राष्ट्रीय हित क्या है राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के लिए अनेक साधन अपनाये जा सकते हैं?

राष्ट्रीय हित अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति के अध्ययन की महत्वपूर्ण धारणाओं में से एक है। राष्ट्र हमेशा अपने राष्ट्रीय हितों के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए क्रिया तथा प्रतिक्रिया करते हैं। राष्ट्रीय हित विदेश नीति के निर्माण का आधार बनते हैं। विदेशों से सम्बन्ध भी राष्ट्रीय हित को सम्मुख रख कर ही बनाए जाते हैं। प्रत्येक राज्य अपनें राष्ट्रीय हितों के आधार पर ही अपने कार्यों को न्याय संगत ठहराने तथा हितों की प्राप्ति का प्रयत्न करता है। राज्यों के व्यवहार का अध्ययन हमारे लिये राष्ट्रीय हित की धारणा का अध्ययन आवश्यक बना देता है।

राष्ट्रीय हित की परिभाषा

‘राष्ट्रीय हित’ अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की एक आधारभूत धारणा है। राष्ट्र सदा ही अपने राष्ट्रीय हितों के उद्देश्यों को पूरा करने की प्रक्रिया में संलिप्त रहते हैं। प्रत्येक राज्य की विदेश नीति इसके राष्ट्रीय हितों के आधार पर बनाई जाती है तथा यह हमेशा अपने उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए कार्यशील रहती है। अपने राष्ट्रीय हितों के उद्देश्यों को प्राप्त करना प्रत्येक राज्य का सार्वभौमिक अधिकार है। प्रत्येक राज्य राष्ट्रीय हितों के आधार पर ही अपने कार्यों को उचित ठहराने का प्रयत्न करता है। प्रत्येक राज्य का व्यवहार भी हमेशा इसके राष्ट्रीय हितों द्वारा संचालित होता है। 

1. मार्गेन्थो के शब्दों में, ‘‘यह केवल राजनीतिक आवश्यकता ही नहीं बल्कि प्रत्येक राष्ट्र का नैतिक कर्तव्य भी है कि वह दूसरे राज्यो के साथ व्यवहार के समय, एक ही मार्गदर्शक, एक ही विचार स्तर, एक ही कार्य करने के नियम - ‘राष्ट्रीय हित’ को अपनाए। विदेश नीतियों के निर्माण, तथा कार्यान्विति में जो भूमिका राष्ट्रीय हित अदा करते हैं उसे इन दोनों कथनों में अच्छी तरह बताया गया है और इस तरह हम देखते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में इसकी भूमिका महत्वपूर्ण है।

2. कोलम्बिस तथा बुल्पफ लिखते हैं कि ‘‘अपनी अस्पष्टता के बावजूद, राष्ट्रीय हित की अवधारणा, अन्तर्राष्ट्रीय व्यवहार की व्याख्या करने, इसके प्रति कोई भविष्यवाणी करने, इसका वर्णन करने के केन्द्रीय महत्व की अवधारणा है।’’
 
3. राष्ट्रीय हित पर मार्गेन्थों के विचार - मार्गेन्थो राष्ट्रीय हित को राष्ट्र की तर्कसंगत विदेश नीति का आधार मानते हैं, तथा इसकी परिभाषा शक्ति के रूप में देते हैं। वह राष्ट्रीय हित की अवधारणा की अमूर्त तथा विशाल रूप से देखते हैं। अपनी कृति में मार्गेन्थो लिखते हैं ‘‘राष्ट्रीय हित की अवधारणा सर्वजन हित तथा उचित प्रक्रिया में संविधान जैसी है। अवधारणा में निहित अर्थ का अवशेष इसमें अन्तविष्ट है तथा इसके अतिरिक्त यह उन सभी तरह के अर्थों के लिए है जो तर्कसंगत रूप में इसके अनुरूप होते हैं। यह राजनीतिक परम्पराओं तथा सम्पूर्ण सांस्कृतिक संदर्भों द्वारा, जिसमें एक राष्ट्र विदेश नीति का निर्माण करता है, निर्धारित होते हैं।’’

मार्गेन्थों राष्ट्रीय हितों की परिभाषा देने के लिए एक पेचीदा रास्ता अपनाते हैं। वह दो भागों में राष्ट्रीय हित की अवधारणा देते हैं: पहला, ऐसा हित जिसकी तर्कसंगत आवश्यकता है और नितान्त आवश्यक है, तथा दूसरा, परिस्थितियों द्वारा निर्धारित परिवर्तनशील हित।

राष्ट्रीय हित के तत्व

1. शक्ति - किसी भी राष्ट्र के लिए अपने राष्ट्रीय उद्देश्यों की प्राप्ति या अपने हितों की सुरक्षा के लिए शक्तिशाली होना और अपनी शक्ति को बढ़ाते रहना बहुत आवश्यक है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की आधारशिला यह शक्ति ही है। इससे देश की आन्तरिक ओर बाह्य समस्याओं से प्रभावशाली ढंग से निपटा जा सकता है।

2. शान्ति - राष्ट्र में जहां अपनी सुरक्षा के लिए शक्ति की आवश्यकता है वहीं दूसरी ओर चहुँमुखी विकास करने के लिए शान्ति की आवश्यकता होती है। आन्तरिक शान्ति राष्ट्र को अन्दर से मजबूत करने में सहयोग देती है। शान्ति के समय राष्ट्र अपने संसाधनों का भरपूर उपयोग करता है लगातार अशान्ति से राष्ट्रों का विकास अवरूद्ध हो जाता है और कमजोर बन जाते हैं। ऐसी स्थिति में वे न तो स्वयं के हितों की रक्षा कर पाते हैं और न ही दूसरे राष्ट्रों से प्रतिस्पर्धा कर पाते हैं।

3. सांस्कृतिक एकता की रक्षा -
सांस्कृतिक एकता भी राष्ट्र के हितों के लिए आवश्यक है। यद्यपि यह एक सहायक तत्व मात्र है पिफर भी संस्कृति देश के नागरिकों को आपस में जोड़कर उनमें एकता का भाव जगाती है। यह एक प्रकार से राष्ट्र की परम्पराओं की रक्षा करने की विचारधारा है।

4. आर्थिक समृद्धि - एक राष्ट्र के राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा में आर्थिक समृद्धि को बहुत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यदि आर्थिक रूप से राष्ट्र सम्पन्न है तो राष्ट्र में शक्ति स्वयं ही आ जाती है जिससे राष्ट्र की राजनीतिक स्थिति सुदृढ़ होती है। राष्ट्र जैसे-जैसे आर्थिक रूप से उन्नति करता जाता है वैसे-वैसे ही उसकी प्रतिष्ठा अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में बढ़ती जाती है।

5. नेतृत्व - यथा राजा तथा प्रजा की उक्ति बहुत प्राचीन है। इसका अर्थ है कि नेतृत्व पर सभी कुछ निर्भर करता है। दोनों ही क्षेत्रों में चाहे सैन्य सेवा का क्षेत्र या सामान्य राजनीतिक क्षेत्र दोनों में ही नेतृत्व उच्च पदस्थ अधिकारियों की योग्यता राष्ट्रीय हितों की रक्षा कर पाने या न कर पाने के लिए बहुत सीमा तक उत्तरदायी रहती है। उनके अविवेकपूर्ण निर्णयों से जहां राष्ट्रीय हितों को भारी हानि पहुँच सकती है वहीं विवेकपूर्ण निर्णयों से राष्ट्र उन्नति करता है।

राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के साधन

राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि के लिए अनेक साधन अपनाये जा सकते हैं।

1. यथास्थिति की नीति अपनाना - इसमें साधारणतया राष्ट्र युद्ध के बाद आयी हुई शान्ति की स्थिति को बनाये रखने के पक्ष में होते हैं। इसमें युद्ध के पश्चात् की जाने वाली सन्धियां या समझौते को मानना होता है जिससे शान्ति बनी रहे और शक्ति सन्तुलन की स्थिति को प्राप्त किया जा सके। परन्तु कुछ राष्ट्र इसे अपने राष्ट्रीय हितों पर कुठाराघात समझकर अस्वीकार कर देते हैं।

2. साम्राज्यवाद की नीति - राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि का एक साधन साम्राज्यवाद है। इसके अन्तर्गत एक राष्ट्र अपनी शक्ति के माध्यम से या विचारधारा के प्रभाव से विश्व के अन्य राज्यों पर अपना प्रभाव स्थापित कर लेता है। इस प्रकार उपनिवेश बना लिये जाते हैं। साम्राज्यवादी देश इन उपनिवेशों का शोषण करके अपने आर्थिक, राजनीतिक हितों को प्राप्त करता है। परन्तु वर्तमान में उपनिवेश समाप्त हो रहे हैं, मुक्ति आंदोलनों के कारण इनका अस्तित्व मिट रहा है। परन्तु अब उपनिवेश का एक नया रूप उभर रहा है, या तो आर्थिक सहायता देकर उन्हें आर्थिक रूप से अपने अधीन किया जा रहा है या सैनिक सामान की सहायता देकर या अपने सैनिक अड्डे बनाकर कमजोर राष्ट्र को अपने अधीन किया जा रहा है। ये सैनिक अड्डे कमजोर राष्ट्रों की राजनीतिक गतिविधियों को प्रभावित भी करते हैं। दियोगोगार्सिया पर अमरीकी नौसैनिक एवं हवाई अड्डा इसी के प्रतीक हैं। इसी प्रकार अमरीका ने पाकिस्तान में भी अपनी सैनिक उपस्थिति दर्ज करायी है। इसी प्रकार सोवियत रूस ने भी 1991 तक अपने प्रभाव को बनाने का ही मार्ग अपनाया, परन्तु सोवियत संघ ने बिखराव से यह स्थिति बदल गयी। साम्राज्यवाद का एक और नया रूप सामने आया है। इसको सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कहा जाता है। सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का उद्देश्य भू-क्षेत्रों की विजय अथवा आर्थिक जीवन पर नियंत्रण नहीं होता, बल्कि लोगों के मस्तिष्कों पर विजय प्राप्त कर उन्हें प्रभाव में रखना होता है जिससे उनके माध्यम से दो राष्ट्रों के बीच शक्ति सम्बन्धों को पलट दिया जाये

3. कूटनीति - राष्ट्रीय हितों की प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन कूटनीति है। पैडलपफोर्ड और लिंकन के शब्दों में, ‘‘कूटनीति को प्रतिनिधित्व एवं सौदेबाजी की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जिसके द्वारा परम्परागत रूप से शांतिकाल में राज्यों का परस्पर सम्बन्ध कायम रहता है।’’ कूटनीति के माध्यम से युद्ध लड़े बिना ही राष्ट्र अपने राष्ट्रीय हितों का संरक्षण तथा इसमें अभिवृद्धि कर सकते हैं। कूटनीति के द्वारा एक देश की विदेश नीति दूसरे देश तक पहुंचती है। कूटनीति के माध्यम से एक देश के कूटनीतिज्ञ दूसरे देशों के नीति-निर्माताओं और कूटनीतिज्ञों से सम्बन्ध स्थापित करते हैं तथा राष्ट्रीय हितों के इच्छित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए समझौता वार्ता चलाते हैं। कूटनीतिज्ञों की समझौता वार्ताएं विरोध सुलझाव करने तथा राष्ट्र के भिन्न-भिन्न उद्देश्यों के मेल-मिलाप का प्रभावशाली साधन हैं। पारस्परिक दो या लो समायोजना तथा मेल मिलाप आदि द्वारा राष्ट्रीय हितों के इच्छित उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए कूटनीति द्वारा प्रयत्न किया जाता है।

4. आर्थिक उपकरण - पामर एवं पर्किन्स ने आर्थिक उपकरणों को परिभाषित करते हुए लिखा है, ‘‘राष्ट्रीय उद्देश्यों की अभिवृद्धि के लिए जब आर्थिक नीतियों का निर्माण किया जाता है - चाहे वह दूसरे राज्यों को हानि पहुंचाने के लिए हो अथवा नहीं - वे राष्ट्रीय नीति के आर्थिक उपकरण मानी जाती हैं।’’ आर्थिक उपकरण राष्ट्रीय हितों की अभिवृद्धि में गहरा स्थान रखते हैं। आर्थिक नीतियों द्वारा अपनी शक्ति का उत्थान किया जाता है तथा शत्रु को हतोत्साहित किया जाता है अथवा अन्य राष्ट्रों के हितों को अस्वीकार कर दिया जाता है। भारत जैसे विकासशील देश भी छोटे तथा अविकसित देशों में अपने हितों को प्राप्त करने के लिए इन साधनों पर निर्भर करते हैं। 

ओ. पी. ई. सी. देश मध्य पूर्व में अपने हितों का समर्थन प्राप्त करने के लिए तेल निर्यात को एक साधन के रूप में मानते है। इस तरह आर्थिक साधन राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का महत्वपूर्ण उपकरण हैं। 

5. प्रचार - प्रचार शब्द का अर्थ है कि वे कार्य जो किसी दूसरे व्यक्ति को अपना पक्ष समझाने तथा उसके अनुकूल आचरण कराने के लिए किये जाते हैं। 

6. युद्ध - युद्ध को परिभाषित करते हुए क्विन्सी राइट ने कहा है, ‘‘युद्ध व्यापक अर्थ में स्पष्टत: भिन्न किन्तु एक सी इकाइयों के बीच हिंसापूर्ण टकराव है।’’ युद्ध के सीमित अर्थ को स्पष्ट करते हुए क्विन्सी राइट का मत है, इसका अभिप्राय उस कानूनी स्थिति से है जो दो या उससे अधिक विरोधी समुदायों को सशस्त्र सेनाओं के माध्यम से संघर्ष के संचालन की समान रूप से अनुमति प्रदान करती है।’’ 

7. गठबन्धन तथा सन्धियां - गठबन्धन तथा सन्धियां दो या दो से अधिक देशों द्वारा अपने हितों की प्राप्ति के लिए की जाती हैं। समझौते या सन्धियां को स्वीकार करने वाले राष्ट्रों का यह कानूनी कर्तव्य है कि वे साझे हितों के लिए कार्य करें। कोई भी समझौता इसके सम्बन्धित देशों के उद्देश्य पर निर्भर करता है। ये उद्देश्य सैन्य अथवा आर्थिक हितों से जुडे़ हो सकते हैं। 

उदाहरण के लिए बढ़ते हुए साम्यवादी संकट के विरूद्ध पूंजीवादी लोकतात्रिंक राष्ट्रों की सुरक्षा की आवश्यकता ने अनेक सैनिक समझौतों जैसे - NATO, SEATO, CENTO आदि को जन्म दिया। इसी प्रकार समाजवाद को संकट में देखकर साम्यवादी देशों के मध्य WARSAW PACT बना था। दूसरे महायुद्ध के पश्चात् यूरोप के आर्थिक पुननिर्माण की आवश्यकता ने यूरोप के साझा बाजार या यूरोप का आर्थिक समुदाय जैसी संस्थाओं को जन्म दिया। 

भारत ने अपनी आवश्यकतानुसार 1971 में सोवियत संघ के साथ शान्ति, मित्रता तथा सहयोग की संन्धि की। इस प्रकार गठबन्धन तथा संधियां राष्ट्रीय हितों को प्राप्त करने का लोकप्रिय साधन रही हैं।

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