तुलनात्मक राजनीति के विकास का अध्ययन अरस्तु से लेकर वर्तमान अवस्था तक

तुलनात्मक राजनीति केवल आधुनिक युग की देन नहीं है, बल्कि इसका गौरवपूर्ण अतीत है। तुलनात्मक राजनीति के विकास की गाथा अरस्तु से प्रारम्भ होती है। अरस्तु ने ही सर्वप्रथम 158 देशों के संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन करके राज्य सम्बन्धी सिद्धान्तों की नींव रखी। अरस्तु के बाद अनेक विचारक सदैव यही बात सोचते रहे हैं कि कौन सी शासन-व्यवस्था किस समाज के लिए उपयुक्त हो सकती है। उनकी इसी बात में तुलनात्मक शब्द का समावेश हो जाता है।
 
अरस्तु के बाद मैकियावेली, माण्टेस्क्यू, माक्र्स आदि विद्वानों ने तुलनात्मक विश्लेषण का विकास करके तुलनात्मक राजनीति का विकास किया है। इस तरह लम्बे विकास के दोर से गुजरती हुई तुलनात्मक राजनीति अपनी वर्तमान अवस्था तक पहुँच पाई है। अनेक उतार-चढ़ावों से परिपूर्ण तुलनात्मक राजनीति आज एक स्वतंत्र विषय के रूप में विराजमान है। 

अरस्तु से लेकर वर्तमान अवस्था तक विकास को प्राप्त तुलनात्मक राजनीति के विकास का अध्ययन निम्नलिखित शीर्षकों के अन्तर्गत किया जा सकता है :-
  1. द्वितीय-विश्व युद्ध तक तुलनात्मक राजनीति का विकास (Evolution of Comparative Politics upto Second World War)।
  2. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तुलनात्मक राजनीति का विकास (Evolution of Comparative Politics After Second World War) ।
  3. तुलनात्मक राजनीति की वर्तमान स्थिति (Present Position of Comparative Politics)

द्वितीय विश्व युद्ध तक तुलनाात्मक राजनीति का विकास

द्वितीय विश्व युद्ध तक तुलनात्मक राजनीति के विकास के प्रमुख सीमा-चिह्न हैं :-

अरस्तु का योगदान

अरस्तु को तुलनात्मक राजनीति के परम्परागत दृष्टिकोण का जनक कहा गया है। अरस्तु ने सर्वप्रथम 158 देशों के संविधानों का तुलनात्मक अध्ययन करके शासन-प्रणालियों को क्रमबद्ध किया। उसने सबसे अच्छी और सबसे बुरी शासन-प्रणाली पर अपने विचार प्रस्तुत किए। उसने अपनी पुस्तक श्च्वसपजपबेश् में राजनीति की अध्ययन पद्धतियों सम्बन्धी प्रश्न उठाए और उनका समाधान भी किया। उसने आगमनात्मक पद्धति का प्रयोग करके राजनीति शास्त्र को वैज्ञानिक बनाने का प्रयास सर्वप्रथम किया। उसने अपनी वैज्ञानिक पद्धति के बल पर तत्कालीन शासन-व्यवस्थाओं का गहरा अवलोकन किया और उनसे प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर ही राज्य सम्बन्धी सिद्धान्तों का निरूपण किया। 

अरस्तु ने राजनीति शास्त्र को अन्य शास्त्रों से अलग कर एक स्वतंत्र शास्त्र की पदवी प्रदान की। इसी कारण अरस्तु को राजनीति विज्ञान का जनक भी कहा जाता है। उसने प्लेटो की तरह आदर्शवादी अध्ययन न करके यथार्थवादी अध्ययन पर जोर दिया। उसने वैज्ञानिक पद्धति के अनुसार ही तथ्यों और आंकड़ों का विश्लेषण करके उपयोगी निष्कर्ष निकाले। उसने क्रान्ति के कारणों का पता लगाया और उन्हें रोकने के सुझाव भी दिए। उसने सरकारों या शासन-व्यवस्थाओं के वर्गीकरण के सुनिश्चित सुझाव भी दिए। इस तरह अरस्तु का महत्त्व इसी बात में है कि उसने तुलनात्मक पद्धति का विकास किया। उसके द्वारा प्रतिपादित तुलनात्मक पद्धति आज भी तुलनात्मक अध्ययन का आधार है।

मैकियावेली और पुनर्जागरण काल

बौद्धिक पुनर्जागरण के काल में राज्य को दैवी संस्था की बजाय मानवकृत संस्था बताया गया। इस युग में मानववाद और बौद्धिक स्वातन्त्रयवाद का प्रचार हुआ। इस युग में ‘मानव को ही प्रत्येक वस्तु का मापदण्ड’ माना गया। मैकियावेली ने बौद्धिक पुनर्जागरण काल का प्रतिनिधि होने के कारण राजनीति शास्त्र में पद्धति सम्बन्धी प्रश्न फिर से उठाए और अपनी पुस्तक में बताया कि राजनीति का व्यवस्थित और तुलनात्मक अध्ययन क्यों जरूरी है ? उसने राज्य-कला और प्रशासन-कला के बारे में नए विचार प्रस्तुत किए। उसने अपनी पुस्तक 'The Prince' में बताया कि एक सफल शासक में कौन-कौन से गुण होने चाहिए। उन्होंने इस पुस्तक में राजनीतिक व्यवहार और शासनकला के बारे में विस्तार से बताया। उसने अच्छे और बुरे शासन पर अपने विचार प्रकट किए। उसने अपने ये विचार प्रकट करने से पहले अनेक शासन-व्यवस्थाओं को गम्भीर अध्ययन किया। उस समय इटली राष्ट्रीय एकता के अभाव में कमजोर व पिछड़ा राष्ट्र था, इसलिए उसने इटली को शक्तिशाली बनाने के लिए  Prince' में बताया कि शक्ति कैसे प्राप्ति की जा सकती है। 

इस तरह मैकियावेली का ग्रन्थ 'The Prince' तुलनात्मक अध्ययनों का सार है। उसने सबसे पहले धर्म व राजनीति को पृथक करके इसके औचित्य पर प्रकाश डाला। उसने अपने विश्लेषणात्मक अध्ययन के आधार पर ही वास्तविक परिस्थितियों का अध्ययन करके कारणों की खोज की और सामान्य निष्कर्ष प्रस्तुत किए। उसने अनुभववाद और इतिहासवाद का मेल करके अपने तुलनात्मक अध्ययन का विकास किया, वर्तमान समस्याओं की जड़ें इतिहास में तलाश की और राजनीतिक समस्याओं का हल खोजा। उसने राजनीतिक चिन्तन का उद्देश्य सामाजिक अभियन्त्रण (Social Engineering) को बताया तथा श्रेष्ठ समाज की रचना के उपाय भी बताए। 

इस प्रकार निष्कर्ष तौर पर कहा जा सकता है कि मैकियावेली ने ऐतिहासिक पर्यवेक्षणात्मक, यथार्थवादी और वैज्ञानिकता के गुणों से भरपूर आगमन अध्ययन पद्धति का प्रयोग करके तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र के विकास में अपना बहुमूल्य योगदान दिया। उसके अध्ययन का प्रमुख उद्देश्य विभिन्न प्रकार की राजनीतिक व्यवस्थाओं का तुलनात्मक विवेचन करके इटली के लिए उपयुक्त शासन-व्यवस्था की तलाश करना था। अपनी पुस्तक 'The Prince' के माध्यम से उसने अपने इस उद्देश्य को प्राप्त किया।

मॉण्टेस्क्यू का योगदान 

बुद्धिवादी युग का विचारक होने के नाते मॉण्टेस्क्यू ने अपने चिन्तन का लक्ष्य सामाजिक अभियन्त्रण की बजाय संवैधानिक अभियन्त्रण को बनाया। उसने अनुभूतिमूलक और निरीक्षण पर आधारित वैज्ञानिक व ऐतिहासिक पद्धति को अपनाकर राजनीतिक समस्याओं का विवेचन वास्तविक परिस्थितियों के सन्दर्भ में ही किया। उसने अपनी पुस्तक 'The Spirit of the Laws' में संविधान निर्माण की कला को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया और बताया कि सरकारों का संगठन कैसे किया जाए। उसकी रुचि इस बात में थी कि सरकारों का निर्माण कैसे हो, इस बात में नहीं कि शासकों को कैसा व्यवहार करना चाहिए। उसका ग्रन्थ 'The Spirit of the Laws' आधुनिक समस्याओं का दिग्दर्शन है। उसने इस ग्रन्थ में सरकारों के उदय, विकास और पराभव पर विचार करते हुए तुलनात्मक पद्धति का ही सहारा लिया। 

उसने इस ग्रन्थ में लिखा है-”मैंने इस बात पर विचार किया है कि सरकार के विभिन्न रूपों में कौनसा रूप बुद्धि के सबसे अनुरूप है और मुझे यह प्रतीत होता है कि स्वतन्त्र सरकार सह होती है जो जनता की स्वतन्त्र प्रवृत्ति के अधिक-से-अधिक अनुकूल उसका प्रदर्शन करे।” उसका विश्वास था कि मानवीय संस्थाएं, परम्पराएं और कानून किसी दैवी òोत की उपज न होकर पेड़-पौधों की तरह अनुकूल परिस्थितियों में धीरे-धीरे विकसित होती है। इसलिए राजनीति शास्त्र का सम्पूर्ण मानवीय सम्बन्धों के साथ अध्ययन धर्म, अर्थशास्त्र, इतिहास, भूगोल, मनोविज्ञान आदि विषयों के सन्दर्भ में ही करना चाहिए। इस तरह मॉण्टेस्क्यू ने राजनीतिक व्यवस्थाओं से सम्बन्धित सभी पहलुओं पर विचार किया। उसके द्वारा प्रतिपादित सभी विषय आज तुलनात्मक राजनीति का अंग हैं। उसने विभिन्न समाजों की पारस्परिक निर्भरता की व्याख्या की है। उसने सामाजिक परिवर्तन को एक तकनीक कहकर सामाजिक व्यवस्था को मनुष्यों द्वारा बदलने की बात कही है। उसने तुलनात्मक पद्धति का प्रयोग करके समाजों में श्रेष्ठतर संगठनों का पता लगाया और अपनी श्रेष्ठ सरकारों के निर्माण सम्बन्धी सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया।

इस तरह मॉण्टेस्क्यू की रुचि राजनीतिक व्यवस्थाओं के सरकारी ढाँचे को वर्तमान परिस्थितियों के अनुकूल बनाने में थी। उसने राजनीतिक व्यवस्थाओं का बाह्य पर्यावरण से सम्बन्ध; आर्थिक कारकों और व्यवहारों की राजनीति में भूमिका; राजनीतिक व्यवस्थाओं के वर्गीकरण की समस्याओं में अपना ध्यान लगाया और राजनीतिक व्यवस्थाओं की जीवन क्षमता पर विचार किया। उसके द्वारा प्रस्तुत राजनीतिक व्यवस्थाओं का संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक विश्लेषण, राजनीतिक व्यवस्थाओं का वर्गीकरण, राजनीतिक व्यवस्था का समाज, अर्थव्यवस्था व परिवेश से सम्बन्ध आदि विचार तुलनात्मक अध्ययन के आधार हैं। इस प्रकार मॉण्टेस्क्यू द्वारा प्रयुक्त सिद्धान्त और विधियां आधुनिक समय में तुलनात्मक राजनीति के महत्त्वपूर्ण आधार हैं।

इतिहासवाद का युग

मॉण्टेस्क्यू के बाद राजनीति के अध्ययन पर इतिहासवाद का भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यद्यपि इतिहासवाद के प्रत्यक्ष रूप से तो तुलनात्मक अध्ययन के क्षेत्र में कोई योगदान नहीं दिया, परन्तु इतिहासवाद के दर्शन के रूप में उत्पन्न परिस्थितियों ने तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया। इतिहासकार के दर्शन के रूप में उत्पन्न विरोधी प्रवृत्तियां ही आज तुलनात्मक राजनीति का आधार हैं। इतिहासवाद से तात्पर्य उस मान्यता से है जिसके अनुसार मानव समाज का एक क्रमिक व निश्चित दिशा में निरन्तर विकास हो रहा है। इस सिद्धान्त के अनुसार सारा विश्व एक ही दिशा में विकसित हो रहा है और इसमें सार्वभौमिकता और सर्वव्यापकता का गुण भी है। इतना होने के बावजूद भी इतिहासवाद के विचारकों में विकास की अन्तिम मंजिल व आधारभूत कारणों पर मतभेद हैं। यही मतभेद तुलनात्मक राजनीति की विषय सामग्री है। 

हीगल तथा माक्र्स में इतिहास की मंजिल को लेकर जो मतभेद हैं, वे तुलना के आधार हैं। हीगल मानव जीवन का लक्ष्य आत्मा के मोक्ष को कहता है और उसके इस काम में राज्य उसकी मदद कर सकता है, क्योंकि राज्य ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसलिए राज्य के आदेशों का पालन करना ही व्यक्ति की सच्ची स्वतंत्रता है। इस प्रकार हीगल की व्याख्या में तुलना का प्रश्न ही नहीं पैदा होता। उसके विपरीत माक्र्स विकास का अन्तिम उद्देश्य भौतिक दृष् िट से वर्गविहीन समाज की रचना करना है। माक्र्स के अनुसार वर्ग-संघर्ष समाजों के विकास को एक महत्त्वपूर्ण अन्तिम मंजिल तक पहुंचाता है। इस तरह इसमें भी तुलना का अभाव है। परन्तु इनके द्वारा प्रतिपादित अन्तिम मंजिल व विकास के प्रेरक तत्व ही तुलनात्मक अध्ययन का आधार हैं; क्योंकि उनमें मतभेद का गुण है।

‘माक्र्स का धर्म’ का प्रत्यय राजनीतिक व्यवस्थाओं की व्याख्या का आधार है। इतिहासवादियों ने राजनीति, इतिहास, संस्कृति और धर्म के सम्बन्धों के रूप में तुलनात्मक राजनीति को महत्त्वपूर्ण सामग्री दी है। आज यह प्रश्न राजनीतिक विचारकों को कचोट रहा है कि इतिहास और राजनीति का आपस में क्या सम्बन्ध है ? धर्म व राजनीति का क्या सम्बन्ध है ? यही समस्या तुलनात्मक राजनीति का आधार है। विकासक्रम की सामाजिक गत्यात्मकता का पहलु भी तुलनात्मक राजनीति की सामग्री है। हीगल तथा माक्र्स द्वारा प्रतिपादिक सार्वभौमिक सिद्धान्त का विचार आज तुलनात्मक राजनीति का प्रमुख विषय है। अन्य इतिहासवादियों द्वारा प्रयुक्त विचार आज तुलनात्मक राजनीति में प्रयुक्त हो रहे हैं। अत: तुलनात्मक राजनीति के विकास में इतिहासवाद का अमूल्य योगदान है।

इतिहासवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियाएं

इतिहासवादियों ने राजनीति शास्त्र की अपेक्षा राजनीति के ऊपर अधिक ध्यान दिया। इसी कारण उनके द्वारा उठाए गए प्रश्न तथा समंस्याएं राजनीति शास्त्र को परेशान करती रही। परिणामस्वरूप सामाजिक चिन्तन के विकास मे इसका प्रभाव कम होता रहा और अन्त में इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया ने जन्म ले लिया। इस प्रतिक्रिया के दौरान तीन बातें उभरकर आर्इं।  सर्वप्रथम-इसमें अमूर्त राजनीतिक विश्लेषण पर जोर दिया जाने लगा और राजनीतिक संस्थाओं और व्यवस्थाओं का अध्ययन अधिक से अधिक विषयगत अथवा आत्मपरक बन गया। इसके परिणामस्वरूप कल्पनात्मक अध्ययन की बजाय तथ्यों पर आधारित अध्ययन को बल मिला और तुलनात्मक आधार पर ही राजनीतिक संस्थाओं व व्यवहार का अध्ययन होने लगा। इसके बाद दूसरी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप प्रतिक्रियावादियों ने किया और सामग्री की पृथकता पर जोर दिया और इस पृथकता का तुलनात्मक राजनीति के विकास पर सीधा प्रभाव पड़ा। औपचारिक-कानूनी अड़चनों पर बल दिया जाने के कारण कानूनी व्यवहार की सत्यता का प्रश्न खड़ा हो गया। यही तुलनात्मक अध्ययन का आधार थी। 

तीसरी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप संरुपनात्मक विश्लेषण का जन्म हुआ। इसके परिणामस्वरूप राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में विशेष ज्ञान प्रस्तुत करने पर बल दिया गया। अब प्रत्येक देश की राजनीतिक व्यवस्था को अनोखी मानकर अलग से अध्ययन किया जाने लगा। इस प्रतिक्रिया के विचारकों का मानना था कि हर राज्य का अपना समाज, अपनी संस्कृति और राष्ट्रीय चरित्र भिन्न होने के साथ-साथ मूल्य व नीतियां भी भिन्न-भिन्न होते हैं। इसलिए हर राज्य का पृथक अध्ययन करना जरूरी हो जाता है। इन प्रतिक्रियाओं के फलस्वरूप आगे चलकर समूहीकरण की प्रवृत्ति का भी जन्म हुआ और राज्यों का अध्ययन समाज लक्षणों के समूहीकरण के आधार पर होने लगा। इस तरह राज्यों को समूहों में बांटना भी तुलनात्मक राजनीति का आधार बना। इस तरह इतिहासवाद के विरुद्ध प्रतिक्रिया के रूप में अध्ययन ने तुलनात्मक राजनीति का विकास किया और तुलनात्मक अध्ययन को उपयोगी सामग्री दी।

राजनीतिक विकासवाद का युग

इस युग को उत्तर-इतिहासवादी युग भी कहा जा सकता है। द्वितीय विश्व युद्ध तक इतिहासवाद के विरुद्ध प्रतिक्रियाओं का दौर जारी रहा। इस दौरान अनेक विचारधाराओं का जन्म हुआ जिनका तुलनात्मक राजनीति के विकास पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा। इस युग में प्राचीन दृष्टिकोणों को त्यागकर राजनीति में नवीन दृष्टिकोणों का प्रयोग होने लगा। विकासवादी विचारकों ने विकास के पीछे निहित प्रेरक तत्वों को खोजने के प्रयास किए और कल्पना की बजाय जीवन की वास्तवविकताओं को ही अपने अध्ययन का आधार बनाया। उन्होंने अपने अध्ययन का सम्बन्ध राज्य की उत्पत्ति और विकास तक सीमित किया। उन्होंने यह समझने का प्रयास किया कि राज्य के विकास के पीछे कौन से प्रेरक काम कर रहे हैं ? उन्होंने सीमित समस्याओं पर ही अपना ध्यान केन्द्रित करके राजनीतिक संरचनाओं की उत्पत्ति के कारणों को खोजने का प्रयास किया। उन्होंने जटिल राजनीतिक समस्याओं के बारे में ही जानने का प्रयास किया। उन्होंने आंकड़े एकत्रित करने पर ही अधिक ध्यान दिया ताकि राजनीतिक व्यवस्थाओं के मूल में निहित प्रक्रियाओं केो समझा जा सके। 

इस युग की प्रमुख रचनाएं हैं-थियोडोर डी0 बूल्ले की रचना 'Political Science' (1878), वुडरो विल्सन की पुस्तक 'The State Elements of Historical and Practical Politics' (1895), सर हेनरीमेन की 'Ancient Law' (1861) तथा 'Early History of Institutions (1874), एडवर्ड जैक्स की 'A Short History of Politicेश् तथा 'The State and the Nation' (1900-1919), सीले की 'Introduction to Political Science (1896), रूसो की 'Essay on the Origin of Inequality' (1931), स्मिथ और कैरी की 'The Origin and History of Politics' (1931), जैम्स ब्राइस की 'Modern Democracies' (1921) कार्ल जे0 फ्रेडविक की 'Constitutional Govt. and Democracy' (1937)। इनमें से सर हेनरी मेन की रचनाएं राजनीतिक विकासवाद की आधारशिलाएं हैं। 

इसके अतिरिक्त मैकाइवर ने 'The Modern State' (1926) तथा ई0एम0 सैट ने 'Political Institutions : A Preface' (1938) पुस्तकों के द्वारा भी राजनीतिक विकासवाद का ही पो्रषण किया है। इन सभी विचारकों ने राज्य की उत्पत्ति और विकास के बारे में उपयोगी तथ्य एकत्रित करके तुलनात्मक राजनीति के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है। इस तरह हेनरी मेन, एडवर्ड जेम्स, सीले, रुसो, ब्राइस, फ्रेडरिक आदि विचारकों के प्रयासों के परिणामस्वरूप तुलनात्मक राजनीति को बहुत ही उपयोगी सामग्री मिल पाई है और उसी सामग्री पर आज तुलनात्मक अध्ययन का विकास हो रहा है।

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद तुलनात्मक राजनीति का विकास

यद्यपि द्वितीय विश्वयुद्ध तक तुलनात्मक राजनीति के विकास के अनेक प्रयास हुए, इसके विकास में परेटो, मोस्का, मिथेल्स, मैक्स वेबर जैसे समाजशास्त्रियों ने भी अपना योगदान दिया, लेकिन कुल मिलाकर तुलनात्मक राजनीति का विकास धीमी गति से ही हुआ। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्रों की संख्या में भारी वृद्धि, शक्ति के फैलाव तथा साम्यवाद के उदय के कारण तुलनात्मक अध्ययन को भी अपनी परम्परागत सीमाएं छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। इसके बाद तुलनात्मक राजनीति में वृहत स्तरीय तुलनाओं को विशेष स्थान प्राप्त हुआ। राजनीति की प्रकृति और क्षेत्र का विस्तार हुआ। राजनीति की प्रकृति की विस्तृत धारणा का विकास हुआ और राजनीति से सम्बन्धित गैर-राजनीतिक तत्वों का अध्ययन भी तुलनात्मक राजनीति में होने लगा। अब तक सम्प्रभु राज्य पर आधारित औपचारिक तुलनाएं अपनी सीमाएं छोड़कर बाहर निकलने लगी और तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में नई प्रवृत्तियों का समावेश हुआ। इससे राजनीति की प्रकृति की विस्तृत व सामान्य अवधारणाओं पर व उसकी विषय-सामग्री में सुस्पष्टता आई। 

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तुलनात्मक अध्ययन में परम्परागत दृष्टिकोण की अनेक कमियाँ उभरकर सामने आर्इं। इन कमियों को दूर करने के लिए तुलनात्मक विश्लेषण के तकनीकी पक्ष का विकास किया जाने लगा, गैर-राजकीय संस्थाओं को भी तुलनात्मक अध्ययन में स्थान दिया गया तथा तुलनात्मक अध्ययन को पाश्चात्य सीमाओं से निकालकर तृतीय विश्व में लाकर रख दिया। 

राबर्टस का मानना है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र को अधिक व्यापक और विस्तृत बनाने में दो धाराओं का मुख्य हाथ रहा। पहली धारा तुलना की कला और पद्धतियों के बारे में आत्मचेतना की प्रवृत्ति थी जो अनेक विद्वानों के आत्म-निरीक्षण के कारण सामने आई। इस धारा का विकास बीयर, उल्म, हेक्शर तथा मैक्रिडीस आदि विद्वानों ने किया। इन विद्वानों के अध्ययन के निष्कर्षों को आमण्ड तथा कोलमैन ने अपनी पुस्तकों 'The Politics of Developing Areas' तथा 'Comparative Politics' में प्रस्तुत किया है। तुलनात्मक राजनीति के विकास में दूसरी धारा के कारण तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र से बाहर राजनीतिक आधुनिकीकरण, राजनीतिक विश्लेषण, राजनीतिक समाजशास्त्र आदि अवधारणाओं का विकास होने लगा, जिसके परिणामसवरूप तुलनात्मक राजनीति के विश्लेषण में जटिलताएं बढ़ने लगीं। इसके बाद डेविड ईस्टन, ऑमण्ड, कार्ल डायच, कोलमैन आदि ने राजनीतिक सिद्धान्त में तुलनात्मक विश्लेषण को व्यवस्था सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित किया। इस सिद्धान्त द्वारा सामाजिक व्यवस्थाओं की तुलना के साथ-साथ राजनीतिक व्यवस्था के कार्यों से सम्बन्धित नई अवधारणाओं का भी समावेश हुआ। इससे Output, Input, Feedback, Support, Values, Demands, Autonomy, Load, Lead, Gain, Communication आदि नये शब्दों का समावेश तुलनात्मक राजनीति में हुआ। विगत दो दशकों से तुलनात्मक राजनीति में, राजनीतिक समाजीकरण, राजनीतिक संचार, अभिजन वर्ग, नीति-निर्माण, राजनीतिक संस्कृति, राजनीतिक विकास आदि अवधारणाओं का बहुत विकास हुआ है, तुलनात्मक राजनीति में नई-नई तकनीकें अपनाई गई हैं और नवोदित राष्ट्रों और तृतीय विश्व के अध्ययन को महत्व दिया गया है। 

ऑमण्ड और पॉवेल ने द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तुलनात्मक अध्ययन के बारे में चार तत्वों का समावेश स्वीकार किया है-
  1. तुलनात्मक राजनीति की आनुभविक सीमा का विस्तार 
  2. वैज्ञानिक परिशुद्धता पर जोर 
  3. राजनीति के सामाजिक परिवेश पर बल 
  4. तुलनात्मक विश्लेषण के नवीन उपागमों का प्रयोग। 
इन तत्वों के तुलनात्मक राजनीति में विकास का अध्ययन निम्न प्रकार से किया जा सकता है :-

1. तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र की आनुभविक सीमा का विकास - द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले तुलनात्मक राजनीति पर पश्चिमी देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का ही अध्ययन किया जाता था, लेकिन अब युद्ध के बाद उत्पन्न परिस्थितियों के कारण गैर-पश्चिमी देशों की राजनीतिक-व्यवस्थाओं का भी अध्ययन किया जाने लगा। युद्ध के बाद इटली में अधिनायकवाद का उदय, रूस में स्टालिन का तानाशाही नेतृत्व, चीन में माओ का साम्यवादी नेतृत्व, भारत, टर्की, अफ्रीका व एशिया के अन्य देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करना अब आवश्यक हो गया। तुलनात्मक राजनीति तृतीय विश्व तथा एशिया, अफ्रीका, लेटिन अमेरिका में युद्ध के बाद की परिस्थितियों से मुंह नहीं फेर सकती थी। गुटनिरपेक्षता की नीति, शीतयुद्ध का जन्म आदि घटनाओं के कारण भी तुलनात्मक राजनीति को यूरोप की सीमाएं छोड़नी पड़ी। अब तुलनात्मक राजनीति में लोकतन्त्र, निरंकुशतन्त्र, साम्यवाद, विकसित व विकासशील, पश्चिमी व नवोदित तृतीय विश्व के देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन आवश्यक हो गया। इस प्रकार तुलनात्मक राजनीति के आनुभाविक क्षेत्र का विकास द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की प्रमुख घटना है।

2. वैज्ञानिक परिशुद्धता पर बल - द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद परम्परागत अवधारणाओं के स्थान पर नई अवधारणाओं का तुलनात्मक राजनीति के क्षेत्र में विकास हुआ। उनको समझने के लिए नई तकनीकों और नवीन उपागमों की आवश्यकता हुई। इस समय व्यवहारवादी क्रान्ति के प्रभाव के कारण भी परिमाणात्मक विधियों का प्रयोग बढ़ रहा था। इस क्रांति ने राजनीति विज्ञान व तुलनात्मक राजनीति दोनों को प्रभावित किया। इसके तुलनात्मक राजनीति को वैज्ञानिक बनाने में मदद मिली और राजनीतिक व्यवहार का वैज्ञानिक विधियों से अध्ययन किया जाने लगा। इस तरह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद व्यवहारवादी क्रांति के कारण तुलनात्मक राजनीति में वैज्ञानिक परिशुद्धता पर जो दिया जा रहा है।

3. गैर-राजनीतिक संस्थाओं के अध्ययन पर बल - द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तुलनात्मक राजनीति में सामाजिक परिवेश को महत्त्व दिया जाने लगा। राजनीतिक व्यवहार को प्रभावित करने वाले गैर-राजनीतिक समूहों व सामाजिक तथा सांस्कृतिक पर्यावरण का अध्ययन भी अब आवश्यक माना जाने लगा क्योंकि राजनीतिक व्यवहार सामाजिक परिवेश से भी प्रभावित होता है। अब राजनीतिक व्यवहार की सम्पूर्णता को समझने के लिए गैर-राजनीतिक संस्थाओं व सामाजिक परिवेश का अध्ययन आवश्यक हो गया। तुलनात्मक राजनीति में आज राजनीतिक संस्कृति, अभिजनो, दबाव समूहों, राजनीतिक दलों, नौकरशाही आदि के साथ साथ सामाजिक परिवेश पर अधिक जोर दिया जाता है। इस तरह द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तुलनात्मक राजनीति में राजनीतिक समाजीकरण के संस्थाओं की विशेष महत्त्व दिया गया।

4. तुलनात्मक अध्ययन के नवीन उपागमों का विकास - द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद राजनीतिक व्यवहार की जटिलताओं को समझने के लिए नए-नए उपागमों व दृष्टिकोणों का विकास हुआ। अब राजनीतिक व्यवहार की गत्यात्मकताओं और राजनीतिक व्यवस्थाओं का जटिल ताना-बाना समझने में परम्परागत दृष्टिक ोण मददगार नहीं रहे, इसलिए नए दृष्टिकोणों का विकास हुआ। इसमें राजनीतिक संस्कृति, राजनीतिक विकास, माक्सर्ववादी-लेनिनवादी, संरचनात्मक-प्रकार्यात्मक, व्यवस्था विश्लेषण, राजनीतिक आधुनिकीकरण आदि प्रमुख नए दृष्टिकोण हैं। इनमें संरचनात्मक-प्रकार्यातमक दृष्टिकोण भारत की राजनीतिक व्यवस्था की शल्य-क्रिया करने में सबसे अधिक उपयोगी है। इस प्रकार द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद तुलनात्मक राजनीति में नवीन प्रवृत्तियों के उदय ने गैर-पाश्चात्य राजनीतिक व्यवस्थाओं को भी स्थान मिला। 

अब तुलनात्मक राजनीति में गैर-राजनीतिक संस्थाओं व उने व्यवहार को भी स्थान मिला तथा सामाजिक परिवेश के सन्दर्भ में तुलनात्मक अध्ययन किया जाने लगा। नए-नए दृष्टिकोणों व तकनीकों के विकास ने तुलनात्मक राजनीति को आज एक स्वतंत्र अनुशासन के स्तर पर पहुंचा दिया, लेकिन तुलनात्मक राजनीति अभी पूर्णता को प्राप्त नहीं कर सकी है। तुलनात्मक राजनीति में पूर्ण राजनीतिक व्यवहार की व्याख्या करने वाले दृष्टिकोणों की तलाश जारी है।

तुलनाात्मक राजनीति की वर्तमान स्थिति

तुलनात्मक राजनीति का महत्त्व इसकी वर्तमान स्थिति पर ही निर्भर है। वस्तुत: आज की जटिल समाज-व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में राजनीति को केवल औपचारिक संस्थाओं और शासन के अंगों की जानकारी के आधार पर नहीं समझा जा सकता। आज राजनीति सामाजिक प्रक्रिया का एक आयाम है। राजनीतिक प्रणाली सामाजिक प्रणाली का ही एक हिस्सा है। आज विभिन्न शासन-प्रणालियों या शासन के अंगों में प्रकट रूप से अनेक समानताएं व असमानताएं हैं, इसलिए तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति बहुत जटिल हो गई है। अपने लम्बे इतिहास से परिपूर्ण तुलनात्मक राजनीति का वर्तमान स्वरूप अनिश्चित, अस्पष्ट और असंतोषजनक है। आज तुलनात्मक राजनीति एक संक्रमणकाल से गुजर रही है। प्रतिदिन राजनीतिक व्यवस्थाओं की कार्यप्रणाली और राजनीतिक व्यवहार में नए नए परिवर्तन हो रहे हैं। अफगानिस्तान में तालिबान के शासन का अन्त, ईराक में सद्दाम हुसैन की अधिनायकता का अन्त, शीत युद्ध का अन्त, राजनीतिक व्यवस्थाओं की कार्यप्रणाली पर आतंकवाद का प्रभाव आदि तथ्यों के संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन में स्थायित्व का गुण आना असम्भव है।

आज तक राजनीति शास्त्री इस बात को स्पष्ट नहीं कर सके हैं कि तृतीय विश्व के विकासशील राष्ट्रों की राजनीति का अध्ययन कैसे करें। राजनीतिक अस्थिरता, आर्थिक उतार-चढ़ावों के कारण इन राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन व विश्लेषण करने के सारे उपागम असफल हो रहे हैं। अनेक विकासशील देशों में सैनिक क्रान्तियां हुई हैं। अफ्रीका में तख्ता पलट की अनेकों घटनाएं आज राजनीति शास्त्रियों के अध्ययन का केन्द्र बन रही हैं। अब तुलनात्मक अध्ययन द्वारा राजनीतिक व्यवस्थाओं की अस्थिरता के कारणों का पता लगाना अनिवार्य हो गया है। तृतीय विश्व के राज्यों में सेना की भूमिका, गैर-राजनीतिक तत्वों की भूमिका, राजनीतिक अस्थिरता के कारणों का पता लगाना तुलनात्मक राजनीति के अध्ययन का प्रमुख विषय बनकर राजनीतिशास्त्रियों को नई चुनौती दे रहा है। यद्यपि इन देशों की राजनीति का तुलनात्मक अध्ययन करने के लिए नई नई तकनींकें या प्रविधियां प्रयोग में लाई जा रही हैं। विकासशील देशों को राजनीति का अध्ययन करने के लिए राजनीतिक व्यवस्थाओं को पश्चिमी तथा आधुनिक आदि में बांटा गया है। 

मैक्स वेबर ने राजनीतिक व्यवस्था को सामन्तवादी, बुर्जुआबादी एवं सर्वहारा में, कोलमैन ने प्रतियोगात्मक, अर्द्ध-प्रतियोगात्मक तथा सत्तावादी, डाहल ने प्रजातन्त्र, पुरोहिततन्त्र तथा सौदेबाजी आदि में विभाजित किया है। प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्रियों ने राजनीतिक व्यवस्था के तत्त्वों पर भी विचार किया है। ईस्टन ने इन्हें आगत-निर्गत के रूप में बांटा है। कोलमैन व ऐप्टर ने राजनीतिक व्यवस्थाओं के संघटकों पर प्रकाश डालते हुए दक्षिण एशिया, दक्षिण पूर्वी एशिया व निकट पूर्व के राज्यों के बारे में अध्ययन किया है।

आज तृतीय विश्व के विकासशील देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का अध्ययन करने के लिए नए-नए दृष्टिकोण, नए आयाम व नवीन अवधारणाओं का प्रयोग हो रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व की राजनीतिक संरचनाओं व राजनीतिक व्यवहारों की व्यपक स्तर पर तुलनाएं की जा रही हैं। पूर्वी यूरोप और सोवियत संघ में साम्यवाद के पतन ने तुलनात्मक राजनीति को नई चुनौती दी है। पोलैण्ड, रुमानिया, हंगरी, पूर्वी जर्मनी आदि देशों में साम्यवाद के पतन के बाद स्थापित प्रजातांत्रिक व्यवस्थाओं ने तुलनात्मक राजनीति को नई सामग्री दी है। आज तुलनात्मक राजनीति के सामने अनेकों ऐसी समस्याएं हैं, जिन पर वर्तमान उपागमों, तकनीकों व दृष्टिकोणों की प्रासंगिकता की परीक्षा की जा सकती है। यदि ये उपागम व दृष्टिकोण वर्तमान राजनीतिक व्यवस्थाओं के उतार-चढ़ावों को समझने में सफल रहते हैं तो तुलनात्मक राजनीति एक सम्पूर्ण राजनीतिक विश्लेषण का निर्माण कर सकती है और एक स्वतन्त्र अनुशासन के रूप में सम्पूर्णता को प्राप्त कर सकती है।

आज तुलनात्मक राजनीति के सामने यह प्रश्न है कि तुलनात्मक राजनीति की प्रकृति क्या है ? तुलनात्मक अध्ययन क्या है ? तुलनात्मक राजनीति की उपयोगिता क्या है ? इन प्रश्नों के समुचित उत्तर प्राप्त करने के लिए राजनीति-शास्त्री निरन्तर प्रयासरत हैं। आज राजनीतिशास्त्रियों के सामने राजनीतिक व्यवस्थाओं के वर्गीकरण का प्रश्न भी है। वे इस बात का निर्णन करने के लिए प्रयास कर रहे हैं कि कौन-सी व्यवस्था किस उद्देश्य के लाभदायक हो सकती है। आज तुलनात्मक राजनीति के पास मापन इकाई का भी अभाव है। इसके लिए संस्थापक-प्रकार्यात्मक विधि विश्लेषण को उपयोगी बनाने के प्रयास किए जा रहे हैं।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि आज अनेक राजनीतिक विद्वान उपरोक्त प्रश्नों के उत्तर पाने के लिए प्रयासरत हैं, इसलिए तुलनात्मक राजनीति का भविष्य उज्ज्वल दिखाई देता है। आने वाले समय में तुलनात्मक अध्ययन राजनीतिक व्यवहार को समझने में एक सम्पूर्ण राजनीतिक विश्लेषण का निर्माण करने में सफलता प्राप्त करेगा।

2 Comments

Previous Post Next Post