नेतृत्व किया। माओ के लाल सैनिकों ने साम्यवाद विरोधी व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया। कई महीने तक चले भीष्म रक्त-पात के बाद माओ की पकड़ चीनी समाज में मजबूत हुई और उसे चीनी जनता ने अपना आराध्य देवता मानकर पूजना शुरू कर दिया। अपने जीवन काल में ही पुराण पुरुष बनने वाले और चीन का आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास करने वाले युग पुरुष माओ का 9 सितम्बर 1976 को निधन हो गया।
माओ को राष्ट्रीय परिस्थितियों का आभास होना शुरू हुआ तो वे राजनीतिक व सामाजिक आन्दोलनों का इतिहास पढ़ने लगे। 1911 में उन्हें वुहान से शुरू होने वाली प्रथम क्रान्ति देखी। उस समय उनकी आयु 18 वर्ष थी। इस क्रान्ति का उनके जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा और उनमें उग्र-राष्ट्रवाद की भावना का संचार हुआ। उन्होंने इस क्रान्ति का व्यापक विश्लेषण किया। वह 1911 में यागंशा में सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के लिए फौज में भर्ती हो गया। 1912 में फौजी प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उसने फौज छोड़ दी। इसके बाद उसका रूझान चीनी समाजवाद की तरफ हो गया। 1912 में उसने च्यांग कांग हू की ‘चीनी सोशलिस्ट पार्टी’ की नीतियों की प्रशंसा की। इसके बाद माओ ने हुनान पुस्तकालय में एडम स्मिथ, मांटेस्क्यू, मिल, डार्विन, रुसो आदि के विचारों को पढ़ा। उसने रुस, अमेरिका, इंग्लैण्ड और फ्रांस के इतिहास का भी अध्ययन किया। 1918 में वे उच्च माध्यमिक शिक्षा समाप्त करके पीकींग चला गया और वहां पुस्तालयाध्यक्ष की नौकरी की। 1920 में माओ पर रुसी माक्र्सवाद का प्रभाव पड़ने लगा और वह रुसी समाजवाद का महान समर्थक बन गया। 1921 में उसने कम्युनिस्ट पार्टी के संधाई सम्मेलन में भाग लिया और वहां उसे पार्टी की हुनान शाखा का सचिव चुना गया। 1925 में च्यांग काई शेक ने सुनयात सेन के निधन पर कोमिनतांग पार्टी की बागडोर संभाली। च्यांग काई शेक ने कम्युनिस्टों पर प्रहार शुरू कर दिए और माओ को जान बचाकर भागना पड़ा। माओ दुर्गम देहाती इलाकों में चले गए और वहां पर किसानों की सोवियतें बनाकर क्रान्तिकारी संगठन को मजबूत बनाया। 1927 में उसने च्यांगशा में विफल किसान क्रान्ति का भी नेतृत्व किया। 1946 तक माओ ने स्वयं को क्रान्ति के लिए संगठित कर लिया था। इस दौरान उसे कदम-कदम पर कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। उसकी दूसरी पत्नी व उसके अनेक साथियों को कोमिनतांग सरकार ने मृत्यु के घाट उतार दिया, लेकिन माओ के इरादे अटल रहे।
1946 में ऐसा समय आया जब माओ को अपनी क्रान्ति को सफल बनाने का समय मिल गया। इस समय चीन में गृह-युद्ध छिड़ गया और माओ ने स्थिति का पूरा लाभ उठाया। उसने छापामार युद्ध द्वारा च्यांग की विशाल सेना को भागने के लिए विवश कर दिया। 1 जनवरी 1949 में कम्युनिस्टों का पीकिंग पर अधिकार हो गया। अक्टूबर, 1949 में माओ ने चीनी जनवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की और वह उसके बाद मास्को चला गया। वापिस आकर माओ ने साम्यवादी दल तथा देश के शासन की बागडोर सम्भाली। 1958 में उसने राष्ट्राध्यक्ष का पद ल्यू शाओ ची के लिए छोड़ दिया। 1966 में उसने सांस्कृतिक क्रान्ति का सफल नेतृत्व किया। माओ के लाल सैनिकों ने साम्यवाद विरोधी व्यक्तियों को मौत के घाट उतार दिया। कई महीने तक चले भीष्म रक्त-पात के बाद माओ की पकड़ चीनी समाज में मजबूत हुई और उसे चीनी जनता ने अपना आराध्य देवता मानकर पूजना शुरू कर दिया। अपने जीवन काल में ही पुराण पुरुष बनने वाले और चीन का आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक व सांस्कृतिक विकास करने वाले युग पुरुष माओ का 9 सितम्बर 1976 को निधन हो गया।
माओ-त्से-तुंग की महत्वपूर्ण रचनाएं
माओ-त्से-तुंग एक क्रान्तिकारी राजनीतिक होने के साथ-साथ एक राजनीतिक दार्शनिक भी थे। उन्होंने चीन की परिस्थितियों के अनुसार अपने कुछ विशेष सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया, जो ‘माओवाद’ के नाम से प्रसिद्ध हैं। उसने अनेक पुस्तकों की रचना की, जो आज चीनी साम्यवादियों के लिए गीता और बाईबल हैं और उनमें लिखे हुए वाक्य वेद-वाक्य हैं। माओ की प्रमुख रचनाएं हैं-- On Contradictions (1937)
- New Democracy (1940)
- On Coalition Government (1945)
- The Present Position and the Task Ahead (1947)
- The People’s Democratic Dictatorship (1949)
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