अवसाद एक मानसिक रोग है, इसमें मन और भावनाएँ अस्थिर एवं अधोगामी हो जाती है। इस बीमारी में मानसिक एवं भावनात्मक ऊर्जा का क्षरण होने से व्यक्ति की क्रियाशीलता एवं कार्य करने की शक्ति घटती जाती है। जीवन के आरोह-अवरोह से गुजरते हुए दुःख, अशांति, उदासी, निराशा, अरूचि एवं थकान का उत्पन्न होना स्वाभाविक बात है। अवसादग्रस्त व्यक्ति को कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता है कि हताशा एवं निराशा अकारण ही मन को आच्छादित करती जा रही है। जिससे वह लाचार व दुःखी हो रहा है असफलताएं मनुष्य को परेशान एवं निराश करतीं हैं और लगातार की असफलता से निराशा अत्यधिक गहरी एवं सघन होकर अवसाद का स्वरूप ले लेती है। अवसादग्रस्त व्यक्ति में उत्साहहीनता, थकान एवं निराशा प्रत्यक्ष प्रकट होते है जिसके कारण वह न कही स्थिर हो पाता है और न उसे कुछ अच्छा लगता है। उसे सम्पूर्ण जीवन अंधकारमय प्रतीत होता है।
अवसाद को डिप्रेशन भी कहा जाता है, जो पीड़ादायक मानसिक स्थिति से उत्पन्न होता है। अवसादग्रस्त व्यक्ति की उदासी उसे निष्क्रिय बना देती है तथा चिन्तन शक्ति एवं निर्णय लेने की सामर्थ्य को कमजोर कर देती है।
अवसाद के लक्षण
अब अवसाद ग्रस्त व्यक्ति की पहचान के लिए अवसाद के लक्षणों का ज्ञान प्राप्त करते हैं। कभी-कभी अवसाद स्वतः ठीक हो जाता है, लेकिन जब अवसाद का रोग मन की गहराई में उतर आता हैतो वह रोगी के लिए अनेकानेक जटिल समस्यायें उत्पन्न करता है। अवसादी व्यक्ति में पाये जाने वाले महत्वपूर्ण लक्षण हैं-
1. अवसाद के सांवेगिक लक्षण
- उदासी
- निराशा
- दुःखी रहना
- लज्जालूपना
- दोषभाव
- बेकारी का भाव इत्यादि।
इनसे उदासी का भाव सबसे प्रधान है। ‘‘विषादी रोगियों में से 92 प्रतिशत लोग ऐसे होते हैं, जिन्हें अपनी जिन्दगी में कोई मुख्य अभिरूचि नहीं रह जाती हे तथा 64 प्रतिशत ऐसे होते है, जिनमें दूसरों के प्रति भावशून्यता उत्पन्न हो जाती है।’’
अवसाद ग्रस्त लोग सांवेगिक दृष्टि से अत्यन्त नकारात्मक हो जाते हैं। अवसाद के सांवेगिक लक्षणों में उदासी, निराशा, दु:खी रहना, लज्जालूपन, बेकारी का भाव, दोषभाव इत्यादि प्रमुख है। इन सभी लक्षणों में उदासी सर्वाधिक सामान्य सांवेगिक लक्षण है। मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर बताया है कि अवसाद की स्थिति में कुछ लोग तो इतने ज्यादा उदास एवं दु:खी हो जाते है कि बिना रोये किसी से बात ही नहीं कर पाते है।
अवसाद ग्रस्त रोगी में उदासी के साथ - साथ चिन्ता का भाव भी अत्यन्त प्रधान होता है। ऐसे व्यक्ति की जिन्दगी के प्रति अभिरूचि समाप्त होने लगती है। इन्हें अपना जीवन अपने शौक, परिवार सभी अर्थहीन नजर आते है। जीने की अभिप्रेरणा खत्म होने लगती है। यहाँ तक की दैनिक क्रियाकलाप जैसे भूख, प्यास, नींद, यौन आदि में भी इन्हें कोई रूचि नहीं रह जाती है और इनमें निष्क्रियता का भाव प्रबल होने लगता है।
प्रमुख मनोवैज्ञानिकों क्लार्क, बेक एवं बेक (1994) के अनुसार -अवसाद रोगियों में 92 प्रतिशत ऐसे रोगी देखने को मिलते हैं, जिनकी अपने जीवन में कोई मुख्य अभिरूचि नहीं रह जती है एवं 64 प्रतिशत रोगी ऐसे होते हैं, जिनमें दूसरों के प्रति भावशून्यता उत्पन्न हो जाती है।
2. संज्ञानात्मक लक्षण
मनोवैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह भी बताया है कि अवसाद में रोगी का विचार तंत्र या संज्ञानात्मक क्रियायें नकारात्मक ढंग से बहुत बुरी तरह प्रभावित होती है। अवसादी व्यक्ति का अपने प्रति एवं अपने जीवन के प्रति दृष्टिकोण पूरी तरह नकारात्मक हो जाता है। वह स्वयं को हीन, बेकार एवं अयोग्य समझता है और प्रत्येक कार्य एवं स्थिति में स्वयं में कमियाँ देखता है। उसमें आत्मदोष का भाव प्रबलता से विद्यमान रहता है। ऐसे लोग असफल होने पर उसकी पूरी जिम्मेदारी स्वयं पर लेते हैं। इसके साथ ही अपने भविष्य को लेकर भी इनका दृष्टिकोण उदासी एवं निराशा से भरा होता है और अपनी बातों को सही सिद्ध करने के लिये ये लोगों को विभिन्न तर्क भी देते हैं।
अवसादी लोगों की मानसिकता इस प्रकार की हो जाती है कि इन्हें लगता है, इनकी मानसिक क्षमतायें धीरे - धीरे कम होती जा रही हैं। तब इन्हें कुछ भी ठीक तरह से याद नहीं रहता। ये किसी भी समस्या का समाधान नहीं कर सकते, ठीक प्रकार से निर्णय लेने में भी अक्षम है इत्यादि।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अवसादी व्यक्ति का चिन्तन हर दृष्टि से नकारात्मक होने लगता है।
3. अवसाद के अभिपे्ररणात्मक लक्षण
- अपने दैनिक कार्यो में अभिरूचि का न होना।
- पहल करने की प्रवृत्ति की कमी।
- स्वेच्छा से कार्य करने की प्रवृत्ति का अभाव।
- विषाद इच्छाओं का पक्षाघात है।’’
4. अवसाद के व्यवहारपरक लक्षण
- अत्यधिक अन्तर्मुखी स्वभाव एवं व्यवहार
- अकेले रहने की प्रवृत्ति
- लोगों से नहीं मिलना-जुलना।
- निष्क्रियता इत्यादि।
5. अवसाद के शारीरिक लक्षण
- सिरदर्द
- कब्ज एवं अपच
- छाती में दर्द
- अनिद्रा
- भोजन में अरुचि
- पूरे शरीर में दर्द एवं थकान इत्यादि।
काजेस एवं उनके सहयोगियों के अनुसार -’’अवसादी व्यक्तियों में अन्य दैहिक लक्षणों की तुलना में भूख एवं नींद में कमी या क्षुब्धता प्रमुख होती है।’’
अत: ये स्पष्ट है कि अवसाद ग्रस्त रोगियों को प्राय: अनिद्रा की शिकायत रहती है, किन्तु अवसाद के कुछ ऐसे केस भी देखने में आये हैं, जिनमें रोगियों का बहुत ज्यादा नींद आती हेै, किन्तु ऐसे उदाहरण प्राय: कम देखने को मिलते हैं।
वालेनगर के मतानुसार (1998) - ‘‘ करीब 9 प्रतिशत अवसादी व्यक्ति ऐसे भी होते हैं, जिन्हें नींद काफी आती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि अवसाद ग्रस्त व्यक्तियों में अनेक प्रकार के लक्षण देखने को मिलते हैं, जिनका स्वरूप सांवेगिक, अभिप्रेरणात्मक, संज्ञानात्मक, व्यवहारपरक एवं दैहिक है।
अवसाद की स्थिति में व्यक्ति की मानसिक स्थिति में इतना ज्यादा नकारात्मक परिवर्तन होता है कि इससे उसकी मानसिक क्रियाओं के साथ-साथ समूचा शारीरिक तंत्र एवं व्यवहार भी प्रभावित होने लगता है।
अवसाद के प्रकार
अवसाद या अवसादी विकृति को एक ध्रुवीय अवसाद भी कहा जाता है। मनश्चिकित्सकों एवं मनोरोग विशेषज्ञों ने एकधु्रवीय अवसाद विकृति के दो प्रकार बताये हैं -- डायस्थाइमिक विकृति (Dysthymic Disorder)
- बड़ा अवसादी विकृृति (Major Depressive disorder)
1. डायस्थाइमिक विकृति –
डायस्थाइमिक एक ऐसी विशद विकृति है, जिसमें अवसादी मनोदशा का स्वरूप चिरकालिक होता है अर्थात् रोगी गत कई वर्षों से अवसाद से ग्रस्त रहता है। इसलिये किसी भी अवसादी मनोदशा को डायस्थाइमिक विकृति तभी माना जा सकता है, जब अवसाद के लक्षण व्यक्ति में पिछले कई सालों से मौजूद हों। इस विकृति में ऐसा भी संभव है कि कुछ दिनों के लिये बीच - बीच में व्यक्ति की मनोदशा थोड़ी सामान्य लगे, किन्तु मूलरूप में उनमें अवसादी मनोवृत्ति प्रबल रूप से तब भी बनी रहती है। डायस्थाइमिक रोग में रोगी पूरे दिन अवसादी मनोवृत्ति से ग्रस्त रहते हैं। इन रोग के कुछ प्रमुख लक्षण -- अत्यधिक नींद आना या बहुत कम नींद आना।
- भोजन से संबधित कठिनाईयाँ।
- थकान का लगातार बने रहना।
- निर्णय लेने में कठिनाई।
- एकाग्र न हो पाना।
- उदासी
- निराशा का भाव
- आत्मदोष एवं आत्महीनता का भाव आदि ।
डायस्थाइमिक रोग प्राय: 18 - 64 वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों में देखने को मिलता है। इसके बाद इसका प्रभाव प्राय: कम होते जाता है। यह रोग दूसरी किसी भी मनोदशा विकृति के साथ उत्पन्न हो सकता है। परन्तु प्राय: यह बड़ा अवसादी विकृति (Major Depressive disorder) के साथ अधिक उत्पन्न होते पाया जाता है।
यदि कोई रोगी डायस्थाइमिक रोग के साथ-साथ मुख्य या बड़ा अवसादी विकृति से भी ग्रस्त है तो इसे ‘‘द्वैअवसाद’’ (Double Depression) कहा जाता है, क्योंकि रोगी में दोनों विकृतियों के लक्षण देखने को मिलते हैं। प्रसिद्ध मनोरोग विषेशज्ञ केलर के अनुसार द्वैअवसाद विकृति अनेक लोगों में देखने को मिलती है। डायस्थाइमिक विकृति का प्रारम्भ बाल्यावस्था (Early Adulthood) में कभी भी हो सकता है।
2. बड़ा अवसादी विकृति –
जैसा कि इस रोग के नाम से ही स्पष्ट हो रहा है कि इस विकृति में रोगी एक अथवा एक से अधिक बड़ी अवसादीघटनाओं का अनुभव किया होता है। बड़ी अवसादी घटनाओं से तात्पर्य ऐसी घटनाओं से है, जिनके कारण व्यक्ति इतना अधिक अवसाद ग्रस्त हो जाता है कि वह सभी तरह के कार्यों में अपनी रुचि ओर सुख या खुशी खो चुका होता है।DSM – IV (TR) के अनुसार कोई अवसादी मनोदशा बड़ी अवसादी विकृति है या नहीं इसको जानने के लिये रोगी में लक्षणों में से कम से कम कोई पाँच लक्षण प्रतिदिन दो सप्ताह तक अवश्य दिखाई देने चाहिये -
अवसाद के संबध में हुये विभिन्न अध्ययनों से यह तथ्य भी सामने आया है कि जो लोग बड़ा अवसादी विकृति से ग्रस्त होते हैं, उनमें से करीब 15 प्रतिशत रोगियों में मनोविक्षिप्ति (psychosis) के भी विकसित होने लगता हैं। ऐसे रोगियों में स्थिर व्यामोह (Delusion) एवं विभ्रम (Hallucination) अधिक प्रमुख होता है। मनोविक्षिप्ति के लक्षण से ग्रस्त अवसादी व्यक्ति में अनेक तरह के स्थ्रि व्यामोह उत्पन्न हो जाते हैं।
- उदास तथा अवसादी मनोदशा
- सामान्य और साधारण कार्यो में अभिरूचि तथा आनंद की कमी
- नींद आने में कठिनाई अनुभव करना, बिस्तर पर लेटने पर बहुत देर तक नींद न आना, रात में बीच में नींद खुल जाने पर फिर नींद न आना, सुबह जल्दी नींद खुल जाना अथवा कुछ रोगियों में इनके विपरीत बहुत ज्यादा नींद आना।
- क्रिया स्तर में बदलाव। जैसे उत्तेजन अथवा सुस्ती का अनुभव करना।
- भूख कम लगना एवं शारीरिक भार में कमी अथवा इसके विपरीत अधिक भूख लगना या शारीरिक वजन का बढ़ना।
- शक्ति या उर्जा की कमी एवं थकान अनुभव करना।
- नकारात्मक आत्म - संप्रत्यय, (Negative Self- Concept) अपने पर दोषारोपण करने की प्रवृत्ति, दोष - भाव (Guilt feeling) तथा अयोग्यता का भाव।
- एकाग्रता में कठिनाई , मंदचिन्तन एवं निर्णय न ले पाना।
- आत्महत्या की प्रवृत्ति
अवसाद के संबध में हुये विभिन्न अध्ययनों से यह तथ्य भी सामने आया है कि जो लोग बड़ा अवसादी विकृति से ग्रस्त होते हैं, उनमें से करीब 15 प्रतिशत रोगियों में मनोविक्षिप्ति (psychosis) के भी विकसित होने लगता हैं। ऐसे रोगियों में स्थिर व्यामोह (Delusion) एवं विभ्रम (Hallucination) अधिक प्रमुख होता है। मनोविक्षिप्ति के लक्षण से ग्रस्त अवसादी व्यक्ति में अनेक तरह के स्थ्रि व्यामोह उत्पन्न हो जाते हैं।
उदाहरण के तौर पर, जैसे , ‘‘मेरी गलती से वह बीमार पड़ी है या पड़ा है’’ अथवा रोगी को यह विश्वास हो सकता है कि वह अपनी मृत पत्नी को देख रहा है, इत्यादि। कुछ रोगी ऐसे होते है जिनमें बड़ी अवसादी घटनाओं के अनुभव का एक इतिहास भी देखने को मिलता है। इसे ‘‘आवृत्त बड़ा
विषादी विकृति (Decurrent major depressive disorder) का नाम दिया गया है। बड़ा या प्रमुख अवसादी विकृति का स्वरूप कभी -कभी मौसमी भी होता है। जिसमें मौसम या ऋतु में बदलाव आने पर जैसे -सर्दी से गर्मी की ऋतु आना या गर्मी से सर्दी की ऋतु आना । व्यक्ति में अवसाद को उत्पन्न कर सकता है।
इस रोग का स्वरूप कभी - कभी कैटेटोनिक (Catatonic) भी हो सकता हैै, जिसमें अवसादी अनुभूति उत्पन्न होने पर रोगी कभी तो अत्यधित पेशीय गतिहीनता दिखलाता है। इसका स्वरूप पोस्टपार्टम (Postpartum) भी हो सकता है। जिसमें बच्चे में पैदा होने के चार सप्ताह के अन्दर ही अवसादी अनुभूति होने लगती है। इस रोग का स्वरूप विषादप्रषण (Malancholic) भी हो सकता है।
इसमें रोगी किसी भी सुखकारी घटना से प्रभावित नहीं होता है, सुबह के समय विषादी मनोदशा अधिक रहती है। उसमें महत्वपूर्ण पेशीय क्षुब्धता देखने को मिलती है। सुबह नींद भी जल्दी खुल जाती है। भूख कम लगती हैै एवं दोषभाव (Guiltfelling) अत्यधिक उत्पन्न हो जाता है।
अवसाद के कारण
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक स्कूइलर का मत है कि निम्न चार ऐसे कारक है जो इस बात का संकेत करते हैं कि अवसाद जैविक कारणों से होता है -
- स्त्रियों में स्वाभाविक रूप से होने वाले शारीरिक परिवर्तन की अवधि जैसे कि बच्चा होने के बाद अथवा मासिक स्राव प्रारम्भ होने के पहले स्वत: ही अवसाद की शुरूआत होती है।
- भिन्न - भिन्न संस्कृतियों, उम्र, यौन तथा प्रजातियों के व्यक्तियों में अवसाद में लगभग समान लक्षण देखने को मिलते हैं। जो इसके जैविक आधार को पुष्ट करते हैं।
- अवसाद के उपचार हेतु जैविक चिकित्सा का प्रयोग भी किया जाता है। जैसे-ट्रीसाइक्लिक एन्टीडीप्रेसैन्ट, सिरोटोनिन रिऊप्टेक इन्हीबिटर्स, विद्युतआक्षेपी आघात आदि।
- कुछ दवाईयाँ ऐसी हैं, जिनका उपयोग करने से व्यक्ति में अवसाद उत्पन्न हो जाता है। जैसे रिसरपाइन (Reserpine) एक ऐसी दवा है, जिसका उपयोग उच्च रक्तचाप को कम करने के लिये किया जाता है, किन्तु इसके पाश्र्वप्रभाव (Side effect) के रूप में व्यक्ति में अवसाद के लक्षण भी दिखाई देने लगते हैं।
अवसाद के कारकों से सम्बद्ध मनोगतिकी विचारधारा का प्रारम्भ फ्रायड एवं उनके शिष्य कार्ल अब्राहम से माना जाता है।
इनके अनुसार अवसाद किसी प्रकार की हानि के प्रति एक प्रतिक्रिया है। जब व्यक्ति से उसकी कोई प्रिय वस्तु, व्यक्ति, स्थान आदि दूर हो जाता है अर्थात् उसकी हानि हो जाती है। तो इससे उसमें अवसाद के लक्षण उत्पन्न होने लगते हैं।
फ्रायड के मतानुसार इसका प्रारम्भ बीजरूप में बाल्यावस्था से ही हो जाता है। फ्रायड का कहना है कि व्यक्तित्व विकास की मुखावस्था (Oral period) में किसी बच्चे की आवश्यकताओं की पूर्ति बहुत ज्यादा भी हो सकती है और बहुत कम भी। इसके परिणामस्वरूप व्यक्ति इस अवस्था पर अवस्थ अवस्थित (fixed) हो जाता है तथा इससे सम्बद्ध आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अधिकांश समय अपने आप पर निर्भर किये रहता है। जिसके कारण मनोलैंगिक परिपक्वता (Psychosexuel maturation) का विकास अवरूद्ध हो जाता है तथा वह अपने आत्म सम्मान को बनाये रखने के लिये दूसरों पर निर्भर रहने लगता है।
आपके मन में यह जिज्ञासा उत्पन्न हो रही होगी कि बचपन की इस घटना से वयस्कावस्था में अवसाद किस तरह उत्पन्न होता है। इस जिज्ञासा का समाधान यह है कि जब ऐसे लोगों को वयस्कावस्था में अपने किसी प्रियजन या प्रियवस्तु स्थान हॉनि की क्षति होती है तो ऐसे लोग पुन: अपनी बचपन की मुखावस्था में प्रतिगमित (Regress) हो जाते हैं और इस अवस्था में प्रतिगमित होने के उपरान्त ऐसे व्यक्ति की पहचान उस व्यक्ति के साथ एकीकृत हो जाती है, जिससे वह दूर हो जाता है अथवा खो चुका होता है।
कहने का आशय यह है कि ऐसा व्यक्ति अपने प्रियजन को स्वयं के आत्मन (Self) के साथ आत्मसात ( Infroject) कर लेता है और ऐसी स्थिति में उसके मन में जैसी भावनायें एवं विचार अपने प्रियजन के प्रति थे, वैसे भाव एवं विचार अपने प्रति हो जाते है। ऐसा भी देखने में आया है कि कुछ लोगों
में अचेतन की सम्पूर्ण प्रक्रिया थोड़े समय के लिये बनी रहती है और फिर बाद में व्यक्ति अपनी एक अलग-स्वतंत्र पहचान बना कर अपने सामाजिक संबधों को फिर स्थापित कर लेता है, किन्तु कुछ लोग ऐसा करने में सक्षम नहीं हो पाते है, जिसके कारण अचेतन की यह प्रक्रिया उनमें बहुत अधिक जटिलतायें उत्पन्न कर देती है और वे धीरे-धीरे अवसादी प्रकृति से ग्रस्त होने लगते है।
फ्रायड एवं अब्राहम के अनुसार प्रियजन या प्रियवस्तु अथवा स्थान की क्षति होने पर मुख्य रूप से दो प्रकार के लोग आत्मसात एवं अवसाद से सबसे ज्यादा प्रभावित होते हैं, प्रथम वे लोग जिनके माता-पिता मुखावस्था के दौरान उनकी परिपोषण आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाते हैं तथा द्वितीय ऐसे बच्चे जिनकी आवश्यकताओं की पूर्ति जरूरत से ज्यादा की गई हो। इसका परिणाम यह होता है कि जिन बच्चों की आवश्यकताओं की पूर्ति समुचित रूप से नहीं होती है, वे जिन्दगी भर दूसरों पर निर्भर रहते हैं, इनमें आत्म-सम्मान का अभाव होता है, जिसकी वजह से ये स्वयं को दूसरों का प्यार, स्नेह पाने योग्य नहीं समझते हैं।
दूसरी तरफ जिन बच्चों ककी आवश्यताओं की पूर्ति की जरूरत से ज्यादा हुयी होती है, वे मुखावस्था को इतना अधिक सुखकारी समझते है कि अपने जीवन में अन्य अवस्थाओं की ओरे आगे बढ़ने की इच्छा ही नहीं करते। वैममारैड (1992) का मत है कि ये दोनों तरह के लोग पूरे जीवन दूसरों का प्यार तथा अनुमोदन (Approval) प्राप्त करने के लिये कड़ी मेहनत करते रहते हैं। किसी प्रियजन के दूर होने पर ऐसे व्यक्तियों में हॉनि का अत्यन्त तीव्र भाव उत्पन्न होता है। और इनसे अलग हो जाने के लिये अथवा इन्हें छोड़कर चले जाने के लिये इन प्रियजनों के प्रति अत्यधिक क्रोधभाव भी उत्पन्न होने लगता है।
इस संबध में एक प्रश्न यह उठता है कि जिन लोंगों को प्रियजन या प्रियवस्तु की हॉनि नहीं हुयी होती है, उनमें अवसाद क्यों और कैसे उत्पन्न होता है। इसका समाधान करने के लिये फ्रायड ने सांकेतिक (Symbolic) अथवा काल्पनिक (Imagined) क्षति के सम्प्रत्यय का प्रतिपादन किया। उदाहरण के तौर पर जिन व्यक्तियों की नौकरी छूट जाती है, उनको अचेतन रूप से ऐसा अनुभव हो सकता है कि अपनी पत्नी से अच्छे संबध के टूटने क समान है क्योंकि नौकरी छूट जाने से पत्नी उन्हें बेकार का आदमी समझने लगेगी।
कुछ समय बाद नये मनोगतिकी सिद्धान्त वादियों ने फ्रायड एवं अब्राहम द्वारा दिये गये सिद्धान्त में कुछ संशोधन किया। जैसे - कोहेन एवं उनके सहयोगियों (1954) ने अवसाद में व्यक्ति द्वारा स्वयं के प्रति ईश्र्या अथवा क्रोध भाव का अनावश्यक करार दिया। इसी प्रकार विबरिंग (1953) एवं जैकोबसन (1971) ने अवसाद में फ्रायड द्वारा मुखावस्था स्थायीकरण पर दिये गये का उपयुक्त नहीं माना तथा इन्होंने अवसाद की व्याख्या मुखावस्था एवं लिंगप्रधानावस्था दोनों की समस्याओं के साथ जोड़कर की।
इस संबध में एक प्रश्न यह उठता है कि जिन लोंगों को प्रियजन या प्रियवस्तु की हॉनि नहीं हुयी होती है, उनमें अवसाद क्यों और कैसे उत्पन्न होता है। इसका समाधान करने के लिये फ्रायड ने सांकेतिक (Symbolic) अथवा काल्पनिक (Imagined) क्षति के सम्प्रत्यय का प्रतिपादन किया। उदाहरण के तौर पर जिन व्यक्तियों की नौकरी छूट जाती है, उनको अचेतन रूप से ऐसा अनुभव हो सकता है कि अपनी पत्नी से अच्छे संबध के टूटने क समान है क्योंकि नौकरी छूट जाने से पत्नी उन्हें बेकार का आदमी समझने लगेगी।
कुछ समय बाद नये मनोगतिकी सिद्धान्त वादियों ने फ्रायड एवं अब्राहम द्वारा दिये गये सिद्धान्त में कुछ संशोधन किया। जैसे - कोहेन एवं उनके सहयोगियों (1954) ने अवसाद में व्यक्ति द्वारा स्वयं के प्रति ईश्र्या अथवा क्रोध भाव का अनावश्यक करार दिया। इसी प्रकार विबरिंग (1953) एवं जैकोबसन (1971) ने अवसाद में फ्रायड द्वारा मुखावस्था स्थायीकरण पर दिये गये का उपयुक्त नहीं माना तथा इन्होंने अवसाद की व्याख्या मुखावस्था एवं लिंगप्रधानावस्था दोनों की समस्याओं के साथ जोड़कर की।
जैकोबसन के मानुसार व्यक्ति में आत्म - सम्मान की कमी एकध्रुवीय अवसाद उत्पन्न होने का प्रमुख कारण है।
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिकक लेविनसोन ने अवसाद की उत्पत्ति के संबध में व्यवहारवादी विचारधारा की व्याख्या की है। इनके अनुसार कुछ लोगों में पुरस्कार या पुनर्बलन मूल्य शनै: शनै: कम होने लगता है एवं तब ऐसे लोग धनात्मक व्यवहार करने के लिये कम से कम प्रेरित होते है। परिणामस्वरूप उनकी कार्य करने की शैली विषादी होने लगती है। कहने का अर्थ यह है कि जब ऐसे व्यक्तियों की सक्रियता के स्तर में कमी होने लगती है तो इससे पुरस्कार या पुनर्बलन की संख्या भी धीरे - धीरे कम होने लगती है। इसके कारण उनमें अवसाद की प्रवृत्ति और प्रबल हो जाती है। इस विचारधारा का एक उपसिद्धान्त यह भी माना गया है कि दंडात्मक अनुभूतियाँ अधिक होने के कारण भी व्यक्ति अवसादग्रस्त होने लगता है। इसके पीछे कारण यह है कि इनु दु:खदायी अनुभूतियों के कारण व्यक्ति पुरस्कार मिलने वाली क्रियाओं की सुखम अनुभूति नहीं कर पाता है।
इस प्रकार व्यवहारवादी विचारधारा के अनुसार अवसाद को अनुक्रिया-आधृत-धनात्मक पुनर्बलन ( Response contingent positive reinforcement) का परिणाम माना जाता है। लेविनसोन तथा अन्य व्यवहारवादियों का यह भी मानना है कि समाजिक पुनर्बलन अपेक्षाकृत अधिक महत्वपूर्ण होता है तथा अवसादग्रस्त लोग अविषादी लोगों की तुलना में कम धनात्मक सामाजिक पुनर्बलन अनुभव करते हैं। जैसे-जैसे व्यक्ति की मनोदशा में सुधार होते जाता है, वैसे-वैसे धनात्मक सामाजिक पुनर्बलन की संख्या में भी अभिवृद्धि होने लगती है।
व्यवहारवादियों ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाले हैं कि अवसादी लोग दूसरों को जल्दी क्रोधित कर देते हैं, इनके मित्र कम होते हैं, दूसरे व्यक्ति इन्हें तिरस्कृत करते हैं, इनको अन्तवर्ैयक्तिक समर्थन कम मिलता है तथा दु:खद सामाजिक अन्त:क्रियाअेां की अनुभूति तुलनात्मक रूप से अधिक होती है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यवहारवादी विचारधारा एक वैज्ञानिक विचारधारा है। जिसकी उपयोगिता आज भी बनी हुयी है।
इस प्रकार स्पष्ट है कि व्यवहारवादी विचारधारा एक वैज्ञानिक विचारधारा है। जिसकी उपयोगिता आज भी बनी हुयी है।
वर्तमान समय में अवसाद के कारणों को लेकर जितनी भी विचारधारायें प्रचलित हैं, इन सभी में संज्ञानात्मक विचारधारा सर्वाधिक लोकप्रिय है। इस विचारधारा के अनुसार अवसाद का प्रमुख कारण व्यक्ति के विचारतंत्र का विकृत होना है अर्थात् स्वयं के प्रति, अपने भविष्य के प्रति तथा अपने आस - पास के वातावरण, परिस्थितियों के प्रति जब व्यक्ति का दृष्टिकोण नकारात्मक होने लगता है तो वह धीरे - धीरे अवसादी मनोवृत्ति से ग्रसित होने लगता है।